यह विडंबना ही है कि यूक्रेन में रूस के सैन्य हमले की शुरुआत से ही इस संकट को लेकर भारत की नीति उल्लेखनीय रूप से चीन जैसी है. बहुपक्षीय मंचों पर चीन और भारत के निर्णय एक जैसे ही हैं और दोनों पश्चिमी प्रतिबंधों के बावजूद रूस के साथ व्यापार जारी रखना चाहते हैं. फिलहाल भारत न चाहते हुए भी चीन के साथ खड़ा है. लेकिन समस्या इससे ज्यादा गंभीर है. भारत की खस्ताहाल आर्थिक स्थिति ने विदेश नीति में उसके हाथ बांध दिए हैं. लेकिन यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की घरेलू राजनीति ही है, जो हर उस मूल्य के खिलाफ है जिस पर पश्चिम विश्वास करता है, जिसने भारत के लिए ऐसी स्थिति ला दी है मानो वह कोई खरगोश हो जिसकी आंखें अचनाक पड़ी हेडलाइट की तेज रोशनी में चुंदिया गई हों.
एक ओर रूस समर्पित अपने फैसलों के चलते चीन को अमेरिकी नेताओं और पश्चिमी सारी प्रेस की आलोचना झेलनी पड़ रही है वहीं भारत को सिर्फ दोस्ताना थपकी मिली और वाशिंगटन ने उसकी स्थिति पर सहानुभूति के लहजे में बात की. अमेरिका का भारत के लिए आधिकारिक समर्थन हैरान करता है. मसलन, पिछले हफ्ते एक अमेरिकी संसदीय सुनवाई के दौरान अमेरिकी कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने भारत-प्रशांत सुरक्षा मामलों के लिए अमेरिकी सहायक रक्षा सचिव एली रैटनर से पूछा कि क्यों भारत रूस की निंदा करने में क्वाड के बाकी सदस्यों के साथ खड़ा नहीं है. क्वाड ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका के बीच एक रणनीतिक सुरक्षा गठबंधन है. जवाब में, रैटनर ने तर्क दिया कि "हम मानते हैं कि भारत का रूस के साथ एक जटिल इतिहास और संबंध है. भारत द्वारा खरीदे जाने वाले अधिकांश हथियार रूसी हैं. अच्छी खबर यह है कि वह अपनी हथियारों की खरीद में विविधता लाने की एक बहु-वर्षीय प्रक्रिया में हैं ... मुझे लगता है कि रूस के साथ उसके संबंध अब उस दिशा में बढ़ रहे हैं जिसे हम अच्छा संकेत मान सकते हैं.”
इसी तरह रूस के साथ व्यापार पर अमेरिकी प्रतिबंधों के बीच मॉस्को से S-400 वायु रक्षा प्रणाली खरीद के खिलाफ भारत के विरुद्ध कार्रवाई की घोषणा नहीं की गई. भारत को उन्नत हथियार प्रणाली की डिलीवरी पिछले साल शुरू हुई थी. जिस पर फौरन प्रतिबंध लागू हो जाना चाहिए था. लेकिन अमेरिकी अधिकारी प्रेस के साथ अपनी बातचीत में भारत पर प्रतिबंधों के विषय में जानकारी देने बचते फिरे. S-400 सौदे पर दुनिया भर की नजर है लेकिन रूस के साथ चल रहे बाकी सैन्य सौदे भारत की सुरक्षा के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण हैं.
रूसी सैन्य उपकरणों पर भारत की निर्भरता एक निर्विवाद तथ्य है. यह भारत और तत्कालीन सोवियत संघ के बीच संबंधों की ऐतिहासिक विरासत पर आधारित है जिसने 1962 के युद्ध के बाद भारत को अपनी सैन्य शक्ति मजबूत करने में मदद की. इस तरह आर्थिक रूप से कमजोर भारत 1965 में पाकिस्तान को खदेड़ने और 1971 में उसे हराने के काबिल बना. शीत युद्ध समाप्त होने के बाद भी ये संबंध जारी रहे क्योंकि भारतीय सेना रूसी उपकरणों के साथ सहज थी और रूस को एक प्रमुख खरीदार की जरूरत थी. चूंकि प्रमुख हथियार प्रणालियों का जीवन तीन या चार दशकों का होता है इसलिए पिछले दशक में शामिल की गई प्रणाली कुछ दशकों तक ही सेवा में रहेगी.
भारत द्वारा हथियारों के अन्य वैश्विक आपूर्तिकर्ताओं से खरीदारी नई सहस्राब्दी में शुरू हुई. हालांकि दो कारणों से यह शरुआत धीमी ही रही. एक, ज्यादातर पश्चिमी देश उच्च-स्तरीय रक्षा प्रौद्योगिकी किसी को नहीं देते. इसके उलट रूस ने पहली बार 1980 के दशक में भारत को एक परमाणु पनडुब्बी पट्टे पर दी थी और एक स्वदेशी परमाणु हमले वाली पनडुब्बी कार्यक्रम के विकास के लिए मदद की थी. रूस ने भारत के साथ संयुक्त रूप से ब्रह्मोस क्रूज मिसाइल विकसित की और अन्य मिसाइलों के विकास के लिए उपयोगी इनपुट दिया. अक्सर ये प्रौद्योगिकियां एक पैकेज के हिस्से के रूप में आती हैं. हालांकि ऐसा लग सकता है कि रूस से खरीदारी मंहगी है लेकिन ये ऐसी प्रौद्योगिकियां हैं जिन्हें अमेरिका अपने संधि सहयोगियों के साथ भी साझा करने को तैयार नहीं है. एक बड़े और तकनीकी रूप से बेहतर प्रतिद्वंद्वी चीन का सामना करने के लिए भारत रूस से अपने संबंधों को जोखिम में नहीं डाल सकता.
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