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1971 के कारगिल युद्ध में पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण के बाद, सेना प्रमुख सैम मानेकशॉ ने भारत की खुफिया एजेंसी, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग के प्रमुख आर.एन. काओ को एक गर्मजोशी भरा पत्र लिखा. पत्र में उन्होंने युद्ध से पहले और उसके दौरान रॉ के शानदार काम की सराहना की. यह पत्र इंदिरा गांधी को भी भेजा गया. और उन्होंने पत्र पर अपनी टिप्पणी में लिखा कि "जनरल इतना खुले दिल से इसलिए तारीफ कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने युद्ध जीता है."
रॉ के सेवानिवृत्त अधिकारी बी रमन ने वीपी मलिक के बारे में बात करते हुए इस प्रकरण को याद किया था, जो 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान सेना प्रमुख थे. गांधी की इस टिप्पणी में यह तंज था कि अगर सेना 1971 का युद्ध हार जाती, तो वह सबसे पहले खुफिया एजेंसियों पर ही दोष मढ़ती. उस युद्ध में भी पश्चिमी मोर्चे पर अपनी नाकामी का ठीकरा सेना ने खुफिया एजेंसियों पर फोड़ा था.
पाकिस्तान के साथ उस जंग में सैन्य संचालन महानिदेशक रहे पूर्व जनरल एन.सी. विज की नई किताब ‘अलोन इन द रिंग’ को रक्षा मंत्रालय ने प्रकाशित होने से रोक दिया है. अब तक सामने आए किताब के अंशों और पुस्तक पर मीडिया रिपोर्टों के आधार पर, ऐसा लगता है कि विज उसी पुरानी कहानी को दोहरा रहे हैं कि खुफिया एजेंसियां नाकाम रहीं और सेना ने सैनिकों की बहादुरी और बलिदान के चलते जीत हासिल की और जनरल अद्भुत सैन्य लीडर थे.
लेकिन सच सह है कि जब संकट शुरू हुआ, तब सेना प्रमुख वीपी मलिक भारत में मौजूद भी नहीं थे. वह उस साल 9 मई को चेक गणराज्य की आधिकारिक यात्रा पर थे. स्थिति से अवगत होने के बावजूद उन्होंने अपनी यात्रा को बीच में नहीं रोका और लंदन के रास्ते वापस लौटे. एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया, "17 मई की शाम को मैंने तय किया कि मुझे जल्द से जल्द भारत लौटना चाहिए. लेकिन, जब मैंने अपने विकल्पों पर विचार किया, तो मैंने पाया कि लंदन के रास्ते आने पर भी मुझे उतना ही वक्त लगेगा जितना सीधे भारत आने पर लगता." उन्होंने 20 मई को वापस लौटने का फैसला किया. मलिक के तय कार्यक्रम के अनुसार अपनी यात्रा जारी रखने के फैसले के अपने नतीजे थे.
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