एक तरफ, देश की राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसान केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं, दूसरी तरफ महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में शोषण का ऐसा जाल बिछा हुआ है, जो हमें दिखाई तो नहीं देता है लेकिन दिन-ब-दिन अधिक फैलता और कसता जा रहा है. गन्ने की खेती के इस जाल में फंसे मजदूर और छोटे किसान अपनी बेबसी का रोना रो रहे हैं. उनकी इसी दशा और दिनचर्या का आंखों देखा हाल बताती है शिरीष खरे की किताब 'एक देश बारह दुनिया'. इस पुस्तक में देश भर से एक दर्जन रिपोर्ताज हैं, जिन्हें पढ़ते हुए हाशिये पर छूटे भारत की तस्वीर साफ नजर आती है. पत्रकार शिरीष खरे ने भूख, गरीबी, बेकारी, पलायन, विस्थापन, विकास, दलित, आदिवासी, बंजारों, महिला, मछुआरों से लेकर छोटे किसान और मजदूरों तक उनसे जुड़ी छोटी-छोटी मार्मिक कहानियों के जरिए वंचितों के भारत को एक बड़े कैनवास पर देखने की कोशिश की है. यहां प्रस्तुत है 'एक देश बारह दुनिया' का पुस्तक अंश- 'गन्नों के खेतों में चीनी कड़वी'
“कहां जाना है?”
“बहुत दूर..., बेदर मिल..., करनाटक...” एक औरत ने तीन टुकड़ों में उत्तर दिया.
“लौटना कब होगा?” मैंने पूछा.
“बरसात के पहले-पहले.” उसने कहा.
“घर पर कौन हैं?” ट्रैक्टर दूर जाता देख मैं लगभग चिल्लाया-सा.
पर, इस बार शायद किसी को कुछ सुनाई नहीं दिया.
कोई उत्तर नहीं आया.
सुबह-सुबह एक ट्रैक्टर से जुड़ी दो ट्रालियों में दर्जन भर मजदूर बैठे हैं. इन्होंने अपने साथ अनाज की बोरियां, खाली बोरे, बिस्तर, कपड़े, बर्तन, बड़ी-बड़ी पन्नियां, टीन के संदूक और रोजमर्रा का बाकी सामान गद्दों से लपेटा हुआ है.
बहुत छोटे बच्चे मांओं की गोद में खिलौने लिए सोए हैं. उनसे थोड़े बड़े बच्चे ताइयों के कंधों पर लदे हैं. कोने में बकरियों के गले की रस्सियां ढीली करके एक बुर्जुग चारा डाल रहे हैं. ट्रालियों के बाहर पैर लटकाए सारे मर्दों के चेहरे पर एक-सा रूखापन है। उनके पीछे बैठी औरतें भी चुप हैं.
इस सन्नाटे में ट्रैक्टर स्टार्ट हुआ. लगा, मेरा समय गया. मैं कुछ पूछना चाहता था. लेकिन, ट्रैक्टर चल दिया…
यादें! यादें- दो हजार दस की पच्चीस नवंबर की हैं. हो सकता है यही या इसके आगे-पीछे की तारीख हो. मैं तारीखों का अंदाजा ई-मेल पर अपनी यात्रा के लिए आने-जाने की योजना से जुड़े ब्यौरों से लगाता हूं, या फिर अखबारों में छपी अपनी खबरों पर हाथ से लिखी तारीखों का सहारा लेता हूं. अपने समय से बीते समय में प्रवेश करना कष्टप्रद तो होता है, फिर भी ऊपर बताई गई उसी तारीख पर टेक लगाकर मैं अपने देश की अदृश्य-अनसुनी-अनकही दुनिया में प्रवेश कर रहा हूं…
सूरज का धुंधलका सड़क के दोनों ओर बिखरा है. इन दिनों यहां ये रोज के नजारे हैं, जब मुंह अंधेरे एक के पीछे एक ऐसी कई ट्रेक्टर-ट्रालियां दौड़ पड़ती हैं. सड़कों पर दुपहर की सी आवाजाही है. ये गुलाबी ठंड के रात और दिन हैं.
इस ठंडे समय मेरे दिमाग में अच्छी लोकेशन देख थोड़ी देर पहले ‘काला बाजार’ में काली स्वेटर पहने देव आनंद और काला शाल ओढ़े वहीदा रहमान पर फिल्माया और मोहम्मद रफी का गाया, ''खोया-खोया चांद, खुला आसमान, आंखों में सारी रात जाएगी, तुमको भी कैसे नींद आएगी, ओ-हो हो हो...'' याद आया था. लेकिन, मुझे ठीक-ठीक अंदाजा न था कि गुलाबी ठंड के ये रात और दिन मराठवाड़ा के ग्रामीण अंचल के मजदूरों के लिए हर साल यातनाएं लेकर आते हैं.
इस समय हम मस्सा गांव के ढाबे पर हैं. और बेबस हैं, कई प्रवासी मजदूरों को चार बजे की उजाले में एक अंधेरी गर्त की ओर बढ़ते हुए देखने के लिए.
ब्राजील के बाद भारत सबसे बड़ा चीनी उत्पादक देश है. भारत में महाराष्ट्र चीनी उत्पादन में बहुत आगे रहा है. यह उत्पादन पांच लाख से अधिक आंतरिक प्रवासी मजदूरों के बूते टिका है. ये मजदूर कर्नाटक से लगे उस्मानाबाद, बीड़, सोलापुर, कोल्हापुर, सांगली और सतारा जिलों से हर साल नवंबर से मई के महीनों तक गन्ने के खेतों में गन्ने काट रहे होते हैं. लेकिन, इन मजदूरों के सपनों में न खोया खोया चांद होता है और न मुंह में मिठास घोलने वाली चीनी के दाने. होता है तो दो जून की रोटी का ख्वाब, जिसके लिए अपने गांवों से पांच-छह सौ किलोमीटर दूर खेत-खेत भटकते रहते हैं.
सच कहूं तो मैंने यहां न आने के लिए प्लेटफार्म पर ही ट्रेन छूटने की कामना की थी. अपना सेकंड एसी डिब्बा पकड़ने की कोशिश में दिल तो चाहता था नाकाम हो जाऊं. लेकिन, देखा तो पहियों की गति पकड़ने के ठीक पहले चढ़ चुका था और मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल से सोलापुर के लिए रात पौने ग्यारह बजे 12115 सिद्धेश्वरी एक्सप्रेस से एक संसार आगे बढ़ चुका था. एक अधेड़ आदमी बड़ा बैग लिए मेरे पीछे दौड़े जा रहा था, पर वह न चढ़ सका. पीछे के किसी डिब्बे में चढ़ा. उसे देख एक दूसरा संसार साथ आता ओझल हो गया. जैसे बहुत देर पटरियों को एकटक देखो तो लगता है पटरियां दौड़ रही है, ठीक ऐसे ही वह आदमी दौड़ते देखा तो लगा कि जमीन दौड़ रही है और आदमी अपनी जगह स्थिर हाथ-पांव चला रहा है.
आखिर सुबह सात बजे आखिरी स्टेशन सोलापुर आने तक साढ़े चार सौ किलोमीटर दूर आ पहुंचा. स्टेशन के बाहर एक दूसरा अनजान स्थान. वहां सौ, सवा सौ किलोमीटर दूर मस्सा से कोई विनायक तौर मुझे लेने के लिए आने वाला था. लेकिन, डेढ़ घंटे तक भाऊ का मोबाइल नेटवर्क से बाहर. फिर उसी ने ही संपर्क साधा. उसी ने मुझे मुख्य सड़क पर पहचाना. जीप रोककर आगे बाजू की सीट पर बैठने को कहा. एकदम सामने बैठने से सड़क पीछे की ओर दौड़ने लगी. जीप की गति के अनुपात में आबादी की सघनता कम होती जा रही थी.
कोई ढाई-तीन घंटे में शहर और सबेरे को पीछे छोड़ हम एक पक्के ढांचे तक पहुंचे. मुझे कुछ दिन यहीं रुकना था. मैं कुछ दिन यहीं रुका. यहां सोने के नाम पर एक सोफा था, बाथरूम के नाम पर बाहर गन्ने का बड़ा खेत और नहाने के नाम पर ठंड के दिनों में नलकूप का ठंडा-ठंडा पानी. मुझे बुखार आना ही था. मुझे बुखार आया भी. यह मस्सा में मानव अधिकार कार्यकर्ता बजरंग ताटे के संगठन का कार्यालय है.
मस्सा का नाम आपने पहले कभी न सुना होगा. मैंने ही कहां सुना था! यह मराठवाड़ा के कलंब कस्बे का एक छोटा-सा गांव है. कलंब उस्मानाबाद जिले की तहसील है. उस्मानाबाद सोलापुर, लातूर, अहमदनगर और बीड़ जिलों से घिरा है. दक्षिण की तरफ कर्नाटक के बेदर और गुलबर्ग शहर हैं. इधर, कलंब के उत्तरी भाग में मांजरा नदी बहती है. मांजरा नदी ही उस्मानाबाद और बीड़ जिलों की सीमा तय करती बहती है. यह वाशिरा नाम की एक बड़ी नदी में मिलती है. कलंब मांजरा नदी के किनारे बसा है. यहीं मांजरा बांध है.
कलंब को यूं तो कपड़ा और कृषि बाजार के कारण जाना जाता है. लेकिन, इस कस्बे को प्रतिष्ठा हासिल है तो निजी चीनी मिलों के कारण. इनमें रांजण, हावरगाव और चोराखली गांव की चीनी मिल प्रमुख हैं.
यही वजह है कि यह इलाका राज्य में चीनी उत्पादन का केंद्र रहा है. कहा जाता है कि राज्य में चीनी की तीसेक मिले हैं. इनमें से सात अकेले उस्मानाबाद जिले में हैं. उस्मानाबाद के ढोकी में सबसे पहले साल 1982 को तेरणा चीनी मिल स्थापित हुई.
और उस्मानाबाद से कोई साठ किलोमीटर दूर कलंब तहसील के आसपास जहां हम हैं वहां की हकीकत यह है कि इस समय कई सारे गांव करीब-करीब खाली हो चुके हैं. यहां दीवाली बाद मजदूर जोड़ों का गन्ना काटने के लिए खेतों की ओर जाने का सिलसिला जारी है. यहां मजदूर पति-पत्नी के लिए ‘जोड़ा’ शब्द प्रचलित है.
इन जोड़ों में अधिकतर दलित, आदिवासी, बंजारा, घुमक्कड़ और अर्ध-घुमक्कड़ समुदाय से हैं. इनके पास न खेती लायक जमीन है. न ही कोई अपना धंधा है. गांव में मजदूरी का अकाल है. सूखे ने हालात बदतर बना दिए हैं. क्या करें? इसलिए, हर साल की तरह इस साल भी साल के छह-आठ महीने हजारों जोड़े अपने घर छोड़ने को मजबूर हैं.
- “तो अब वे सीधे मई-जून तक ही लौटेंगे?”
- “चुनाव होते तो दो-एक दिन के लिए बीच में लौटते. उम्मीदवार वोट डलवाने के लिए गांव लाते और वापिस खेत छोड़ देते हैं. अभी कहां कोई चुनाव है!” मस्सा के ढाबे से कार्यालय दस-बारह मिनट के पैदल रास्ते को बातों से पाटने के लिए मैंने विनायक से सवाल पूछा तो उसने बताया. एमए पास यह युवक बजरंग ताटे का सहयोगी कार्यकर्ता है.
“...शिरीष भाऊ, आज हमने जिन लोगों को देखा उन्हें गांव से बाहर होने के कारण उन्हें पंचायत की किसी योजना का फायदा नहीं मिलने वाला. उनकी बस्तियां बदलाव से अछूती ही रह जाएंगी. सबसे ज्यादा हर्जाना तो स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को भुगतना पड़ेगा. बच्चे गन्ने के खेतों में रहेंगे तो बताइए पढ़ाई को लेकर कोई उत्साह रहेगा! वहां रहने का ठिकाना नहीं, खाने-नहाने को तरस जाएंगे. यहां ऐसे ही चलता है. आप दो-तीन दिन खेत-खेत जाकर देखो तो शोषण की कितनी कहानियां हैं!”
“मुझे अपना हक पता है
फिर कैसे किसी को अपना हक यूं ही निगलने दूं
हो जाल कितना भी घना
कितना भी शातिर हो बहेलिया
अंत तक लड़ता है चूहा भी
उड़ना नहीं भूलती कोई चिड़िया कभी.”
पुस्तक: एक देश बारह दुनिया
लेकख: शिरीष खरे
प्रकाशक: राजपाल प्रकाशन