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हरतोष सिंह बल : क्या आप हमें मानव पलायन और प्राचीन डीएनए पर रीच लैब में चल रहे काम के बारे में बता सकते हैं?
वाघेश नरसिम्हन : हम लगभग पिछले पांच सालों से प्राचीन डीएनए पर काम कर रहे हैं, उससे पहले हम आधुनिक डेटा पर काम कर रहे थे. प्राचीन नमूनों को अनुक्रमित करने की क्षमता वाली क्रांतिकारी नई तकनीक लगभग दस साल पहले 2010 में पहली निएंडरथल जीनोम के अनुक्रमण के साथ सामने आई थी. तब से हमने इस तकनीक का उपयोग न केवल प्राचीन इतिहास का बहुत गहराई से अध्ययन करने के लिए किया है, बल्कि हालिया घटनाओं के अध्ययन के लिए भी किया है. 2009 में हमारी प्रयोगशाला ने पहली बार भारतीय आनुवंशिक इतिहास की जांच शुरू की. हमने आधुनिक भारत से बड़ी संख्या में नमूने अनुक्रमित कर इनसे जनसंख्या इतिहास के पुनर्निर्माण का प्रयास किया. आज हम जानते हैं कि यह एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम है और यह काम अतीत की घटनाओं के बारे में बहुत अस्पष्ट है. सीधे प्राचीन डीएनए अनुक्रम होने से- यानी ऐसे व्यक्तियों के जीनोम जिन्हें दसियों हजार नहीं तो हजारों सालों पहले जमीन में दफनाया गया था- हम यह जांच कर सकते हैं कि मनुष्य दिक और काल (स्पेस और टाइम) कैसे आगे बढ़ा. रेडियोकार्बन डेटा से, जो नमूनों की बहुत ही सटीक समय सापेक्ष जानकारी देता है, हम वास्तव में जांच कर सकते हैं कि मानव पलायन कैसे हुआ. इस प्रकार, यह इस विषय का इतिहास है और इसका भी कि हमने भारत को कैसे देखना शुरू किया.
हरतोष सिंह बल : प्राचीन डीएनए का नमूना लेना, विशेष रूप से उपमहाद्वीप में, असली चुनौती होती है. ऐसा क्यों है?
वाघेश नरसिम्हन : दो कारणों से. पहला कारण तकनीकी है: प्राचीन डीएनए का क्षरण होता है. आपके पास डीएनए हैं वे मिट्टी या कंकाल में निहित हैं और प्राकृतिक कारणों से इनका क्षरण होता है मतलब यह कम होता जाता है. डीएनए फ्रेगमेंट की लंबाई कम होती जाती है और यह इतनी कम हो जाती है कि उनका उपयोग विश्लेषण में नहीं किया जा सकता. गर्म और आर्द्र जलवायु भी चुनौतियां हैं क्योंकि इन परिस्थितियों में क्षरण दर बढ़ जाती है. दूसरा मुद्दा यह है कि हमारे पास अभी तक ऐसी सामग्री उपलब्ध नहीं है जैसी यूरोप, मध्य एशिया या यहां तक कि अमेरिका में उपलब्ध है. लेकिन हमें इनमें से कई परियोजनाओं में मिली सफलता के आधार पर हम मानवशास्त्रीय (भारतीय सर्वेक्षण विभाग) और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण अधिकारियों के सामने प्रस्ताव रखने की उम्मीद करते हैं. हमें पाकिस्तान से भी सैकड़ों नमूने इकट्ठा करने की इजाजत मिल रही है, इसलिए यह बहुत अच्छा होगा कि हम भारत से भी नमूने ले पाएं.
हरतोष सिंह बल : प्राचीन डीएनए काम लायक टुकड़े को निकाल लेने के बाद अगले चरण में क्या होते हैं?
वाघेश नरसिम्हन : हम 75 मिलीग्राम बोन पाउडर लेते हैं - जो आपकी छोटी उंगली के नाखून के आकार से कम होता है. लोग कहते हैं कि यह एक विनाशकारी विश्लेषण प्रक्रिया है लेकिन वास्तव में हमारे द्वारा ली जाने वाली सामग्री की मात्रा दशकों से उपयोग की जा रही रेडियोकार्बन डेटिंग सहित अन्य प्रक्रियाओं की तुलना में बहुत कम होती है. हम हर नमूने में यह सुनिश्चित करने का पूरा प्रयास करते हैं कि नमूना यथासंभव गैर-आक्रामक और गैर-विनाशकारी हो. प्रयोगशाला के सदस्यों ने ऐसा करने के लिए अग्रणी तकनीक विकसित की है और पुरातत्व नमूने एकत्र करने की सर्वोत्तम प्रक्टिसों की पुस्तिकाएं प्रकाशित की हैं.
दूसरी बात यह है कि हमारे शरीर में काफी मात्रा में डीएनए होता है. हमारी त्वचा में भी डीएनए होता हैं. सीधे अपने नंगे हाथों से नमूनों को इकट्ठा करने से नमूने में मौजूद प्राचीन डीएनए में मिलावट हो सकती है. इसे नियंत्रित करने के लिए, हम ऐसी प्रयोगशाला में काम करते हैं जिसमें नमूनों पर काम करने वाले लोगों के लिए एक अलग साफ कमरा होता है जिससे हमारे जरिए नमूनों के दूषित होने की कोई गुंजाइश न रहे. यह सुनिश्चित करने के लिए हमारे पास एक बहुत ही परिष्कृत प्रक्रिया है कि हम जिस वातावरण में काम कर रहे हैं वह साफ-सुथरी है. साफ-सुथरी होने से मेरा मतलब है कि इसमें कई अन्य पर्यावरणीय डीएनए, जो कि हवा में बह रहे होते हैं और नमूने से मिलकर डीएनए को दूषित कर सकते हैं. एयरफ्लो तंत्र को बाकी इमारत से अलग किया जाता है, इसलिए उस वातावरण में फिल्टर की जाने वाली हवा वास्तव में उस कमरे के लिए विशिष्ट होती है, जहां हम डीएनए निकालने पर काम कर रहे हैं. ब्लीच और अन्य अभिकर्मकों के साथ यूवी प्रकाश और सतह की सफाई आगे की प्रक्रिया है जो हम पर्यावरणीय डीएनए संदूषण को दूर करने के लिए करते हैं.
प्रयोगशाला के बाहर भी हम यह सुनिश्चित करने के लिए कि विश्लेषण में कोई संदूषण न रहे, हम विभिन्न जैव सूचनात्मक परीक्षण करते हैं. प्राचीन डीएनए में डीएनए क्षति के लक्षण हैं और हम उन्हें आधुनिक डीएनए से दूषित होने से बचाने के लिए इस जानकारी का उपयोग कर सकते हैं. इस प्रकार हम उस पाउडर को लेते हैं जिसे हम विशेष रूप से तैयार करते हैं (एक रासायनिक प्रक्रिया का उपयोग कर डीएनए अनुक्रम लाइब्रेरी में पाउडर बनाया जाता है. इस प्रक्रिया में हम हड्डी में मौजूद कोशिकाओं को तोड़ते हैं) चूंकि मानव शरीर में हड्डी भी एक प्रकार का ऊतक है इसलिए डीएनए को उससे निकालते हैं. हम फिर इस डीएनए को अनुक्रमित करते हैं और सांख्यिकीय विधियों का उपयोग करके इसका विश्लेषण करते हैं.
हरतोष सिंह बल : लैब ने यूरोप में बसावट का भी अध्ययन किया है. क्या यह कार्य उस एक बड़े कार्यक्रम का हिस्सा है जो दक्षिण एशिया से परे भारत-यूरोपीय प्रश्न की जांच करने के लिए है?
वाघेश नरसिम्हन : बिल्कुल. हमारी रुचि पूरी दुनिया के प्राचीन डीएनए का एटलस बनाने में है. हम यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि पूरी दुनिया में समय के साथ इंसान कैसे बदलते और विकसित होते गए. मुझे लगता है कि यह दिलचस्प सवाल है. अभी हम इसके बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं लेकिन पिछले सालों में इसकी समझदारी में प्रगति हुई है. इन हालिया अध्ययनों से पहले, हमारा काम और नमूने ज्यादातर यूरोप के ही थे. हमारे काम ने बार-बार आश्चर्यचकित किया है जिसने रूढ़िवादी साहित्य को पलट कर रख दिया है, जिसमें यह भी सामने आया है कि पश्चिमी यूरोप में बड़े पैमाने पर लगातार आबादी में बदलाव हुआ है, न केवल एक बार, बल्कि दो बार. उदाहरण के लिए ब्रिटिश आइल्स को ही लें. हमने पहली बार दिखाया कि लगभग पांच या छह हजार साल पहले पश्चिमी अनातोलिया में किसानी से जुड़ी पहली आबादी ने शिकारी आबादी की जगह ली थी. फिर हमने दिखाया कि ये खेतीहर आबादी, जिसने स्टोनहेंज जैसे प्रमुख स्थलों का निर्माण किया, वह कांस्य युग में मध्य यूरोप से आई आबादी से बदल गई. मध्य युग के लगभग पचास प्रतिशत पूर्वज स्वयं पूर्व-यूरेशिया के मैदान से आए थे.
भारत-यूरोपीय प्रश्न, गहन प्रश्न है. यह आनुवांशिकी का नहीं बल्कि मूल रूप से भाषाविज्ञान से जुड़ा सवाल है, क्योंकि यह समझने की कोशिश हो रही है कि डबलिन से लेकर दिल्ली तक व्यापक रूप से बोली जाने वाली भाषाएं, क्यों एक ही भाषा परिवार की हैं. यह दो सौ वर्षों से एक रहस्य है और लोगों ने इसकी कई तरह से व्याख्या की है. अकादमिक हलकों में दो मुख्य व्याख्याएं की जाती हैं. पहली, निकट पूर्व से खेती के प्रसार के चलते, और दूसरी, पोंटिक-कैस्पियन मैदान में चरवाहों का फैलाव.
अब हमारे पास प्राचीन डीएनए का डेटा है जो इन सवालों की जांच करना शुरू करता है. दुनिया के विभिन्न हिस्सों में जहां भारत-यूरोपीय भाषाएं बोली जा रही हैं और जहां गैर-भारतीय-यूरोपीय भाषा बोली जा रही हैं उनका अध्ययन करने की कोशिश करते हैं. एक तरफ ग्रीस और भूमध्यसागरीय तथा दूसरी तरफ स्पेन जैसे देश हैं जहां आज भी गैर-भारतीय-यूरोपीय भाषाएं बोली जाती हैं. हम मध्य एशिया, रूस के कुछ हिस्सों, अल्ताई पहाड़ों, साथ ही साथ भारत और ईरान का भी अध्ययन करते हैं.
हरतोष सिंह बल : आप आनुवांशिकी को भाषा जैसे मुद्दे से कैसे जोड़कर देखते हैं?
वाघेश नरसिम्हन : ऐसा नहीं कर सकते. इसके प्रत्यक्ष प्रमाण कभी नहीं मिलने वाले क्योंकि हड्डियां बोलती नहीं. मुझे लगता है कि यह समझना महत्वपूर्ण है कि वास्तव में इसके तीन अलग-अलग पहलू हैं जिन्हें हम समझने की कोशिश कर रहे हैं. एक पुरातात्विक है - जमीन पर भौतिक संस्कृति क्या है? दूसरा सवाल भाषाविज्ञान है - ये लोग किसी विशेष स्थान पर किसी विशेष समय में कौन सी भाषाएं बोल रहे हैं? तीसरा आनुवांशिकी है - लोग कैसे पलायन करते हैं? इन सभी को जोड़ कर देखने की आवश्यकता नहीं है और वे हमेशा एक दूसरे का अनुसरण नहीं करते. एक ही भाषा बोलने वाले लोग अलग-अलग संस्कृतों में भाग ले सकते थे. इसकी मिसाल इंडो-यूरोपियन भाषा है जो व्यापक रूप से बोली जाती है. उदाहरण के लिए यह कैसे संभव है कि संस्कृत और ग्रीक भाषाएं तमिल और संस्कृत की तुलना में अधिक निकटता से जुड़ी हैं जबकि भौगोलिक रूप से तमिल और संस्कृत बहुत करीब हैं? लोगों की आवाजाही ने प्राचीन दुनिया में भारत-यूरोपीय भाषाओं को फैलाने में मदद की.
हरतोष सिंह बल : मैं इस चर्चा को कालक्रमबद्ध रखते हुए भारत-यूरोपीय प्रश्न पर लौटना चाहता हूं. मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि प्राचीन डीएनए हमें उपमहाद्वीप में बसावट की शुरुआत के बारे में क्या बताता है? आपका काम भारतीय जीनोम के लिए एक आनुवंशिक सब्सट्रेट की बात करता है, जिसे आप अंडमानी शिकारी कहते हैं. यह किससे संबंधित है, क्या दर्शाता है और आज हमें इसके निशान कहां मिलेंगे?
वाघेश नरसिम्हन : मुझे लगता है कि सब्सट्रेट से आपका तात्पर्य वंश से है जिसे हम अंडमानी शिकारी से संबंधित होना कहते हैं. मुझे लगता है कि इस "संबंधित" शब्द के स्पष्टीकरण की आवश्यकता है. यह गलत धारणा है कि जब हम वंशगत स्रोतों का वर्णन करते हैं तो इसका मतलब है कि एक आबादी दुनिया के दूसरे हिस्से में चली गई. यहां हम "संबंधित" का उपयोग इस तथ्य का उल्लेख करने के लिए करते हैं कि दो आबादियां एक सामान्य पूर्वज की वंशज हैं. इस मामले में आधुनिक भारतीयों के पुर्वजों का अंडमानी शिकारियों से बहुत गहरा संबंध है. गहराई से मेरा मतलब है कि यह वंशगत प्रकार का झुकाव आज से लगभग 30000 साल पहले अंडमानी शिकारियों से आया था. हम अंडमानी शिकारियों का प्रोक्सी के रूप में उपयोग करते हैं क्योंकि हमारे पास उस वंश प्रकार की कोई स्रोत आबादी नहीं है जो मिश्रित न हो. इस प्रकार, अंडमानी शिकारियों को एक प्रोक्सी आबादी के रूप में उपयोग किया जाता है, जिससे यह पता चलता है कि भारत के पहले शिकारियों के वंशज कैसे दिखाई देते थे. तो, यह विशेष वंश लोगों के पहले समूह को संदर्भित करता है, जो किसी समय भारत के दक्षिण-पूर्व में आकर बसे. हम सही-सही नहीं जानते कि ऐसा कब हुआ, लेकिन यह एक सब्सट्रेट है जो भारत के अधिकांश हिस्सों में व्याप्त है.
हरतोष सिंह बल : अगर कोई मौजूदा आबादी ऐसी नहीं है जो इस सब्सट्रेट से मेल खाती है, तो हम यह नहीं कह पाएंगे कि वे किससे मिलते-जुलते थे या वे कौन सी भाषा बोलते थे?
वाघेश नरसिम्हन : सही कहा आपने. यह हम नहीं जानते.
हरतोष सिंह बल : लेकिन यह सबसे गहरा सब्सट्रेट है जिसे आप उस आबादी के प्राचीन डीएनए में पाते हैं जिसे सिंधु घाटी की परिधि की आबादी कहते हैं. यह सिंधु घाटी की परिधि क्या है?
वाघेश नरसिम्हन : यह एक बहुत ही दिलचस्प सवाल है. आपने जिक्र किया कि यह सबसे गहरा सब्सट्रेट है, लेकिन वास्तव में हमारा काम अब दिखा रहा है कि शिकारी-संग्रहकर्ताओं का एक और समूह है जो उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिम के आसपास के व्यापक क्षेत्र में कहीं रहा होगा. यह सब्सट्रेट ईरानी पठार के शुरुआती शिकारी-संग्रहकर्ताओं और किसानों से संबंधित है, लेकिन उनसे उसी तरह गहरे रूप से अलग है जैसे कि अंडमानी शिकारी-संग्रहकर्ताओं से दक्षिण-पूर्व के लोग गहरे रूप से अलग रहे होंगे.
सिंधु घाटी की परिधि की आबादी वास्तव में इन दो अलग-अलग प्रकार के शिकारी-संग्रहकर्ताओं के पूर्वजों का मिश्रण है, जो दक्षिण-पूर्व और दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिम के आसपास के क्षेत्रों में व्यापक रूप से बसे होंगे. फिलहाल हमारे पास ईरान के पूर्वी किनारे से लेकर श्रीलंका तक के भौगोलिक क्षेत्र की शुरुआती शिकारी-संग्रहकर्ता आबादी का कोई डेटा नहीं है और इसलिए हम बस श्रीलंका की शिकारी-संग्रहकर्ता आबादी में इन वंशों को देखने के आधार पर उनकी सीमा का अनुमान लगाते हैं, जैसे कि वे जो सिंधु घाटी की सभ्यता के थे. प्राचीन काल में इन वंशों की सीमा और विस्तार का निर्धारण अभी बाकी है. हम बस यही जानते हैं कि जिस वंश को हम सिंधु परिधि या सिंधु घाटी क्लाइन कहते हैं, ये दोनों वंश लगभग छह से आठ हजार साल पहले के हैं.
हरतोष सिंह बल : राखीगढ़ी साइट के प्राचीन डीएनए नमूने की रोशनी में क्या सिंधु घाटी की आबादी सिंधु घाटी की परिधि की आबादी से मिलती है?
वाघेश नरसिम्हन : हम इसे बिल्कुल ऐसे ही देखते हैं. राखीगढ़ी के नमूने शिकारी-संग्रहकर्ताओं के इन दो समूहों के बीच के वंश क्लाइन के बीच में बैठते हैं.
हरतोष सिंह बल : तो सिंधु घाटी की आबादी इन दो आबादी का मिश्रण है, जिसमें उत्तर-पश्चिमी शिकारी-संग्रहकर्ताओ का योगदान अधिक है?
वाघेश नरसिम्हन : बिल्कुल सही.
हरतोष सिंह बल : और क्या यह अनुपात अभी भी अधिकांश आधुनिक भारतीय आबादी में दिखाई देता है?
वाघेश नरसिम्हन: हां, लेकिन अधिकांश आधुनिक भारतीय आबादी में वास्तव में अंडमान के शिकारी-संग्रहकर्ताओं से संबंधित अनुपात बहुत अधिक है, इसलिए यहां एक अतिरिक्त मिश्रण भी है जो लगभग तीन हजार साल पहले हुआ होगा. अगर हम आधुनिक हरियाणा से किसी को लें और राखीगढ़ी के नमूनों से उसकी तुलना करें तो उसमें ज्यादा अंडमानी शिकारी-संग्रहकर्ताओं के पूर्वज के डीएनए मिलेंगे. मालूम होता है कि सिंधु घाटी सभ्याता के परिपक्व होने पर सदियों पहले शुरू हुआ वंशो का यह मिश्रण सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद भी कई सदियों तक जारी रहा. बावजूद इसके, इन दोनों पूर्वजों के प्रकारों को एक साथ लिया गया है, जो आज की आधुनिक भारतीय आबादी का प्राथमिक स्रोत है. भारत की अस्सी से सौ प्रतिशत के बीच आबादी मूल रूप से सिंधु घाटी सभ्यता से संबंधित वंश की है, जो खुद भी मोटे तौर पर उपमहाद्वीप के उत्तर पश्चिम और दक्षिण-पूर्व में रहने वाली शिकारी-संग्रहकर्ता आबादी की वंशज थी.
हरतोष सिंह बल : जब हम सिंधु घाटी की आबादी और राखीगढ़ी के नमूना के एक होने की बात करते हैं तो परिधि के 11 नमूने इसका समर्थन कैसे करते हैं और इसे अधिक मजबूत परिणाम बनाते हैं?
वाघेश नरसिम्हन : लोग इसके बारे में बहुत चिंतित हैं कि यह एक एकल नमूना है और मैं इसके बारे में सीधे बात करना चाहता हूं. यहां भ्रांतियां हैं. समझने वाली पहली बात यह है कि एक एकल जीनोम न केवल उस व्यक्ति के हजारों पूर्वजों की जानकारी को एकीकृत करता है बल्कि यह आबादी के आनुवंशिकी की बारे में भी अत्यंत ज्ञानवर्धक है. सैकड़ों व्यक्तियों का नमूना लेना आवश्यक नहीं है क्योंकि इससे सिर्फ वहीं जानकारी बारबार प्राप्त कर रहे होते हैं.
दूसरी बात यह है कि हमारे पास कई नमूने भी हैं, 11 बाहरी नमूने, जो सिंधु घाटी सभ्यता के साथ सांस्कृतिक संपर्क रखने वाली उपमहाद्वीप की परिधि की साइटों पर हैं : बलूचिस्तान और पूर्वी ईरान के बीच की सीमा पर शाहर-ए-सोख्ता और तुर्कमेनिस्तान में गोनूर टेप आज की बैक्ट्रिया-मैरेजा पुरातत्व परिसर (मध्य एशिया में कांस्य युग के लिए पुरातात्विक पदनाम). ये नमूने पुरातात्विक संदर्भ में, समस्थानिक डेटा और आनुवंशिक वंशावली के आधार पर इन साइटों के प्रवासी प्रतीत होते हैं. एक साथ लिए गए, ये 11 नमूने और राखीगढ़ी का एकल नमूना, 110 नमूनों के लिए स्रोत आबादी हैं जो हमें पाकिस्तान की स्वात घाटी से मिले हैं और हजारों नमूने हैं जो हमारे पास आधुनिक भारत से हैं.
हमने दिखाया है कि मध्य एशिया और ईरान से मिले ये पांच सौ से अधिक नमूने ही एकमात्र संभावित स्रोत आबादी हैं जो भौगोलिक रूप से भारत के निकट हैं. ये अन्य स्रोत आबादी नहीं हैं और केवल ये नमूने स्रोत आबादी हैं जो एक ऐसी वंशावली को दर्शाता है जो उत्तर-पश्चिमी भारत में कांस्य युग में मौजूद रही होगी. इसलिए राखीगढ़ी के एकल नमूने के साथ ये 11 नमूने एक तरह से वंश को परिभाषित करते हैं. अतिरिक्त नमूने के साथ भी यह संभावना है कि हम केवल इस जीनोमिक वितरण से नमूना लेने जा रहे हैं.
हरतोष सिंह बल : राखीगढ़ी का एक नमूना 11 अन्य नमूनों से मेल खाता है तो क्या ऐसी संभावना है कि यह एक नमूना पुरातात्विक अपवाद हो?
वाघेश नरसिम्हन : मुद्दा यह है कि अगर यह एक पुरातात्विक अपवाद था, तो आपको यह पूछना होगा कि यह आबादी आज अरबों लोगों के लिए एक स्रोत आबादी के रूप में क्यों योग्य बैठती है और यह 11 अन्य नमूनों द्वारा वंशगत झुकाव व्यवस्था से मेल खाती है जो दक्षिण एशिया से मध्य एशिया में आव्रजन में दिखाई देती है.
हरतोष सिंह बल : यह हमें मैदानी चरवाहों पर वापस लाता है. हम इस तथ्य से क्या सीखते हैं कि इन 11 बाहरी और राखीगढ़ी के नमूने का मैदानी चरवाहों से कोई आनुवंशिक योगदान नहीं था?
वाघेश नरसिम्हन : इस तथ्य के अलावा कुछ नहीं कि उनके पास ऐसा कोई वंश नहीं है. यह वंश बाद में आया होगा - यह सभी आधुनिक दक्षिण एशियाइयों में लगभग सर्वव्यापी है और राखीगढ़ी के नमूने के ठीक एक हजार साल बाद के सैकड़ों नमूने हैं जो हमें स्वात घाटी से मिले हैं.
हरतोष सिंह बल : क्या यह स्थान उस समय सीमित था जब मैदानी चरवाहे दक्षिण एशिया में आए?
वीएनप: हां, दो तरह से. मध्य एशिया से, हमारे पास प्रत्यक्ष रेडियोकार्बन तिथियां हैं. हमारे पास मैदानों से लगभग तीन सौ नमूने और तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान और ईरान से लगभग दो सौ नमूनों का आनुवंशिक डेटा है. इसलिए हमारे पास दुनिया के कुछ हिस्सों से बहुत सारी जानकारी है जो पोंटिक-कैस्पियन मैदानों से भारत के बीच के हैं. हम वास्तव में उस स्थान से उतरने के चलते समय पर होने वाली लोगों की आवाजाही को उनके वंशानुगत प्रकार के साथ देख सकते हैं. हम उसी प्रक्रिया को लागू करते हैं जिसका उपयोग हम यूरोप में करते थे, जहां हमने दिखाया कि यूरेशियाई मैदानों से लोग पूर्वी यूरोप, फिर मध्य यूरोप और अंत में पश्चिमी यूरोप के तट पर चले गए और इसी तरह से हम वास्तव में समय के साथ इस वंश को देख सकते हैं.
इसी तरह, हम केवल 2000 ईसा पूर्व के आसपास दक्षिण एशिया की परिधि में इस वंश की आवाजाही की जांच कर सकते हैं - जो सबसे प्राथमिक प्रमाण हैं. दूसरे दर्जे के साक्ष्य 110 नमूने हैं जो हमें क्षेत्र की सुदूर उत्तर - पश्चिम की स्वात घाटी से मिले हैं. उन सभी नमूनों में मैदानी वंश का कुछ अनुपात है और हम सांख्यिकीय तकनीक का उपयोग करके सीधे वहां से शुरू कर सकते हैं जब ये मैदानी वंश उन नमूनों के जीनोम में पहुंचे. और जब हम ऐसा करते हैं, तो हमें उस शुरूआत का भी पता चलता है जो इसके एकदम संगत है जिसका हम लोगों की आवाजाही से सीधे तौर पर निरिक्षण कर रहे हैं, जहां हमारे पास वास्तव में मैदानी चरवाहों के दक्षिणी पलायन के प्राचीन डीएनए हैं. इन सबको साथ मिलाकर, हम एक अनुमान लगाते हैं कि यह प्रक्रिया कब हुई.
हरतोष सिंह बल :यह ठीक सिंधु घाटी सभ्याता के पतन और अंत के बाद शुरू हुआ?
वाघेश नरसिम्हन : हां, यह व्यापक प्रक्रिया पतन के बाद ही होनी चाहिए.
हरतोष सिंह बल : हमने बाद में मैदानी क्षेत्रों से नीचे भारत में ऐतिहासिक विस्तार किया है - शक, हूण. लेकिन यह वही आबादी नहीं है?
वाघेश नरसिम्हन : नहीं. हम वास्तव में सीधे पेपर में इसकी जांच करते हैं. और उन सभी आबादियों ने बहुत कम प्रभाव छोड़ा या दक्षिण एशिया के आनुवंशिक बनावट पर लगभग कोई प्रभाव नहीं पड़ा. इसी तरह, इस्लामिक काल में बाद की आवाजाही ने भी ज्यादा योगदान नहीं दिया. कुल मिलाकर भारत में बहुसंख्यक आबादी ऐतिहासिक रूप से कांस्य युग के बाद आवाजाही से अप्रभावित है.
हरतोष सिंह बल :आधुनिक भारतीयों में मैदानी चरवाहों से आनुवंशिक योगदान की मात्रा क्या है?
वाघेश नरसिम्हन : यह अधिकतम बीस प्रतिशत है.
हरतोष सिंह बल : क्या इस योगदान की मात्रा उपमहाद्वीप में आने वाले लोगों के एक छोटे समूह का परिणाम हो सकती है?
वाघेश नरसिम्हन : यह संभव नहीं है. यह संभवत: बड़ी संख्या में लोगों के आने की वजह से है और मुझे लगता है कि यह यूरोप में हम जैसा देखते हैं, वैसा ही है- उदाहरण के लिए, ब्रिटिश द्वीप समूह में 90 प्रतिशत आबादी में प्रतिस्थापन और पुरुष वंशावली में 100 प्रतिशत प्रतिस्थापन है. इसी तरह, स्पेन में, जहां 40 प्रतिशत प्रतिस्थापन जीनोम-वाईड है और पुरुष वंशावली में वाई गुणसूत्रों में 100 प्रतिशत प्रतिस्थापन है. इसलिए यूरोप में, जहां पर्याप्त खेतीहर आबादी भी है, हमने पहले से ही आबादी में परिवर्तन के सबूत देखे हैं. लेकिन मैदानी चरवाहों ने दुनिया के उस हिस्से में एक अत्यंत पुरुष पक्षपाती तरीके से अधिक महत्वपूर्ण प्रभाव डाला.
हरतोष सिंह बल : और यह पुरुष पक्षपात एक पैटर्न है जो दक्षिण एशिया में भी देखा जाता है?
वाघेश नरसिम्हन : हां, लेकिन समान सीमा तक नहीं. हमारे पास स्वात घाटी में लौह युग की आबादी में पहली बार एक महिला-पक्षपाती आव्रजन का सबूत भी है.
हरतोष सिंह बल : भारत-यूरोपीय सवाल से जुड़े दक्षिण एशिया में आबादी का यह आव्रजन कैसे हो रहा है?
वाघेश नरसिम्हन : यह एक बड़ा प्रश्न है और इस पर ध्यान देना होगा कि हम भाषा के साथ पूर्वजों को कैसे जोड़ रहे हैं. हम धारणा के साथ शुरू करते हैं - यह एक बड़ी धारणा है, लेकिन मैं समझाने की कोशिश करूंगा कि यह सच है कि भाषाओं का प्रसार, कम से कम राज्य उत्पत्ति पूर्व समाजों में, पर्याप्त संख्या में लोगों की आवाजाही के कारण हुआ होगा. ऐसा नहीं है कि उस समय हमारे पास स्काइप था जहां हम दुनिया में कहीं से भी चीनी सीख सकते थे.
सवाल यह है कि कोई भाषा को बेतरतीब ढंग से स्थानांतरित करना क्यों पसंद करेंगे? यह बहुत हद तक मुमकिन है कि बड़ी संख्या में लोगों की आवाजाही की संभावना ही वह तंत्र थी जिसके द्वारा प्राचीन दुनिया में भाषा का प्रसार होता है. इसलिए अगर हमें ऐसे साक्ष्य मिलते हैं, जहां यह होता है और यह भाषा वितरण के साथ दृढ़ता से संबंधित है, तो इसकी हमारी जांच-पड़ताल के लिए सबसे मुमकिन स्पष्टीकरण होने की संभावना है. यही मार्गदर्शक सिद्धांत है जिसका हम उपयोग कर रहे हैं.
हम जानते हैं कि आज भारतीय-यूरोपीय भाषाएं कहां बोली जाती हैं. पूरे ब्रिटिश द्वीपों से लेकर उत्तर भारत तक ये बोली जाती हैं. हम कोशिश कर रहे हैं और समझ रहे हैं कि अगर एक साझा वंशावली प्रकार है तो वह दुनिया में उन सभी भौगोलिक स्थानों को जोड़ता है, जहां भारतीय-यूरोपीय भाषाएं आज या ऐतिहासिक रूप से बोली जाती रही हैं.
हम दो चीजें पाते हैं : पहली, एक मैदानी चरवाहा वंश, जो इन सभी क्षेत्रों या ऐसे क्षेत्रों के एक बड़े हिस्से को जोड़ता है और इस वंश को महत्वपूर्ण स्तरों पर देखा जाता है. दूसरी यह कि जिस तरह से पूर्वज फैलते जाते हैं वह अच्छी तरह से ज्ञात भाषाई जानकारी को दर्शाता है कि कुछ भाषाएं, भाषाई विशेषताओं को दूसरों के विपरीत कैसे साझा करती हैं और लोगों की आवाजाही विभिन्न भाषाई विशेषताओं को साझा करती है. तीसरे स्तर का साक्ष्य यह है कि दुनिया के उन क्षेत्रों में जहां भारतीय-यूरोपीय और गैर-भारतीय-यूरोपीय भाषाएं जुड़ती हैं-बोली जाती हैं, भारत में जहां हमारे पास द्रविड़ियन और भारतीय-यूरोपीय भाषाएं हैं - हम पाते हैं कि वे लोग जो भारतीय-यूरोपियन बोल रहे हैं वे मैदानी चरवाहे वंश को भी समृद्ध करते हैं.
यह सिर्फ भारत में ही नहीं होता है बल्कि ग्रीस में भी होता है, जहां यूरोप की सबसे प्रारंभिक इंडो-यूरोपीय भाषाएं, मिनोअंस और माइसेनियांस पाई जाती हैं. माइसेनियांस एक इंडो-यूरोपियन भाषी आबादी है, हम वास्तव में नहीं जानते हैं कि मिनोअंस क्या बोलते हैं लेकिन हमें लगता है कि इसकी इंडो-यूरोपियन नहीं होने की संभावना है. वहां हम फिर से पाते हैं कि मैदानी चरवाहों के वंश के बीच का अंतर है. आप इसे बास्क और अन्य स्पेनिश व्यक्तियों में देखते हैं जहां बास्क एक इंडो-यूरोपीय भाषा नहीं है, लेकिन स्पैनिश एक इंडो-यूरोपीय भाषा है. दो पूर्वजों के बीच का अंतर मैदानी वंश है. हम इसे इटली के अलग-अलग हिस्सों में देखते हैं जहां ऐतिहासिक रूप से इंडो-यूरोपियन और गैर-इंडो-यूरोपियन भाषाओं को देखा गया है और फिर से, आप इंडो-यूरोपियन और गैर-इंडो-यूरोपीय आबादी के बीच और आनुवंशिक निरंतरता के संबंध में मैदानी चरवाहों से जुड़ाव के बीच अंतर देखते हैं. हम इसे शिनजियांग के उत्तर-पश्चिम चीन में फिर से देखते हैं जहां तुचाइरियन भाषाएं (इंडो-यूरोपीय भाषाओं की एक विलुप्त शाखा) अब बोली नहीं जाती हैं, लेकिन अतीत में बोली जाती थीं. यह बहुत ही विचित्र होगा, अगर ये सभी चीजें सिर्फ संयोग से हुईं और मैदानी चरवाहा वंश का तार इंडो-यूरोपियन भाषाओं के साथ नहीं जुड़ा.
हरतोष सिंह बल : तो क्या हम कुछ हद तक निश्चित रूप से कह सकते हैं कि वेदों की भाषा, कोई भी संस्कृत या आद्य-संस्कृत, मैदानी चरवाहों के साथ भारत पहुंची?
वाघेश नरसिम्हन : खैर, यह एक अलग सवाल है. आप पूछ रहे हैं कि क्या संस्कृत उनके साथ आई है.
मुद्दा यह है कि, आरंभिक संस्कृत ग्रंथ, ऋग्वेद की रचना का भूगोल कुछ ऐसा है जो दार्शनिक आंकड़ों से अनुमानित है और यह स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में यह कहां है, हालांकि इसकी अत्यधिक संभावना है कि वर्णित घटनाएं उत्तर पश्चिम दक्षिण एशिया तक सीमित हैं. अगर ऐसा है, तो हमारे पास उपलब्ध संस्कृत के सबसे शुरुआती सबूतों को दक्षिण एशिया के भीतर देखा जाता है और उस समय तक जब तक यह पूर्वी ईरान में दिखाई देने वाले भाषा परिवारों से अलग हो जाती है. तो विचलन किसी बिंदु पर हुआ होगा और यह भौगोलिक रूप से कहां हुआ था, अभी तक ज्ञात नहीं है.
हरतोष सिंह बल : इन शोध पत्रों के मुख्य लेखकों में से एक, वसंत शिंदे ने विभिन्न प्रेस सम्मेलनों में दावा किया है कि सिंधु घाटी की संस्कृति एक वैदिक संस्कृति थी या अधिकांश वैदिक संस्कृतियों का स्रोत थी. बेशक, दोनों बयान बहुत अलग हैं. मुझे लगता है कि वह कह रहे हैं कि यह वैदिक संस्कृति थी. क्या आप इस बात सहमत हैं?
वाघेश नरसिम्हन : मुझे लगता है कि यह इस बात पर निर्भर करता है कि वैदिक संस्कृति से आपका क्या मतलब है. हम यूरोप से फिर से एक उपमान ले सकते हैं, जहां हमारे पास मैदानी चरवाहों के आने से पहले और बाद में वंशावली में बदलाव और भौतिक संस्कृति के बारे में बहुत सारे आंकड़े हैं. वहां, मध्य यूरोप की बेल-बीकर संस्कृति (यह शब्द प्रारंभिक यूरोपीय कांस्य युग को संदर्भित करता है, इसका नाम मध्य यूरोप के उल्टे बेल-बीकर बर्तनों से लिया गया है, जहां इनका इस्तेमाल होता था) ऐसी थी जो बड़े पैमाने पर पश्चिमी यूरोप में उत्पन्न हुई थी, लेकिन कंकालों से जुड़ी थी, जिनके 50 प्रतिशत से ज्यादा वंशज यूरेशियाई मैदानों से आने वाले चरवाहों से संबंधित थे. इस प्रकार यूरोप में हमारे पास ऐसे लोगों के स्पष्ट उदाहरण हैं जिनके पूर्वज मैदानों से थे और जिन इलाकों में वे फैलते गए वहां उन्होंने गहन जनसांख्यकीय प्रभाव पैदा किया लेकिन उन्होंने स्थानीय भौतिक संस्कृति के महत्वपूर्ण पहलुओं को अपना लिया. उनका सांस्कृतिक व्यवहार और खेतीहर जीवनशैली स्थानीय परंपराओं और भौतिक संस्कृति में प्रतिबिंबित होती है जो उससे एकदम अलग है जिसे आप यूरोपीय मैदानों में देखते हैं.
इसी तरह, अगर आप पुरातत्वविदों से भारत में संस्कृति के संक्रमण के बारे में पूछें, तो प्रमाण बताते हैं कि हड़प्पा काल से लेकर उत्तर-हड़प्पा काल तक की भौतिक संस्कृति में बहुत कम परिवर्तन हुए हैं. जिस तरह से लोग खा रहे हैं, जिस तरह से लोग अपने मृतकों को दफन कर रहे हैं, जिस तरह से फसलें और अनाज उगाए जा रहे हैं और इसी तरह की और चीजें भी मूल रूप से समान है. इसके अलावा, मध्य मैदानों की आबादी की सांस्कृतिक प्रथाओं और भारत में वैदिक काल में आबादी की सांस्कृतिक प्रथाओं में, सोमा और होमा के सबसे प्रचलित वैदिक अनुष्ठानों सहित, स्पष्ट अंतर है, जिसकी मैदान में कोई मिसाल नहीं मिलती है. इस प्रकार, दक्षिण एशिया में यूरोप की तरह स्थानीय आबादी में मिश्रित होने वाले आने वाले मैदानी चरवाहे लोगों ने स्पष्ट रूप से स्थानीय सांस्कृतिक प्रथाओं को अपनाया, जिन्हें हम आज वैदिक संस्कृति कहते हैं.
हरतोष सिंह बल : आप जो कह रहे हैं, वह इस संभावना को खत्म कर देगा कि सिंधु घाटी सभ्यता में एक ही इंडो-यूरोपीय भाषा बोली जाती थी.
वाघेश नरसिम्हन : हां, मैं सहमत हूं.
हरतोष सिंह बल :दक्षिण एशिया में मैदानी चरवाहों के इस बड़े प्रवास के बाद, भारतीय आबादी में एक बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ है, एक ऐसा मिश्रण जो अगले हजार सालों तक चलता रहा और आज भारतीय जनसंख्या के आनुवांशिकी के बारे में बताता है. इस अवधि के दौरान क्या चल रहा था?
वाघेश नरसिम्हन : यह प्रक्रिया वास्तव में अच्छी तरह से ज्ञात नहीं है. हम जानते हैं कि यह वंश आया. हम जानते हैं कि वे एक एकल भौगोलिक स्थान से यानी स्वात घाटी से थे. हम जानते हैं कि जब ये वंश पहली बार आए तो विचित्र थे, 1000 ई.पू. में भी. कुछ आबादी के पास अधिक था, कुछ आबादी के पास कम, और कैसे ये वंशावली फैली इसकी गतिशीलता ज्ञात नहीं है. मुझे लगता है कि हम विशेष रूप से कहते हैं कि हम वास्तव में इस प्रक्रिया को बिल्कुल नहीं समझते हैं.
यह समझने के लिए कि इस प्रक्रिया की गतिशीलता कैसे थी, हमें उत्तर-हड़प्पा काल से पूरे भारत में लौह युग के नमूनों की आवश्यकता है. हम जानते हैं कि यूरोप में यह कैसे हुआ इसके लिए हम बहुत सारे डेटा अभी एकत्रित कर रहे हैं, लेकिन हम सुनिश्चित नहीं हैं कि यह भारत में कैसे हुआ.
यह हो सकता है कि यह वंश पहले उत्तर-पश्चिम में एकीकृत हो और वहां एक प्रकार की राजनीति या राज्य समाज हो जो वहां स्थापित रहा हो और उसके बाद, यह भारत के अन्य हिस्सों में फैला. या यह हो सकता है कि आने के तुरंत बाद, यह वंश धीरे-धीरे पड़ोसी भौगोलिक स्थानों में घूमा और फिर इस वंश को ढाल बनाया जिसे हम आज आधुनिक भारत में देखते हैं. प्राचीन डीएनए को जाने बिना इसका कोई तरीका नहीं है.
हरतोष सिंह बल : यह महान मिश्रण, जो दक्षिण से उत्तर तक लगभग हमारी सारी आबादी को प्रभावित करता है, जाति व्यवस्था में कोई फर्क नहीं डालता?
वाघेश नरसिम्हन : एक समय पर यह मिश्रण होना बंद हो जाता है और हम यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा क्यों हुआ या कब हुआ. डेटा के बिना यह कहना मुश्किल है और जैसा कि मैंने उल्लेख किया है, हमारे पास दक्षिण एशिया के किसी भी हिस्से से 1000 ईसा पूर्व के बाद किसी भी समय का डेटा नहीं है. यहां तक कि हमारे पास उस समय का एकमात्र डेटा पश्चिमोत्तर से है. अब तक हमारे पास जो कुछ है वह है हड़प्पा का एक जीनोम और अन्य 11 बाहरी नमूने और सुदूर उत्तर पश्चिम से 110 नमूने और फिर हमारे पास आधुनिक नमूने हैं. हम यथासंभव संकोच के साथ इस बिंदु पर हुई बड़ी घटनाओं का वर्णन कर रहे हैं और ऐसी हमें उम्मीद है कि अतिरिक्त नमूने, जिन्हें हमें प्राप्त और अध्ययन करना है, हमें कई और विस्तृत प्रश्नों को संबोधित करने में सक्षम करेंगे.
भारत भाषाई रूप से, आनुवंशिक रूप से और सांस्कृतिक रूप से एक बहुत ही विविध और जटिल जगह है और इस तरह के अध्ययन नए सबूतों को सामने लाने में मदद कर रहे हैं. बहुत लंबे समय तक, बहुत कम डेटा वाले इन विषयों के बारे में बहुत अधिक लिखा गया है. हम आशा करते हैं कि अधिक मात्रा में सबूतों के सामने आने से हम सीधे जनसंख्या परिवर्तन को संबोधित कर सकते हैं - या इसके अभाव में - यह सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में हुआ. जनसंख्या आनुवंशिकी पर हमारे काम का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू चिकित्सा आनुवंशिकी के साथ इसका संबंध है. भारत में जनसंख्या के आनुवांशिकी को यूरोप के सापेक्ष काफी हद तक समझा गया है और इस तरह के अध्ययन से उस अंतर को पाटने की उम्मीद हो रही है और हम मानव स्वास्थ्य में सुधार के लिए इस समृद्ध जानकारी का लाभ उठाने की उम्मीद करते हैं.
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