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1947 में विभाजन के दौरान उन जिलों में जहां दूसरे महायुद्ध में लड़ने वाले सैनिकों की संख्या ज्यादा थी एक रोचक पैटर्न दिखाई दिया. ये सैनिक दूसरे धर्म के लोगों को अपने इलाकों से बाहर करवा रहे थे और जिन इलाकों में अल्पसंख्यक होते वहां अपने धर्म वालों को पलायन करने के लिए प्रेरित करते. सबसे हिंसक जातीय सफाया उन जगहों पर हुआ जहां बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों ने बतौर सैनिक युद्ध का अनुभव हासिल किया हुआ था और अल्पसंख्यक समुदाय असंगठित था.
डू कॉम्बैट एक्सपीरियंस फोस्टर ऑर्गनाइजेशनल स्किल? एवि़डेंस ऑफ एथनिक क्लिनजिंग ड्युरिंग दि पार्टीशन ऑफ इंडिया नामक स्टीवन विल्किंसन और सौमित्र झा के 2012 के एक शोध में यह बात सामने आई है. दोनों ने स्पष्ट किया कि इसका यह मतलब नहीं है कि सभी सैनिक ऐसी हिंसा में शामिल थे. लेकिन सेना भर्ती के लिए सरकार की नई प्रस्तावित योजना “टूर ऑफ ड्यूटी सिस्टम” (टीओडी) पर यह शोध चिंताजनक सवाल खड़े करता है.
टीओडी प्रणाली तीन से पांच साल के लिए अल्पकालिक अनुबंधों का प्रस्ताव करती है. भारतीय सेना के संगठन के सिद्धांत इसकी औपनिवेशिक परंपरा से आते हैं और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से इसकी संचालन नीति नहीं बदली है. टीओडी प्रस्ताव का विवरण अब तक आधिकारिक तौर पर जारी नहीं किया गया है लेकिन यह विचार पहली बार मई 2020 में मीडिया रिपोर्टों में सामने आया था. तब दिवंगत चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत ने पत्रकारों से कहा था कि यह अवधारणा एक शुरुआती चरण में है. उन्होंने प्रस्ताव के बारे में संदेह जताया था कि इसकी व्यवहार्यता का अध्ययन करने की जरूरत है. रावत ने कहा था, "इसके लिए एक साल के प्रशिक्षण की जरूरत होगी. ड्यूटी का स्थान कश्मीर और पूर्वोत्तर में होगा… जवान के एक साल के प्रशिक्षण की लागत… उस जवान को साजो सामान से लैस करना और उसके लिए सब कुछ करना और फिर चार साल बाद जवान को जाने देना, क्या इससे तालमेल बन पाएगा? ”
रक्षा मंत्रालय के एक सेवानिवृत्त अधिकारी ने मुझे बताया कि प्रस्ताव न तो रक्षा सेवाओं और न ही रक्षा मंत्रालय से आया है. उन्होंने कहा कि ये "दिमागी तरंगे कहीं और से, दो या तीन लोगों के समूह से" निकलती हैं, जिन्हें फिर सुरक्षा सेवा मुख्यालय द्वारा लागू किया जाना होता है. एक पूर्व सेना प्रमुख ने मुझे बताया कि रक्षा सेवा इस प्रस्ताव को लेकर उत्साहित नहीं थी क्योंकि विशेष रूप से सेना इसका विरोध कर रही थी. रावत इस विचार से प्रभावित नहीं थे लेकिन उस अधिकारी ने कहा, "वह रक्षा सेवाओं के लिए सरकार की तरफ से आने वाली बुरी खबर का हरकारा बन गए थे". हर साल होने वाली 50000 से 80000 सैनिकों की भर्ती में से टीओडी मॉडल के जरिए केवल 5000 सैनिकों की भर्ती का समझौता रक्षा सेवाओं द्वारा प्रस्तावित किया गया था लेकिन अधिकारियों ने इसे मानने से इनकार कर दिया.
अधिकारियों के आग्रह और रक्षा सेवाओं की अनिच्छा ने एक गतिरोध पैदा कर दिया जिसके चलते 2020 और 2022 के बीच वित्तीय वर्षों में भर्ती पूरी तरह से ठप रही. सरकार ने महामारी के चलते लागू प्रतिबंध को इस योजना को लागू न करने का कारण बताया. हालांकि चुनावी रैलियां और धार्मिक सभाएं प्रतिबंध से प्रभावित नजर नहीं आईं. जनवरी 2022 तक, सेना के पास अपनी अधिकृत शक्ति यानी 1212000 से 80000 से ज्यादा सैनिकों की कमी थी. माना जाता है कि यह आंकड़ा अब 100000 को पार कर गया है. इन कमियों ने सेना की इच्छाशक्ति को कमजोर कर दिया है और उसने टीओडी प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है.
सेना मुख्यालय में सेवारत एक थ्री-स्टार जनरल ने मुझे बताया कि सरकार का तर्क आर्थिक कारणों पर आधारित था. रक्षा मंत्रालय के लिए बजटीय आवंटन 5.25 लाख करोड़ रुपए है और इसमें से आधे से अधिक पेंशन और वेतन में खर्च हो जाता है. इसके बाद रक्षा आधुनिकीकरण के लिए बहुत कम बचता है. एक रैंक एक पेंशन योजना का वादा करने और लागू करने के बाद मोदी सरकार की राजनीतिक अनिवार्यता रक्षा पेंशन में किसी बड़े सुधार की अनुमति नहीं देती. अपनी 2020 की रिपोर्ट में पंद्रहवें वित्त आयोग को यह सिफारिश करने के लिए मजबूर किया गया था कि सरकार को "समग्र वित्तीय बाधाओं" के कारण रक्षा कर्मियों के "वेतन और पेंशन देनदारियों को कम करने के लिए तत्काल नवीन उपाय करना चाहिए". लेकिन आयोग की यह सिफारिश कि "सेना के लिए वर्तमान में जारी पुरानी पेंशन योजना को हटा कर नई पेंशन योजना या सशस्त्र बलों के लिए एक अलग एनपीएस में लागू की जाए" को राजनीतिक हरि झंडी नहीं मिली है.
टीओडी योजना शुरू करके, सरकार ने रक्षा पेंशन और वेतन के बजट को चुपके से कम करने का रास्ता चुना है. आजादी के बाद सैनिकों को सात साल के लिए भर्ती किया जाता था जिसे आगे 8 साल तक के लिए बढ़ाया जा सकता था. आपातकाल के दौरान भर्ती को बढ़ाकर 17 साल कर दिया गया. 15 साल की सेवा के बाद पेंशन योग्य हो जाने से अधिकांश सैनिकों को सम्मान के साथ एक आरामदायक सेवानिवृत्त जीवन जीने को मिलने लगा. एक सेवानिवृत्त अधिकारी और रक्षा विश्लेषक एक लेख में तर्क देते हैं, "भले ही पैसा भौतिक क्षति को पूरा नहीं कर सकता है पर पेंशन से जुड़ा गर्व और समर्थन निस्संदेह सबसे कठिन परिचालन स्थितियों के तहत कार्यात्मक दक्षता और प्रदर्शन को बढ़ाने के लिए एक महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक अनिवार्यता है."
दूसरे कार्यात्मक मुद्दे भी हैं. मौजूदा संगठन विशिष्ट प्रशिक्षण, कौशल और अनुभव के बाद दी जाने वाली भूमिकाओं और जिम्मेदारियों पर आधारित है. यह संरचना दशकों से भारतीय सशस्त्र बलों की अद्वितीय परिचालन जरूरतों और हथियारों और प्रौद्योगिकी को शामिल करने के आधार पर उभरी है. अगर सैनिकों को केवल तीन या पांच सालों के लिए भर्ती किया जाता है, तो सेना के कार्यात्मक मानदंडों को फिर से तैयार करना होगा.
बुनियादी भर्ती प्रशिक्षण एक साल के लिए होता है और एक प्रशिक्षित सैनिक को दो साल के बाद जाने देना बहुमूल्य संसाधन की बर्बादी है. छोटे कार्यकाल में सैनिकों की भर्ती तेजी से होगी जिसमें अतिरिक्त पुरुषों के लिए एक बड़े भर्ती प्रशिक्षण बुनियादी ढांचे की आवश्यकता होगी. इसमें ज्यादा लागत आएगी और इससे भर्ती प्रशिक्षण की गुणवत्ता प्रभावित होगी. सरकार इससे कुछ रुपए जरूर बचा सकती है लेकिन यह हमारी सीमाओं की रक्षा में तैनात कम प्रशिक्षित युवा कैडर को जोखिम में डालती है.
हालांकि प्रस्ताव में सबसे आमूलचूल परिवर्तन अखिल भारतीय आधार पर भर्ती करना है. अब तक सेना प्रत्येक राज्य की भर्ती योग्य पुरुष जनसंख्या की अवधारणा के आधार पर सैनिकों की भर्ती करती थी, जिसमें सैनिकों को वर्ग के आधार पर विभिन्न इकाइयों और उप-इकाइयों में बांटा जाता है. इसे उप-जाति के लिए एक व्यंजना समझिए. शुद्ध नस्ल सिद्धांत को औपचारिक रूप से खारिज करने के बावजूद यह अलगाव औपनिवेशिक युग से बराबर चलन में है. सुप्रीम कोर्ट में सेना की ओर से इसकी जोरदार पैरवी की गई है.
''नाम, नमक और निशान " यानी इज्जत, वफादारी और पहचान के लिए लड़ने वाले पुरुषों का विचार भारतीय सेना की एक खास विशेषता है. थ्री-स्टार जनरल ने मुझे बताया कि यह तब तक समझाना मुश्किल है कि सेना में वास्तविक जीवन में यह अमूर्त कारक कैसे काम करता है, जब तक कि किसी ने इन लोगों के साथ खतरनाक अभियानों में काम नहीं किया हो. अधिकांश आधुनिक सेनाओं के पास पेशेवर सैनिक होते हैं और उन्हें एक साथ लड़ने के लिए जाति, भाषा या किनशिप के विचार के सहारे की आवश्यकता नहीं होती है. ऐसा कोई कारण नहीं है कि भारतीय ऐसा नहीं कर सकते हैं. लेकिन इसके लिए एक नए लोकाचार की जरूरत होगी. भारतीय सेना के लिए सिद्धांत और संचालन दर्शन तैयार करना होगा. लेकिन इनमें से कुछ भी प्रस्तावित नहीं किया गया है. कम से कम इस तरह के दूरगामी कदम के लिए पर्याप्त योजना की जरूरत है. इसे शुरू करने के लिए सरकार को एक श्वेत पत्र लाना चाहिए, रक्षा पर संसदीय स्थायी समिति की एक विस्तृत रिपोर्ट पेश करनी चाहिए, एक मजबूत संसदीय चर्चा और एक जोरदार सार्वजनिक बहस आयोजित करनी चाहिए. इतनी बड़ी कवायद को चुपके से अंजाम देना गैरजिम्मेदार और लापरवाही भरा है.
विल्किंसन और झा के अलावा अन्य शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि यूगोस्लाविया और रवांडा जैसी जगहों पर नस्लीय सफाई हिंसा में सैन्य ट्रेनिंग और युद्ध कौशल की बड़ी भूमिका थी. विशेष रूप से ऐसे वातावरण में जहां राज्य की शक्ति कमजोर हो गई थी. ये निष्कर्ष आज के भारत के लिए एक महत्वपूर्ण सबक हैं जहां न्यायपालिका, पुलिस, नौकरशाही और मीडिया के कमजोर हो जाने से हिंदुत्ववादी भीड़ की हिंसा बढ़ी है.
वर्तमान में इस मॉडल के लिए जो संख्या तय की गई है उससे प्रत्येक साल लड़ने में दक्ष 19-20 साल के 50000 नौजवान समाज के पास उपलब्ध होंगे. आज के नफरत के माहौल में, जहां धार्मिक अल्पसंख्यकों को बेरहमी से निशाना बनाया जा रहा है, इस अवस्था के परिणाम खतरनाक होंगे. जरूरी योजना के बिना, टीओडी मॉडल का एकमात्र प्रभाव जो हम देख सकते हैं, वह है हिंदुत्व की कड़ाही में हिंसा भड़काने के लिए प्रशिक्षित युवाओं की भीड़ को छुट्टा छोड़ देना. चंद रुपयों के लिए सरकार की इस कारगुजारी की भारी कीमत भारत को चुकानी होगी.
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