Unofficial PMO India नाम के फेसबुक पेज के 251000 फॉलोअर्स हैं. ये सत्ताधारी एनडीए सरकार के खिलाफ लगातार मीम पोस्ट करता है. 25 जुलाई 2018 को ये फेसबुक के सोशल मीडिया “कम्युनिटी स्टैंडर्ड” का शिकार हो गया. ये नियम बताते हैं कि “फेसबुक पर क्या कर सकते हैं और क्या नहीं. ये विश्व भर में लागू होता हैं.” इस पेज के लिए मुसीबत तब खड़ी हुई जब इसने पीएम नरेंद्र मोदी की एक बच्चे के साथ तस्वीर अपलोड की, जिसमें हिटलर की ऐसी ही तस्वीर लगाकर दोनों की तुलना की गई थी. कुछ ही घंटों में फेसबुक ने पहले तस्वीर हटाई और फिर पेज बंद कर दिया. यह पेज मेरे दोस्त फर्जा (जो मुंबई के बाहर से हैं) और तीन अन्य लोग चलाते हैं. जैसे ही पेज हटाया गया, फर्जा ने मुझे घबराहट में फोन किया. उन्हें डर था कि तस्वीर और पेज हटाए जाने के बाद उनके अकाउंट को हटाया जा सकता है. इसके कुछ ही घंटों बाद फर्जा समेत पेज चलाने वाले बाकी लोगों का अकाउंट 30 दिनों के लिए सस्पेंड कर दिया गया. फर्जा ने मीलों दूर से एक और इमरजेंसी कॉल करके मुझसे पूछा, “अब क्या करें?” मेरे पास इसका कोई माकूल जवाब नहीं था.
अब ये आम हो गया है. हर हफ्ते मुझे ऐसे यूजर्स का कॉल आता है जिनका अकाउंट कम्युनिटी स्टैंडर्ड की किसी ऐसी बात का उल्लंघन करने से सस्पेंड कर दिया गया है जो अभी साफ नहीं है. ये कॉल ऐसे यूजर का होता है जिसने नरेंद्र मोदी सरकार या उससे जुड़ी विचारधारा के खिलाफ कुछ पोस्ट किया हो. 2015 से मेरे पास आए ऐसे हर कॉल को मैंने डॉक्यूमेंट किया. इससे मैंने ये समझने की कोशिश की कि क्या ये गलत एल्गोरिथ्म की वजह से अपने आप हो रहा है या फेसबुक द्वारा सस्पेंड किए जाने के पीछे कोई एजेंडा है. सस्पेंड किए जाने का समय एक से 30 दिनों का होता है. कुछ मामलों में ये समय ज्यादा भी होता है. ये साफ नहीं है कि कैसी चीज के लिए कितने दिनों तक अकाउंट को सस्पेंड किया जा सकता है.
तीन दिनों तक इस डेटा को व्यवस्थित करने पर एक ढर्रा नजर आया. जितनी भी सस्पेंड की गई प्रोफाइलें मेरे पास थीं, उन्हें फेसबुक के कम्युनिटी स्टैंडर्ड के उल्लंघन के नाम पर सस्पेंड किया गया था. जब मुझे इनमें एक समान बात नजर आई तो मैंने ज्यादातर सस्पेंड की गई प्रोफाइलों को तीन तरह की फेसबुक एक्टिविटी की कैटगरी में बांट दिया- जिन्होंने मोदी के खिलाफ मीम पोस्ट किए थे, जिन्होंने सरकार की नीतियों का विरोध किया था और ऐसी चीजों को शेयर किया था जो पिछली दो श्रेणियों में आती हों. हर मामले में कभी कोई साफ वजह नहीं दी जिससे पता चले कि किस पोस्ट ने कम्युनिटी स्टैंडर्ड का उल्लंघन किया है या किस कम्युनिटी गाइडलाइन का पालन नहीं किया है. प्रोफाइलों के फिर से बहाल होने के बाद भी इन पर कोई सफाई नहीं दी गई.
विश्व में फेसबुक के 2.27 बिलियन और भारत में 270 मिलियन एक्टिव यूजर्स हैं. फेसबुक के कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म हैं जिनका आर्थिक प्रभाव बहुत हैं. फेसबुक नाम के इस देश में कौन सी बातें कम्युनिटी स्टैंडर्ड का हिस्सा है वह अप्रैल 2018 तक एक रहस्य था. लेकिन फिर कंपनी ने इसे सार्वजनिक कर दिया. इस मौके पर फेसबुक की प्रोडक्ट पॉलिसी और आंतकरोध की प्रमुख मोनिका विकेर्ट ने रॉयटर्स से कहा, “कम्युनिटी स्टैंडर्ड गाइडलाइन किसी नीतियों का एक तय ढर्रा नहीं है. इसके नियम अक्सर बदल जाते हैं.” विकेर्ट ने कहा कि हर दो हफ्ते पर वो एक कॉन्टेंट स्टैंडर्ड फोरम का नेतृत्व करती हैं. इसमें वरिष्ठ अधिकारी मिलकर आपत्तिजनक कॉन्टेंट हटाने की नीतियां बनाते हैं. इस फोरम में कंपनी के नीति विभाग के अधिकारी भी होते हैं जिन्हें 100 से अधिक बाहरी संस्थाओं से जानकारी दी जाती है और इस क्षेत्र के विशेषज्ञ भी इस मामले में अपनी जानकारी देते हैं. उदाहरण के लिए, “बच्चों के शोषण और आतंकवाद के मामलों के विशेषज्ञ.”
लेकिन इन कम्युनिटी गाइडलाइन को कैसे बनाया या बदला जाता है, इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है. कम्युनिटी पॉलिसी को बदलना संविधान को बदलने जैसा है, जिसमें स्थिरता काफी मुश्किल होती है. इन बदलाव की खामियों की वजह से फेसबुक डिजिटल दुनिया के “बनाना रिपब्लिक” की तरह फलता-फूलता है. इसके ज्वलंत सामाजिक प्रभाव की वजह से सालों से डिजिटल अधिकार से जुड़े कार्यकर्ता फेसबुक के कम्युनिटी पॉलिसी अल्गोरिथम को ऑडिट करने का अनुरोध कर रहे हैं. लेकिन अभी तक इसका कोई फायदा नहीं हुआ है.
अभी ये साफ नहीं है कि फेसबुक ने कब और कैसे ये कम्युनिटी गाइडलाइन बनाईं. 2015 में मैं पहली बार फेसबुक पॉलिसी के एक्टिविजम यानि सक्रियतावाद से जुड़ा. तब ये गाइडलाइन अमेरिकी जनता तक ही सीमित थीं. तब मैं वहीं रह रहा था. 2015 के अगस्त में मैंने फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ा. इसमें एक महिला को परेशान, उसका उपहास और यौन उत्पीड़न किया जा रहा था. इसमें हजारों लोग शामिल थे. महिला ने इस फेसबुक पोस्ट में दुनिया को अलविदा कह चुके भारतीय राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के गुणों पर सवाल उठाया था. इसलिए उस पर जमकर फब्तियां कसी गईं. पोस्ट पर दिए गए एक नारी विरोधी जवाब को महिला ने चुनौती दी और बदले में मर्दों की एक ट्रोल आर्मी ने उस पर गालियों की बारिश कर “वेश्या” जैसे शब्द तक इस्तेमाल कर दिए. कुछ ने उसका बचाव भी किया, ये बावजूद इसके कि ये पोस्ट पब्लिक थी. मैं पांच दिनों तक इस मामले पर सबकी चुप्पी देखकर दंग रह गया और इस बारे में तुरंत “ग्लोबल वॉयसेस” में लिखा. ये ब्लॉगरों, पत्रकारों, अनुवादकों, शिक्षाविदों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का एक अंतर्राष्ट्रीय और बहुभाषीय समुदाय है. मैं इससे 2011 में जुड़ा था.
मेरी कहानी यह थी कि फेसबुक पर बोलने वाली महिलाओं को इसकी क्या कीमत चुकानी पड़ती है. इसके छपते ही ट्रोल आर्मी मेरे पीछे पड़ गई. उन्होंने मेरे परिवार को निशाना बनाने की धमकी दी और कहा कि मियामी बीच पर मेरा गला घोंट देंगे. तब मैं यहीं रहता था. एक ने तो मेरे गले में फंदे वाली एक तस्वीर भी पोस्ट कर दी. मैंने फेसबुक फोरम से संपर्क किया जिसे फेसबुक ने यूजर्स के लिए बनाया है. मैंने उनसे धमकी भरा ये पोस्ट हटाने को कहा. लेकिन, मेरी मदद करने के बजाए फेसबुक ने मेरी प्रोफाइल सस्पेंड कर दी. इसकी पूरी संभावना थी कि मेरी प्रोफाइल को रिपोर्ट किया गया हो. मुझे दी गई धमकियों में मेरी प्रोफाइल का पत्ता काटने की बात भी कही गई थी.
जब प्रोफाइल सस्पेंड की गई तो मैंने वापस लॉगइन करने की कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. आज तक फेसबुक ने कोई ऐसा सिस्टम नहीं बनाया जिससे यूजर को इसकी चेतावनी दी जा सके कि उनके प्रोफाइल को किस कारण से सस्पेंड किया जा सकता है. जिसकी प्रोफाइल सस्पेंड की गई है वो तुरंत लॉगआउट हो जाता है. इसके बाद उनसे फेसबुक कम्युनिटी सेंटर से संपर्क साधने का आग्रह किया जाता है. जब मैंने कम्युनिटी सेंटर से संपर्क किया तो फेसबुक ने मुझे मेरी सरकारी आईडी जमा करने को कहा लेकिन मैंने मना कर दिया. फेसबुक को मेरा निजी डेटा नहीं देने के फैसले को ग्लोबल वॉयसेस के संपादकों का समर्थन मिला. फिर मैंने इस बारे में पढ़ना शुरू किया. जिससे मुझे पता चला कि दुनिया में बड़ी संख्या में लोग मेरी ही तरह इससे प्रभावित हैं. 2015 में असली नाम वाली फेसबुक की पॉलिसी के लिए इसकी खूब आलोचना हुई. इस पॉलिसी के तहत फेसबुक इस बात पर जोर देता है कि यूजर अपने आधिकारिक या कानूनी नाम से ही प्रोफाइल बनाए और कानूनी पहचान पत्र जमा करे, जिसमें सरकार द्वारा जारी किए गए पहचान पत्र शामिल हों. इसके खिलाफ एक अभियान पर मैं तैयार था, जिसे सोराया चेमाली, निघट डैड, इलेरी बिडेल, अनजा कोवैक्स और अमेरिका से अफगानिस्तान तक के कई नारीवादी संगठनों का समर्थन प्राप्त था. इस अभियान में कई संगठन साथ आए और ‘द नेमलेस कोलिशन’ की स्थापना की जिसके दबाव में आकर अक्टूबर 2015 में फेसबुक ने अपने कुछ नौकरशाहाना वाले नियमों को वापस ले लिया. साथ ही असली नाम वाली पॉलिसी को कमजोर किया और मुझे वापस फेसबुक पर आने दिया.
संयोग से फेसबुक ने पहचान के बारे में कोई अनुरोध किए बिना मेरा अकाउंट वापस कर दिया. तब से मैंने फेसबुक द्वारा सस्पेंड की जाने वाली तमाम प्रोफाइलों का लोखा जोखा रखना शुरू किया.
असली नाम वाली नीति के खिलाफ वाले कैंपेन के दौरान पारदर्शी कॉन्टेंट निगरानी का वादा किया गया था. तब इसे समझने और सस्पेंड की जाने वाली प्रोफाइलों के पैटर्न का अध्ययन करने के लिए मैंने उन लोगों की प्रोफाइलों का स्प्रेडशीट बनाना शुरू किया जो मेरे पास मदद मांगने आते थे. मैं इसमें नाम, तारीख और संभावित अपमानजनक पोस्ट की जानकारी लिखता रहा. इसके बाद मैं फेसबुक से इन्हें सस्पेंड किए जाने की वजह की पूछताछ करता: जैसे, किस पोस्ट की वजह से खाता सस्पेंड हुआ या इसने किस गाइडलाइन का उल्लंघन किया, इसके लिए क्या सजा होती है और प्रोफाइल वापस पाने के लिए सही रास्ता क्या है? मैं अपनी रिकॉर्ड में प्रोफाइल की फिर से बहाली का समय भी लिखता ताकि पोस्ट कितनी गंभीर थी इसका पता चल सके. गौर करने लायक बात यह है कि भारत से जुड़ी फेसबुक प्रोफाइलों की जानकारी देने के लिए जिम्मेदार श्रुति मोघे कई बार गायब हो जातीं और जवाब देने से मना कर देतीं. मोघे, भारत और दक्षिण एशिया के लिए फेसबुक की पॉलिसी प्रोग्राम मैनेजर हैं. मोघे से जवाब पाने के लिए मुझे फेसबुक के वैश्विक सुरक्षा प्रमुख एंटीगॉन डेविस और विकेर्ट जैसे पॉलिसी हेड को मेल में सीसी करना पड़ता तब वो जवाब देतीं.
मेरी खोज से पता चलता है कि भारत में फेसबुक कैसे गड़बड़ हो गया है. इसने कई मौकों पर बोलने की आजादी पर अंकुश लगाया है, सवाल करने पर कदम वापस खींच लिए हैं. 2016 में 11 और 2017 में 26 (50 प्रतिशत से ज्यादा का इजाफा) फेसबुक यूजर्स मेरे पास अपना खाता वापस पाने के लिए मदद मांगने आए. 2018 में तो ये मेरे लिए आम बात हो गई और हर दो हफ्ते में कोई न कोई मदद मांगने आ ही जाता था.
25 मई 2016 को वामपंथी कार्यकर्ता कविता कृष्णन को फेसबुक पर रेप की धमकी मिली. उन्होंने फेसबुक से धमकी देने वाले के खिलाफ कदम उठाने की मांग की, लेकिन जब कुछ नहीं किया गया तो वो मेरे पास आईं. मामले में तेजी लाने के लिए मैंने विकेर्ट से संपर्क किया जिस पर विकेर्ट ने मुझे लंबा-चौड़ा मेल लिखा. इसमें कहा गया था कि फेसबुक महिलाओं के लिए सुरक्षित जगह है लेकिन “सेलिब्रिटी” महिलाओं के लिए इसकी गाइडलाइन अलग है. फेसबुक ने कविता को दी जा रही धमकी वाले पोस्ट को हटाने से मना कर दिया.
असली नाम वाली नीति के खिलाफ चलाए गए अभियान के बाद फेसबुक ने प्रोफाइलों को आंकने के लिए कई पैमाने बनाने शुरू कर दिए. इनमें नग्नता और हिंसा जैसी बातें भी शामिल थीं. लेकिन जब प्रोफाइलों को हटाया गया तो ये पैमाने बेमानी साबित हुए. जब मैंने कविता कृष्णन जैसे मामलों में लिंग आधारित हिंसा की जानकारी फेसबुक को लगातार दी तब एक भी प्रोफाइल नहीं हटाए गई. लेकिन मोदी आलोचकों के मामले में “नारंगी बंदर” जैसी बात भी आसानी से फेसबुक के निशाने पर आ गई. इसे राजीव त्यागी के मामले से समझते हैं. वो सोशल मीडिया पर बेहद प्रभावशाली व्यक्तित्व होने के अलावा स्तंभकार और तत्कालीन भारतीय वायु सेना अधिकारी भी हैं. उन्हें दो बार 2016 और 2018 में सस्पेंड किया गया. मोदी सरकार की तीखी आलोचना वाले उनके पोस्ट बहुत मशहूर हैं. 24 अगस्त 2018 को उन्हें 30 दिनों के लिए ब्लॉक कर दिया गया क्योंकि उन्होंने दक्षिणपंथी लगने वाली प्रोफाइलों की आलोचना की थी. मुझे भेजे गए ईमेल में उन्होंने लिखा, “मुझे मेरी वाल पर चल रही एक चर्चा पर कमेंट करने की वजह से ब्लॉक कर दिया गया है, मैंने लिखा था, ‘तुमने अपनी डीपी में ये नारंगी बंदर क्यों लगा रखा है? मुझे लगा कि हम काफी समय पहले बंदर से इंसान बन गए हैं!” त्यागी ने आगे कहा, “मैं कल्पना नहीं कर सकता कि ऐसा कोई कमेंट फेसबुक की ‘कम्युनिटी गाइडलाइन’ का इतना भयानक उल्लंघन कैसे कर सकता है कि मैं 30 दिनों के लिए ब्लॉक हो गया!” जब मैंने मामला उठाया तो फेसबुक ने मेरे सवालों का जवाब नहीं दिया कि प्रोफाइल को सस्पेंड क्यों किया गया था. ये हर उस प्रोफाइल के साथ हुआ है जिनके मामलों में मैने दखल दिया है. त्यागी की प्रोफाइल 31 अगस्त को बहाल हो गई.
स्वतंत्र मीडिया संस्थाओं, खासकर स्टार्ट-अप वालों को फेसबुक के साथ ऐसे ही अनुभव का सामना करना पड़ा. मेरी जानकारी वाले मामलों में फेसबुक ने इन्हें खुद को जमकर बेचा और अपने प्लेटफॉर्म पर आने का आमंत्रण दिया. इसके बदले शानदार पहुंच और सहयोग का वादा किया. लेकिन जब इन मीडिया संस्थानों ने सरकार का कहा नहीं माना तो उनकी प्रोफाइल को सस्पेंड कर दिया गया. ऐसे मामलों में फेसबुक ने जो कारण दिए वो बेहद अस्पष्ट हैं और जब आगे जानकारी मांगी जाती है तो फेसबुक सस्पेंड किए जाने का ठीकरा बग यानि तकनीकी समस्या के माथे फोड़ देता है. इससे ये शक पैदा होता है कि ये चीजें स्वतंत्र मीडिया से अपनी मांग मनवाने और उनकी निगरानी के लिए की जा रही हैं. इनमें से कुछ मीडिया संस्थानों ने मुझसे संपर्क किया. एक कन्नड़ दैनिक वर्था भारती और स्वतंत्र पत्रकारों द्वारा शुरू किए गए बीफर्स्ट को सस्पेंड किया गया. इन्हें वो पैसे भी खोने पड़े जो इन्होंने फेसबुक पर प्रचार में खर्च किए क्योंकि इनके प्रोफाइल सस्पेंड किए जाने की वजह से इनका ट्रैफिक मर गया.
वर्था भारती अक्सर मोदी सरकार की आलोचना करती थी. इसके बाद संस्था को 2017 में फेसबुक संग कई परेशानियों का सामना करना पड़ा. पहली बार 26 जून 2017 को इसका पेज ब्लॉक कर दिया. जिसे फेसबुक से संपर्क साधने पर दो दिन बाद बैन हटाया गया. हर मामले की तरह फेसबुक ने इस बार भी कुछ नहीं बताया. हालांकि, 10 जुलाई 2017 को एक बार फिर पेज को ब्लॉक कर दिया गया. संपादकों ने उसी दिन फेसबुक इंडिया से संपर्क साधा लेकिन कोई जवाब नहीं मिला. इसके बाद मैंने अमेरिका वाले ऑफिस के सामने मामला उठाया तब जाकर पेज वापस मिला.
बीफर्स्ट.इन भी बीजेपी आलोचक था. जनवरी 2018 को इसे भी सस्पेंड कर दिया गया. वर्था भारती के मोहम्मद एम ने संस्था को मेरी जानकारी दी ताकि उनका फेसबुक अकाउंट वापस मिल सके. बीफर्स्ट के एल्विन मेंडोनका ने मुझे लिखा, “अचानक से फेसबुक ने बिना कारण बताए हमारा फेसबुक पेज हटा दिया.” बीफर्स्ट की एक और वेबसाइट बीफर्स्टकन्नड़ के साथ भी ऐसा ही हुआ. इसका फेसबुक पेज भी उसी समय हटा दिया गया. लेकिन 2 जनवरी 2018 को बिना कारण बताए फेसबुक ने अचानक से दोनों पेजों को बहाल कर दिया.
अप्रैल 2018 में “फेंकू एक्सप्रेस” नाम के फेसबुक पेज को भी हटाया गया था. इस पेज पर 512000 फॉलोअर्स थे. जो ज्यादातर कर्नाटक से थे. पेज हटाए जाने के अगले महीने राज्य में चुनाव होना था. 21 अप्रैल को मुझे फेंकू एक्सप्रेस का एक मेल मिला. प्रोफाइल चलाने वाले ने कहा कि 18 अप्रैल 2018 को उन्हें “फेसबुक से एक नोटिफिकेशन मिला की पोर्नोग्राफी कंटेंट चलाने की वजह से उनका पेज बंद कर दिया गया है.” नोटिफिकेशन में पेज चलाने वाले को “अपील करने का विकल्प” दिया, उन्होंने तुरंत अपील की. हालांकि, फेसबुक से कोई जवाब नहीं आया और एक दिन बाद पेज चलाने वाले की प्रोफाइल को बिना किसी नोटिफिकेशन के ब्लॉक कर दिया गया. पेज चलाने वाले के मुताबिक, “मेरा पेज एक राजनीतिक विचारधारा वाला पेज है और इस पर कोई पोर्न कंटेंट नहीं है, न ही मैंने कोई पोर्न पोस्ट किया फिर भी पेज हटा लिया गया. इसलिए हम आपसे डिलीट किए गए पेज को वापस पाने में मदद मांग रहे हैं.”
यहां तक कि मैंने मोघे से कई निजी अनुरोध किए लेकिन पेज बहाल नहीं हुआ. मेरी दलीलों को नौ मई तक अनदेखा किया गया. इसके बाद फेसबुक ने पेज बहाल कर दिया. इस बार भी सस्पेंड किए जाने या संबंधित पोस्ट को लेकर कोई सफाई नहीं दी गई. एक हफ्ते बाद यानि 15 मई 2018 को चुनाव हुए. इस समय तक फेंकू एक्सप्रेस को दो साल हो गए थे और फेसबुक अपने पोर्नोग्राफिक कंटेट वाले दावे को साबित करने के लिए कोई सबूत नहीं दे पाया और न ही इसकी परवाह की. अगर पेज को लेकर ये शिकायत भी की गई थी कि ये पोर्नोग्राफिक कॉन्टेंट वाला है तो ये साफ नहीं है कि फेसबुक ने इसकी पुष्टि कैसे की. गौर करने वाली बात है कि फेंकू एक्सप्रेस, मोदी द्वारा किए गए दावों की पोल खोलता है या एनडीए और इसके मंत्रियों का मजाक उड़ाता है. जब पहला पेज हटाया गया तो इसे चलाने वाले ने तुरंत दूसरा पेज बनाया. उसे भी सस्पेंड कर दिया गया.
अभी तक मेरे पास एक भी ऐसे व्यक्ति का फोन नहीं आया है जो इस सरकार का समर्थन करता हो. हालांकि, 12 जुलाई 2018 को पोस्टकार्ड न्यूज को हटाया गया. ये फेक न्यूज फैलाने वाली एक खतरनाक साइट थी. बावजूद इसके एक डिजिटल अधिकार कार्यकर्ता कई बेलगाम हिंदुत्व के पेजों और प्रोफाइलों के फेसबुक पर होने को प्रमाणित कर सकता है. 2 जुलाई 2018 को मुझे एक फेसबुक लाइव ब्रॉडकास्ट को लेकर सचेत किया गया. इसमें पांच दक्षिणपंथी हिंदू, मुसलमानों की हत्या करने के लिए हिंदुओं को भड़का रहे थे. ये वीडियो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के पेज से लाइव ब्रॉडकास्ट किया गया था, जिसे जमकर शेयर किया गया. कई यूजरों ने जब इसकी शिकायत की तो इस लिंक को कुछ घंटे बाद फेसबुक ने हटा लिया. लेकिन पेज का कुछ नहीं हुआ और ये जस का तस रहा. साथ ही सुरेंद्र सिंह नाम का एक यूजर, जिसने लोगों से मुसलमानों को मारने की अपील करते हुए ये वीडियो शेयर किया था अभी भी फेसबुक पर बना हुआ है. ऐसा कैसे होता है कि हिंसा, भड़काउ भाषण या सुरक्षा से जुड़े फेसबुक के ये नियम हिंदुत्व के पेजों पर लागू नहीं होते?
ऐसा ही एक मामला राजस्थान के फेसबुक यूजर दीपक शर्मा का है. दीपक लगातार मुसलमानों और महिलाओं के खिलाफ भड़काउ भाषण पोस्ट करता है. वो अक्सर फेसबुक लाइव में मुसलमानों को खत्म करने की धमकी देता है. 16 दिसंबर 2018 को उसने ऐसी ही धमकी भरी एक वीडियो पोस्ट की. रिपोर्ट लिखे जाने तक वीडियो को 77000 लोगों ने देखा, 1056 ने शेयर किया, 980 कमेंट्स किए गए और 1400 रिएक्शन हैं. मैंने कुछ अन्य डिजीटल कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर फेसबुक कम्युनिटी गाइडलाइन के हिसाब से इस पोस्ट को रिपोर्ट किया. फेसबुक ने जवाब दिया कि वीडियो का कॉन्टेंट उनकी कम्युनिटी गाइडलाइन के खिलाफ नहीं जाता है. नफरत फैलाने वाले हिंदुत्व पेजों को लेकर फेसबुक यही प्रतिक्रिया देता है. ऐसा कैसे हो सकता है कि फेसबुक ऐसे नफरत भरे कॉन्टेंट को नहीं पहचान पाता, जबकि नरेंद्र मोदी और दक्षिणपंथ के खिलाफ किया गया कोई भी पोस्ट तुरतं हटा लिया जाता है.
6 अक्टूबर 2018 को कारवां डेली ने रिपोर्ट किया, “सितंबर के आखिरी हफ्ते से फेसबुक ने कई बड़े पत्रकारों के निजी खातों को बंद कर दिया . इनमें अजय प्रकाश (दैनिक भास्कर के न्यूज एडिटर), प्रेमा नेगी (जंजवार.कॉम की संपादक), रिफत जावेद (जनता का रिपोर्टर के संपादक और पूर्व बीबीसी संपादक) और खलीज टाइम्स के पूर्व विचार संपादक रहे पुरस्कृत भारतीय पत्रकार एजाज जाका सैयद जैसे नाम शामिल हैं.” सैयद, कारवां डेली में स्तंभकार भी रहे हैं. इसके अलावा फेसबुक ने बोलता हिंदुस्तान डॉट कॉम के संपादकों का अकाउंट भी बंद कर दिया. यही हाल कारवां डेली के संपादक मुम्ताज आलम और इसी के राष्ट्रीय संवाददाता गजनफर अब्बास का भी हुआ. इन सबके खाते बिना किसी नोटिस के बंद किए गए और कारण यही बताया गया कि कम्युनिटी स्टैंडर्ड का उल्लंघन हुआ है.
जब मैंने इन मामलों को गौर से देखा तो एक पैटर्न नजर आया जिससे पता चला है कि फेसबुक के अल्गोरिथम को कैसे लिखा और तोड़-मरोड़ा जाता है. ये अल्गोरिथम एक खास किस्म की प्रोफाइलों को टारगेट करता है और कारण सिर्फ फेसबुक को ही पता है. वर्तमान में खातों के सस्पेंड किए जाने के मामले तेज हुए हैं. ऐसे में मैंने गौर किया है कि जब प्रोफाइल सस्पेंड किए जाते हैं तो कार्यकर्ता और स्वतंत्र पर्यवेक्षक के अलावा सस्पेंशन समाप्त होने का इंतजार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. जाहिर सी बात है कि ऐसे कार्यकर्ता जो सरकार के आलोचक हैं, उन्हें फेसबुक की ‘ब्लैक बॉक्स पॉलिसी’ की वजह से सोशल मीडिया पर अपनी आवाज गंवानी पड़ रही है. ऐसे कार्यकर्ताओं से बात करके मुझे अंदाजा लगा कि एक बार प्रोफाइल 30 दिनों तक हटाए जाने के बाद इसके अंदर की आग पहले जैसी नहीं रहती है. ये वही गाजर और छड़ी वाला मामला है जहां बोलने की आजादी मनमाने ढंग और तेजी से छीन ली जाती है और इस पर पूरी तरह से लगाम भी नहीं लगाई जाती लेकिन जानकारी के प्रवाह की रफ्तार मर जाती है.
2015 में मेरी मुलाकात विकेर्ट और उनकी टीम से हुई. इस दौरान मैंने उनसे फेसबुक की निगरानी में खामी पर चर्चा की. मैंने उन्हें दक्षिणपंथी चरमपंथी समूह और ऐसी महिला कर्याकर्ता जिन्हें रेप और हत्या की धमकी मिलती है, के कॉन्टेंट की निगरानी के बीच के अंतर की खामियों के बारे में बताया. मैंने पूरा जोर देकर उन्हें ये बताने की कोशिश की कि भारत की सांस्कृतिक संवेदनशीलता को समझने का फेसबुक का तरीका बेहद कमजोर है. यही हाल बोलचाल और देशी भाषा की बारीकियों को समझे जाने के मामले में भी है. ये भी बताया कि कम्युनिटी गाइडलाइन के बारे में अक्सर पूछे जाने वाले सवाल यहां के लिए कैसे अपर्याप्त हैं. दक्षिण एशिया के लिए फेसबुक के पब्लिक पॉलिसी डायरेक्टर अंखी दास ने मुझे ये कह कर चलता कर दिया, “आप अमेरिका में रहते हैं, आप भारत को नहीं समझेंगे.” मेरी एक कार्यकर्ता मित्र माया लीला वहीं मौजूद थीं. उन्होंने दास का जवाब सुना. दास का मुंहतोड़ जवाब मुझे जाना पहचाना सा लगा. ये वही भाषा है जो हिदुत्व के ट्रोल इस्तेमाल करते हैं.