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सरकार से चीन के बारे में पूछिए, तो जवाब पाकिस्तान पर मिलेगा. लगता है कि भारत की सुरक्षा चुनौतियों के लिए नरेन्द्र मोदी सरकार की रणनीति यही है. यहां तक कि दिसंबर में जब तवांग के यांग्त्से रिज पर चीनी सेना भारतीय सैनिकों से भिड़ी, तब भी मोदी सरकार पाकिस्तान के खिलाफ राजनयिक बयान जारी करने पर लगी थी. पाकिस्तान पर बयानबाजी की शुरुआत विदेश मंत्री एस जयशंकर ने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता संभालते ही की. वहां उन्होंने अपने भाषण में आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देशों की बात की, जबकि 2019 के पुलवामा आत्मघाती बम विस्फोट के बाद से भारत में कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ है. जबकि इस बीच चीन ने सीमा पर भारत को सैन्य रूप से ललकारना लगातार जारी रखा है. भारत की यह नीति समझ से परे है. वह भी तब जब मोदी सरकार, आतंकवाद का पर्याय माने जाने वाले तालिबान के साथ, संबंध मजबूत कर रही है.
पिछले कुछ महीनों से लगातार पाकिस्तान पर फोकस किया जा रहा है. अक्टूबर में मोदी ने युद्ध में पहनी जाने वाली पोशाक पहन कर कारगिल में सैनिकों के साथ कुछ घंटे बिताए जहां उन्होंने सैन्य तैयारियों की शेखी बघारी. उसी महीने में शौर्य दिवस पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि 5 अगस्त 2019 के अधूरे एजेंडा को पाकिस्तान से कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेकर पूरा करना है. नवंबर में मीडिया से बातचीत के दौरान एक सवाल के जवाब में, उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल उपेंद्र द्विवेदी ने कहा कि जब भी सरकार की ओर से आदेश आएगा, भारतीय सेना पीओके को वापस लेने के लिए तैयार खड़ी है. हालांकि उन्होंने दिवंगत बिपिन रावत जितनी बड़ी बात नहीं कही जिन्होंने सितंबर 2019 में सेना प्रमुख रहते हुए कहा था कि यदि केंद्र सरकार निर्णय लेती है तो सेना "पीओके को पुनः प्राप्त कर उसे भारत का हिस्सा बनाने के लिए तैयार है."
26 अक्टूबर 1947 को जम्मू और कश्मीर की रियासत द्वारा इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर हस्ताक्षर करने के बाद से भारत कश्मीर पर दावा करता आया है. फरवरी 1994 में कश्मीर में उग्रवाद के चरम के समय संसद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया कि पीओके भारत का अभिन्न अंग है और "पाकिस्तान को जम्मू और कश्मीर के भारतीय राज्य के क्षेत्रों को खाली करना चाहिए, जिस पर उन्होंने आक्रमण करके कब्जा कर लिया है.” यह 14 नवंबर 1962 को चीन पर सर्वसम्मत से पारित प्रस्ताव से बहुत अलग नहीं है, जहां इसी संसद ने प्रतिबद्धता जाहिर की थी कि, "भारत की पवित्र भूमि से हमलावर को बाहर निकालने के लिए भारतीय लोग प्रतिबद्ध हैं फिर चाहे संघर्ष कितना ही लंबा और कठिन क्यों न हो." आज चीन पर ऐसा संकल्प मौजूदा सरकार लाएगी यह संभव नहीं लगता. आर्थिक आपदा, राजनीतिक उथल-पुथल और सामाजिक संघर्ष के अपने भंवर में फंसा पाकिस्तान हिंदुत्व विचार से जुड़े शासकों के लिए कहीं अधिक सुविधाजनक टारगेट है. हालांकि इस तरह का हो-हल्ला भारत को एक खतरनाक संकट की ओर धकेल सकता है.
हमारे राजनेताओं की अति-राष्ट्रवादी बयानबाजी को नजरअंदाज करना आसान है लेकिन वरिष्ठ कमांडरों के पीओके को वापस लेने के दावों की अवहेलना करना कठिन है. स्टिम्सन सेंटर के एक सर्वेक्षण के अनुसार नब्बे प्रतिशत भारतीयों का मानना है कि युद्ध में भारत "संभवतः या निश्चित रूप से" पाकिस्तान को हरा देगा, और अब भारतीय मीडिया बड़ी उत्सुकता के साथ पीओके को वापस लेने के दावों पर रिपोर्ट कर रहा है. इसलिए, इन दावों की ठीक तरह से जांच की जानी चाहिए. सेवारत और सेवानिवृत्त वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने मुझे बताया है कि पीओके को वापस लेने के लिए पाकिस्तान के साथ युद्ध शुरू करने की कोई वास्तविक योजना नहीं है. यह एक ऐसा सैन्य उद्देश्य नहीं है जिस पर सशस्त्र बलों के भीतर कोई गंभीर रूप से विचार किया गया हो. यह भौगोलिक रूप से बहुत कठिन इलाका है और जैसा कि सेना में कहा जाता है, "पहाड़ सैनिकों को खा जाते हैं."
सेना केवल उन्हीं क्षेत्रों में आक्रामक अभियान चला सकती है जहां पर पहुंचना अपेक्षाकृत आसान होता है. इसका मतलब होगा : जम्मू और चंबा सेक्टर और राजौरी सेक्टर के कुछ पहाड़ी इलाके. अन्य क्षेत्रों में वर्तमान योजनाएं कुछ स्थानीय सामरिक और परिचालन लाभ प्राप्त करने के बहुत सीमित उद्देश्यों के लिए हैं. जैसे हाजी पीर दर्रा, जो सेना को उरी और पुंछ क्षेत्रों को जोड़ने में मदद करेगा, सबसे प्रमुख है. सेना ने कारगिल और नीलम और लीपा घाटियों में कुछ अन्य क्षेत्रों की पहचान की है. लेकिन जैसा कि उत्तरी कमान के पूर्व प्रमुख एचएस पनाग ने 2019 में लिखा था, “हमारे पास 7-10 दिनों के सीमित युद्ध में चुनिंदा क्षेत्रों में नियंत्रण रेखा को 5-10 किलोमीटर तक बढ़ाने की क्षमता है.”
जिन सैन्य अधिकारियों से मैंने बात की उनके अनुसार भारतीय सेना के 14 दस्ते चीन के साथ पूर्वी लद्दाख सीमा की देखभाल करने और सियाचिन की रक्षा करते हुए गिलगित-बाल्टिस्तान में जाने के लिए किसी गंभीर प्रयास करने की स्थिति में नहीं है. चीन का चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा उस क्षेत्र से गुजरता है, जो बीजिंग के लिए यथास्थिति बनाए रखने को महत्वपूर्ण बना देता है. गिलगित-बाल्टिस्तान में कब्जा किए जाने वाले क्षेत्र के अनुपात का सैन्य बल भारतीय सेना के पास मौजूद नहीं है.
पीओके को फिर से हासिल करने के लिए चलाया गया कोई भी सैन्य अभियान सीमित समय के लिए नहीं होगा. यह दस या पंद्रह दिनों की छोटी लड़ाई नहीं बल्कि एक दीर्घकालीन संघर्ष होगा. और यह युद्ध केवल जम्मू और कश्मीर तक सीमित नहीं रहेगा. पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में दबाव कम करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमा के अन्य हिस्सों पर मोर्चे खोल सकता है, भले हम यह मान कर चलें कि चीन इस मामले में तटस्थ रहेगा. कारगिल संघर्ष के दौरान भारत ने युद्ध को कश्मीर तक सीमित रखा, यहां तक कि भारतीय वायु सेना को केवल नियंत्रण रेखा के भारत की तरफ उड़ान भरने का आदेश दिया गया. एक पूर्व सैन्य कमांडर ने मुझे बताया कि इस तरह का संघर्ष आसानी से तीन से चार महीने तक चल सकता है- यूक्रेन में रूसी दुस्साहस के सबक से भारतीय सैन्य योजनाकारों को पता चल गया होगा.
50 दिनों की कड़ी लड़ाई के लिए तैयार रहने के मजबूत मंसूबों के बावजूद (यह मंसूबा 2009 में मनमोहन सिंह सरकार के समय रक्षा मंत्रालय द्वारा तैयार ऑपरेशनल दिशानिर्देश में है. हालांकि इसे प्रत्येक पांच साल में जारी करना होता है लेकिन 2009 के बाद फिर कभी इसे अपडेट नहीं किया गया है.), भारतीय सशस्त्र बलों के पास बामुश्किल दस दिनों का गोला-बारूद और सामग्री उपलब्ध है. नोटबंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को ऐसी स्थिति में ला दिया है जहां सशस्त्र बलों के आधुनिकीकरण के लिए संसाधन उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं. सेना में एक लाख से अधिक सैनिकों की कमी है और वायु सेना के पास 42 की जगह केवल तीस स्क्वाड्रन हैं. भारत की सबमरीन और एयरक्राफ्ट कैरियर की सामरिक तैयारी ढींगे हांकने वाली बात नहीं है.
लगता है सरकार ने अपने आकलन दो अनुमान के आधार पर किए हैं : पहला, चीनी संकट है ही नहीं, और दूसरा, पाकिस्तान के पास परमाणु हथियार नहीं हैं. पाकिस्तान के सैन्य अधिकारियों ने, वह एकमात्र ऐसा देश है जहां परमाणु हथियारों पर राजनीतिक नेतृत्व के बजाय सेना का नियंत्रण है, अक्सर यह तर्क दिया है कि यदि उनकी सीमा में भारत घुसेगा तो वे अपने इस हथियार का उपयोग करने में संकोच नहीं करेंगे. उदाहरण के लिए यदि भारतीय सेना को किसी तरह पीओके के सबसे बड़े शहर मुजफ्फराबाद पर कब्जा करना है, तो यह निश्चित रूप से पाकिस्तान की सीमा रेखा को पार करना होगा. 2019 में बालाकोट प्रकरण के बाद जब मोदी ने मिसाइल दागने की धमकी दी थी, बाद में उन्होंने शेखी बघारी कि भारत ने अपने परमाणु बम दिवाली के लिए नहीं रखे हैं, के बाद पाकिस्तान ने बड़े पैमाने पर जवाबी कार्रवाई करने की धमकी दी. इस खतरे ने दुनिया भर के राजनयिकों और नेताओं को भारत और पाकिस्तान शांत कराने का दबाव बनाया.
सैन्य क्षमताओं के अलावा राजनीतिक नेतृत्व को इस कहावत पर ध्यान देना चाहिए कि "युद्ध इतना महत्वपूर्ण है कि इसे सेना के जनरलों पर नहीं छोड़ा जा सकता." यदि राजनीतिक उद्देश्य पीओके पर कब्जा करना है, तो बड़ी, बसी हुई आबादी वाले इन क्षेत्रों को भारत द्वारा नियंत्रित और यहां के विरोधों को शांत करना होगा. कश्मीर घाटी के अशांत लोगों के साथ मिल कर वे ऐसी राजनीतिक कठिनाइयां खड़ी कर देंगे, जो सालों नहीं तो महीनों तक अशांति पैदा करेंगी. 1971 में इंदिरा गांधी ने फैसला किया था कि भारतीय सेना को हफ्तों में ही बांग्लादेश छोड़ देना चाहिए क्योंकि वह जानती थीं कि ऐसे परिदृश्य में सैनिकों की उपस्थिति के अंजाम सही नहीं होते हैं. उस सबक को उनके बेटे राजीव ने 1987 में भुला दिया, जब उन्होंने इंडियन पीस कीपिंग फोर्स को श्रीलंका भेजा. पीओके के मामले में नतीजे और भी बुरे हो सकते हैं.
भारत के राजनीतिक नेतृत्व को ताइवान को एकीकृत करने की चीन की योजनाओं पर भी ध्यान देना चाहिए. चीनी नेतृत्व का सेना के माध्यम से ताइवान को अपने कब्जे में लेने का कोई इरादा नहीं है, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत सहित पूरी दुनिया एकीकृत चीन नीति से सहमती रखते है. ताइवान को फिर से चीन में शामिल होने के लिए मजबूर करने के लिए वह अपने शस्त्रागार में अन्य सभी साधनों जैसे राजनीतिक, आर्थिक और कूटनीतिक-का उपयोग करने को तैयार है. ताइवान परमाणु हथियार संपन्न देश नहीं है और चीन भारत से कहीं बड़ी भू-राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति है.
मोदी को अपने शब्दों पर ध्यान देना चाहिए, जो उन्होंने सितंबर में समरकंद में अपने "मित्र", रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से कहे थे कि "आज युद्ध का युग नहीं है." यह मंत्र दक्षिण एशिया पर उतना ही लागू होता है जितना कि यूरोप पर. हम भारतीय युद्ध से होने वाली सामाजिक, आर्थिक और मानवीय क्षति सह नहीं सकते.
(अनुवाद : अंकिता)
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