पूर्वोत्तर भारत में आरएसएस की घुसपैठ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उत्तर-पूर्व भारत में एक हजार शाखाएं स्थापित कर चुका है. सुब्राता विश्वास/हिंदुस्तान टाइम्स

{एक}

उत्तरपूर्व भारत में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ का इतिहास 1946 से आरंभ होता है. उसी साल अक्टूबर में दादाराव परमार्थ, वसंत राव ओक और कृष्ण प्रांजपे ने पहली बार असम प्रांत में कदम रखा. उस वक्त आज के पूर्वोत्तर का अधिकांश भाग असम प्रांत में शामिल था. संघ के इन तीनों प्रचारकों ने गुवाहाटी, डिब्रूगढ़ और शिलांग में पहली शाखाएं खोलीं जहां उनके द्वारा भर्ती किए लोग प्रतिदिन एकत्र होते थे.

आरएसएस के अनुयायी नाथूराम गोडसे द्वारा 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या किए जाने के बाद संगठन पर सम्पूर्ण भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया था. अगले साल जब प्रतिबंध हटाया गया तो आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने ठाकुर राम सिंह को संगठन के काम के निरीक्षण के लिए असम भेजा. सिंह की भूमिका वहां 1971 तक रही.

1975 तक असम के प्रत्येक जनपद में शाखा कायम हो चुकी थी. असम आरएसएस के प्रचार प्रमुख शंकर दास के अनुसार आज उत्तर असम प्रान्त में 813 शाखाएं हैं. आरएसएस की प्रशासनिक इकाई की आंतरिक व्यवस्था के मुताबिक इस इकाई में ब्रह्मपुत्र घाटी, नागालैंड और मेघालय शामिल हैं. त्रिपुरा अलग प्रान्त है, इसमें 275 शाखाएं हैं. मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश भी अलग अलग प्रान्त हैं और हर एक में कई दर्जन शाखाएं हैं. बराक घाटी के अंतर्गत आने वाला उत्तर भारत का मिजोरम मात्र ऐसा प्रान्त है जहां एक भी शाखा नहीं है. दास ने मुझे बताया कि वहां शाखा स्थापित करने का काम चल रहा है.

उन्होंने मुझे बताया कि संघ परिवार की शाखाओं और आरएसएस में निष्ठा रखने वालों के माध्यम से “फिलहाल हम समाज सेवा में लगे हुए हैं”. इसमें आदिवासियों तक पहुंच बनाने की जिम्मेदार वनवासी कल्याण आश्रम और आरएसएस की महिला शाखा राष्ट्र सेविका समिति हैं.

संघ परिवार की “समाज सेवाएं” पूरे क्षेत्र में दूर-दूर तक फैली हुईं और नागरिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हैं. इसके अलावा जो कुछ भी करें, उनका सुसंगत उद्देश्य आरएएसएस के हिंदू राष्ट्रवाद के संस्कारों का प्रचार करना है. 1950 में जब भूकंप ने क्षेत्र में तबाही मचाई तो संघ ने बचे हुए लोगों की सहायता की थी. 1988 में स्थापित सेवा भारती पूर्वांचल जैसी कल्याणकारी संस्था आज भी पूर्वोत्तर के गरीबों के बीच काम करती है.

दास ने मुझे बताया कि क्षेत्र में करीब 7000 एकल विद्यालय हैं. संघ एक अध्यापक वाले स्कूल (एकल विद्यालय) चलाता है, जो दूरवर्ती क्षेत्रों के गरीबों को निःशुल्क “पवित्र” शिक्षा देते हैं इनमें राष्ट्रवाद और पारिवारिक संस्कारों पर बल दिया जाता है. विश्व हिंदू परिषद भी असम के हफलांग कस्बे में आवासीय स्कूल चलाता है. संघ हजारों छात्रों को भारत के मुख्य भू-भाग में भेजने में सहायता करता है. इनमें से कुछ संघ संचालित संस्थानों में जाते हैं और अन्य संघ छात्रावासों में रहकर सरकारी स्कूलों में पढ़ाई करते हैं. दास का दावा था कि इन छात्रों में से बहुत से “सरकार में उच्च अधिकारी बन जाते हैं”. उनमें से बहुत से घर वापस आने के बाद आरएसएस के कार्यकर्ता भी हो जाते हैं.

दशकों तक विपरीत परिस्थितियों में बहुत धीमी गति से इस तरह के काम चलते रहे. पूर्वोत्तर में विस्तार कर पाना आरएसएस के लिए आसान नहीं था. जनसंख्या के हिसाब से इस क्षेत्र में जितनी विविधता है शायद ही दुनिया के किसी अन्य क्षेत्र में हो और इसकी कई प्राचीन संस्कृतियों व धर्मों का संघ के प्रिय हिंदुत्व से बहुत कम या बिल्कुल भी संबंध नहीं है. पिछली शताब्दी में क्षेत्र के सामाजिक स्वरूप में तेजी से बदलाव आया, बहुत से लोगों ने अपनी पारंपरिक आस्थाओं और तौर तरीकों को पीछे छोड़ दिया. लेकिन बदलाव की दिशा आरएसएस की पंसद के अनुरूप नहीं है.

2011 की जनगणना के अनुसार पूर्वोत्तर में हिंदुओं की आबादी 54 प्रतिशत है लेकिन यह असम में बड़ी हिंदू आबादी के कारण है जो पूर्वोत्तर की कुल आबादी के करीब 70 प्रतिशत भाग के साथ क्षेत्र के अन्य राज्यों की तुलना में बहुत अधिक आबादी वाला राज्य है. क्षेत्र के करीब 80 प्रतिशत हिंदू यहीं रहते हैं. असम में मुस्लिम भी आबादी का एक तिहाई से अधिक हैं जिनमें कई जनपद तो मुस्लिम बहुल हैं. मणिपुर और त्रिपुरा में मुस्लिम आबादी 10 प्रतिशत से कुछ कम है. ईसाई जिनकी उत्तरपूर्व में आबादी बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक 1 प्रतिशत से भी कम थी. अब नागालैंड, मेघालय, मिजोरम में उनकी संख्या हिंदुओं से अधिक है. अरुणाचल प्रदेश में दोनों समुदायों की संख्या लगभग बराबर है.

क्षेत्र की राजनीति में भी आरएसएस की चुनावी शाखा भारतीय जनता पार्टी के लिए बहुत कम अवसर या उदारता थी. यहां मुख्य पार्टियां कांग्रेस, वामपंथी पार्टियां और जातीय पहचान की राजनीति करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों का समूह है जिनमें से हर एक का अपना प्रभाव क्षेत्र है. इसकी स्थापना 1980 में हुई थी और 2004 में अरुणाचल प्रदेश में दोनों संसदीय सीटें जीतने से पहले तक बीजेपी ने असम के अलावा पूर्वोत्तर की एक भी सीट नहीं जीती थी. यहां तक कि 2014 की मोदी लहर में भी असम में 7 प्रत्याशियों की जीत के अलावा क्षेत्र में किरण रिजिजू बीजेपी के अकेले प्रत्याशी थे, जो पश्चिम अरुणाचल प्रदेश से निर्वाचित हुए थे. उन्हें केंद्र में गृह राज्य मंत्री बनाया गया था. अपने पूरे वजूद के दौरान उत्तर-पूर्व की विधान सभाओं में बीजेपी मामूली उपस्थिति ही दर्ज कर पाई. कुछ ही अवसरों पर यह 10 प्रतिशत से अधिक वोट प्राप्त कर पाई वह भी तब, जब यह केंद्र में सत्ता में थी.

फिर भी मोदी सरकार के अंतर्गत क्षेत्र का राजनीतिक वातावरण बदलता रहा है. 2014 में पार्टी ने अरुणाचल प्रदेश में 11 सीटें जीतने के साथ ही अपना वोट 6 गुना बढ़ा लिया. 2016 में इसने असम विधान सभा में अपनी उपस्थिति बढ़ाकर 5 सीट से 60 सीट कर ली और असम गण परिषद व बोडो पीपुल्स फ्रंट के साथ मिलकर राज्य में सरकार बनाई. 2017 में इसने मणिपुर में 21 सीटें जीतीं और दूसरी गठबंधन सरकार बनाई जबकि विगत दो चुनावों में उसे कोई भी सीट नहीं मिली थी. 2018 में इसने वामपंथ के गढ़ त्रिपुरा में 35 सीटें जीतीं जहां पहले कभी इसका एक भी विधायक निर्वाचित नहीं हुआ था.

राजीव गांधी विश्वविद्वालय, ईटानगर में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर नानी बाथ के अनुसार “राज्य सरकार की उस पार्टी के साथ जाने की प्रवृत्ति है जो केंद्र में सत्ता में होती है”. उन्होंने बताया कि अरुणाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्यों के पास राजस्व पैदा करने के अवसर कम होते हैं उन्हें अनुदान और सहायता के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है इसीलिए वे राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों के साथ चले जाते हैं. आजादी के बाद से कांग्रेस इस प्रवृत्ति का लाभ उठाती रही है और अब बीजेपी उसका स्थान ग्रहण करने की कोशिश कर रही है.

बीजेपी की कामयाबी का प्रमुख कारण पूरे क्षेत्र में उसका सहयोग पा लेने की क्षमता है. पूर्वोत्तर जनतांत्रिक गठबंधन की छतरी के नीचे पार्टी उत्तरपूर्व के सभी आठ राज्यों में गठबंधन सरकारों का हिस्सा है. इसने राष्ट्रीय दलों के कई दल-बदलुओं को भी आकर्षित किया है. मणिपुर के वर्तमान मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह कांग्रेस सरकार की ओ इबोबी सिंह की सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं. अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खंडू ने सितंबर 2016 में 43 कांग्रेसी विधायकों की दलबदली की व्यवस्था की थी, वह उस समय पूर्वोत्तर जनतांत्रिक गठबंधन (नेडा) के सदस्य थे. तीन महीने बाद उनमें से 33 विधायक एक बार फिर दल बदल कर बीजेपी में चले गए. नेडा के संयोजक और असम में शक्तिशाली कैबिनेट मंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा 2015 में बीजेपी में शामिल होने से पहले 3 कांग्रेसी सरकारों में सेवाएं दे चुके थे. मणिपुर विश्वविद्यालय के मानव विज्ञान विभाग के प्रमुख रह चुके एमसी अरुण कुमार ने मुझे बताया कि नागालैंड, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में “हम पैसे और शक्ति के हाथों बिक चुके हैं”.

पूर्वोत्तर में भाजपा की सफलता की कुंजी सहयोगी दलों को सुरक्षित करने की क्षमता है. नॉर्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस के साथ, पार्टी अब सभी आठ पूर्वोत्तर राज्यों में गठबंधन सरकारों का हिस्सा है. के आसिफ/इंडिया टुडे ग्रुप/गैटी इमेजिस

बीजेपी सत्ता में बने रहने के लिए गठबंधनों और दलबदलुओं पर लम्बे समय तक निर्भर नहीं रह सकती. इसे उस क्षेत्र में हिंदू राष्टवादी एजेंडे को मुख्यधारा में लाना होगा जो हिंदू बहुल है और अलगाववादी विद्रोह का इतिहास रखता है. इसी जगह आरएसएस की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. गुवाहाटी स्थित एक अनुभवी शांति कार्यकर्ता ने आरएसएस की संभावित धमकियों के कारण नाम न लेने का अनुरोध करते हुए मुझे बताया “उत्तरपूर्व के बचे हुए भागों और मध्य भारत के कुछ हिस्सों में हिंदुत्व का वर्तमान दबाव वर्चस्व वाली शक्तियों का कमजोर समुदायों पर विजय प्राप्त करने के अभियान का विस्तार है. अभी कोई प्रत्यक्ष घटना नहीं घटी है लेकिन वातावरण बनाया जा रहा है. उत्तरपूर्व में माहौल बदल रहा है”.

{दो}

असम पूर्वोत्तर में आरएसएस के पैर रखने की पहली जगह थी. 1950 के भूकंप के बाद राहत कार्यों में भाग लेने के अलावा संघ के आरंभिक कामों में एक था- विभाजन के बाद हिंदू शरणार्थियों के पुनर्वास की दिशा में काम करना. इसने राज्य के बिहारी और मारवाड़ी व्यापारियों के बीच भी आधार बना लिया था.

1960 के दशक में विमल प्रसाद चालिहा की कांग्रेस सरकार ने असमिया को राज्य की एक मात्र आधिकारिक भाषा घोषित करने के लिए एक विधेयक प्रस्तुत करने का मन बनाया तो बहुसंख्यक असमिया और अल्पसंख्यक बंगालियों के बीच व्यापक हिंसा फूट पड़ी. लगभग पचास हजार बंगाली पश्चिम बंगाल पलायन कर गए जबकि नब्बे हजार बराक घाटी और पूर्वोत्तर में जा बसे. बंगाली भाषा को बराक घाटी के तीन जनपदों में अधिकारिक दर्जा दिए जाने तक उक्त प्रस्ताव के खिलाफ एक साल तक विरोध प्रदर्शन होते रहे. दास ने बताया कि आरएसएस “बंगाली भाषा आंदोलन के दौरान असमिया और बंगाली जनता के बीच दरार को भरने का कारण बना था”.

2017 में बीजेपी रणनीतिकार रजत सेठी और शुभरात्रा द्वारा लिखित किताब ‘सरायघाट की अंतिम लड़ाईः पूर्वोत्तर में बीजेपी के उदय की कहानी’ के अनुसार, राज्य की राजनीति के शुरुआती दखल के बावजूद आरएसएस को “असम में लम्बे समय तक कृष्ण भक्ति आंदोलन के बतौर जाना जाता था. वे लिखते हैं “आरंभ में असम में न तो यह कोई प्रभावी ताकत था और न ही अपने आपको किसी राजनीतिक रुझान या रुचि में जाहिर करता था. हालांकि, 1970 दशक के अंत और 1980 के दशक में असम और बड़ी हद तक राष्ट्रीय स्तर पर इसकी जो सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक रूपरेखा खुल कर सामने आई उसने आरएसएस को मजबूती के साथ अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को सामने लाने का अवसर दिया.

असम आंदोलन के रूप में यह अवसर उनके हाथ आ गया. प्रवसन के कारण राज्य में जनसंख्यकीय परिवर्तन पर चिंता का इतिहास था. स्क्रोल के लिए अपने एक लेख में पत्रकार एजाज अशरफ लिखते हैं “1950 और 1960 के दशक में लगातार बनने वाली कांग्रेस सरकारों ने लाखों बंगाली मुसलमानों को इस आधार पर बाहर निकाल दिया था कि वह उस समय के पूर्वी पाकिस्तान के अवैध घुसपैठिए हैं. ऐसा नहीं है कि 1971 में बांग्लादेश बनने तक यह बात नहीं थी, लेकिन अब तथाकथित विदेशियों के खिलाफ गुस्से में तीव्रता आ गयी थी. माना जाता था कि भुखमरी से बचने के लिए बांग्लादेश मुसलमान असुरक्षित सीमा से बड़ी संख्या में असम में दाखिल हो रहे हैं”.

1970 के उत्तरार्ध में “बांग्लादेश घुसपैठियों” के खिलाफ चला आ रहा गुस्सा एक बड़े आंदोलन के रूप में फूट पड़ा जिसका नेतृत्व “ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन” कर रही थी. आरएसएस ने मुख्य भूमि के भारतीयों तक अपनी गतिविधियां सीमित रखने की सीमाओं को महसूस कर लिया था. उसने स्थानीय आबादी से अपने रिश्ते मजबूत करने और वामपंथ के उभार को रोकने के लिए आंदोलन का समर्थन करने का फैसला किया. वामपंथी दलों ने 1978 के विधानसभा चुनाव में 24 सीटें जीती थीं और आंदोलन से पहले राज्य की कैम्पस राजनीति में उसका वर्चस्व था. आरएसएस ने आंदोलन के समर्थन में अपने कैडरों को लगा दिया.

21 फरवरी 2018 को आरएसएस ने गुवाहाटी में एक बड़ी रैली ‘लूइट पोरिया हिंदू समावेश' का आयोजन किया जिसमें करीब चालीस हजार आरएसएस कार्यकर्ता उपस्थित थे. बीजू बोरो/एएफपी/गैटी इमेजिस

साहित्यिक आलोचक और सामाजिक वैज्ञानिक हिरेन गोहेन ने मुझे बताया कि असम आंदोलन के दौरान आरएसएस “बहुत ज्यादा सक्रिय” थी. “मोहन भागवत, नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के बहुत से नेताओं ने आंदोलन में भाग लिया था लेकिन अपनी भागीदारी को लेकर वे बहुत खुले हुए नहीं थे बल्कि वे जमीनी स्तर पर सक्रिय थे”. गुवाहाटी विश्वविद्यालय के सांख्यकी विभाग के सेवानिवृत्त एसोसिएट प्रोफेसर अब्दुल मन्नान अपनी किताब “इनफिल्ट्रेशनः जेनिसिस ऑफ असम” मूवमेंट में राज्य के पूर्व बीजेपी अध्यक्ष को कहते हुए उद्धृत करते हैं “असम आंदोलन के दौरान उनके स्कूटर के पीछे बैठकर नरेन्द्र मोदी गुवाहाटी में कई स्थानों तक जाया करते थे”.

आरंभ में आंदोलन का लक्ष्य सभी बाहरियों को असम से बाहर निकाल देने का था जिसमें बांग्लादेश से आए हुए हिंदू–मुसलमान के साथ-साथ मुख्य भूमि से आए हुए व्यापारी भी शामिल थे. लेकिन आरएसएस ने इसे बाहरी विरोधी से बदल कर विदेशी विरोधी करने का प्रयास किया और धीरे-धीरे आंदोलन के क्रोध को केवल बंगाली मुसलमानों की तरफ मोड़ दिया. सेठी और शुभ्रस्‍था लिखते हैं “संघ ने प्रवास के सवाल पर बहुत चतुर लेकिन बिल्कुल स्पष्ट दृष्टिकोण अपना लिया. 1980 में लगातार कई बैठकों के बाद अपनी स्थिति साफ करते हुए संघ ने कहा कि इसकी राय में हिंदू शरणार्थी और मुसलमान घुसपैठिए थे”. इसका दावा था कि हिंदू धार्मिक उत्पीड़न के कारण भागकर असम आया था इसलिए पुनर्वास का हकदार था जबकि मुसलमान आर्थिक अवसरों की तलाश में सीमा पार करके आया था इसलिए उसे निष्कासित किया जाना चाहिए.

मई 1996 में वाजपेयी की पहली सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर बहस में भाग लेते हुए वामपंथी संसद सदस्य इंद्रजीत गुप्ता ने इस बात का जिक्र किया था कि फरवरी 1983 में असम विधान सभा चुनाव से पहले भाषण देते हुए उसी साल बांग्लादेश प्रवासियों के खिलाफ हिंसा के लिए वाजपेयी ने उकसाया था. गुप्ता ने वाजपेयी को उद्धृत करते हुए कहा “विदेशी यहां आ गए हैं और सरकार कुछ नहीं करती है. इसके बजाए अगर वे पंजाब आते तो क्या होता? लोग उन्हें टुकड़े -टुकड़े करके फेंक देते”. उनके भाषण के फौरन बाद 18 फरवरी को हथियारबंद भीड़ ने लगभग दो हजार बंगाली मुसलमानों की हत्या कर दी जिसे “नेल्ली नरसंहार” के नाम से जाना जाता है. वाजपेयी ने दिल्ली वापस आने के बाद नरसंहार की निंदा की थी.

बाबरी मस्जिद के स्थान पर अयोध्या में मंदिर बनाने के लिए राम जन्म भूमि आंदोलन राज्य में आरएसएस के विकास का अगला कदम था. दास ने मुझे बताया कि आंदोलन के दौरान “लोग हिंदू के नाम पर निकलने लगे”. यह संघ द्वारा धैर्य के साथ किए गए एकीकरण का नतीजा था. सेठी और शुभ्रस्‍था लिखते हैं “असम में आरएसएस के लिए चुनौती “हिंदू” शब्द को राज्य की चेतना में इस तरह से परिभाषित करना, बढ़ावा देना और सुदृढ़ करना था कि स्थानीय इतिहास, मिथक, मुहावरे और दंतकथाएं असम में संघ के हिंदू राष्ट्र की अवधारणा का हिस्सा बन जाएं”. उन्होंने आगे कहा कि आरएसएस “हिंदुत्व और भारत के उन उदाहरणों और लघु कथाओं को पुनर्जीवित करने के लिए धार्मिक, ऐतिहासिक, अर्ध–ऐतिहासिक और मिथकीय मान्यताओं की तरफ पलटा है, जो देश के इस भाग को एकीकृत राष्ट्र के रूप में भारत की प्राचीन अवधारणाओं से जोड़ती हों”.

एक बार जब बीजेपी ने राज्य में चुनाव लड़ना शुरू किया तो राष्ट्रवाद का यह आकर्षण चुनावी लाभ देने लगा. 1991 में पार्टी ने 10 सीटें जीतीं जिनमें बराक घाटी की 9 सीटें शामिल थीं. हालांकि आमतौर पर इस सफलता का श्रेय राम जन्मभूमि आंदोलन को दिया जाता है. गोहेन इसकी वजह असम गण परिषद सरकार से मोहभंग को मानते हैं जो 1985 में सत्ता में आई थी. उन्होंने मुझे बताया “बराक घाटी असम आंदोलन से असंतुष्ट थी. यह आंदोलन को असमिया आधिपत्य के विस्तार के रूप में देखती थी”. चूंकि आरएसएस आंदोलन के समर्थन में खुले तौर पर नहीं था इसलिए बीजेपी इस असंतोष को भुनाने में सफल रही.

राज्य के वैष्णव मठों के साथ अपने सम्पर्क बनाकर 2001 और 2006 के चनावों में यह असम और ब्रम्हपुत्र घाटी में कांग्रेस की सीटें हथिया कर इसे मजबूत गढ़ से आगे तक विस्तार करने में सफल रही. यद्यपि 2011 में यह बराक घाटी में कांग्रेस से परास्त हुई लेकिन असम के अन्य भागों में इसने 5 सीटें हासिल कीं. 2014 के आम चुनावों में अपने इसी विस्तार के आधार पर राज्य की 14 लोकसभा सीटों में से इसने 7 सीटें जीत लीं.

बीजेपी ने 2016 के विधान सभा चुनाव को 1671 के युद्ध की यादों से जोड़ते हुए “सरायघाट की अंतिम लड़ाई” का नाम दिया, जिसमें अहोम साम्राज्य ने संख्यात्मक श्रेष्ठता के बावजूद मुगल साम्राज्य की सेना को परास्त कर दिया था.

चुनाव में इसका मुख्य मुद्दा जनसंख्यकीय परिवर्तन की चिंताओं का फायदा उठा कर उग्र असमियावाद को आकर्षित करना था. पार्टी क्षेत्र के चाय बागानों में काम करने वाली आदिवासी आबादी को अपने पक्ष में करके अपर असम में अपनी मौजूदगी को विस्तार देना चाहती थी. आरएसएस की ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ कांग्रेस के नेतृत्व वाले असम चाय मजदूर संघ के कामगारों को अपने पक्ष में करने के लिए चाय बगानों में आक्रामकता से काम करती थी. नरेन्द्र मोदी की बढ़ती हुई लोकप्रियता के बीच बीजेपी को राज्य में कांग्रेस के प्रति बढ़ते असंतोष का भी लाभ मिला जिसने राज्य में तीन कार्यकाल तक शासन किया था और एजीपी के खिलाफ असंतोष का भी लाभ मिला, जिसके बारे में धारणा थी कि अपने दो कार्यकाल के दौरान इसने असमिया लोगों के साथ विश्वासघात किया. कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई हिमांता बिस्वा शर्मा के नेतृत्व में 10 विधायकों के दल बदल कर बीजेपी में शामिल होने का कारण बनी. पार्टी ने राज्य में 60 सीटें जीतीं जबकि इसकी सहयोगी एजीपी और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट को क्रमशः 14 और 12 सीटें मिलीं.

जब से बीजेपी राज्य में सत्ता में आई है आरएसएस को अपना काम करने में कम अवरोधों का सामना करना पड़ा है. दास ने मुझे बताया कि कांग्रेस और एजीपी सरकारों के शासन के दौरान “हमें अपने सम्मेलनों या दूसरे कार्यक्रमों के लिए सभागार के लिए अधिकारियों के पास नौ या दस बार जाना पड़ता था और कई बार तो वे अंतिम घंटों में स्थान निरस्त कर देते थे. हमने वर्तमान सरकार में ऐसी किसी समस्या का सामना नहीं किया है”.

असम में स्थानीय आबादी के सांस्कृतिक जलूस धीरे-धीरे भगवा झंडो वाले हिंदुत्व के जुलूस में बदलते जा रहे हैं. त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय के चुनावों से एक महीना पहले 21 फरवरी 2018 को आरएसएस ने गुवाहाटी में एक बड़ी रैली का आयोजन किया जिसे ‘लूइट पोरिया हिंदू समावेश' अर्थात ‘ब्रम्हपुत्र घाटी के हिंदुओं का जुटान’ नाम दिया गया था. करीब चालीस हजार आरएसएस कार्यकर्ता रैली में उपस्थित थे जहां वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत और वैष्णव मठों के प्रमुखों एंव विभिन्न स्थानीय समूहों के मुखियाओं के साथ पूरे राज्य मंत्रिमंडल ने मंच साझा किया था. इसका मतलब असम पर संघ परिवार की पकड़ और क्षेत्र में अधिक एकीकरण के लिए पुल बनाने का संकेत देना था. शंकर दास ने उसी समय कहा “आरएसएस को पूर्वोत्तर में और स्वीकार्य बनाने का विचार है. यह बदलाव की छवि देने के लिए है”.

{तीन}

पूर्वोत्तर के उन भागों में विस्तार के लिए जो हिंदू राष्ट्रवाद के लिए उपजाऊ नहीं हैं आरएसएस नए मिथक और दंतकथाएं गढ़ रहा है. साथ ही पूर्वोत्तर की राष्ट्रियताओं को मुख्य भूमि की इंडिक सभ्यता से जोड़ रहा है.

नागालैंड के गांव खोनोमा में एक चट्टान है जो मानव मस्तक से मिलती जुलती है. ग्रामीणों का मानना है कि चट्टान जंगल की भावना का प्रतिनिधित्व करती है. एक नागा लेखक के अनुसार, (जिसने केंद्र सरकार का कर्मचारी होने के कारण नाम गोपनीय रखने का अनुरोध किया) खोनोमा के निवासियों का आरोप है कि राज्य से बाहर के हिंदू हाल ही में उसे हिंदू देवता शिव का मस्तक होने का दावा कर रहे हैं.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अरुणाचल प्रदेश में तानी-भाषी जनजातियों और हिंदू धर्म द्वारा प्रचलित एक कट्टरपंथी धर्म, ‘डोनी-पोलो’ के बीच संबंध स्थापित करने की कोशिश कर रहा है. सुब्राता विश्वास/हिंदुस्तान टाइम्स

कुछ वर्षों पहले प्रेम सुब्बा नामक एक लकड़हारे को संयोग से अरुणाचल प्रदेश में जीरो कस्बे के निकट कारडो पहाड़ियों में बीस–पचीस फीट लम्बी एक नुकीली चट्टान मिल गई. एक स्थानीय हिंदू पुरोहित ने दावा किया कि यह शिवलिंग है और उस जगह को सिद्धेश्वर नाथ मंदिर का नया नाम दे दिया गया. अब वह क्षेत्र का बड़ा तीर्थ स्थल बन गया है और दुनिया का सबसे बड़ा शिवलिंग माना जाता है.

कृष्ण और रुकमणि के विवाह का वार्षिक उत्सव मनाने के लिए लगने वाले माधवपुरा मेले के दौरान मार्च 2018 में गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने दावा किया कि रुकमणि की जड़ें अरुणाचल प्रदेश की इदू मिशमी जनजाति से मिलती हैं. इस दावे के मामूली मिथकीय प्रमाण हैं. पारंपरिक रूप से रुकमणि विदर्भ के राजा की बेटी मानी जाती है जिसे भूराजनीतिक कारणों से बनाया गया था. चूंकि मेला गुजरात और पूर्वोत्तर के बीच रिश्तों का उत्सव मनाने के लिए था इसलिए उसमें पेमा खंडू, एन बीरेन सिंह और किरण रिजिजू भी उपस्थित थे. प्राप्त जानकारी के अनुसार कई वक्ताओं ने कहा कि पूर्वोत्तर द्वापर युग से भारत का अंग रहा है. वह युग जिसमें कृष्ण थे और हिंदू विधा के अनुसार ईसा पूर्व चौथी सहस्राब्दि में था.

नागा लेखक ने मुझे बताया कि राज्य के गांवों में लोगों को हिंदू त्योहारों में आमंत्रित किया जाता है हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियों के सामने बैठाया जाता है और उनके फोटो लिए जाते हैं. उन्होंने आगे बताया कि फोटो को नागपुर आरएसएस के मुख्यालय भेजा जाता है और स्थानीय लोगों को हिंदू दर्शाने के लिए राष्ट्रीय मीडिया में वितरित किया जाता है.

संघ परिवार के संगठनों के संस्थागत सहयोग और समर्थन से एक हिंदू पूर्वोत्तर की अभिव्यक्ति अब फल दे रही है और बहुत सी देशी परंपराएं हिंदू धर्म की परंपराएं अपना रही हैं. हालांकि बीजेपी की भविष्य की चुनावी संभावनाओं के लिए यह शुभ संकेत है लेकिन आरएसएस के प्रयास से स्थानीय आबादी संस्कृति और पहचान के नुकसान पर चिंता जता रही है. अरुणाचल टाइम्स के पत्रकार तबा अंजुम ने मुझे बताया कि उन्हें हिंदुत्व को बढ़ावा देने वाले आरएसएस के सहयोगियों से समस्या नहीं है लेकिन उन्हें चिन्ता थी कि लोगों की अपनी मौलिकता छिन जाएगी. उन्होंने कहा “हमें भारतीय होने पर गर्व है. भारत की मुख्य भूमि से हमें जोड़ने के लिए झूठी कहानियां गढ़ने की क्या जरूरत है”.

फरवरी 2018 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अरुणाचल प्रदेश में कई ईसाई संस्थानों के बैंक खातों की जांच यह जानने के लिए शुरू की कि क्या वे विदेशी योगदान (नियामक) अधिनियम का उल्लंघन कर रहे हैं. ईटानगर के चार धार्मिक संगठनों के खाते, मियाओ के तीन और सेलसियन मंडली के दो खातों की छानबीन एफसीआरए अधिकारियों द्वारा की गई. यह छानबीन गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू के उस ट्वीट के एक साल बाद की गई जिसमें कहा गया था “भारत में हिंदू आबादी घट रही है क्योंकि हिंदू कभी लोगों का धर्म परिवर्तन नहीं कराते. आसपास के कुछ अन्य देशों के विपरीत भारत में अल्पसंख्यक फल-फूल रहे हैं”.

अंजुम ने मुझे बताया “अरुणाचल प्रदेश ईसाई और हिंदू मिशनरियों के लिए जंग का मैदान है”. ईसाई धर्म को बढ़ावा मिलने पर चिंता राज्य में उस समय से है जब यह केंद्र शासित उत्तरपूर्व सीमांत एजेंसी का हिस्सा था. मानव विज्ञानी वेरियर एलविन की सलाह लेते हुए केंद्र सरकार ने ईसाई मिशनरियों की क्षेत्र में गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी थी. हालिया वर्षों में यह चिंता बढ़ी है क्योंकि 2001 में ईसाई आबादी 18 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 30 प्रतिशत हो गई. इस तरह हिंदुओं और देशी धर्मों को मानने वालों की तुलना में ईसाई राज्य के सबसे बड़े समुदाय बन गए.

अंजुम ने बताया “जन जातियों के धर्मांतरण कर ईसाई धर्म में जाने से रोकने के लिए 1978 में, धर्मांतरण विरोधी कानून “अरुणाचल प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम” पारित हुआ, इस कानून के बनने में आरएसएस ने बहुत मजबूत भूमिका निभाई. संघ 1960 के दशक से राज्य में सक्रिय है और अपने सहयोगी संगठन अरुणाचल विकास परिषद के माध्यम से जन जातीय आबादी में काम कर रहा है. साथ ही यह उन देशी धर्मों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों का सहयोग कर रहा है जो ईसाई मिशनरियों के प्रति संदेह में इससे सहमत हैं. खासकर बीजेपी के केंद्र में सत्ता में आने के बाद से यह अपने कार्यों में बहुत आक्रमक रहा है.

2018 में अरुणाचल प्रदेश कैथोलिक एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक समारोह में राज्य के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने कहा कि 40 साल पुराना धर्मांतरण विरोधी कानून “धर्मनिर्पेक्षता को कमजोर कर सकता है और सम्भवतः इसका लक्ष्य ईसाई धर्म है.” “गैर जिम्मेदार” अधिकारियों द्वारा इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए उन्होंने विधानसभा के अगले सत्र में इसे निरस्त करने का प्रस्ताव किया. आरएसएस द्वारा समर्थित इंडिजिनस फेथ एंड कल्चर सोसाइटी ऑफ अरुणाचल प्रदेश और नईशी समर्थित इंडिजिनस फेथ्स एंड कल्चर सोसाइटी ने खांडू के वक्तव्य का कड़ा विरोध करते हुए कानून को निरस्त करने के बजाए उचित तरीके से लागू करने की मांग की. अंजुम ने मुझे बताया “मैंने यहां तक सुना कि केंद्र सरकार ने भी उनसे बयान वापस लेने के लिए कहा”. लेकिन खांडू ने न तो बयान वापस लिया और न ही निरस्त करने की प्रक्रिया में गए.

जब मैंने जनवरी में शहर का दौरा किया, एक सात साल के बच्चे ने ईटानगर की सड़क पर अपनी मां से पूछा “मम्मा हम हिंदू हैं या ईसाई”? उसने कहा, “मेरा स्कूल हिंदू स्कूल है”. बच्चे का नाम विवेकानंद केंद्र विद्यालय (विकेवि) में लिखा गया था. अंजुम के अनुसार “विवेकानंद केंद्र विद्यालय बच्चों के हिंदू धर्म में अप्रत्यक्ष धर्मान्तरण की मुख्य शाखाएं हैं”. कुछ विकेवि विद्यालयों में दूसरे धर्मों की बुराइयों के बारे में पढ़ाया जाता है. विकेवि के कई पूर्व छात्र अब राज्य में आरएसएस के कार्यकर्ता हैं.

हिंदू रीति रिवाज विकेवि का अभिन्न अंग हैं. आदर्श दिन का आरंभ हिंदू प्रार्थना और एक घंटा के भजन से शुरु होता है. प्रत्येक भोजन से पहले छात्र प्रार्थना करते हैं चाहे उनका धर्म कोई भी हो. 1962 में चीन से युद्ध के परिणामस्वरूप विकसित राष्ट्रीय नीति के बतौर दिन का समापन हिंदी में एक घंटे के प्रार्थना सत्र से होता है जो राज्य के सभी स्कूलों में अनिवार्य है. स्कूलों में कोई देशी भाषा नहीं पढ़ाई जाती जिसके नतीजे में लोगों में उनका प्रयोग बाधित हो रहा है. 2017 में यूनाइटेड नेशंस एजूकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गनाइजेशन के एक सर्वेक्षण में राज्य की 33 भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है जिनका अस्तित्व खतरे में है.

विकेवि को राज्य सरकार से वित्तीय सहायती मिलती है. अप्रैल 2018 में पूर्वी कमेंग जनपद के चयांग ताजो स्कूल का उद्घाटन करने के बाद खांडू ने घोषणा की कि राज्य सरकार ने विकेवि के लिए 40 करोड़ रुपए की मंजूरी दी है.

राज्य में ईसाई धर्म के विस्तार को प्रभावहीन बनाने के लिए आरएसएस और अधिक आक्रामक हो गया है. 2017 में जब अरुणाचल क्रिस्चियन फोरम ने देशी धर्मों और संस्कृतियों के लिए सरकारी विभाग स्थापित करने के प्रयासों का विरोध किया तो संघ ने ईसाई समुदाय का विरोध करने के लिए अपने सहयोगियों को एकजुट कर लिया. दोनों समुदायों ने प्रेस विज्ञप्तियां जारी की और सोशल मीडिया पर धमकियां दीं. आरएसएस के प्रयास सफल रहे और मार्च 2018 में देशी मामलों के विभाग की स्थापना हो गई.

संघ अरुणाचल प्रदेश के देशी धर्मों का मजबूती से समर्थन करता है और उन्हें हिंदू धर्म के विभिन्न रूप के तौर पर मान्यता देता है. यह तानी भाषी आदिवासियों में प्रचलित सर्वात्मवादी धर्म डोनी पोलो और हिंदू धर्म के बीच संबंध को स्थापित करने का प्रयास करता रहा है. कई जन जातियों की धार्मिक प्रथा के समागम डोनी पोलो को आदी जन जाति के कार्यकर्ता तालोम रुकबो के प्रयासों से औपचारिक रूप से धर्म के बतौर संस्थागत किया गया था, जिसने 1986 में पुनरुत्थानवादी डोनी पोलो येलाम केबांग स्थापित किया. रुकबो ईसाई मिशनरियों के काम का यह कहकर विरोध करता था कि धर्मान्तरण “सामाजिक अशांति उत्पन्न करता है” और “सबसे गहरी और गंभीर हिंसा का कारक” बनता है.

गत वर्षों में “डोनी पोलो मंदिरों” का, जिन्हें गैंगिंग के नाम से जाना जाता है, पूरे राज्य में प्रसार हुआ है और यह अक्सर अरुणाचल विकास परिषद द्वारा वित्तपोषित होते हैं. ईटानगर के केंद्र में जीरो प्वाइंट पर एक विशाल गैंगिंग खड़ी है जिस के बीच में ‘डोनी पोलो लोगो’ लगा है, जो विभिन्न देवी देवताओं के चित्रों से घिरा है. इसे 1997 में राज्य सरकार के फंड से बनाया गया था. मूर्तियों का प्रयोग नई प्रगति है और धर्म के संस्थानीकरण का भाग है. पुनरुत्थानवादी आंदोलन को आरएसएस के समर्थन ने धर्म के मानने वालों को खासकर राज्य में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से प्रोत्साहित किया है. अक्टूबर 2018 में राज्य के राज्यपाल बीडी मिश्रा ने पासीघाट के उसके गृह कस्बे में रुकबो की बीस फुट ऊंची प्रतिमा का अनावरण किया है.

तबा ने मुझे बताया “डोनी पोलो में पशु बलि भी शामिल है, डोनी पोलो पुरोहित मीरी के भविष्य कथन के अनुसार, गाय, मिट्ठू या गिलहरियों की बलि दी जाती है. जब हम हिंदुओं के पवित्र पशु गाय की बलि देते हैं तो संघ यह दावा कैसे कर सकता है कि डोनी पोलो भी हिंदू धर्म है”. 35 वर्षों तक डोनी पोलो पुरोहित रहे मूगे तायेंग ने मुझे बताया, “हम सभी धर्मों में आस्था रखते हैं. असम और अन्य जगहों पर लोग हमें हिंदू समझते हैं. जब बीमार ईसाई हमारे यहां इलाज के लिए आते हैं तो हम उन्हें वापस नहीं करते. लेकिन हम केवल डोनी पोलो के जन्मदाता अदृश्य ईश्वर की उपासना करते हैं”.

फिर भी, डोनी पोलो को मानने वालों ने अपनी धार्मिक प्रथाओं में हिंदू तत्वों को अपनाया है. तयेंग ने कहा “हम मासिक धर्म वाली महिलाओं को गैंगिंग में प्रवेश की अनुमति नहीं देते. मैं वेदी पर नहीं बैठ सकता या गैंगिंग में प्रार्थना का नेतृत्व नहीं कर सकता, क्योंकि अगर मैं ऐसा करता हूं तो मैं वेदी को अपवित्र कर दूंगा”. जब मैंने उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि क्योंकि वह बच्चों को बचाता है.

डोनी पोलो को मानने वालों के घरों में आमतौर से एक कोने में पुण्य स्थल होता है. फिर भी, हालिया वर्षों में इन पुण्य स्थलों में आमतौर से हिंदू भगवान शिव और दुर्गा की मूर्तियां भी पाई जाती हैं. हर शनिवार की सुबह गैंगिंग में घंटी बजती है और आस्थावान प्रार्थना के लिए एकत्र होते हैं. वे हिंदू प्रथाओं से मिलते जुलते अनुष्ठान करते हैं और अगरबत्तियां जलाते हैं. तयेंग ने मुझे बताया “पहले हम दुष्ट आत्माओं को भगाने के लिए देवदार के पेड़ जलाते थे. अब देवदार के बजाए अगरबत्ती जलाते हैं”. उन्होंने कहा कि डोनी पोलो की धन और समृद्धि की देवी “किने–नानी” हिंदू देवी लक्ष्मी के अनुरूप है.

नवंबर और दिसंबर महीनों के दौरान आदी जनजाति के लोग प्रार्थना करते हुए अक्सर घर–घर जाते हैं. हालांकि डोनी पोलो मत में विश्वास रखने वाले कुछ अनुयायी इस प्रथा का विरोध करते हैं जिसे कोरी बुलुंग के नाम से जाना जाता है क्योंकि इसे कैरोल गायन की ईसाई प्रथा की नकल के रूप में देखा जाता है. तयेंग ने मुझे बताया कि ईटानगर गैंगिंग में कोरी बुलुंग का प्रदर्शन पिछल चार सालों से नहीं किया गया है.

तयेंग ने कहा “आरएसएस के लोग हमारी गैंगिंग में समय-समय पर आते हैं. उन्होंने कहा कि वे हमारी संस्कृति की रक्षा करेंगे”. उसने आरएसएस के सदस्यों को यह कहते हुए याद किया “डोनी पोलो को मत छोड़ो, इसे मजबूत बनाओ. तुम्हें इसकी रक्षा करने की जरूरत है, यह तुम्हारी पहचान है. अगर तुम ईसाई धर्म में चले गए तो तुम अपने पूर्वजों की परंपरा और संस्कृति को भूल जाओगे. ईसाई माता–पिता की संतानें हमारी परंपरा और संस्कृति के बारे में कुछ नहीं जानतीं”.

तयेंग ने मुझे बताया कि ईसाईयत और देशी धर्मों के अनुयायियों के बीच दरार दो तरह से काम करती है. यद्यपि चर्च पहले देशी त्योहारों को मान्यता दिया करता था, उसने कहा कि धर्मांतरण करके ईसाई बनने वालों ने इन त्योहारों से दूरी बनानी शुरू कर दी और अक्सर भोजन परोसने में शामिल नहीं होते थे क्योंकि इसमें पशु बलि शामिल होती थी.

हिंदू धार्मिक तत्वों को तांगसा जनजाति के सर्वात्मवादी धर्म में शामिल करने की प्रक्रिया ऐसी ही रही है. बिजनेस स्टैंडर्ड के लिए अपने एक लेख में पत्रकार नितिन सेठी लिखते हैं कि 1990 के दशक के अंत में आरएसएस ने तांगसा नेताओं के साथ मिलकर चांगलांग कस्बे में एक चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन किया. प्रतिभागियों से अपनी जनजाति की सर्वोच्च आत्मा रंगफरा को रूप देने के लिए कहा गया. उन्होंने रंगफरा फेथ प्रोमोशन सोसाइटी के एल खिमून को यह कहते हुए उद्धृत किया “जीतने वाली पेंटिंग कुछ पारंपरिक कल्पना के साथ शिव जैसी दिखाई देती थी. पेंटिंग को जोधपुर भेजा गया. वहां से 1997 में रंगफरा की 300 किलो की पहली संगमरमर की मूर्ति आई”.

पारंपरिक रूप से निराकार रंगफरा की मूर्तियों की अब पूजा होती है जो संगमरमर की मूर्ति के अनुरूप होती हैं और तिरप और चांगलांग जिलों के मंदिरों में तेजी से फैल गईं हैं. आरएसएस और उसके सहयोगी दावा करते हैं कि रंगफरा हिंदू धर्म का एक मत है हालांकि तांगसा जनजाति के सदस्य मानते हैं कि यह एक देशी धर्म है. सेठी के लेख के जवाब में आरएसएस के मुखपत्र आर्गनाइजर में छपे लेख में खिमून लिखते हैं “हिंदू हमेशा नष्ट करने के बजाए हमारे देशी धर्म और संस्कृति को बचाने, बढ़ावा देने और संरक्षित रखने में सहायता करते रहे हैं …‘हिंदू’ शब्द की परिभाषा के बारे में जो कुछ हमने अब तक हिंदुओं से सीखा है वह यह है कि कोई भी भारतीय जो देश के लिए जीने–मरने का इच्छुक है वह हिंदू है. अगर ऐसा है तो सभी रंगफराइयों को हिंदू कहने को मैं बुरा नहीं मानूंगा”.

इसी तरह की रणनीति पूर्वोत्तर में अन्य जगहों पर अपनाई जा रही है. 90 प्रतिशत ईसाई आबादी वाले नागालैंड को संघ पराजित अभियान मानता है लेकिन फिर भी वह राज्य में अपनी मौजूदगी स्थापित करने का इच्छुक है. वह ऐसा अरुणाचल प्रदेश की तरह इस दावे के साथ करना चाहता है कि ईसाई धर्म अपनाने से पहले नागा बृहद हिंदू परिवार का हिस्सा थे.

2014 में वनवासी कल्याण आश्रम ने मांग की कि रोंगमी जनजाति के सदस्य गाइदिनल्यू को देश का सबसे बड़ा सम्मान भारत रत्न दिया जाए जिन्होंने 1932 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ बगावत की थी. आरएसएस द्वारा गाइदिनल्यू के महिमामंडन के साथ पक्षपात को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि वह अपने चचेरे भाई हाइपो जादोनांग द्वारा शुरू किए गए “हेराका आंदोलन” से 13 साल की उम्र में जुड़ी थीं. जब जादोनांग को अंग्रेजों ने 1931 में फांसी दी तब वह आंदोलन की नेता बनकर उभरीं.

हेराका आंदोलन ईसाई धर्म और अंग्रेज दोनों का विरोध करता था और काफी हद तक डोनी पोलो पंथ की तरह पारंपरिक धार्मिक प्रथाओं को संस्थागत करना चाहता था. 1970 से आरएसएस जेलिआंगरांग हेराका एसोसिएशन का समर्थन करता आया है जो जीमे, लिअंगमई और रांगमी जनजातियों के ईसाई सदस्यों का फिर से धर्म परिवर्तन कराकर हेराका समुदाय में वापस लाना चाहता है. इन्हें सामूहिक रूप से जेलिअंगरांग नाम से जाना जाता है. हिंदुस्तान टाइम्स में 2015 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार “जेडएचए ने असम, मणिपुर और नागालैंड के जेलिअंगरांग क्षेत्रों के हेराका गांवों की नक्शाबंदी की है. साथ ही उन्हें क्षेत्रों में बांटा है और उनमें से हर एक में प्रचारकों को नियुक्त किया जाएगा. इसमें कहा गया है कि एक दशक पहले से धर्मांतरण दर कम हो गई और पुनर्धर्मांतरण हर साल दस परिवार के औसत से बढ़ा है”.

पिछले सालों में हेराका धर्म में हिंदू पूजा के कई तत्व शामिल हो गए हैं. असम में जेलिअंगरांग समुदाय के लोग बहुत उत्साह के साथ होली मनाते हैं. वैवाहिक हिंदू महिलाओं की तरह जेलिअंगरांग महिलाएं अपने माथे पर सिंदूर लगाती हैं. आदिवासी देवी देवता और हिंदू पूजापाठ का हिस्सा बन गए हैं. कई धार्मिक स्थलों पर गैडिनलियु के साथ हिंदू देवियों काली और दुर्गा के चित्र भी पाए जाते हैं. क्षेत्र में हिंदू मिशनरियां गैडिनलियु को दुर्गा का पुनर्जन्म बताते हैं. नागा लेखक ने मुझे बताया कि अधिक राजनीतिक महत्वकांक्षा रखने वाले कुछ हेराका नेताओं ने ऐसे उप नामों का प्रयोग शुरु कर दिया जिससे उनकी पहचान ब्राह्मण के रूप में हो. 2007 में जेडएचए के तत्कालीन संगठन सचिव तसिले एन जेलियंग आर्गनाइजर के एक लेख में लिखते हैं कि संघ के नेतृत्व के अनुसार “कोई नागा, जो ईसाई या मुस्लिम नहीं है वह हिंदू की श्रेणी में आता है”.

इस वर्ष जनवरी में 373 नागा सांस्कृतिक कलाकारों के दल ने प्रयागराज कुम्भ मेले में अपने राज्य की सांस्कृतिक विरासत प्रस्तुत करने के लिए भाग लिया. संघ के सहयोगी संगठन संस्कार भारती नागालैंड द्वारा आयोजित और केंद्रीय सांस्कृति मंत्रालय द्वारा वित्तपोषित कुम्भ में उनकी भागीदारी ने “चर्च के नेतृत्व और नागालैंड के लोगों के मन में भी कई सुलगते सवाल पैदा कर दिए हैं”.

मोरंग एक्सप्रेस के स्तंभकार तियोतोशी लांगकूमर ने लिखा “कुम्भ मेला का नागाओं से क्या सम्बंध? क्या नागा ईसाइयों का हिंदू कुम्भ मेला स्नान पर्व से कोई सांस्कृतिक मेल है? क्या नागा अपनी सांस्कृतिक विरासत को कुम्भ मेले की बजाए भारत के अन्य त्योहारों में प्रोत्साहन नहीं दे सकते?

आरएसएस ने मणिपुर में 1950 के दशक से काम किया है लेकिन इसकी वहां मौजूदगी के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी है. मणिपुर के आदिवासी पहाड़ी जिलों में शाखाएं नहीं हैं लेकिन संघ आदिवासी आबादी तक शिक्षा, स्वास्थ्य और समाज सेवा के माध्यम से पहुंच चुका है. हालिया वर्षों में संघ ने पहाड़ी जिलों में तीन स्कूल खोले हैं. शंकर दास ने मुझे बताया कि स्थानीय आरएसएस कार्यकर्ताओं की कमी राज्य में संगठन के विकास के लिए रुकावट साबित हो रही है. संघ के लिए यह समस्या पूरे उत्तर पूर्व में है, यहां तक कि असम में पहला स्थानीय प्रान्त प्रचारक 2014 में नियुक्त किया जा सका. इस क्षेत्र के अधिकांश भाग में आरएसएस का काम भारत की मुख्य भूमि के कार्यकर्ताओं द्वारा किया जाता है.

लगता है कि मणिपुर में संगठनात्मक शक्ति की कमी ने संघ को ईसाइयों के प्रति अधिक मैत्रीपूर्ण बना दिया है. फरवरी में मैंने मणिपुर में आरएसएस के ईसाई प्रचारक पाओकम हाओकिप से बात की. उसने मुझे बताया “लोगों में आरएसएस के बारे में गलत धारणा है. यूनाइटेड नागा काउंसिल की तरह संघ दबे कुचले लोगों के उत्थान के लिए काम करता है. यद्यपि मैं ईसाई हूं फिर भी मैं हिंदू हूं. हम आरएसएस ईसाइयों पर गर्व करते हैं”. उसने आगे कहा कि भारत में रहने वाला हर व्यक्ति हिंदू है.

यद्यपि संघ परिवार ने भारत की मुख्य भूमि पर गोहत्या के खिलाफ उग्र अभियान चला रखा है लेकिन पूर्वोत्तर में इस मुद्दे को पीछे छोड़ दिया गया है. हाओकिप ने मुझे बताया “बीफ खाना आपकी मर्जी है. आरएसएस को हमारी भोजन की आदत पर आपत्ति नहीं हो सकती. वह अपनी विचारधारा हम पर थोप नहीं सकते”.

{चार }

अपने सांस्कृतिक और वैचारिक कार्यों के अलावा पूर्वोत्तर में संघ परिवार का विस्तार उसके बढ़ते राजनीतिक दबदबे की वजह से भी उतना ही है. तबा अंजुम ने मुझे बताया “आरएसएस और उसके सहयोगी जीवन के हर क्षेत्र में आ रहे हैं”. 11 अप्रैल से “अरुणाचल विधान सभा के होने वाले चुनाव में टिकट पाने के लिए बीजेपी नेताओं के अलावा लोग आरएसएस के नेताओं से भी बात कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि संघ टिकट निर्धारित करने में मुख्य भूमिका अदा कर रहा है. “दिल्ली से भी बहुत से आदेश आते हैं. राज्य के हमारे सभी नेता केंद्रीय नेतृत्व के सामने झुक जाते हैं”. इसी तरह एक नागा बुजुर्ग ने कहा “हमारे राज्य में लोग आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक लाभ के लिए आरएसएस को गले लगा रहे हैं”.

मणिपुर विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर चिंगलेन मैसनम ने मुझे बताया कि उनके राज्य में “महत्वकांक्षी राजनेता अपने कैरियर को आगे बढ़ाने के लिए संघ को मंच की तरह देखते हैं. उनमें से अधिकांश संघ के मौलिक सिद्धान्तों और विचारधारा को जाने बिना ही उसमें शामिल हो जाते हैं. संघ उनके व्यक्तिगत लाभ के लिए वस्तु की तरह काम करता है. यहां तक कि कैम्पस से अध्यापक भी आरएसएस के बैंडवैगन में शामिल हो जाते हैं”.

फिर भी, वह बैंडवैगन हाल के दिनों में सड़क अवरोधक से टकरा गया है, पूर्वोत्तर के लिए अपने उन दो प्रमुख प्रस्तावों के कारण क्षेत्र में विवाद पैदा कर दिया जिनकी वकालत करना पिछले वर्षों में इसकी वृद्धि की प्रमुख वजह थी.

बीजेपी की युवा शाखा भारतीय जनता युवा मोर्चा का एक सम्मेलन फरवरी में असम के लखीमपुर में हुआ था उसमें अमित शाह ने कहा था कि अगर पार्टी 2019 के आम चुनाव में दोबारा सत्ता में वापसी करती है तो यह असम को दूसरा कश्मीर बनने की अनुमति कभी नहीं देगी. उन्होंने जोर देकर कहा कि यह नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर और नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2016 के कार्यान्वयन के माध्यम से ही संभव है.

1985 का असम समझौता जिसने राज्य से आंदोलन को समाप्त किया उसके 5वें खंड के अनुसार “वह विदेशी जो 25 मार्च 1971 के बाद राज्य में आए उनका पता लगाने, हटाने और नियमानुसार उनको निष्कासित करने का काम जारी रहेगा. ऐसे विदेशियों को निकालने के लिए तत्काल और व्यवहारिक कदम उठाए जाएंगे”. कांग्रेस की तरुण गोगोई सरकार ने एनआरसी का नवीनीकरण करके ऐसे कदम उठाने का प्रयास किया लेकिन उसकी प्रगति धीमी थी. जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को प्रक्रिया में तेजी लाने के निर्देश दिए तो 2016 में सत्ता में आने वाली बीजेपी ने ऐसा ही किया. 30 जुलाई 2018 को इसने रजिस्टर का अंतिम मसौदा जारी कर दिया जिसमें असम के 40 लाख निवासियों को बाहर रखा गया.

हालांकि इस संख्या में दस लाख से अधिक बंगाली हिंदू शामिल थे. इसकी प्रत्याशा और जातीय चिंताओं के बजाए असमिया उप–राष्ट्रवाद को धर्म की दिशा में ले जाने की संघ परिवार की रणनीति को ध्यान में रखते हुए 2016 में बीजेपी ने नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन का प्रस्ताव किया था जिसका मकसद उप महाद्धीप के गैर मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करना था. जिन लोगों को एनआरसी से बाहर रखा गया था उनके विपरीत इन प्रवासियों के लिए आधिकारिक दस्तावेज की आवश्यकता नहीं थी और यह संशोधन नागरिकता के लिए निवास की अवधि 11 साल से घटाकर 6 साल कर देता था.

जब इस साल 8 जनवरी को लोकसभा में विधेयक पारित किया गया तो पूरे उत्तरपूर्व में विरोध फूट पड़ा. दिल्ली स्थित ऑल असामीज स्टूडेंट्स एसोसिएशन के महासचिव म्रिजेन जे. कश्यप ने मुझे बताया “एनआरसी किसी व्यक्ति के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करती. यह देशी असमिया लोगों की जरूरत है. असम और पूर्वोत्तर राज्यों में धर्म की राजनीति स्वस्थ नहीं है. नागरिकता विधेयक, संविधान और देश की धर्मनिर्पेक्षता के खिलाफ है”.

राजीव गांधी विश्वविद्यालय में शोध छात्र प्रेम ताबा ने कहा “हम नागरिकता विधेयक को साम्प्रदायिकता विधेयक के रूप में देखते हैं. इस बिल को पेश कर बीजेपी सरकार पूर्वोत्तर की जनता पर परीक्षण कर रही है. हम अपने राज्य में शराणार्थी या अवैध प्रवासी नहीं चाहते. हमारे राज्य में आदिवासी आबादी बहुत कम है”.

प्रेम ताबा ने उत्तर पूर्व के छात्र संगठन और अन्य छात्र समूहों द्वारा आयोजित दिल्ली में विरोध रैलियों में भाग लिया. उसने ईटानगर में भी बिल के विरोध में आयोजित पैदल मार्च और बाइक रैली में भागीदारी की. उसने कहा कि फरवरी में जब नरेन्द्र मोदी ने अरुणाचल प्रदेश का दौरा किया तो “हमने उनके दौरे का बहिष्कार किया. हमने पूरे राजीव गांधी विश्वविद्यालय कैम्पस को बंद कर दिया, काले झंडे के साथ जुलूस निकाला और उनका पुतला जलाया”. इसी दौरान मणिपुर में प्रदर्शनकारी तख्तियां लिए हुए सड़कों पर आ गए जिन पर “मिजोरम स्वतंत्र गणराज्य का स्वागत है” और “हेलो आजादी” लिखा था.

11 फरवरी को डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के 16 छात्रों ने असम के मुख्यमंत्री को अपने खून से पत्र लिखे. उन्हें आधिकारिक जवाब अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है. विश्वविद्यालय के छात्रों के संघ के पूर्व महासचिव डेविड हजारिका ने मुझे बताया “सभी पूर्वोत्तरीय राज्यों में विधेयक के व्यापक विरोध के बावजूद सरकार निरंकुश तरीके से व्यवहार कर रही है”.

पेमा खांडू ने शुरूआत में विधेयक का समर्थन किया था लेकिन जब 13 फरवरी को विधेयक राज्य सभा के पटल पर रखा जाना था तो उन्होंने पलटी मार दी. मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने भी विधेयक पर पुनर्विचार की मांग की. नागालैंड और मेघालय की सरकारों ने विधेयक के खिलाफ सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किए. यहां तक कि असम में कई विधायक इसके खिलाफ बाहर आ गए. जनवरी में एजीपी ने बीजेपी के साथ अपने गठबंधन को खत्म कर दिया और एजीपी के तीन मंत्रियों ने त्यागपत्र दे दिया. (आखिरकार मार्च में दोनों पार्टियां फिर से मिल गईं). असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने कांग्रेस पर लोगों को गुमराह करने का आरोप लगाया.

अरुणाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष और संसद सदस्य टकम संजॉय ने मुझे बताया “हम बहुत खुश हैं कि विधेयक ने पूर्वोत्तर के लोगों को एकजुट कर दिया. यह विधेयक बीजेपी की सबसे बड़ी गलतियों में से एक है, वोट का बटन फैसला करेगा. लोगों को चाहिए कि बीजेपी और आरएसएस को क्षेत्र को तबाह करने की अनुमति न दें. एक बार पुर्वोत्तर के लोगों को चाहिए कि बीजेपी और आरएसएस को अस्वीकार कर दें. पहाड़ी क्षेत्रों में कमल नहीं खिला करते”.

व्यापक विरोध के बावजूद बीजेपी और उसके सहयोगियों ने जनवरी में असम में माइजिंग, रभा हसांग और सोनोवाल कछारी स्वायत्त आदिवासी परिषद के चुनाव जीत लिए. इसके बावजूद आल असम स्टूडेंट्स यूनियन के महासचिव लूरिनज्योति गोगोई ने कहा “परिषद का चुनाव जीतने का मतलब यह नहीं है कि बीजेपी ने असम के देशी लोगों की भावनाएं जीत ली हैं”. जब मैंने पूछा कि इसके “असम विरोधी” विधेयक लाने के बावजूद लोग बीजेपी को समर्थन देते हुए प्रतीत होते हैं तो उन्होंने कहा “साधारण लोगों को नागरिकता विधेयक के बारे में समझाना थकाऊ काम है”.

14 फरवरी को राष्ट्रपति ने अप्रैल और मई में होने वाले आम चुनाव से पहले संसद के अंतिम सत्र के समापन की घोषणा की. चूंकि यह राज्य सभा में पारित नहीं हुआ था इसका मतलब है कि नागरिकता (संशोधन) विधेयक रद्द हो गया और अगली संसद में फिर से प्रस्तुत किया जाना होगा. मोदी सरकार के पास विधेयक को प्रस्तुत करने लिए अध्यादेश का विकल्प है लेकिन प्रतिघात को देखते हुए ऐसे काम की संभावना नहीं रह जाती.

हजारिका ने मुझे बताया “बीजेपी की रणनीति उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसी मुख्य भारत भूमि के लोगों की भावनाओं को आकर्षित करने की है. 2016 के विधान सभा चुनावों में पहली बार वोटर बने हम युवाओं को बीजेपी सरकार से बहुत आशाएं हैं. लेकिन वास्तव में हम निराश हुए हैं. यद्यपि बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार ने राज्य में आधारभूत संरचना सम्बंधी महत्वपूर्ण विकास किया है लेकिन इसकी साम्प्रदायिक राजनीति असमिया लोगों और आने वाली पीढ़ियों के लिए विनाशकारी है. मैं एक हिंदू हूं लेकिन मैं किसी को इसलिए चोट नहीं पहुंचा सकता कि वह मुस्लिम है. असम में श्रीमंता शंकरदेव ने जाति या पंथ की परवाह किए बिना व्यापक असमिया समाज का निर्माण किया है. उनकी प्रगतिशील शिक्षा का पालन करते हुए हम यहां शान्ति से रहना चाहते हैं.

विडंबना यह है कि शंकरादेव की परंपराएं जिसका प्रयोग आरएसएस ने असम में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से उभार के लिए किया और असम आंदोलन का साम्प्रदायीकरण जिसका इस्तेमाल आरएसएस ने अपना राजनीतिक कद बढ़ाने के लिए किया, उन्हीं का प्रयोग अब संघ परिवार की आलोचना के लिए किया जा रहा है.

यह मात्र शब्दाडम्बर नहीं है कि बीजेपी को नागरिकता (संशोधन) विधेयक पर कोलाहल के परिणाम से निपटना है– असम और नागालैंड के अलावा नेडा के अधिकांश घटकों ने आने वाले आम चुनाव अपने बल पर लड़ने का निर्णय लिया है. एक आंदोलन के आधार पर आरएसएस ने पूरे उत्तरपूर्व में जो लाभ कमाया है उसे खारिज करना बहुत जल्दबाजी होगी.

अपने तौर पर शंकर दास चिंतित नहीं हैं. उन्होंने मुझसे बताया “बीजेपी फिर सत्ता में आएगी. यह देश की सबसे व्यावहारिक राजनीतिक पार्टी है”.

अनुवाद: मसीउद्दीन संजरी

(द कैरवैन के अप्रैल 2019 अंक में प्रकाशित इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)