महाश्वेता देवी का रचना संसार

25 फ़रवरी 2023
जोआना हेलग्रेन
जोआना हेलग्रेन

मैंने 2000 में अभिनेत्री सावित्री हिसनाम को महाश्वेता देवी की 1976 में लिखी कहानी 'द्रौपदी' के एक मंचीय रूपांतरण में नायिका की भूमिका में देखा. ‘द्रौपदी’ 1960 के दशक के अंत और 1970 के दशक की शुरुआत में नक्सली आंदोलन की पृष्ठभूमि में बंगाल-बिहार सीमा पर "झरखानी" के काल्पनिक लेकिन जाने-पहचाने वन क्षेत्र की एक विद्रोही महिला आदिवासी के बारे में है, जो शहर के एक कम्युनिस्ट गुरिल्ला समूह के साथ काम करती थी. द्रौपदी को सेना पकड़ लेती है और उसके साथ बारी-बारी से बलात्कार किया जाता है. महाभारत की तरह फिर से द्रौपदी को खुलेआम अपमानित करने की कहानी से अलग यहां महाश्वेता की द्रोपदी अपनी साड़ी उतार फेंकती है और राज्य ने उसे जो घाव दिए थे उन्हें छुपाने से इनकार कर देती है.

दर्शकों को विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि हिसनाम मंच पर पूरी तरह से नग्न खड़ी थीं. उनकी हल्की सी काया अचानक अंधेरी पृष्ठभूमि के बरक्स बड़ी हो गई. फिर एक शिकारी पक्षी की तरह उसने अपनी बाहों को फैलाया और धीरे-धीरे नपे हुए कदम अपने वर्दीधारी हमलावरों की तरफ उठाए. जैसे ही द्रौपदी ने संगीनों, बंदूकों से ज्यादा ताकतवर हथियार की तरह अपने जख्मों को ओढे, द्रौपदी ने अपने तार-तार शरीर को उनकी और फेंका तो सैनिक डर गए.

एक औरत को मंच पर नग्न दिखाने के लिए इस नाटक को विवाद झेलाना पड़ा. चार साल बाद जुलाई 2004 में मणिपुर में आंदोलनकारी औरतों ने 34 साल की थंगजाम मनोरमा के साथ हिरासत में हुए बलात्कार और उसकी हत्या के विरोध में अपने कपड़े उतार दिये. 10 जुलाई की रात को मनोरमा को प्रतिबंधित पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से कथित संबंधों का आरोप लगा कर अर्धसैनिक बल असम राइफल्स ने इम्फाल स्थित उनके घर से उठा लिया था. असम राइफल्स मुख्यालय के सामने हाथों मे "भारतीय सेना हमारा भी बलात्कार करो" कहते हुए बैनर पकड़े हुए लगभग चालीस महिलाओं ने, नग्न होकर प्रदर्शन किया. इस तीखे विरोध ने मीडिया की सुर्खियां तो बटोरी लेकिन मणिपुर में, जहां सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम अभी भी लागू है, महिलाओं के जीवन में अंतर नहीं आय जो असम राइफल्स को इस तरह की अभद्रता के साथ काम करने की इजाजत देता है. कई लोगों ने इस बात को चिन्हित किया कि कैसे महाश्वेता देवी ने भविष्य का अनुमान लगा लिया था.

इस साल की शुरुआत में हैदराबाद विश्वविद्यालय में पीएचडी के एक दलित उम्मीदवार रोहित वेमुला ने अपने पीछे एक नोट छोड़ कर खुद को फांसी लगा ली थी. नोट में लिखा था, "मेरा जन्म मेरे लिए घातक दुर्घटना है." वेमुला की मौत ने 1992 की यादों को ताजा कर दिया जब महाश्वेता ने 27 साल की चुन्नी कोटाल के समर्थन में एक सतत अभियान चलाया था, जो ग्रामीण पश्चिम बंगाल के एक आदिवासी समूह, लोढ़ा-शाबर समुदाय की पहली महिला विश्वविद्यालय स्नातक थी. लोढ़ा-शाबर लोग, जिन्हें ब्रिटिश भारत में एक आपराधिक जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया था, जिसे बाद मे समाप्त भी कर दिया गया लेकिन आज भी कायम है- या पीछे 1990 के दशक में बंगाल में था. कोलकाता से 150 किलोमीटर पश्चिम में विद्यासागर विश्वविद्यालय में अपने स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान, कोटाल को प्रोफेसरों और प्रशासकों ने जानबूझ कर परेशान किया. उन्होंने उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए एक आदिवासी महिला की आकांक्षाओं को खुले तौर पर चुनौती दी थी. यह स्पष्ट हो गया था कि उनकी शिकायतों के आधार पर विश्वविद्यालय द्वारा नियुक्त जांच आयोग दी जाने वाली धमकियों पर लगाम लगाने के लिए कुछ नहीं कर पाया और स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त करने का उनका सपना कभी पूरा नहीं हो पाया. कोटाल ने 16 अगस्त 1992 को खुद की जान ले ली.

बाद में राज्य द्वारा नियुक्त एक जांच आयोग ने बताया कि अपनी मौत के लिए कोटाल खुद जिम्मेदार थी. महाश्वेता ने इसे मानने से इनकार किया और मामले की फिर से जांच कराने का संकल्प लिया. उन्होंने इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली और बंगाली पत्रिका बोर्टिका में, जिसका संपादन उन्होंने 1980 में संभाला था, तीखे लेख लिखे. उन्होंने इसे कविताओं की एक साधारण पत्रिका से नजरअंदाज किए गए समुदायों के एक मंच में बदल दिया. 1982 में कोटाल ने खुद अपनी यात्रा के बारे में एक पत्रिका में लिखा था कि कैसे एक गरीब आदिवासी परिवार में पैदा हो कर भी उन्होंने अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी की. कठिन बाधाओं के बावजूद परीक्षा पास की. माहाश्वेता ने सरकार की उदासीनता की आलोचना की, कोटाल की मौत पर कोलकाता के बुद्धिजीवियों की उदासीनता पर सवाल उठाया, राज्य के मुख्यमंत्री ज्योति बसु को लिखा और केंद्रीय जांच ब्यूरो या न्यायिक जांच शुरू करने के लिए वह सब कुछ किया जो कभी नहीं हुआ था. कोटाल भारत के दलितों और आदिवासियों के प्रति पूर्वाग्रह के इतिहास में एक और आंकड़ा बन गई इसलिए महाश्वेता ने ईपीडब्ल्यू में लिखा था कि कोटाला ने कथित सहिष्णु, उदार, सौंदर्यवादी झुकाव रखने वाली और समतावादी पश्चिम बंगाल सरकार का "नकाब उतार दिया" था.

चित्रलेखा बसु की लघु कथा, साहित्यिक निबंध और अनुवाद हाल ही में एशिया लिटरेरी रिव्यू, ओपन रोड रिव्यू और द मिसिंग स्लेट में प्रकाशित हुए हैं. वह हांगकांग में चाइना डेली में आर्ट राइटर हैं.

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