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कैसे चीन ने मोदी सरकार को पछाड़ कर एलएसी क्षेत्र में अपना दबदबा कायम किया  

लद्दाख में भारत-चीन सीमा का एक नक्शा, जिसमें 1956 और 1960 में चीन के दावे वाली रेखाओं के साथ-साथ 1962 के चीन-भारत युद्ध से पहले और बाद की वास्तविक नियंत्रण रेखा को दर्शाया गया है. विकी मीडिया कॉमन्स

15 जून 2020 को भारत और चीन द्वारा आधिकारिक रूप से वास्तविक नियंत्रण रेखा या एलएसी (दोनों देशों की विवादित सीमा, जो पश्चिम में काराकोरम दर्रे से लेकर पूर्व में म्यांमार तक फैली हुई है) पर भारतीय सैनिकों की मौत की घटना को दर्ज किया गया. विगत 45 वर्षों में यह इस प्रकार का पहला मामला था. यह मौतें लद्दाख की गलवान घाटी में हुई. 1962 के चीन-भारत युद्ध के बाद इस क्षेत्र में पहली बार किसी सैन्य टुकड़ी के हताहत होने की घटना सामने आई है. मामले से जुड़ी तमाम जानकारियां अभी तक स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन इतना साफ है कि चीनी सैनिकों द्वारा गलवान घाटी में तंबू गाड़ दिए गए थे और फिर उन्हें वहां से बेदखल करने के लिए भारतीय सेना को बल का प्रयोग करना पड़ा. इस बात की कोई पुष्टि नहीं की गई है कि चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) वहां से हटने के लिए सहमत थी. इस चलते दोनों देशों की सैन्य टुकड़ियों के बीच संघर्ष हुआ, जिसमें 20 भारतीय सैनिकों और कम से कम चार पीएलए सैनिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी. सत्तर से अधिक भारतीय सैनिक घायल हुए, जबकि कुछ अधिकारियों सहित लगभग सौ से अधिक भारतीय सैनिकों को चीन की सेना द्वारा बंदी बनाया गया. चीन का कोई भी सैनिक भारतीय सेना की कैद में नहीं था. दिल्ली में सेना मुख्यालय के एक शीर्ष अधिकारी, जो लद्दाख संघर्ष का अहम हिस्सा थे, ने मुझे बताया, “हम ये देख कर दंग रह गए थे कि वे इस मुकाबले के लिए कितनी अच्छी तरह तैयार थे.”

एलएसी को न तो कभी नक्शे पर चिन्हित किया गया है और न ही दोनों देशों की ओर से जमीन पर इसका सीमांकन किया गया है. ऐसा करने का आखिरी प्रयास करीब दो दशक पहले विफल हो गया था. इस विषय पर दोनों पक्ष एक दूसरे के विपरीत दावा करते आए हैं. नई दिल्ली का कहना है कि दोनों देशों के बीच की सीमा 3,488 किलोमीटर लंबी है, जबकि चीन का कहना है कि इसकी लंबाई केवल 2000 किलोमीटर के आसपास है. यह दुनिया की सबसे लंबी विवादित सीमा है. चूंकि कोई भी पक्ष इस बात पर सहमत नहीं हैं कि उनके द्वारा माना जाने वाला "वास्तविक नियंत्रण" कहां समाप्त होता है, इसलिए दोनों ही एक निर्जन हिमालयी बंजर भूमि के छोटे-छोटे टुकड़ों पर लगातार अपना आधिपत्य जमाने के प्रयास में लगे रहते हैं. किसी क्षेत्र पर अपना अधिकार जताने के लिए बहुत सी गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है- जैसे कुछ खास बिंदुओं तक सैनिकों का गश्त लगाना, सीमाओं पर बुनियादी ढांचों का निर्माण करना और सीमावर्ती गांवों के स्थानीय लोगों के मवेशियों के चरागाहों को नियंत्रित करना. बेहद विषम परिस्थितियों और कठोर मौसम के बावजूद भारत और चीन ने 2020 की गर्मियों से लद्दाख में 832 किलोमीटर लंबी एलएसी पर अपनी-अपनी सेनाओं के पचास हजार अतिरिक्त सैनिकों को तैनात किया हुआ है.

गलवान का घातक संघर्ष पीपी14 नाम की गश्त चौकी  (पेट्रोलिंग पॉइंट) पर हुआ. यह एक ऐसा क्षेत्र है जो तब तक विवादित नहीं था, और जहां भारतीय सेना नियमित रूप से गश्त लगाती थी. संघर्ष के कुछ दिनों बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली से घोषणा की कि चीनियों ने “हमारी सीमा में घुसपैठ नहीं की है, और न ही उनके द्वारा किसी भी पोस्ट पर कब्जा किया गया है.” यह भारतीय सरकार की अपनी साख बचाने की कोशिश थी, जिसे चीन ने इस बात के सबूत के रूप में खुशी-खुशी पेश किया कि उसने कभी भारतीय सीमा में अतिक्रमण किया ही नहीं.  लेकिन भारतीय सैनिकों की मौत और उन्हें चीन की कैद से छुड़ाए जाने के हो-हल्ले ने जल्द ही लद्दाख संकट पर भारतीय सरकार के दावों की कलई खोल दी. भारत में यह मामला करीब एक महीने पहले ही सार्वजानिक तौर पर सामने आ चुका था, जब लद्दाख में पैंगोंग झील के उत्तरी तट पर बड़े पैमाने पर दोनों देशों की सेना के बीच गंभीर झड़प हुई थी. तब दोनों ही पक्षों को गंभीर चोटें आई थी, लेकिन कोई मौत नहीं हुई थी. महीनों से पनप रहे तनाव के बाद 2020 की गर्मियों में इन प्रमुख घटनाओं के चलते सीमा का संकट खुल कर उजागर हुआ.

आज ढाई साल बाद दोनों पड़ोसी मुल्कों के बीच संबंधों की स्थिति को “न युद्ध, न शांति” के रूप में परिभाषित किया जा सकता है. करीब दो दशक पहले भारत और पाकिस्तान के बीच अशांत कश्मीर क्षेत्र में नियंत्रण रेखा/एलओसी की परिस्थितियों का वर्णन करने के लिए कई सैन्य अधिकारियों द्वारा इसी वाक्यांश का इस्तेमाल किया जाता था. भले ही दोनों स्थितियां भौतिक रूप से भिन्न हैं, लेकिन लद्दाख संकट के समाधान में सक्रिय रहे  एक वरिष्ठ भारतीय सैन्य कमांडर ने मुझे बताया कि यह वाक्यांश वर्तमान में भी उतना ही प्रासंगिक है. जब मैंने उनसे 2020 की गर्मियों में की गयी सैन्य कार्रवाई के पीछे की सोच के बारे में जानना चाहा, तो उन्होंने कहा, “एलएसी पर चीन के साथ वैसा बर्ताव न करें, जैसा एलओसी पर पाकिस्तान के साथ किया जाता है.” 

जहां भारत लगभग तीन दशकों से नियंत्रण रेखा पर अपने आक्रामक रवैये के साथ पाकिस्तान पर सैन्य रूप से हावी रहा है, वहीं उसे चीन के खिलाफ इस रवैये का उल्टा खामियाजा उठाना पड़ा है. अधिकांश मीडिया रिपोर्टों के अनुसार 2020 के बाद से पीएलए ने भारत को कम से कम एक हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर अधिकार जमाने से वंचित रखा है. मनोज जोशी अपनी नई किताब ‘अंडरस्टैंडिंग द इंडिया-चाइना बॉर्डर: द एंड्योरिंग थ्रेट ऑफ वॉर इन हाई हिमालय’ में अनुमान लगाते हैं कि यह क्षेत्र दो हजार वर्ग किलोमीटर तक फैला हो सकता है. नियंत्रण के बदले समीकरणों की एक बानगी ये भी है कि भारतीय सेना अब कई ऐसे क्षेत्रों में गश्त नहीं लगा पाती, जहां वो पहले नियमित रूप से पहुंचती थी. पीएलए ने विवादित क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचों का निर्माण किया है, जिसमें हवाई क्षेत्र, हेलीपोर्ट, आवास, सड़क और पुल शामिल हैं, जिन्हें समय-समय पर सैटलाइट इमेजरी द्वारा दर्ज किया गया है.

भारत अपने नियंत्रण क्षेत्र से चीनी घुसपैठ को बेदखल करने के लिए लगातार जूझता रहा है. नई दिल्ली ने चीनियों द्वारा किसी और नुकसान को रोकने के लिए वहां बड़ी संख्या में सैनिकों को तैनात किया है, लेकिन अब सरकार की ओर से अप्रैल 2020 तक लद्दाख में मौजूद यथास्थिति की बहाली पर जोर नहीं दिया जा रहा है. यह अब तक की सबसे खुली स्वीकृति है कि चीनियों ने स्थायी रूप से यथास्थिति को पलट दिया है, जिसमें भारत के पास इसे स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. बीजिंग इस मसले को अब सीमा विवाद न मानते हुए “संप्रभुता का मुद्दा” कहता है, जिससे भारत की शर्तों पर कोई भी समझौता होना मुश्किल हो जाता है. दोनों देश गलवान घाटी में कुछ किलोमीटर पीछे हटने पर सहमत हुए हैं; पैंगोंग के उत्तरी तट पर फ़िंगर 3 से फिंगर 8 तक— झील में फैली पर्वत श्रृखंलाओं के लिए सैन्य भाषा में प्रयोग किए जाना वाला एक शब्द; कैलाश रेंज में रेजांग ला और रेचिन ला के दर्रे तक; गोगरा में गश्त बिंदु पीपी17ए तक; और, इस साल सितंबर तक कुरंग नाला में पीपी15 पर. इन बफर क्षेत्रों में गश्त लगाने पर रोक है. यह शर्तें मानकर भारत ने वास्तव में उन क्षेत्रों का नियंत्रण गंवा दिया है, जिन पर वो हमेशा से दावा करता आया है. भारतीय सेना अब उन इलाकों में गश्त नहीं कर सकती, जहां पहले उसकी पहुंच थी. इससे इन स्थानीय क्षेत्रों के बाशिंदे भी संतुष्ट नहीं हैं, क्योंकि नई सीमाएं उन्हें चराई क्षेत्रों से वंचित करती हैं और उनकी आजीविका को प्रभावित करती हैं. मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि सीमावर्ती गांवों में रहने वाले लोग हालिया समझौते को भारत के “आत्मसमर्पण” के रूप में देखते हैं.

लद्दाख में निर्मित बुनियादी ढांचे की पास की तस्वीर. भारतीय सेना को कई ऐसे क्षेत्रों में गश्त करने से रोक दिया गया है, जहां वो पहले नियमित रूप से जाया करती थी. इससे भारत के क्षेत्रीय नियंत्रण में कमी आई है.  साभार : गूगल अर्थ

सितंबर में पीपी15 से सेनाओं के पीछे हटने के बाद चीनी विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता ने अप्रैल 2020 की यथास्थिति की बहाली से यह कहते हुए साफ इनकार किया कि बीजिंग “वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत के अवैध प्रवेश से बनी तथाकथित यथास्थिति” को स्वीकार नहीं करता है. दोनों सेनाओं के वरिष्ठ कमांडरों के बीच 16 दौर की वार्ता में चीन लगातार डेपसांग और डेमचोक के सैन्य रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर चर्चा करने से इनकार करता रहा है- जहां पहले क्रमशः 2013 और 2015 में दोनों सेनाओं का आमना-सामना हुआ था. सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडे ने हाल ही में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा, “हमने इस मामले में प्रगति की है. लेकिन अभी भी दो घर्षण बिंदु हैं, जहां हमें आगे बढ़ने की आवश्यकता है. हमें उम्मीद है कि हम कूटनीतिक और सैन्य स्तरों पर बातचीत से कोई समाधान निकाल पाएंगे. डीएस्केलेशन (सेनाओं का पीछे हटना) से पहले यही हमारा मुख्य उद्देश्य है.”

शुरुआत से ही विकल्पों के अभाव से जूझ रहे नई दिल्ली को भारतीय सेना को अपने पारंपरिक विरोधी पाकिस्तान की जगह चीन की दिशा में लामबंद करना पड़ा है. दोतरफा युद्ध के संकट से बचने के लिए मोदी सरकार ने 2020 में संयुक्त अरब अमीरात को पाकिस्तान के साथ बातचीत में हस्तक्षेप करने के लिए कहा. यह लंबे समय से चली आ रही उस नीति के उलट था, जिसके अनुसार भारत तीसरे पक्ष की मध्यस्थता से दूर रहता आया है. इस चलते फरवरी 2021 में एलओसी पर 2003 के युद्धविराम की पुनरावृत्ति और पाकिस्तानी हुकूमत के साथ बैक-चैनल बातचीत की शुरुआत हुई.

पाकिस्तान और चीन के प्रति कमजोरी के ये कथित संकेत मोदी की 'लौहपुरुष' छवि पर कटाक्ष करते हैं. उनकी अति-राष्ट्रवादी सरकार ने सीमा की वास्तविक स्थिति के बारे में औपचारिक रूप से कोई प्रामाणिक जानकारी न देकर, पत्रकारों को वहां से दूर रखकर और संसद में सवालों और चर्चाओं को अवरुद्ध कर भारतीय जनता को अंधेरे में रखने की एक अलोकतांत्रिक घरेलू रणनीति को चुना है. 2017 से 2021 के बीच भारत में अमेरिकी राजदूत रहे केनेथ जस्टर के मुताबिक मोदी सरकार ने वाशिंगटन डीसी कहा कि वे अपने बयानों में सीमा पर चीन की आक्रामकता का जिक्र न करें. यह अस्पष्टता एक अल्पकालिक समाधान हो सकती है, लेकिन इसमें एक बड़े संकट के बीज निहित हैं, जिन्हें लंबे समय तक छुपाया नहीं जा सकता है.

इस बीच एलएसी के पूर्वी हिस्से में भी वरिष्ठ सैन्य कमांडरों ने चीन द्वारा पुलों, सड़कों और सैनिकों के लिए आवास सहित नए महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचों के निर्माण की खबरों की पुष्टि की है. अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम चीन के साथ क्रमशः 1,126 किलोमीटर और 220 किलोमीटर की सीमा साझा करते हैं. 2019 में अरुणाचल प्रदेश के भारतीय जनता पार्टी के सांसद तापिर गाओ ने लोकसभा को बताया कि चीन ने भारतीय क्षेत्र के “पचास से साठ किलोमीटर” पर कब्जा कर लिया है. उन्होंने दोनों देशों के बीच 2017 के एक प्रमुख संघर्ष का जिक्र करते हुए कहा, “अगर भविष्य में डोकलाम जैसा संघर्ष हुआ, तो यह अरुणाचल प्रदेश में ही होगा.” जनवरी 2021 में मीडिया ने उत्तरी सिक्किम के नाकु ला में एक मामूली  झड़प की सूचना दी. पांडे ने उन मौजूदा खाली जगहों की भी बात की, जिन्हें एलएसी के इस तरफ भरे जाने की जरूरत है. उन्होंने कहा, “हमारे पूर्वी क्षेत्र के संदर्भ में, जहां बहुत कुछ किया जाना है, हम सीमा तक बुनियादी ढांचे और सड़क मार्ग बनाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं.”

एलएसी पर जारी तनाव के बावजूद मोदी सरकार चीन पर कोई बड़ा राजनीतिक या आर्थिक दबाव बनाने में सफल नहीं रही है. उदाहरण के लिए चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध, निवेश के कड़े नियम और चीनी कंपनियों पर छापे जैसे कई कदम बहुत प्रभावशाली साबित नहीं हुए हैं. राजनयिक वार्ताओं में भी भारतीय प्रतिनिधि अब अप्रैल 2020 की यथास्थिति को बहाल करने की मांग नहीं उठा रहे हैं. इस सितंबर में उज्बेकिस्तान में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन के वार्षिक शिखर सम्मेलन में मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने लद्दाख संकट के बाद पहली बार एक मंच साझा किया, लेकिन कोई द्विपक्षीय वार्ता नहीं हुई. ग्रुप फोटो खिंचवाने के बाद दोनों ने न तो एक-दूसरे का अभिवादन किया और न ही एक दूसरे के प्रति वो गर्मजोशी दिखाई, जिसके बारे में भारतीय मीडिया बढ़-चढ़कर लिखता आया है.

खुद मोदी का चीन से पुराना नाता है. 2002 के गुजरात दंगों के बाद जब उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा वीज़ा से वंचित कर दिया गया, तो वह अक्सर भारत के उत्तरी पड़ोसी के यात्री के रूप में नज़र आए. माना जाता है कि वह हर यात्रा से गुजरात में अधिक चीनी निवेश के दावों के साथ लौटते थे. 2014 के आम चुनाव से पहले प्रचार करते हुए मोदी ने चीनी मॉडल की प्रशंसा की और कहा कि भारत को इसे अपनाना चाहिए. ब्राजील में 2014 ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में शी के साथ अपनी पहली मुलाकात के बाद उन्होंने कहा, “हमारे संबंधों के अंकगणित और शास्त्र मुझे यकीन दिलाते हैं कि हम एक साथ इतिहास रच सकते हैं और समस्त मानव जाति के लिए एक बेहतर कल का निर्माण कर सकते हैं.” आज आठ साल बाद उनका यह आकलन क्षत-विक्षत अवस्था में है.

मोदी सरकार के अति-राष्ट्रवादी प्रचार के कारण आम जनता वास्तविकता से कोसों दूर खड़ी दिखाई पड़ती है. स्टिमसन सेंटर द्वारा हाल ही में सात हजार भारतीयों के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 69.3 प्रतिशत लोगों ने कहा कि भारत युद्ध में “निश्चित रूप से” या “संभवतः” पाकिस्तान और चीन दोनों को हरा देगा. सिर्फ पाकिस्तान से युद्ध की स्थिति में यह आंकड़ा लगभग 90 प्रतिशत पार कर गया. ये भ्रामक विचार लद्दाख में संघर्ष के मौजूदा जोखिम को और बढ़ाते हैं, क्योंकि दोनों सेनाओं द्वारा विवादित क्षेत्रों में सैनिकों की तैनाती को बढ़ाया गया है. जनता का युद्ध में मिलने वाली जीत को स्वाभाविक समझना सरकार पर ये दबाव बनाता है कि वे आवाम की उम्मीदों को फुसलाए रखने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाती रहे. यहीं से बड़ी गलतियों की नींव तैयार हो जाती है. भारत सरकार पीएलए की घुसपैठ के क्षेत्रों का वर्णन करने के लिए “घर्षण बिंदुओं (फ्रिक्शन पॉइंट्स)” की व्यंजना का उपयोग करती है. यह वास्तव में एक ऐसा “घर्षण” है, जिससे आगे चलकर एक बड़ी आग भड़क सकती है.

अगस्त 2019 में दूसरी बार सत्ता में आने के कुछ ही महीनों में मोदी सरकार ने जम्मू और कश्मीर के अर्ध-स्वायत्त दर्जे को समाप्त कर दिया. साथ ही जम्मू और कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- लद्दाख और जम्मू और कश्मीर में विभाजित कर दिया गया. गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में जम्मू-कश्मीर की अखंडता के लिए अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प लिया. उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में अक्साई चीन भी शामिल है, जिस पर चीन का नियंत्रण है लेकिन भारत अपने नक्शे में इस पर दावा करता है. बीजिंग ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नई दिल्ली से “सीमा के मुद्दे पर अपने शब्दों और कार्यों में सतर्क रहने, दोनों पक्षों के बीच हुए प्रासंगिक समझौतों का सख्ती से पालन करने और सीमा मुद्दे को और जटिल बनाने वाली किसी भी कार्रवाई से बचने का आग्रह किया.”

तुरंत ही चीनियों को शांत करने के लिए मोदी ने अपने विदेश मंत्री एस .जयशंकर को बीजिंग भेजा, लेकिन इससे कोई फायदा नहीं हुआ. कुछ दिनों बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के एक अनौपचारिक सत्र में चीनी प्रतिनिधि ने अपना विरोध दर्ज कराया और कहा कि भारत द्वारा उठाये गए कदमों ने “चीनी संप्रभु हितों को चुनौती दी है और सीमा क्षेत्र में शांति और स्थिरता के द्विपक्षीय समझौतों का उल्लंघन किया है.” बीजिंग से आने वाले बयान जारी रहे, और भू-स्थानिक विश्लेषिकी कंपनी हॉकआई 360 के निदेशक क्रिस बिगर्स द्वारा विश्लेषित सैटलाईट इमेजरी ने इशारा किया कि चीन ने अगस्त 2019 में (या उसके तुरंत बाद) सीमा के पास सैन्य-संबंधित बुनियादी ढांचे का निर्माण कार्य शुरू कर दिया था. लेकिन खतरे के इन संकेतों को दरकिनार कर दिया गया. इसके उलट नई दिल्ली अक्टूबर में मामल्लपुरम में मोदी और शी के अनौपचारिक शिखर सम्मेलन की संभावनाओं के उत्साह में डूबा हुआ था.

चेन्नई की मुलाकात दोनों नेताओं के बीच दूसरा अनौपचारिक शिखर सम्मेलन था. एक साल पहले दोनों नेताओं ने मोदी के अनुरोध पर वुहान में हुई इस तरह की पहली बैठक में अपनी-अपनी सेनाओं को “रणनीतिक मार्गदर्शन” प्रदान करने का वादा किया था. इन शिखर सम्मेलनों को 2017 के डोकलाम संकट के बाद शी और मोदी के व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर द्विपक्षीय रिश्तों के नवीनीकरण के संकेत के रूप में देखा गया था. बीजिंग के प्रमुख अंग्रेजी अखबार चाइना डेली के एक संपादकीय में कहा गया कि चेन्नई शिखर सम्मेलन से पता चलता है कि दोनों सरकारें “अपने शीर्ष नेताओं के बीच व्यक्तिगत केमिस्ट्री के माध्यम से द्विपक्षीय संबंधों को बेहतर बनाने के अवसर को बहुमूल्य समझती हैं.” शिखर सम्मेलन में अपनी प्रारंभिक टिप्पणी में मोदी ने “दोनों देशों के बीच सहयोग के एक नए युग की शुरुआत” को चिह्नित करने के लिए “चेन्नई कनेक्ट” शब्द का प्रयोग किया. फर्स्टपोस्ट के एक वरिष्ठ संपादक ने लिखा कि “हम धीरे-धीरे व्यक्तिगत कूटनीति के युग में आगे बढ़ रहे, हैं जहां राष्ट्रों के बीच संबंधों को संरचित प्रणालियों के बजाए शीर्ष नेतृत्व के बीच संबंधों के माध्यम से बेहतर ढंग से प्रबंधित किया जाता है.” चूंकि पदभार ग्रहण करने के बाद से यह शी और मोदी की सत्रहवीं मुलाकात थी, इसलिए तमिलनाडु में साथ तस्वीरें खिंचवाते हुए दोनों नेताओं के बीच सब कुछ सौहार्दपूर्ण लग रहा था.

फरवरी 2021 में कैलाश रेंज में भारतीय और चीनी सैनिक और टैंक पीछे हटते हुए. उन्हें लगभग छह महीने तक यहां एक-दूसरे के सामने तैनात किया गया था. साभार : गूगल अर्थ

लेकिन भारतीय आवाम को कोई अंदाजा नहीं था कि ठीक इसी समय पैंगोंग त्सो में कम से कम एक महीने पहले से तनाव चल रहा था. 135 किलोमीटर लंबी खारे पानी की इस झील का दो-तिहाई हिस्सा चीन द्वारा नियंत्रित है. क्षेत्र में तैनात भारतीय कमांडर उत्तरी तट पर अपनी स्थिति सुधारने की कोशिश कर रहे थे, जिससे पीएलए को आपत्ति थी. यह झील और इसका उत्तरी तट हमेशा से एक विवादित क्षेत्र रहे हैं, जहां अक्सर तनाव बना रहता है और कई बार दोनों पक्षों के सैनिकों के बीच धक्का-मुक्की भी हो जाती है. यह संभव है कि अक्साई चीन पर शाह के बयान के मद्देनजर स्थानीय भारतीय कमांडर की कारवाई की शायद अलग तरह से व्याख्या की गई, जिससे जल्द ही दोनों पक्षों के बीच एक बड़ी झड़प की स्थिति पैदा हो गयी. सितंबर में इस संघर्ष के बाद घायल भारतीय सैनिकों को लेह ले जाना पड़ा. सर्दियों के बाद एक बार फिर से बेहतर सामरिक स्थिति में आने की कोशिशें शुरू हो गयी, जिसके चलते 5 मई 2020 को दोनों सेनाओं के बीच एक बड़ा संघर्ष हुआ.

2020 की शुरुआत में पीएलए ने डेपसांग के मैदानी इलाकों में काराकोरम दर्रे के करीब और सैन्य रूप से महत्वपूर्ण दौलत बेग ओल्डी सेक्टर के हिस्से में बॉटलनेक या वाई-जंक्शन नामक स्थान से परे एक निश्चित दूरी तक आपसी गश्त के एक अनौपचारिक समझौते का उल्लंघन किया. एक चीनी गश्ती दल सीधा बर्टस के पास चीन की दावा-रेखा पर आ पहुंचा. जवाबी कार्रवाई के तौर पर भारतीय सेना ने बॉटलनेक पर पीएलए के गश्ती दल को रोकने का फैसला किया. इसके जवाब में पीएलए ने अपने कुछ वाहनों को उसी स्थान पर पार्क कर दिया और राकी और जीवन धाराओं से लगी पांच गश्ती चौकियों- पीपी10, पीपी11, पीपी11ए, पीपी12 और पीपी13- में भारत के प्रवेश को अवरुद्ध कर दिया. 2013 में भी इस स्थल पर दोनों सेनाएं आमने-सामने आ चुकी थी. उस समय दो सप्ताह के भीतर दक्षिण-पूर्वी लद्दाख के चुमार में एक पारस्परिक भारतीय कार्रवाई के साथ स्थिति को संभाल लिया गया था. उस समय दोनों पक्ष विवादित क्षेत्र से अपने सैनिकों को वापस लेने पर सहमत हुए थे. उत्तरी कमान के एक पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल के.टी.परनाइक ने जुलाई 2020 में इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “हम प्रारंभिक चेतावनी और रणनीतिक निगरानी के माध्यम से घुसपैठ रोकने के लिए अपनी एलएसी पर तैनाती करने में सक्षम हैं. साथ ही हमें 'क्विड प्रो क्वो' (जैसे को तैसा की रणनीति) अपनाना चाहिए, जैसा कि हमने 2013 में डेपसांग घुसपैठ के दौरान किया था. जल्दी जवाब देने से हमारी स्थिति मजबूत होती है और यह मायने रखता है.” लेकिन 2020 में भारतीय पक्ष की ओर से ऐसा कोई जवाब सामने नहीं आया. 

इस पूरे मामले से इतर भारतीय सेना पीपी14 तक अपनी पहुंच बेहतर करने के इरादे से श्योक नदी के पार एक नाले पर 60 मीटर बेली पुल बनाने का फैसला कर चुकी थी, ताकि उसके गश्ती दल भी पीएलए की तरह वाहनों में यात्रा कर सकें. इससे दलों का काफी समय भी बचता. उस जून में गलवान संघर्ष के बाद चीनी राज्य के स्वामित्व वाले ब्रॉडकास्टर सीसीटीवी ने भारतीय सेना के शुरुआती गर्मियों के फुटेज दिखाए, जिसमें उनके कुछ परीक्षण समूह निर्माण कार्य के लिए उपयुक्त जगह ढूँढते दिख रहे थे. चीनी सेना ने इस गतिविधि का विरोध किया और यह दोनों पक्षों के बीच तकरार का एक प्रमुख मुद्दा बन गया. जल्द ही तनाव तेजी से भड़क उठा और भारतीय सेना के एक स्थानीय सैन्य कमांडर के हेलीकॉप्टर का पीएलए द्वारा कथित तौर पर पीछा कर उन्हें परेशान किया गया. लद्दाख संघर्ष  में शामिल वरिष्ठ सैन्य कमांडर ने मुझे बताया कि ये सभी अलग-अलग सामरिक घटनाएं थीं, लेकिन चीन ने इन्हें एक कड़ी में जोड़ते हुए इसे एक बड़ी भारतीय साजिश के रूप में देखा. पिछले 15 वर्षों में विभिन्न रैंकों में कई बार इस क्षेत्र में तैनात रह चुके कमांडर ने स्वीकार किया कि लद्दाख में भारतीय सैन्य नेतृत्व को चीन के आकलन और उसकी संभावित प्रतिक्रिया का अनुमान लगाने में सक्षम होना चाहिए था.

यहां तक ​​​​कि भारत की खुफिया सुविधाएं भी यह चेतावनी देने में विफल रही कि पीएलए ने पास के अभ्यास क्षेत्रों से अपनी दो डिवीज़न को लद्दाख में एलएसी पर  स्थानांतरित कर दिया था और भारत के दावे और गश्त वाले क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया था. उन्होंने पैंगोंग के उत्तरी तट पर फिंगर 4 और 5 के पास मंदारिन में चीन का एक विशाल नक्शा, उसका राष्ट्रीय ध्वज और एक नारा अंकित किया, जो सैटलाइट इमेजरी में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे थे. इस समय तक भारतीय सेना डेपसांग, पैंगोंग, गोगरा, हॉट स्प्रिंग और डेमचोक में गश्त करने में असमर्थ थी, जबकि झड़प के बाद से गलवान घाटी में पहले ही एक नो-पेट्रोल जोन बन चुका था. भारत ने भी अपनी सेना में वृद्धि की और आने वाली शरद ऋतु तक पूरे क्षेत्र में लगभग पचास हजार अतिरिक्त सैनिक तैनात कर दिए.

भारत में चीन से संबंधित कोई भी निर्णय लेने की शक्ति चाइना स्टडी ग्रुप (सीएसजी) के पास है, जो शीर्ष अधिकारियों का एक अनौपचारिक समूह है. पहले इसका नेतृत्व विदेश सचिव द्वारा किया जाता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसकी कमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के हाथों में है. एनएसए 2003 से चीन के साथ सीमा वार्ता के लिए विशेष प्रतिनिधि भी रहा है. मीडिया रिपोर्टों में कई अधिकारियों ने कहा है कि सीएसजी में “चीन के मामलों पर निर्णय लेने के लिए आवश्यक सभी लोग शामिल हैं” और एलएसी का प्रबंधन करने के लिए यह “संरचना का एक अभिन्न अंग” है. चूंकि यह एक औपचारिक निकाय नहीं है, इसलिए इसके विचार-विमर्श और निर्णयों पर न तो संसद में चर्चा की जाती है, और न ही किसी संसदीय समिति में. डोभाल के नेतृत्व में सीएसजी की बैठकों में भाग लेने वाले एक नौकरशाह ने मुझे बताया कि लद्दाख संकट के दौरान इस समूह का स्वरुप बदल गया था और चर्चाओं में कभी-कभी जयशंकर, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और रक्षा स्टाफ के प्रमुख जनरल बिपिन रावत भी शामिल होते थे.

सीएसजी लद्दाख संकट और वरिष्ठ सैन्य कमांडरों के बीच वार्ता के दौरान उठाए जाने वाले एजेंडे और बिंदुओं पर कड़ी नजर रख रहा था. नौकरशाह के अनुसार, इन बैठकों के दौरान अक्सर एक बड़ी सैन्य कारवाई  की आशंका व्यक्त की जाती थी, और सभी की व्यापक सहमति किसी भी बड़े उकसावे से बचकर संकट के शांतिपूर्ण समाधान के लिए थी. अब तक कोई प्रेस विज्ञप्ति या आधिकारिक रिपोर्ट नहीं है जो पुष्टि कर पाए कि सुरक्षा संबंधी कैबिनेट समिति या केंद्रीय कैबिनेट में लद्दाख संकट पर कोई चर्चा की गई थी. भारत सरकार के दो सबसे शक्तिशाली नेताओं, मोदी और शाह ने इस विषय पर पूरी तरह चुप्पी बनाए रखी है, और दिसंबर 2021 में रावत के असामयिक निधन के बाद सशस्त्र बलों और डोभाल सहित समस्त राजनीतिक नेतृत्व के बीच संचार प्रक्रिया में भी बदलाव आए हैं.

पीएलए ने पैंगोंग के उत्तरी तट पर फिंगर 4 और 5 के पास मंदारिन में चीन का एक विशाल नक्शा, उसका राष्ट्रीय ध्वज और एक नारा अंकित किया, जो सैटलाइट इमेजरी में स्पष्ट रूप से दिखाई दिया. बाद में पीएलए भारत के साथ एक समझौते के तहत इन्हें हटाने पर सहमत हुआ. फोटो पीटीआई

संयोग से दोनों सेनाओं और सरकारों के बीच बातचीत के रास्ते खुले रहे हैं. इस क्रम में वरिष्ठ सैन्य कमांडरों और राजनयिकों के बीच औपचारिक बातचीत भी हुई, लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला. विदेश मंत्रियों और विशेष प्रतिनिधियों के बीच फोन संवाद से भी कोई सफलता नहीं मिली. विकल्पों के अभाव में भारत सरकार ने 1980 के मध्य से चली आ रही अपनी पुरानी नीति पर लौटने का निर्णय लिया: एक ‘क्विड प्रो क्वो’ ऑपरेशन (क्यूपीक्यू). इसे औपचारिक रूप से “नॉनलाइनमेंट 2.0: ए फॉरेन एंड स्ट्रैटेजिक पॉलिसी फॉर इंडिया इन द ट्वेंटी-फर्स्ट सेंचुरी” नामक एक दस्तावेज में भी दर्ज किया गया, जिसे 2012 में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च द्वारा मनमोहन सिंह सरकार के समर्थन से तैयार किया गया था. इसमें लिखा गया है कि “ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां स्थानीय स्तर पर सामरिक और रणनीतिक परिस्थितयां हमारे पक्ष में हैं. इन क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए और इन्हें हमारी ओर से सीमित आक्रामक अभियानों के लिए निर्धारित किया जाना चाहिए.”

किसी अभूतपूर्व संकट से निपटने के लिए अतिरिक्त फौज, गोला-बारूद, कल-पुर्जों, गोदामों और हर तरह की आपूर्ति को चाक-चौबंद करने के बाद अगस्त 2020 में पैंगोंग के दक्षिण में कैलाश रेंज को एक क्यूपीक्यू ऑपरेशन के लिए चुना गया. उन्नीसवीं सदी के प्रशिया के जनरल कार्ल वॉन क्लॉजविट्ज ने अपनी युद्ध पर आधारित महत्वपूर्ण किताब में लिखा है, “प्रतिशोध की चमकती तलवार लिए अचानक पूरी शक्ति के साथ आक्रामक हो जाना ही रक्षा का सबसे सर्वोतम तरीका है.” लद्दाख में भी सब कुछ अचानक ही हुआ था, और एक समय पर दोनों ओर से चल रही गोलीबारी में हालात नियंत्रण से बाहर होने का खतरा मंडराने लगा था. राइफलों और मशीनगनों के अलावा रॉकेट भी दागे गए. गनीमत रही कि इस लड़ाई में कोई हताहत नहीं हुआ. भारतीय सेना ने हालांकि खुद को कैलाश रेंज की उन चोटियों तक ही सीमित रखा, जिन्हें वह अपने हिस्से की एलएसी का भाग मानता था. वहीं भारतीयों को गोलीबारी रोकने के लिए कहते हुए पीएलए ने लगातार आगे बढ़ते हुए क्षेत्र की सबसे प्रमुख चोटी पर अपना कब्जा जमा लिया. बिगर्स ने सैटेलाइट इमेजरी में उल्लेख किया कि “जब भारत ने रेजांग ला की चोटियों में प्रवेश किया, जिससे कुछ हद तक सारा ध्यान चुशुल की ओर केंद्रित हो गया, तब हमने गलवान घाटी और कोंगका ला क्षेत्रों में स्व-चालित हॉवित्जर और अन्य तत्वों को फिर से तैनात होते देखा.”

दोनों सेनाएं अब आमने-सामने थी. यहां तक कि दोनों पक्षों ने एक-दूसरे से कुछ मीटर की दूरी पर टैंक भी तैनात कर दिए थे. स्थिति बिगड़ने का वास्तविक खतरा लगातार बना हुआ था, और एक आकस्मिक संघर्ष की आशंकाओं ने स्थानीय कमांडरों की रातों की नींद हराम कर दी थी. लद्दाख संकट से निपटने वाले वरिष्ठ कमांडर ने मुझे बताया, “जब मैं पीएलए के खिलाफ आक्रामक रुख से गोलीबारी करने वाले सैनिकों को पुरस्कृत कर रहा था, तब मुझे यह चिंता खाए जा रही थी कि क्या यह मामला जल्द ही हमारे हाथ से बाहर होने वाला है?” आखिरकार दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले देशों के बीच युद्ध का बढ़ता खतरा कोई छोटी बात नहीं थी. भारत अब कैलाश रेंज पर कम से कम एक जगह मजबूत स्थिति में था, जिसके चलते पीएलए ने आखिरकार पीछे हटने के बारे में गंभीर बातचीत की शुरूआत की. सितंबर में मॉस्को में दोनों देशों के विदेश मंत्रियों और रक्षा मंत्रियों के बीच बैठकें हुईं, लेकिन इससे कोई परिणाम नहीं मिला. इस तरह पूरी सर्दियों में दोनों देशों के बीच बिना किसी नई झड़प या सामरिक दांवपेच के गतिरोध जारी रहा.

फरवरी 2021 में दोनों सेनाओं के आम सहमति से पीछे हटने के फैसले ने सभी को हैरत में डाल दिया. इस सहमति के तहत दोनों पक्षों ने कैलाश रेंज (जहां भारत ने प्रवेश किया था) और पैंगोंग झील के उत्तरी तट (जहां पीएलए ने प्रवेश किया था) से हटने का फैसला किया. यह भी तय हुआ कि विवादित क्षेत्र में पैंगोंग के उत्तरी तट पर एक नो-पेट्रोल जोन बनाया जाएगा, और पीएलए वहां बनाए गए सभी बुनियादी ढांचे नष्ट कर देगा और वहां से चीनी नक्शे, ध्वज और नारों को भी मिटा देगा. इस प्रकरण के जानकार तब खासे निराश हुए, जब उन्होंने देखा कि भारत ने चीनी सेना से पूरे लद्दाख में पीछे हटने की मांग करने के बजाए केवल पैंगोंग के उत्तरी तट से हटने के बदले में कैलाश में अपने तुरुप के पत्ते को जाया कर दिया. कैलाश रेंज में बने रहने से भारत भले ही पैंगोंग के दस किलोमीटर के क्षेत्र में फिंगर 8 तक गश्त नहीं कर सकता था, लेकिन फिर भी उसने वहां से चीनी उपस्थिति को हटा दिया था और यह दबाव बनाए रखने की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कदम था.

इस वर्ष जून में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित एक सार्वजनिक संगोष्ठी में- जहां मैं पैनल का हिस्सा था- लेफ्टिनेंट जनरल और लद्दाख कोर के पूर्व कमांडर राकेश शर्मा ने पुरजोर रूप से कहा कि क्षेत्र में सबसे प्रभावशाली ऊंचे बिंदु को कब्जे में लेने के बाद पीएलए के लिए भारत के एक प्रमुख मार्ग पर निगरानी और दबाव बनाए रखने का रास्ता खुल गया था, और इसलिए भारतीय सेना को चीनी सेना के बस पैंगोंग के उत्तरी तट से पीछे हटने पर ही संतोष करना पड़ा. क्यूपीक्यू ऑपरेशन और सेना के पीछे हटने की प्रक्रिया से प्रत्यक्ष स्तर पर जुड़े रहे दो शीर्ष अधिकारियों ने मुझसे कहा कि पीछे हटने के फैसले की आलोचना करना ठीक नहीं है. लद्दाख संकट से निपटने में शामिल पहले सैन्य कमांडर अधिकारी ने कहा, “सभी क्षेत्रों की समस्या को एक बार में हल करने की उम्मीद करना अवास्तविक है. स्थिति का काबू से बाहर होना एक बड़ा खतरा था, और हमें हर हाल में इसे रोकना था.”

सेना मुख्यालय में तैनात दूसरे अधिकारी, जो इस संकट में शीर्ष स्तर के विचार-विमर्श में शामिल थे, ने भौतिकी के मूल सिद्धांत का उदाहरण देते हुए कहा कि “प्रत्येक लीवर केवल एक तय वजन को ही उठा सकता है, और कैलाश में इस लीवर से केवल इतना ही वज़न उठाया जा सकता था. आप मुझसे यह भी पूछ सकते हैं कि मैंने कैलाश के साथ अरुणाचल प्रदेश की समस्याओं का समाधान क्यों नहीं किया, लेकिन क्या यह यथार्थवादी होगा?” उनका दूसरा कारण और भी चौंकाने वाला था. उन्होंने कहा, “उत्तरी तट हमारी प्राथमिकता थी, क्योंकि पीएलए ने वहां चीन के नक्शे और झंडे बना दिए थे और इससे हमारे राष्ट्रीय मनोबल पर असर पड़ रहा था. हम उसे जल्द से जल्द  हटाना चाहते थे.”

12 फरवरी 2021 को रक्षा मंत्रालय ने घोषणा की कि अन्य सभी मुद्दों को “सेनाओं के पैंगोंग त्सो से पीछे हटने के 48 घंटों के भीतर सुलझा लिया जाएगा.” लेकिन अगस्त तक केवल गोगरा में पीपी17ए में ही सेनाओं के पीछे हटने की प्रक्रिया पूरी हो सकी. इस कारण पीपी15, डेपसांग और डेमचोक के क्षेत्रों में स्थिति जस की तस बनी रही. लद्दाख संकट में शामिल एक वरिष्ठ कमांडर, जो पीएलए के साथ कई दौर की बातचीत में मौजूद थे, ने एक निजी बातचीत में स्वीकार किया कि वर्तमान में डेपसांग और डेमचोक का “समाधान कठिन है”. उन्होंने कहा कि जब भी यह प्रस्ताव उठाया जाता, तब पीएलए- विशेष रूप से वार्ता में मौजूद राजनीतिक आयुक्त- इस मुद्दे को झट से भटका दिया करते.

सेना मुख्यालय के एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने तर्क दिया कि यह एक सकारात्मक संकेत था कि पीएलए ने डेपसांग में कोई स्थायी निर्माण नहीं किया था. लेकिन वह डेमचोक, जिसे चार्डिंग ला-निलुंग नाला जंक्शन के रूप में भी जाना जाता है, के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं दिखे. उन्होंने बस इतना ही कहा कि चीन का वहां के स्थानीय लोगों को धार्मिक उद्देश्यों के लिए स्थानीय झरने का उपयोग न करने देना अनुचित और अस्वीकार्य है. डेमचोक लद्दाख के उन कुछ क्षेत्रों में से एक है, जिस पर चीन का दावा है, लेकिन वह भारत द्वारा नियंत्रित और बसाया हुआ है. पीएलए ने बीते कुछ समय से डेमचोक में कई बुनियादी ढांचे खड़े कर दिए हैं. बीती गर्मियों में उसने वहां अपना दखल बढ़ाते हुए भारतीय चरागाहों के रास्ते रोक दिए थे. इसके अलावा चीनियों ने दक्षिण से चारडिंग ला तक एक कच्ची, खड़ी सड़क बनाई है- एलएसी पर 5828 मीटर ऊंचा एक दर्रा. इस दर्रे में भारतीय सेना द्वारा गश्त लगाने के चलते यहां दोनों सेनाएं नियमित रूप से एक-दूसरे से टकराती रहती हैं. शर्मा के अनुसार, चीन को “इस मामले में भारतीय सेना का चार्डिंग ला में गश्त लगाना अस्वीकार्य है और एक बफर जोन के लिए आम सहमति बनाना आसान नहीं होगा.”

जून 2020 के मध्य में रिकॉर्ड की गई फुटेज का एक वीडियो फ्रेम, जिसे चाइना सेंट्रल टेलीविजन द्वारा जारी किया गया. इसमें गलवान घाटी में झड़प के दौरान चीनी (आगे) और भारतीय सैनिकों (पीछे) को दिखाया गया है. (सीसीटीवी) / एएफपी / गैटी इमेजिस

इस संकट की शुरूआत से ही लद्दाख में चीन का भारी-भरकम बुनियादी सैन्य ढांचा भारत के लिए एक बड़ा सिरदर्द रहा है. बिगर्स कहते हैं, “चीन ने मौजूदा बुनियादी ढांचे और क्षेत्र में चल रहे सुधार कार्यों  के माध्यम से यह सुनिश्चित किया है कि वह भारत द्वारा उत्पन्न किसी भी कथित खतरे का जवाब देने के लिए जल्द से जल्द अपनी सैन्य बलों को तैनात कर सकता है.” वह “दोनों पक्षों के सैन्य बलों और सीमा क्षेत्र में उनकी गति के बीच के अंतर” का भी ज़िक्र करते हैं. सेनाओं के पीछे हटने के क्षेत्रों के विषय में वह उल्लेख करते हैं कि “स्थानीय बुनियादी ढांचे का मतलब यह भी है कि पीएलए ग्राउंड फोर्स बिना समय गंवाए उन क्षेत्रों में लौट सकती है, जिन पर उसने पहले कब्जा किया था.” 

जब मैंने लद्दाख संकट से जुड़े एक सीनियर कमांडर से इस बारे में पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया कि “हमारे बुनियादी ढांचे में भी सुधार हुआ है. यदि हमारे पास पहले एक फुट-ट्रैक था, तो अब हमारे पास एक जीप-सक्षम ट्रैक है. बेशक, मैं इस बात से इनकार नहीं कर रहा हूं कि पीएलए के पास अब दूसरी तरफ छह लेन का राजमार्ग हो सकता है, लेकिन हमारी स्थिति भी पहले की तुलना में बेहतर है.” पांडे ने कहा कि मई 2020 के बाद से, “हमारे बुनियादी ढांचे में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, खासकर पूर्वी लद्दाख के संदर्भ में.” उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में 350 कंपनी मॉड्यूल बनाए गए हैं, जिसमें लगभग पैंतीस हजार सैनिक रह सकते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि हालिया समय में बुनियादी ढांचे, सड़क संपर्क मार्ग, पुल और गोला-बारूद के भंडारण के लिए भूमिगत व्यवस्था के निर्माण पर खासा ध्यान दिया जा रहा है.

लद्दाख में चीन के बुनियादी ढांचों और सैन्य तैनाती में भारी वृद्धि का अर्थ है कि नई दिल्ली इस बात से अवगत है कि अब मई 2020 से पहले की स्थिति में लौटने की संभावना क्षीण हो चुकी है. इस साल मार्च में जब पत्रकार सुहासिनी हैदर ने जयशंकर से पूछा कि क्या उन्होंने चीनी विदेश मंत्री वान यी से यथास्थिति की बहाली की मांग की है, तो उन्होंने मुस्कुराकर इस सवाल को टाल दिया. वहीं एक निजी कार्यक्रम में जब एक स्कॉलर ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के एक अधिकारी से सवाल पूछा, तो उन्होंने जवाब दिया कि सेनाओं के पीछे हटने (डिसइंगेजमेंट) और वापस लौटने (डीएस्केलेशन) को अप्रैल 2020 की स्थिति की बहाली के रूप में देखा जाना चाहिए. लेकिन यह तर्क चीन द्वारा की गई कारवाई को आंशिक रूप से स्वीकृति प्रदान करता है.

उत्तरी कमान के पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा ‘द हिंदू’ से हुई बातचीत में कहते हैं, “अगर हम पूर्व की स्थिति को इस तरह परिभाषित करते हैं कि पीएलए हमारी एलएसी के उन क्षेत्रों से अपने सैनिकों को वापस बुला ले, जहां वे 2020 में घुस आए थे, तो इससे हम व्यावहारिक तौर पर पूर्व की स्थिति को समझ सकते हैं. हमारे लिए पूर्व की यथास्थिति पर जोर देना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि मेरे हिसाब से यही वो एकमात्र तरीका है जिससे आप एलएसी पर शांति और अमन कायम कर सकते हैं. नहीं तो हम कभी ऐसा नहीं कर पाएंगे.”

जॉर्जिया स्टेट यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर डैन ऑल्टमैन के एक शोध से पता चलता है कि अगर विरोधी द्वारा उठाये गए किसी कदम का तुरंत विरोध या जवाब नहीं दिया जाता है, तो समय के साथ ऐसा करना अधिक कठिन हो जाता है, क्योंकि हमलावर अपनी स्थिति को मजबूत करते हुए एक नई परिस्थिति को ‘सामान्य’ रूप दे देता है. ऑल्टमैन ने पाया कि दुनिया भर में सैन्य अंतरराष्ट्रीय विवादों के 59 मामलों में जहां भी अंत में किसी भू-भाग पर हमलावर ने कब्ज़ा किया, वहां 47 मामलों में अगले एक दशक तक वह भू-भाग हमलावर पक्ष के कब्ज़े में ही रहे. इस हिसाब से देखें तो वर्तमान में परिस्थितियां भारत के खिलाफ हैं.

पिछले पंद्रह वर्षों में भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय संबंधों में धीरे-धीरे गिरावट आई है. 2013 में डेपसांग, 2014 में चुमार और 2017 में डोकलाम के सीमा विवाद भी दोनों देशों के बीच बढ़ती दूरियों का संकेत देते रहे हैं. मनमोहन सिंह सरकार के दौरान उच्च आर्थिक विकास और मजबूत विदेश नीति के परिणामस्वरूप नई दिल्ली ने लंबे समय से चली आ रही एक नीति को उलटने का निर्णय लिया था. भारत ने तय किया कि वह चीन के साथ लगे अपने सीमावर्ती क्षेत्रों को केवल सीमांत इलाकों या “बफर जोन” की तरह नहीं देखेगा, जिससे भारतीय सरहद में विदेशी घुसपैठ पर रोक लगी. यह अंग्रेजों द्वारा प्रसारित “चौकी” मानसिकता में एक बहुत बड़ा बदलाव था, जो 1962 में चीन से मिली अपमानजनक हार के बाद से लगातार पुष्ट होती रही थी.

2006 में विदेश सचिव श्याम सरन ने लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में रणनीतिक दृष्टि से कई मार्गों के निर्माण की सिफारिश की. उन्होंने 1962 से बेकार पड़े बहुत से उन्नत लैंडिंग ग्राउंड के पुनरुद्धार का भी प्रस्ताव रखा. उस वर्ष सेवानिवृत्त होने के बाद उन्हें सितंबर में चीनी सीमा पर बुनियादी ढांचे के सर्वेक्षण का काम सौंपा गया, जिसके परिणामस्वरूप लद्दाख, सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश में सड़कों, पुलों और रेलवे लाइनों के एक व्यापक नेटवर्क की योजना बनाई गई. सरकार ने सीमावर्ती क्षेत्रों में 862 किलोमीटर रणनीतिक मार्गों के निर्माण को मंजूरी दी. 2008 में भारतीय सेना ने चीनी सीमा के लिए दो नई पर्वतीय डिवीजनों के साथ-साथ आर्मर्ड, आर्टिलरी और इन्फेंट्री ब्रिगेड तैयार करनी शुरू की. इसके साथ ही अमेरिका से सी-130जे और सी-17 परिवहन विमान जैसे कई आधुनिक सैन्य उपकरण भी खरीदे गए थे.

डोकलाम संकट के कुछ महीने बाद ही शी और मोदी के बीच वुहान में हुए बहुप्रचारित अनौपचारिक शिखर सम्मेलन से नई दिल्ली को यह खुशफहमी हुई कि उन्हें एक बार फिर चीन के साथ अपने संबंधों को ठीक करने का रास्ता मिल गया है. साभार : ट्विटर

इस दौरान दुनिया 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट से जूझ रही थी, जिसका अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था पर दीर्घकालिक राजनीतिक प्रभाव पड़ा. जहां संयुक्त राज्य अमेरिका वैश्विक नेतृत्व करने में विफल रहा और अपनी ही घरेलू परेशानियों में फंसकर रह गया, वहीं चीन की आर्थिक सफलता ने बीजिंग को और अधिक मुखर होने के लिए प्रोत्साहित किया. तेजी से अपने विदेशी निवेश का विस्तार करने के साथ-साथ चीन दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर में अपने क्षेत्रीय दावों में अधिक आक्रामक होता गया. अपनी शक्तियों में बदलाव के साथ-साथ चीन इसके उपयोग को प्रदर्शित करने पर भी आमादा दिखा. इस बदलाव पर नई दिल्ली की भी नज़र थी. उन्होंने गौर किया कि 2008 के तिब्बती विद्रोह पर चीन ने हड़बड़ाहट भरी प्रतिक्रिया दी थी. यह वो समय था जब शी ने एक अधिक आक्रामक चीन के बारे में भाषण देते हुए उप-राष्ट्रपति के रूप में पदभार संभाला था.

जल्द ही भारत में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा एक शीर्ष-स्तरीय समीक्षा की गयी, जिसमें केवल सुरक्षा संबंधी कैबिनेट समिति शामिल थी. इस समीक्षा में पाया गया कि चीन का सामना करने के लिए भारत के पास अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए बहुत समय नहीं है, क्योंकि बीजिंग जल्द ही अपना सारा ध्यान भारत के साथ सीमा विवाद की तरफ मोड़ने वाला था. इस विचार को “नॉनअलाइनमेंट 2.0” रिपोर्ट में पुष्ट रूप से जाहिर किया गया, जिसमें सरन सह-लेखक थे. रिपोर्ट में कहा गया है, “इस बात की संभावना है कि चीन क्षेत्रीय कब्जे का सहारा ले सकता है. चाहे चीन एक सीमित कारवाई करे या कोई बड़ा आक्रमण- हमारा उद्देश्य हर हाल में यथास्थिति की बहाली होना चाहिए.”

2013 में दोनों देशों ने अपनी प्रकार के पहले सीमा रक्षा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए, जो एलएसी पर किसी भी टकराव की स्थिति में दोनों पक्षों द्वारा उठाए जाने वाले हर कदम को परिभाषित करता है. इस समझौते का उद्देश्य गश्ती दलों का पीछा करने से जुड़ी घटनाओं को रोकना और दोनों पक्षों की संचार प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना था. इसमें दोनों पक्षों के बीच संचार के लिए पांच-स्तरीय तंत्र की स्थापना की गयी: एलएसी पर सीमा कर्मियों के बीच फ्लैग मीटिंग, वरिष्ठ अधिकारियों के बीच बैठकें, मंत्रालय स्तर पर नियमित बैठकें, भारत-चीन सीमा मामलों पर परामर्श और समन्वय के लिए कार्य तंत्र की बैठकेंऔर भारत-चीन वार्षिक रक्षा वार्ता. इस समझौते में दोनों देशों के सैन्य मुख्यालयों के बीच हॉटलाइन का भी प्रावधान किया गया, जो आज तक स्थापित नहीं हो पाया है. व्यावहारिक रूप से इसका मतलब यह था कि दोनों पक्षों के सैनिक इस बात के अभ्यस्त हो जाएं कि एलएसी पर हथियार चलाना वर्जित है. इसका दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ कि हिंसा करने के कई अन्य साधन और तौर-तरीकों का इस्तेमाल किया जाने लगा.

उस वर्ष मनमोहन सिंह सरकार ने चीनी सीमा के लिए एक नई माउंटेन स्ट्राइक कोर  की स्थापना को मंजूरी दी थी- लेकिन 2018 में मोदी सरकार द्वारा उस प्रक्रिया को रोक दिया गया. धन की कमी और मौजूदा व्यवस्थाओं के “अनुकूलन” पर अधिक ध्यान देने का हवाला देते हुए मोदी सरकार ने इन दो प्रस्तावित डिवीजनों में से केवल एक की ही स्थापना की. इस कोर को अब तिब्बत में आक्रामक भूमिका के साथ पूर्वी क्षेत्र की जिम्मेदारियां सौंपी गई हैं.

कई सेवारत और सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों ने मुझे बताया कि भारत के सैनिकों की संख्या में वृद्धि और चीनी सीमा पर एक बेहतर बुनियादी ढांचे का अर्थ था कि इस सदी के पहले दशक के अंत तक भारतीय सेना अधिक ताकत के साथ एलएसी क्षेत्र में गश्त के लिए लगातार अपनी टुकड़ियां भेजने में सक्षम हो गई थी. ये गश्ती दल नियमित रूप से उन क्षेत्रों का दौरा करने लगे जहां भारतीय सेना पहले नहीं जाती थी, जिससे वे अक्सर पीएलए गश्ती दलों के संपर्क में आ जाते थे. दोनों सेनाओं के बीच सीमा के उल्लंघन और टकराव की घटनाओं में वृद्धि हुई, लेकिन मौजूदा प्रोटोकॉल और समझौते के चलते इन मामूली झगड़ों को हल कर लिया जाता था. द्विपक्षीय बैठकों में पीएलए ने सीमा पर भारत के बुनियादी ढांचे के बारे में शिकायत करना शुरू कर दिया और दोनों ओर से किसी भी तरह के नए निर्माण पर रोक लगाने का प्रस्ताव रखा. चूंकि चीन पहले ही तिब्बत में बड़े पैमाने पर सीमावर्ती बुनियादी ढांचे का निर्माण कर चुका था और भारत केवल उसकी बराबरी की कारवाई कर रहा था, इसलिए नई दिल्ली ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया.

पीएलए ने 2009 के बाद भारत के दावे वाले क्षेत्र पर अधिकार जमाने के नए प्रयासों का विरोध किया था. पूर्वी कमान के पूर्व प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल प्रवीण बख्शी ने 2018 में डोकलाम संकट पर एक कार्यक्रम में कहा था कि पीएलए के वरिष्ठ अधिकारियों ने अपने भारतीय समकक्षों से इस बारे में शिकायत की थी. लद्दाख संकट में सक्रिय रहे कमांडर ने मुझे बताया कि हाल ही में वरिष्ठ कमांडरों की बातचीत के दौरान पीएलए नेतृत्व ने फिर से यह शिकायत की कि भारतीय सेना पहले कभी भी उन क्षेत्रों में गश्त नहीं करती थी, जहां वह पिछले बारह वर्षों से नियमित रूप से प्रवेश करने की कोशिश कर रही है. अमेरिका के एक प्रसिद्ध अकादमिक, जिन्होंने 2019 में बीजिंग में वरिष्ठ पीएलए नेतृत्व के साथ कुछ दिन बिताए थे, ने स्वतंत्र रूप से मुझसे इस बात की पुष्टि की. अकादमिक ने बताया कि पीएलए के शीर्ष अधिकारियों ने भारतीय सेना की आक्रामकता और उनके एलएसी में घुसने के प्रयासों के बारे में शिकायत करने के साथ इन गतिविधियों की ड्रोन द्वारा रिकॉर्ड फुटेज दिखाने की भी पेशकश की थी.

अकादमिक ने कहा कि पीएलए “भारत को सबक सिखाने” और उसकी “जगह दिखाने” के लिए आतुर था, खासकर 2017 के डोकलाम में हुए टकराव के बाद. डोकलाम में भारतीय सैनिकों ने एक चीनी सड़क-निर्माण दल को चीन के दावे वाले भूटानी क्षेत्र में प्रवेश करने से रोक दिया था. यह गतिरोध 73 दिनों तक चला और उच्चतम स्तर पर राजनीतिक हस्तक्षेप के बाद इसे सुलझाया गया. भारतीय मीडिया चैनलों और विश्लेषकों ने इसे नई दिल्ली की जीत के रूप में पेश किया, लेकिन साल भर के अंदर यह स्पष्ट हो गया कि पीएलए ने इस क्षेत्र को कभी नहीं छोड़ा था. इसके उलट उसने अपनी सेना को यहां और अधिक तादाद में तैनात किया था और सैनिकों और सैन्य उपकरणों के लिए प्रभावशाली बुनियादी ढांचे का निर्माण किया था. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि पीएलए ने डोकलाम से अपना सबक ले लिया था, जिसे उसने लद्दाख में लागू किया. उन्होंने भारतीय सेना को आश्चर्यचकित करते हुए अपनी सेना को तेज़ी से बड़ी संख्या में तैनात किया, और पूरे समय एक आक्रामक रुख बनाए रखा. इसके साथ ही चीन विरोधी पक्ष की इस बात से वाकिफ हो गया कि भारतीय नेतृत्व के लिए जीत का प्रचार करना वास्तविक जीत से ज्यादा जरूरी है. यह एक ऐसी कमजोरी साबित हुई जिसका बीजिंग ने लद्दाख में पूरी तरह से फायदा उठाया.

1962 के चीन-भारत युद्ध के दौरान लद्दाख की पैंगोंग झील के पास एक क्षेत्र में गश्त करते भारतीय सैनिक. हिल्टन-डाऐश कलेक्शन/कॉर्बिस/गैटी

डोकलाम संकट के कुछ महीने बाद ही शी और मोदी के बीच वुहान में हुए बहुप्रचारित अनौपचारिक शिखर सम्मेलन में नई दिल्ली को यह खुशफहमी हुई कि उन्हें एक बार फिर चीन के साथ अपने संबंधों को ठीक करने का एक तरीका मिल गया है. दोनों नेताओं ने आगे किसी भी सीमा संकट को रोकने के लिए अपनी सेनाओं को “रणनीतिक मार्गदर्शन” प्रदान करने का वादा किया.

जब भारतीय सेना ने वुहान के बाद पीएलए के साथ टकराव को टालने के लिए नई प्रक्रियाओं और अभ्यासों का खाका तैयार किया, जिसमें जॉइंट और स्टेगर्ड पेट्रोल जैसी गतिविधियां शामिल थी, उस समय इस प्रक्रिया का नेतृत्व करने वाले एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी ने मुझे बताया था कि लद्दाख में दोनों पक्षों के बीच काफी मतभेद थे, जिसके चलते इस तरह के उपायों की सफलता की संभावना मंद थी. उनके शब्द वास्तव में सच निकले. जिस वुहान भावना की बढ़-चढ़कर बात की जा रही थी, वो जल्द ही काफूर होने वाली थी.

लद्दाख में चीन को जवाब देने के मामले में भारत के विकल्प कम होते जा रहे हैं. 2020 के बाद से लगभग पचास हजार अतिरिक्त सैनिकों की तैनाती के साथ भारतीय सेना लद्दाख में पीएलए की किसी अन्य घुसपैठ को रोकने में सक्षम रही है. इसके लिए पाकिस्तान की सीमा से छह डिवीजनों के समकक्ष तैनाती की गई है. सेना मुख्यालय के वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार इस संकट के कारण पीएलए को अपने सैनिकों को उनके आरामदायक क्षेत्रों से बाहर निकाल, उन्हें एलएसी के पास तैनात करने पर मजबूर होना पड़ा है. वे सामरिक और जमीनी स्तर पर चीनियों का मुकाबला करने के बारे में आश्वस्त हैं, लेकिन साइबर और इलेक्ट्रोमैग्नेटिक-स्पेक्ट्रम युद्ध में पीएलए के कौशल के बारे में अनिश्चित नजर आते हैं. अरुणाचल प्रदेश के कुछ सीमावर्ती क्षेत्रों में अपर्याप्त सैन्य तैनाती भी चिंता का विषय है. कई वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के साथ लद्दाख पर विमर्श के दौरान जब चीनी सेना की बात आई, तो मुझे झिझक और अति-आत्मविश्वास के अजीबोगरीब मिश्रण की झलक दिखी. जहां एक ओर कई अधिकारियों ने पीएलए सैनिकों को कमतर बताया, वहीं कुछ अधिकारी चीन के साथ सैन्य टकराव की संभावना से कतराते दिखे.

वर्तमान स्थिति से संतुष्ट नजर आ रही नई दिल्ली अब एलएसी पर चीनी घुसपैठ को उलटने का कोई खास इरादा नहीं दिखा रही है. उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने पत्रकारों से कहा, “हम सुनिश्चित करेंगे कि विरोधी दोबारा कोई भी दुस्साहस न करे. हमारे पास रणनीतिक धैर्य है और हम इंतजार करने के लिए भी तैयार हैं. हम बातचीत के लिए तैयार हैं. अगर इसमें समय लगता है, तो हम इंतजार करने के लिए तैयार हैं.” लेफ्टिनेंट जनरल के इस बयान को सरकार की एक प्रमुख चिंता के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए- अगर भारत एलएसी पर एक नए क्यूपीक्यू ऑपरेशन का प्रयास करता है, तो इससे स्थिति काबू से बाहर हो सकती है. एक सफल क्यूपीक्यू ऑपरेशन भारत को न सिर्फ एक मजबूत स्थिति प्रदान करेगा, बल्कि बातचीत में एक अनुकूल समझौता होने की संभावनाओं को भी प्रबल करेगा. 

दोनों सेनाओं के वरिष्ठ कमांडरों के बीच होने वाली बातचीत में कमी आई है. भारत के कई अनुरोधों के बाद इस साल मार्च और जुलाई में बातचीत के दो दौर आयोजित किए गए थे. निचले स्तरों पर होने वाली निरंतर बातचीत भले ही स्थानीय स्तर पर जोखिम कम कर सकती है, लेकिन व्यापक एजेंडा पर इनका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है.  

भारत की सारी उम्मीदें सैन्य और कूटनीतिक वार्ताओं पर टिकी थी, जिसके परिणामस्वरूप सेना के सभी क्षेत्रों से पीछे हटने का निर्णय लिया गया. इस फैसले के तहत नो-पेट्रोल ज़ोन बनाकर सैनिकों को आमने-सामने के बजाय एक-दूसरे से कुछ किलोमीटर की दूरी पर तैनात किया गया. लेकिन सेना के पीछे हटने की यह प्रक्रिया काफी हद तक भारत के एलएसी क्षेत्र तक ही सीमित रही, जिससे अब भारत इस क्षेत्र को पहले की तरह नियंत्रित नहीं कर सकता है.

भारत की योजना के अनुसार सैनिकों के पीछे हटने के बाद के बाद डी-एस्केलेशन की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाना था, जिसमें दोनों पक्ष अपने भारी सैन्य उपकरण और सैन्य दस्तों को सीमा रेखा से कुछ घंटे की दूरी पर ले जाते. लेकिन पीएलए ने डी-एस्केलेशन पर विचार करने से स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया है. जहां भारतीय पक्ष पीछे हटने की प्रक्रिया को सैन्य बलों की तैनाती में लगने वाले घंटों की संख्या के रूप में देखता है, वहीं चीन का कहना है कि दोनों पक्षों को सीमा से समान दूरी पर पीछे हटना होगा. यह भारत के लिए सैन्य रूप से नुकसानदेह है, क्योंकि सीमा पर बेहतर व्यवस्था के चलते चीन समान दूरी से भी अपनी सेना को अधिक तेजी से तैनात करने में सक्षम है. इनके बाद केवल डी-इंडक्शन का तीसरा और अंतिम चरण शेष रह जाता है, जिसका अर्थ है सभी अतिरिक्त सैनिकों को लद्दाख से पूरी तरह बाहर निकालना. उधमपुर से दक्षिणी लद्दाख में डिवीजन-आकार के राष्ट्रीय राइफल्स बल को स्थानांतरित करने के बाद भारतीय सेना उन सभी बलों को थिएटर से हटाने के पक्ष या स्थिति में नहीं है, जिन्हें अप्रैल 2020 के बाद वहां स्थानांतरित किया गया था. 

अगर पीएलए भारत की तीन-चरणीय प्रक्रिया के लिए सहमत भी होता है, तो भी चीन द्वारा अपनी सेना के लिए तैयार नवनिर्मित बुनियादी ढांचों और आधुनिक प्रौद्योगिकियों के प्रयोग से जुड़े तमाम सवाल अनसुलझे ही रहते हैं. चूंकि दोनों देशों के बीच विश्वास पूरी तरह ख़त्म हो चुका है, इसलिए चीन से मिल रही इस जटिल रणनीतिक चुनौती में पीछे हटने की प्रक्रिया ज्यादा से ज्यादा बस सामरिक स्तर पर एक विराम की भूमिका ही निभा पाएगी.

दोनों पड़ोसी मुल्कों की शक्तियों में बढ़ते अंतर ने इस चुनौती को और भी कठिन बना दिया है. चीन की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था के पांच गुना है, और उनका रक्षा खर्च हमसे लगभग चार गुना अधिक है. तकनीकी रूप से चीन ने भारत को बहुत पीछे छोड़ते हुए सभी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर अपनी पैठ जमाई है. भू-राजनीतिक रूप से चीन खुद को कमजोर होते अमेरिका के स्थान पर नई उभरती ताकत के रूप में देखता है. राष्ट्रपति शी का घोषित उद्देश्य 2049 तक “चीनी राष्ट्र के महान कायाकल्प” को प्राप्त करना है. यही वह बिंदु है, जिस पर बीजिंग अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के सर्वोत्तम स्थान पर काबिज होना चाहता है. मोदी सरकार के आठ वर्षों में जिस तरह सत्ता का संतुलन चीन की ओर झुका है, वह द्विपक्षीय संबंधों के भविष्य को लेकर और भी गंभीर सवाल खड़ा करता है.

साठ साल पहले 1962 में चीन-भारत युद्ध ने एशिया को यह संदेश दिया था कि चीन भारत से अधिक शक्तिशाली है. मौजूदा समय में लद्दाख संकट ने दक्षिण एशिया को स्पष्ट रूप से बता दिया है कि नई दिल्ली बीजिंग के समकक्ष कहीं नहीं ठहरता है. इस साल अगस्त में श्रीलंका ने नई दिल्ली के जोरदार सार्वजनिक विरोध के बावजूद चीन के सैटलाइट-निगरानी पोत युआन वांग 5 को अपने एक बंदरगाह पर उतरने की अनुमति देकर इस तथ्य की पुष्टि थी. नेपाल की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है. हाल ही में भारतीय सेना की अल्पकालिक संविदा अग्निपथ योजना के तहत सेना में गोरखाओं की भर्ती पर खासा विवाद हुआ है.

वर्तमान सरकार की “पड़ोस प्रथम” नीति के बावजूद पिछले आठ वर्षों में भारत को अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के साथ नई ऊंचाइयों की तुलना में अधिक कठिनाइयों से गुज़रना पड़ा है. 2016 में मोदी ने उरी हमले के चलते पाकिस्तान को अलग-थलग करने के प्रयास में दक्षिण एशियाई सहयोग के एकमात्र मंच दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ की वार्षिक बैठक में हिस्सा नहीं लिया. बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिए बंगाल की खाड़ी से जुड़ी पहल और बांग्लादेश-भूटान-भारत-नेपाल पहल को बढ़ावा देने के प्रयासों के बावजूद दिल्ली एक वास्तविक विकल्प के साथ सार्क की जगह लेने में असमर्थ रहा है. विभिन्न क्षेत्रों में चीन की गहरी पकड़ या उसकी प्रमुख बुनियादी परियोजनाओं की बराबरी न कर पाने के अलावा क्षेत्रीय स्तर पर भारत की अपने पड़ोसियों को धमकाने वाली छवि से उपजी नाराजगी का मतलब है कि दक्षिण एशिया में नई दिल्ली का “प्रभुत्व क्षेत्र” अब महज़  एक सिमटा हुआ “प्रभाव क्षेत्र” बनकर रह गया है.

पाकिस्तान के प्रति मोदी सरकार की हिंदुत्व से प्रेरित नीति के कारण समस्या और विकट हो जाती है. लद्दाख संकट से पहले सत्तारूढ़ बीजेपी के नेता राजनीतिक भाषणों और चुनाव अभियानों के दौरान पाकिस्तान को ललकारने और उस पर हमला करने में मुखर थे. चीन और पाकिस्तान से दो मोर्चों पर मिले-जुले सैन्य खतरे का जोखिम, जिसे संभालने में भारत असमर्थ है, ने उन्हें लद्दाख संकट के बाद से पाकिस्तान पर चुप्पी साधने के लिए मजबूर कर दिया है. संयुक्त अरब अमीरात के सहयोग से पाकिस्तान के साथ चल रही बैक-चैनल वार्ताओं के कारण नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम की बहाली हो गई है, लेकिन पाकिस्तान में चल रही आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता और नवंबर में वहां एक नए सेना प्रमुख के पदभार संभालने के साथ यह शांति बाधित हो सकती है. गौरतलब है कि ​​पाकिस्तान ने अब तक चीन से जूझ रहे भारत की कमजोरी का खुला फायदा नहीं उठाया है.

भारत के लिए आगे का रास्ता सीधा-सपाट है. पाकिस्तान को केवल सुरक्षा और ख़ुफ़िया एजेंसियों के हवाले करने के बजाय, नई दिल्ली को कूटनीति, राजनीति और अर्थशास्त्र का उपयोग करने की जरूरत है. भारत सरकार को पाकिस्तान के साथ पुल ढहाने की जगह उनका निर्माण करना चाहिए. पाकिस्तान के साथ एक ठोस शांति-स्थापना प्रक्रिया को अपनाकर नई दिल्ली चीन की रणनीतिक चुनौती पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित कर पाएगा. इस प्रक्रिया में सार्क को अहम भूमिका निभानी होगी, ताकि अन्य क्षेत्रीय देश भी इस विमर्श में भागीदारी कर क्षेत्रीय शांति, स्थिरता और विकास की प्रक्रिया में हितधारक बन पाएं.

मोदी सरकार सिर्फ इस आशंका के कारण सार्क से दूर नहीं रह सकती कि समूह के अन्य सदस्य साथ मिलकर चीन की पूर्ण सदस्यता की सिफारिश करेंगे. एशिया और इंडो-पैसिफिक के इर्द-गिर्द उभरती वैश्विक भू-राजनीति में भारत को अपने पड़ोस में सत्ता के बहुत से खेलों के लिए तैयार रहना होगा, और हर दांव को चतुराई से चलना सीखना होगा. जैसा कि पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिव शंकर मेनन ने तर्क दिया है, “वैश्विक व्यवस्था में जितनी अधिक अनिश्चितता होगी, भारत को अपनी तात्कालिक परिधि, विशेष रूप से उपमहाद्वीप, को स्थिर और प्रबंधित बनाने के लिए उतनी ही अधिक प्राथमिकता देनी होगी.”

अपनी सेना को पाकिस्तान के बजाय चीन पर केंद्रित करने के अंदरूनी पुनर्संतुलन से इतर नई दिल्ली ने बाहरी स्तर पर भी नए समीकरण साधने की कोशिश की है. इसका एक मुख्य उदाहरण है चतुर्भुज सुरक्षा संवाद से जुड़ना, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका भी शामिल हैं. क्वाड शिखर सम्मेलन और बहुत सी मंत्रिमंडल व अन्य आधिकारिक बैठकों ने बहुत सारे वक्तव्यों के साथ एक गैर-सुरक्षा एजेंडा तैयार किया है, लेकिन इनमें कोई भी प्रस्ताव भारत-चीन सीमा की अनिश्चित स्थिति में सुधार करने की बात नहीं करता है. भारत एकमात्र क्वाड सदस्य है, जो चीन के साथ जमीनी सीमा साझा करता है और संयुक्त राज्य अमेरिका का संधि सहयोगी नहीं है. मोदी सरकार चीन के प्रति सख्त रुख अपनाने से हिचकिचा रही है, क्योंकि उसे डर है कि ऐसा करने से बीजिंग उसके खिलाफ जमीनी सीमा पर सैन्य कार्रवाई कर सकता है. नई दिल्ली के सामने एक चुनौती यह भी है कि कहीं चीन भारत को अपनी अमेरिकी चुनौती के उपसमूह के रूप में देखना न शुरू कर दे. हालांकि यूक्रेन-रूस मुद्दे पर भारत का रवैया काफी हद तक पश्चिम के खिलाफ और चीन के नजदीक रहा है, जिससे बीजिंग के लिए भारत के असल सहयोगियों और संरक्षकों की पहचान करना मुश्किल हो गया है. मैंने पीएलए से सेवानिवृत्त वरिष्ठ कर्नल झोउ बो के साथ हाल ही में एक एक पॉडकास्ट रिकॉर्ड किया, जहां वह इस बात पर जोर देते हैं कि भारत हमेशा से रणनीतिक संप्रभुता का पालन करता आया है और वह यूक्रेन के मुद्दे पर भी उस रास्ते पर चल रहा है.

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग दिसंबर 2014 में अहमदाबाद में एक साथ झूला झूलते हुए. लद्दाख संकट के दौरान दोनों नेताओं की कई साल की जान-पहचान हर मोर्चे पर असफल दिखी. पीटीआई

भारत और रूस एक लंबे समय से एक-दूसरे के सहयोगी रहे हैं. भारत अपने सैन्य उपकरणों और प्रतिस्थापन के लिए मुख्य रूप से रूस पर निर्भर है. यही कारण है कि नई दिल्ली ने मॉस्को के विषय पर पश्चिम के रोष का साथ नहीं दिया है. रूस में भारत के एक पूर्व राजदूत ने कहा कि चूंकि लगभग सत्तर प्रतिशत भारतीय सैन्य उपकरण रूसी स्त्रोत के हैं और दशकों तक उपयोग में रहेंगे, इसलिए नई दिल्ली के लिए मॉस्को का समर्थन अहम है. भले ही मॉस्को बीजिंग का कनिष्ठ भागीदार बन गया हो, लेकिन मोदी सरकार के पास यह उम्मीद करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है कि रूस चीनी दबाव के आगे नहीं झुकेगा और भारत के साथ अपने स्वतंत्र संबंध बनाए रखेगा. 2020 में भारत और चीन के रक्षा और विदेश मंत्रियों की मॉस्को में आयोजित एससीओ बैठक के दौरान एक-दूसरे से मुलाकात हुई. भारतीय अधिकारियों ने दावा किया कि उन्होंने इन मुलाकातों में किसी भी रूसी उपस्थिति को शामिल होने की अनुमति नहीं दी. मॉस्को में भारतीय दूतावास के एक कनिष्ठ राजनयिक ने मुझे बताया कि 2021 में रूस द्वारा बीजिंग और नई दिल्ली के बीच सीमा विवाद की मध्यस्थता करने की पेशकश को विनम्रता से ठुकरा दिया गया था. एससीओ, ब्रिक्स शिखर सम्मेलन और रूस में चीन के साथ वोस्तोक 2022 सैन्य अभ्यास में भाग लेकर भारत ने स्वतंत्र इकाई का संकेत देते हुए दर्शाया है कि वो मॉस्को को बीजिंग के साथ जोड़ कर नहीं देखता है. अगर भारत और चीन के बीच हालात बिगड़ते हैं, तो यह मॉस्को के नई दिल्ली और बीजिंग के साथ संबंधों की सापेक्ष ताकत पर मोदी की धारणाओं की कड़ी परीक्षा होगी.

पुरानी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के तहत सफल रहने के बाद भारत और चीन वर्तमान में दो वैश्विक व्यवस्थाओं के बीच एक नए अशांत वातावरण में अपनी-अपनी राह तलाश रहे हैं. एक विशाल और अधिक शक्तिशाली चीन, जो भारत के साथ अपनी जमीनी सीमाओं पर हमलावर रहता है, एक ऐसी वास्तविकता है जिससे नई दिल्ली को लगातार संघर्ष करना होगा. मोदी चाहे जितने शोरगुल से यह दावा करें कि उनके शासन में भारत एक विश्वगुरु बन गया है, बीजिंग कभी यह स्वीकार नहीं करेगा कि नई दिल्ली उसका भू-राजनीतिक साथी है. यह ताकत का खेल है- अर्थव्यवस्थाओं, सेनाओं, प्रौद्योगिकी और भू-राजनीति का- जिसमें भारत चीन से पीछे है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कांग्रेस, जो संभवतः शी को तीसरी बार चीन की बागडोर थमाएगी, शायद ही भारत के लिए अपनी नीति में कोई बड़ा बदलाव लाए.

नई दिल्ली एक मुश्किल स्थिति में है. अगर वह अपने हितों को सुरक्षित रखना चाहता है, तो उसे चीन से डरने की मौजूदा नीति, तथ्यों की अनदेखी करना और “यह भी बीत जाएगा” की उम्मीद को जल्द से जल्द त्यागना होगा. जैसा कि जॉन एफ कैनेडी ने 1961 के बर्लिन संकट के दौरान कहा था, “हम उन लोगों के साथ बातचीत नहीं कर सकते जो कहते हैं कि 'जो मेरा है, वो  मेरा है और जो तुम्हारा है, उसके बारे में सोचा जा सकता है.'” मोदी सरकार के अल्पकालिक और चालू दांव-पेच, जो मौजूदा समस्या के बारे में राजनीतिक भ्रम फ़ैलाने के उद्देश्य से काम कर रहे हैं, भारत का बड़ा नुकसान कर सकते हैं. अस्पष्टता, दुविधा और भ्रम हमेशा ताकतवर का पलड़ा भारी बनाते हैं और इस मामले में यह बात चीन पर लागू होती है. मोदी को यह सबक तभी सीख जाना चाहिए था जब वह सितंबर 2014 में अहमदाबाद के साबरमती रिवरफ्रंट पर शी को झूला झुला रहे थे और पीएलए के सैनिक लद्दाख के चुमार में घुस आए थे. इसके बजाय मोदी ने शी की प्रशंसा करते हुए कहा कि वह सातवीं शताब्दी के बौद्ध तीर्थयात्री जुआनजांग के बाद भारत का दौरा करने वाले दूसरे सबसे महत्वपूर्ण चीनी व्यक्ति थे. वह तब से 17 बार शी से मिल चुके हैं, लेकिन भारत के लिए ज्यादा कुछ हासिल नहीं कर पाए हैं.

अगर लद्दाख संकट से एक चीज साफ उभर कर आई है, तो वह यह है कि शी के साथ मोदी की व्यक्तिगत कूटनीति बेहद नाकाम रही है. इस विफलता का लंबा और घाना साया भारत की चीन नामक चुनौती पर हावी नजर आता है. 

(कारवां अंग्रेजी के अक्टूबर 2022 अंक की इस कवर स्टोरी का हिंदी में अनुवाद कुमार उन्नयन ने किया है. मूल अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


सुशांत सिंह येल यूनि​वर्सिटी में हेनरी हार्ट राइस लेक्चरर और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो हैं.