जज बृजगोपाल हरकिशन लोया- जिन्होंने सोहराबुद्दीन शेख मामले की सुनवाई की थी जिसमें मुख्य आरोपी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह थे- के परिवार के सदस्यों ने 2014 में नागपुर यात्रा के दौरान कथित रूप से अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ने से हुई उनकी मौत को लेकर तमाम सवाल उठाए हैं. कारवां ने पिछले महीने इन्हीं सवालों पर अपनी पहली रिपोर्ट प्रकाशित करने से लेकर अब तक लगातार जारी अपनी पड़ताल में लोया की जिंदगी की आखिरी रात की परिस्थितियों से जुड़ी अब तक सार्वजनिक की गई सूचना में संभावित गड़बड़ी और छेड़छाड़ पाए जाने के संकेतों को उजागर किया है. इनमें उस सरकारी अतिथि गृह का उपस्थिति रजिस्टर शामिल है जहां वे रुके हुए थे और उस दांडे अस्पताल में तैयार की गई ईसीजी रिपोर्ट भी शामिल है जहां तबियत खराब होने पर उन्हें कथित तौर पर सबसे पहले ले जाया गया था.
करवां ने जब यह स्टोरी प्रकाशित की, उसके बाद से अब तक कई स्रोत सामने आए हैं और उन्होंने जज के अंतिम समय का विवरण बताने की पेशकश की जो कि लोया के परिजनों की गवाहियों से बिलकुल भिन्न थे. बॉम्बे उच्च न्यायालय के दो सेवारत जजों ने चुनिंदा मीडिया प्रतिष्ठानों के सामने अपनी बात रखने का फैसला किया- और ऐसा करने के क्रम में उन्होंने न्यायिक आचार संहिता का अपवादस्वरूप खुलकर उल्लंघन किया- ताकि किसी भी गलत कृत्य की संभावना को खारिज किया जा सके, जबकि लोया की मौत की जांच अब भी पुलिस कर रही है. इन्हीं जजों की मानें तो इन्होंने आखिरी रात लोया को तब तक नहीं देखा जब तक कि वे दांडे अस्पताल से मेडिट्रिना इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ नहीं लाए गए, जहां उन्हें मृत घोषित किया गया था.
लोया की मौत की परिस्थितियों से जुड़े नए विवरण कई मीडिया प्रतिष्ठानों में नागपुर से की गई फॉलो-अप रिपोर्टों में सामने आए थे, जिनमें इंडियन एक्सप्रेस और एनडीटीवी शामिल थे. जब अमित शाह से जब लोया के केस के बारे में पूछा गया तो उन्होंने ''ज्यादा तटस्थ'' नज़रिये के लिए इंडियन एक्सप्रेस की कवरेज देखने की सलाह दी. करीबी पड़ताल करने पर ऐसी कोई भी रिपोर्ट दुरुस्त नहीं ठहरती है जबकि इनके विवरणों के बीच ही आपस में काफी विसंगति हैं. हमने खुद जब नागपुर से फॉलो-अप रिपोर्ट की तो हमें लोया की आखिरी रात से जुड़े नए विवरण दिए गए और ये विवरण भी दूसरे संस्थानों को दिए गए विवरणों से मेल नहीं खाते.
लोया की मौत के बाद सीताबल्दी पुलिस थाने में एक ज़ीरो एफआइआर दर्ज की गई थी. मेडिट्रिना अस्पताल इसी थानांतर्गत आताहै. बाद में केस को सदर थाने भेज दिया गया जिसके अंतर्गत सरकारी अतिथि गृह आता है. केस की पुलिस फाइल अब तक खुली हुई है और नागपुर पुलिस ने हमें बताया कि उसमें हादसे से हुई मौत की रिपोर्ट दर्ज है. इस दिसंबर के आरंभ तक हालत यह थी कि पुलिस ने लोया की मौत तक उनके साथ बने रहे लोगों में से किसी भी शख्स के बयानात दर्ज नहीं किए थे और न ही लोया के परिवार के सदस्यों में से किसी के- जबकि यह तो सामान्य पुलिस प्रक्रिया का हिस्सा होता है. लोया के मोबाइल फोन की कस्टडी को लेकर भी कोई स्थापित श्रृंखला मौजूद नहीं है कि किननके पास से होते हुए वह उनकी मौत के तीन दिन बाद अनधिकारिक सूत्रों से उनके परिवार तक पहुंचाया गया, जिसके सारे रिकॉर्ड मिटे हुए थे.
सरकारी अतिथि गृह की उपस्थिति पंजिका के साथ संभावित छेड़छाड़
नागपुर में सरकारी वीआईपी अतिथियों के लिए बने रवि भवन में एक उपस्थिति रजिस्टर होता है. इसका बुकिंग से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि कोई भी अतिथि प्रवेश करते वक्त और यहां से निकलते वक्त अपने आवंटित कमरे के सामने दस्तखत करता है. जैसा कि इस किस्म के रजिस्टरों में तमाम होटलों और गेस्टहाउसों में आम होता है, इनमें प्रविष्टियां सिलसिलेवार की जाती हैं. हमने रवि भवन के इस रजिस्टर में 3 दिसंबर 2017 का रिकॉर्ड खंगाला.
लोया की मौत 30 नवंबर और 1 दिसंबर 2014 की दरमियानी रात हुई थी जब वे एक सहकर्मी जज की बेटी की शादी में नागपुर गए हुए थे. जिस अवधि में वे रवि भवन में रहे, रजिस्टर दिखाता है कि सुइट संख्या 10 और 20 क्रमश: एस. कुलकर्णी और श्रीमती फनसालकर-जोशी के नाम से पंजीकृत था. कुलकर्णी की पहचान बॉम्बे हाइकोर्ट के रजिस्ट्रार के रूप में हुई. इस पद पर उस वक्त श्रीकांत कुलकर्णी नाम के एक जज हुआ करते थे. फनसालकर-जोशी की पहचान बॉम्बे हाइकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल के रूप में हुई. आज शालिनी शशांक फनसालकर-जोशी बॉम्बे हाइकोर्ट की एक जज हैं. सुइट संख्या 10 और 20 दोनों रवि भवन के स्वागत कक्ष के साथ लगे हुए हैं और गेस्टहाउस के निकास द्वार के बहुत करीब हैं.
रजिस्टर के हर पन्ने पर छह प्रविष्टियों की जगह है. हमने सरसरी तौर पर रजिस्टर को खंगाला, तो पाया कि शुरुआत से लेकर पेज संख्या 44 तक सभी प्रविष्टियां सुचारु रूप से भरी हुई हैं लेकिन पेज संख्या 45 और 46- कुलकर्णी और फनसालकर-जोशी की प्रविष्टि 46 पर आती है- पर तीन खाली खाने दिख रहे थे.
पेज संख्या 45 पर चार प्रविष्टियां पूर्ण रूप से भरी हुई थीं. पहली तीन में एक लोक निर्माण विभाग के एक इंजीनियर और बॉम्बे हाइकोर्ट की औरंगाबाद खंडपीठ के दो जजों के नाम हैं. चौथे पर नाम है ''बाबासाहेब आंबेडकर मिलिंद ....'', जिसका आखिरी हिस्सा पढ़ा नहीं जा सकता. इस अतिथि की पहचान के लिए फोन नंबर समेत कोई भी दूसरा विवरण उपलब्ध नहीं है.
इंजीनियर 28 नवंबर को आए और 1 दिसंबर को निकल गए, जज 29 नवंबर 2014 को रात 8 बजे आए और अगले दिन निकल लिए. इन तीनों प्रविष्टियों में पंजीकृत अतिथियों, उनके आगमन और चेक-आउट के वक्त मौजूद कर्मियों के बाकायदा दस्तखत मौजूद हैं.
आश्चर्यजनक रूप से ''बाबासाहेब आंबेडकर मिलिंद...'' के नाम की प्रविष्टि कहती है कि अतिथि 30-11-17 को सुबह 1.38 पर आया यानी 30 नवंबर 2017 को आया, हालांकि इसमें 2014 के वर्ष में आने और जाने वाले अतिथियों का रिकॉर्ड होना चाहिए था. इस प्रविष्टि में अतिथि का भी दस्तखत नहीं है और उस कर्मी का भी नहीं, जिसने उसे चेक-आउट करवाया. ऐसालगता है कि इस अतिथि ने भुगतान भी नहीं किया होगा लिहाजा इस प्रविष्टि को भुगतान स्लिप से भी जांच पाने का कोई तरीका नहीं है.
इस रजिस्टर में 2014 में ही तीन साल बाद की तारीख में प्रविष्टि किए जाने की बात असंभावित है. हो सकता है कि संयोग से 2017 में आए किसी अतिथि के आने का वर्ष गफ़लत में खुद अतिथि और रिसेप्शनिस्ट 2020 डाल दे, लेकिन इस मामले में ऐसी गड़बड़ी दो बार हुई है- इस अतिथि के चेक-आउट की तारीख पड़ी है 30/11/17 और समय नहीं दर्ज है.
पेज संख्या 45 पर अंतिम की दो पंक्तियां खाली हैं और उनमें केवल सुइट संख्या 2 और 3का जि़क्र है. अगले पेज 46 पर पहली पंक्ति खाली है और इसमें सुइट संख्या 5 का जि़क्र है. अगली दो प्रविष्टियां कुलकर्णी और फनसालकर-जोशी के नाम से हैं. इन्हें करीब से देखने पर पत चलता है कि कुलकर्णी के आने की तारीख पहले 30 दिसंबर 2014 लिखी गई थी यानी लोया की मौत के पूरे एक महीने बाद की तारीख. ऐसा लगता है कि महीने की संख्या में 2 को घिसकर 1 किया गया जिससे आने की तारीख 30 नवबर 2014 जान पड़ सके.
सूचना के अधिकार के तहत किए गए एक आवेदन के जवाब में रवि भवन का संचालन करने वाले महाराष्ट्र सरकार के लोक निर्माण विभाग ने रजिस्टर के 26 पन्नों की प्रति मुहैया करायी है, जिसकी प्रति कारवां के पास है. इनमें से किसी भी पन्ने पर 45 और 46 के अलावा रिक्त प्रविष्टि नहीं है. वैसे भी किसी उपस्थिति पंजिका में रिक्त प्रविष्टि का कोई मतलब नहीं होना चाहिए. ध्यान देने वाली बात है कि ये दोनों रिक्तियां और साथ ही बेमेल तारीखों वाले दोनों उदाहरण लोया के वहां निवास से जुड़ी प्रविष्टियों से ठीक पहले के हैं.
अब तक मीडिया से बॉम्बे हाइकोर्ट के जिन दो जजों ने बात की है, उनमें एक जस्टिस भूषण गवई ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया था कि लोया दो पुरुष जजों के साथ रवि भवन में ठहरे थे. यह संभावना अपने आप खारिज हो जाती है कि इनमें से कोई एक रजिस्टर के अनुसार महिला जज के सुइट में रुका होगा. इसका मतलब कि तीनों जज एक ही सुइट में रुके थे यानी सुइट संख्या 10 में, जो कि कुलकर्णी के नाम से पंजीकृत था. रवि भवन के हर सुइट में दो बिस्तर हैं. यह साफ़ नहीं हो रहा कि आखिर कोई जज क्यों अपनी रात कमरे के सोफे पर या फर्श पर बिताना चाहेगा या दो बिस्तरों को साझा करना चाहेगा या एक अतिरिक्त बिस्तर लगवाना चाहेगा अगर उस वक्त कम से कम तीन खाली सुइट उपलब्ध हों, जैसा कि रजिस्टर की रिक्तियां कहती हैं.
कुलकर्णी और फनसालकर-जोशी ने अब तक लोया की आखिरी रात के घटनाक्रम पर ज़बान नहीं खोली है. हम रवि भवन में उस वक्त रजिस्टर की प्रविष्टि के मुताबिक वहां ठहरे और किसी भी व्यक्ति से संपर्क नहीं कर पाए.
लोया को अस्पताल कैसे, कब और कौन ले गया, इस बारे में विवरण विरोधाभासी हैं
कारवां से बातचीत में लोया की एक बहन डॉ. अनुराधा बियाणी कहती हैं कि नागपुर में लोया के साथ ठहरे दो जज, जिन्होंने उनसे साथ चलने का आग्रह किया था, उनकी मौत के कोई एक महीने बाद परिवार से मिलने आए थे. तब उन्होंने उनकी मौत के घटनाक्रम का विवरण दिया था. बियाणी के अनुसार जजों ने बताया था कि लोया ने सीने में दर्द की बात रात 12.30 के आसपास कही थी और वे उन्हें ऑटो रिक्शा में लादकर दांडे अस्पताल ले गए. लोया के पिता हरकिशन ने भी कारवां को बताया था कि उन्हें यह बताया गया कि जज को ऑटो से दांडे अस्पताल ले जाया गया था.
कारवां ने परिवार की गवाही 20 नवंबर 2017 को प्रकाशित की थी. इसके बाद 26 नवंबर को एनडीटीवी पर आई एक रिपोर्ट कहती है कि ''कारवां ने सवाल उठाया है कि लोया को रवि भवन से अस्पताल क्यों ऑटो में ले जाया गया'' और इसका जवाब देने की भी कोशिश की है. रिपोर्ट कहती है, ''रवि भवन में उस वक्त मौजूद स्टाफ के सदस्यों ने अपना नाम सार्वजनिक न करने की शर्त पर एनडीटीवी को बताया कि रवि भवन में कोई वाहन चालक तैनात नहीं होता और न ही जस्टिस लोया के पास इस यात्रा के लिए अपना कोई वाहन भी नहीं था.''
एनडीटीवी ने 27 नवंबर को एक और रिपोर्ट जारी की जो जस्टिस गवई से मिली सूचना पर आधारित थी. इसने कहा, ''जस्टिस गवई ने याद करते हुए बताया कि जब जज लोया को असहज महसूस होने लगा, तो उन्हें एक स्थानीय अस्पताल में ले जाया गया जहां उनके साथ कोर्ट का एक अफसर और मुंबई का एक जज था जिसके साथ वे कमरा साझा कर रहे थे.'' रिपोर्ट ने इस आधार पर निष्कर्ष निकाल लिया कि यह ''परिवार के इस दावे का खंडन करता है कि लोया को ऑटोरिक्शा से अस्पताल ले जाया गया और बिना किसी की उपयुक्त निगरानी के ले जाया गया.''
एनडीटीवी की खबर के मुताबिक लोया को भोर में 3.30 के आसपास असहज लगने लगा. इंडियन एक्सप्रेस में 27 नवंबर को प्रकाशित एक रिपोर्ट में गवई के हवाले से कहा गया कि लोया को ''सुबह 4 बजे के आसपास स्वास्थ्य की शिकायत हुई थी.'' गवई ने अखबार को बताया कि एक स्थानीय जज विजयकुमार बर्डे और हाइकोर्ट की नागपुर खंडपीठ के तत्कालीन डिप्टी रजिस्ट्रार रुपेश राठी पहले उन्हें दो कारों से दांडे अस्पताल लेकर गए.'' चुनिंदा मीडिया संस्थानों से बात करने वाले दूसरे जज जस्टिस सुनील शुक्रे ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, ''उन्हें ऑटोरिक्शा में ले जाने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता और ''जज बर्डे खुद अपन कार से लेकर उन्हें दांडे अस्पताल गए.''
न तो एनडीटीवी और न ही इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्टों में इस बात का कोई संकेत है कि आखिर लोया की जिंदगी के आखिरी घंटों के बारे में गवई या शुक्रे की गवाही का स्रोत क्या है. एनडीटीवी कहता है कि ''जस्टिस गवई ने कहा कि उन्हें मौत की खबर सुबह 6.30 पर मिली और वे भागे-भागे अस्पताल गए.'' गवई ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया था, ''मेरे पास हाइकोर्ट के रजिस्ट्रार का फोन आया था... मैं उसके बाद साथी जज सुनील शुक्रे के साथ भागकर मेडिट्रिना अस्पताल पहुंचा.'' शुक्रे ने अखबार को पुष्टि की कि वे गवई के साथ ही मेडिट्रिना पहुंचे थे. इनमें से किसी ने भी नहीं कहा कि उस रात वह रवि भवन या दांडे अस्पताल में मौजूद था.
एक बात और ध्यान देने लायक है कि जस्टिस गवई ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा था कि ''लोया अपने साथी जजों श्रीधर कुलकर्णी और श्रीराम मधुसूदन मोदक के साथ रवि भवन में ठहरे हुए थे.'' श्रीधर कुलकणी्र महाराष्ट्र में जिलास्तरीय जज हैं. स्क्रॉल की नागपुर से की गई एक और फॉलो-अप रिपोर्ट कहती है लोया को अस्पताल लेकर श्रीकांत कुलकर्णी पहुंचे थे, श्रीधर कुलकर्णी नहीं. रवि भवन के रजिस्टर में भी दर्ज एस कुलकर्णी की पहचान बॉम्बे हाइकोर्ट के एक रजिस्ट्रार श्रीकांत कुलकर्णी के रूप में हुई है.
दांडे अस्पताल का अपुष्ट ईसीजी
लोया को दिल का दौरा पड़ा था, इसके समर्थन में अब तक सामने आया सबसे प्रमुख साक्ष्य ईसीजी चार्ट है जो कथित रूप से दांडे अस्पताल में जज लोया पर किए गए ईसीजी का नतीजा है. इस चार्ट को इंडियन एक्सप्रेस और एनडीटीवी ने रिपोर्ट किया था और अखबार ने इसकी तस्वीर भी छापी थी. ईसीजी के चार्ट पर लगी समय की मुहर कहती है 30 नवंबर 2014 को सुबह 5.11 बजे- यानी लोया की मौत से पूरे एक दिन पहले का समय. लोया के परिवार के सदस्यों ने बताा कि वे 30 नवंबर की रात 11 बजे तक उनके साथ संपर्क में थे और उस वक्त तक उन्हें कोई चिकित्सीय शिकायत नहीं थी.
एनडीटीवी और इंडियन एक्सप्रेस दोनों ही रिपोर्ट करते वक्त ईसीजी की इस गड़बड़ी को नहीं पकड़ पाए. जब सोशल मीडिया पर यह बात सावर्जनिक हुई, तो इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट को अपडेट करते हुए दांडे अस्पताल के मालिक पिनाक दांडे का बयान जारी किया जिसमें उनका दावा था कि यह गड़बड़ी ''तकनीकी'' थी.
ऐसी तकनीकी गड़बड़ी का मतलब यह बनता है कि उस दौरान दांडे अस्पताल में बनी सभी ईसीजी रिपोर्टों में यह बात समान रूप से मौजूद रही होगी, लेकिन अब तक ऐसा कोई रिकॉर्ड सामने नहीं आया है. सभी उपलब्ध विवरणों के मुताबिक उस रात लोया को दांडे अस्पताल से मेडिट्रिना लेकर जाने वाले लोगों के पास ऐसा कोई ईसीजी चार्ट नहीं था. इस बारे में पूछने पर मेडिट्रिना में मेडिको-लीगन परामर्शदाता ने हमें बताया कि लोया की मौत के एक दिन बाद तक उन्होंने दांडे अस्पताल का जारी किया ऐसा कोई ईसीजी चार्ट नहीं देखा था.
एनडीटीवी और इंडियन एक्सप्रेस ने यह साफ नहीं किया है कि खबर चलाने से पहले ईसीजी चार्ट की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए उन्होंने आखिर कौन से उपाय किए. जब तक चार्ट की विश्वसनीयता की पुष्टि नहीं हो जाती, तब तक यह संभावना बनी रहेगी कि यह चार्ट फर्जी था.
हमने 30 नवंबर 2017 को पिनाक दांडे से दांडे अस्पताल स्थित उनके दफ्तर में मुलाकात की. उन्होंने अपने एक सहयोगी को बुलवाकर हमारे मोबाइल फोन ले लिए और बताया कि हमारी बातचीत ऑफ-दि-रिकॉर्ड होगी. इसके बाद हम कई बार दांडे अस्पताल उनसे ऑन-दि -रिकॉर्ड बात करने गए लेकिन दोबारा उन्होंने हमसे मिलने से इनकार कर दिया.
पिनाक दांडे का आरएसएस से संबंध
फिलहाल दांडे का कहा ही वह आधार है जो ईसीजी वार्ट को विश्वसनीय करार देता है. दांडे ने अलग-अलग मीडिया संस्थानों को लोया की मौत की रात का घटनाक्रम बताया है लेकिन ईसीजी चार्ट की ही तरह ये सारे बयान बेमेल हैं. इंडियन एक्सप्रेस को उन्होंने बताया कि लोया को जब सुबह 4.45 और 5.00 बजे के बीच दांडे अस्पताल लाया गया तो उन्हें एक रेजिडेंट मेडिकल अफसर ने देखा. एनडीटीवी के समक्ष तो उन्होंने बाकायदा विवरण दिया कि कैसे अस्पताल ला जाने के वक्त लोया ''पर्याप्त होश में थे'' और ''खुद ही सीढ़ी चढ़कर ऊपर आए और अपनी छाती में दबाव के साथ दर्द की शिकायत की.'' दांडे ने स्क्रॉल को बताया कि लोया के आने के वक्त वे अस्पताल में नहीं थे लेकिन उन्होंने उस रात की पारी में तैनात डॉक्टर से बात की थी. उन्होंने स्क्रॉल के रिपोर्टरों को उस डॉक्टर से मिलवाने का वादा किया लेकिन बाद में कई बार स्क्रॉल के रिपोर्टरों के फॉलो-अप के बावजूद उन्होंने ऐसा नहीं किया.
दांडे ने 2016 में महाराष्अ्र मेडिकल काउंसिल का चुनाव प्रगति पैनल के प्रतिनिधि के बतौर लड़ा था. यह समूह राष्अ्रीय स्वयंसेवक संघ और शिव सेना के समर्थन वाला पैनल था. उस चुनाव में प्रगति पैनल ने वैद्यकीय विकास मंच या वीवीएम नाम के उन चिकित्सकों के समूह के साथ गठजोड़ किया था जो आयुर्वेद और होमियोपैथी के अभ्यासी हैं और यह समूह बीजेपी के साथ कथित तौर पर संबद्ध है. वीवीएम के प्रमुख हैं डॉ. अशोक कुकाडे, जो लोया के गृहजिले लातूर में स्थित विवेकानंद अस्पताल के संस्थापक न्यासी हैं. अशोक कुकाडे आरएसएस के पुराने सदस्य हैं. वे संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में रह चुके हैं और महाराश्ट्र के पश्चिम क्षेत्र के संघचालक भी रह चुके हैं, जिसके अधिकार क्षेत्र में गुजरात भी आता है. कुकाडे इंडियन मेडिकल असोसिएशन की लातूर शाखा के परामर्श बोर्ड में हैं. इसी बोर्ड में एक डॉ. हंसराज बहेटी भी हैं, जो ईश्वर बहेटी नाम के उस शख्स के भाई हैं जिसने लोया के परिवार के मुताबिक 1 दिसंबर को लोया की मौत की सूचना मिलने के बाद परिवार को नागपुर जाने से हतोत्साहित किया था और जिसने तीन दिन बाद लोया का मोबाइल फोन उन्हें सौंपा, जिसके सारे रिकॉर्ड मिटे हुए थे.
दांडे के फेसबुक पेज पर मैत्री परिवार संस्था नाम के संगठन के आयोजनों में उनकी कई तस्वीरें दिखती हैं. यह संस्था अपनी वेबसाइट पर खुद को स्वामी विवेकानंद से प्रेरित ''एक सामाजिक संगठन'' बताती है. इस संस्था के 2016 में आयोजित एक पुरस्कार समरोह में मुख्य अतिथि आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत थे.
नागपुर में अस्पतालों का चयन
यह स्पष्ट नहीं है कि उस रात हड्डियों के अस्पताल दांडे अस्पताल को ही सबसे पहले क्यों चुना गया जिसे चलाने वाले डॉक्टर का संबंध आरएसएस से है. नागपुर में सबसे अच्दे अस्पतालों में लता मंगेशकर अस्पताल, वोकहार्ट अस्पताल और वोकहार्ट हार्ट हॉस्पिटल हैं. ये सभी रवि भवन के काफी करीब हैं (वोकहार्ट हॉस्पिटल और वोकहार्ट हार्ट हॉस्पिटल तो संबद्ध संस्थाएं हैं जिनके बीच की दूरी 500 मीटर है). शहर के वाइएमसीए परिसर में स्थित लता मंगेशकर अस्पताल रवि भवन से उतना ही दूर है जितना दांडे अस्पताल.
हमने एक रात रवि भवन से दांडे अस्पताल की पुरानी इमारत के लिए कैब ली (पास में ही इस्पताल की नई इमारत भी मौजूद है). हम सुबह ठीक 4.04 बजे चले और छह मिनट में 4.10 पर अस्पताल पहुंच गए. उस वक्त अस्पताल के सभी दरवाजे बंद थे और अधिकतर बत्तियां भी बुझी हुई थीं. इस भवन में आपातकालीन प्रवेश द्वार नहीं है. हमने यही काम रवि भवन से लता मंगेशकर अस्पताल के लिए किया. इस यात्रा में हमें छह मिनट लगे. उस रात लोया को ले जाने वाला ड्राइवर स्थानीय रहा होगा, लिहाजा उसे दोनों यात्राओं में लगने वाले वक्त और दूरी का अंदाजा बेशक रहा होगा.
दिलचस्प बात यह है कि रवि भवन से दांडे अस्पताल के रास्ते में दांडे से 150 मीटर पहले एक चौराहे पर सेनगुप्ता हॉस्पिटल एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट स्थित है. दांडे जाते वक्त सेनगुप्ता से गुज़रना ही पड़ता है जो दांडे की ओर मुड़ने से ठीक पहले सामने बिलकुल साफ दिखता है.
अगर पिनाक दांडे के इंडियन एक्सप्रेस को दिए बयान की मानें, तो लोया को दांडे अस्पताल 4.45 से पहले नहीं लाया गया और अगर एनडीटीवी व इंडियन एक्सप्रेस को दिए डॉ. गवई के बयान की मानें, तो लोया ने सबसे पहले तबीयत खराब होने की बात 3.30 से 4.00 बजे के बीच कही. दोनों को मिलाने से यह साफ़ नहीं होता कि उन्हें अस्पताल तक ले जाने में कम से कम 45 मिनट का वक्त क्यों लगा जबकि वह दूरी छह से सात मिनट के भीतर नापी जा सकती थी. अनुराधा बियाणी ने बताया था कि लोया के साथ नागपुर गए जजों ने उनसे कहा था कि लोया को आधी रात के तुरंत बाद अपनी तबीयत खराब जान पड़ी थी. अगर इस पर भरोसा करें, तब तो दांडे अस्ताल तक पहुंचाने में हुई देरी मामले को और ज्यादा उलझा देती है.
लोया को जिस दूसरे अस्पताल मेडिट्रिना में ले जाय गया, उसका चुना जाना भी अजीबोगरीब है. दांडे ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया था, ''ईसीजी आने के बाद ही हमें अहसास हुआ कि उन्हें विशिष्ट कार्उियक उपचार की जरूरत है जो हमारे यहां उपलब्ध नहीं, तो हमने उन्हें किसी बड़े अस्पताल में जाने की सलाह दी.'' अगर ऐसा ही था तो लोया को वोकहार्ट हार्ट हॉस्पिटल क्यों नहीं ले जाया गया, जो कार्डियक उपचार का विशिष्ट संस्थान है और मेडिट्रिना के मुकाबले दांडे के कहीं ज्यादा करीब स्थित है. दांडे से मेडिट्रिना तक जाने वाले सबसे तीव्र मार्ग से गुज़रते हुए कोई भी वोकहार्ट हार्ट हॉस्पिटल से एक किलोमीटर दूर से गुज़रेगा और वोकहार्ट अस्पताल से आधा किलोमीटर दूर से होकर जाएगा. इसके बाद करीब दो किलोमीटर चलने पर मेडिट्रिना आता है.
मेडिट्रिना पहुंचने पर लोया की स्थिति
मेडिट्रिना में मेडिको-लीगल सलाहकार ने हमें बताया कि उनके पास 1 दिसंबर को तड़के डॉ. पंकज हारकुट का फोन आया. हारकुट ने उन्हें बताया, ''यह मरीज़ भर्ती हुआ था और अपनी आखिरी स्टेज में है. ऐसे मामलों में हम क्या करें?" मेडिको-लीगल सलाहकार ने कहा कि उस बारे में पुलिस को सूचना दी जानी चाहिए और उपयुक्त चैनल का सहारा लिया जाना चाहिए. उसने हमें बताया, ''मैंने कहा कि हम नहीं जानते मरीज़ कौन है, इसलिए मैंने कहा कि मरीज़ की पूरी मेडिकल हिस्ट्री प्राप्त करें. क्योंकि मरीज़ जब यहां आया था तो वह पूरी तरह सदमे की हालत में था... बस एक हलकी सी हृदय गति जारी थी और उसके भर्ती होते ही सीपीआर शुरू कर दी गई. लेकिन एक बिंदु पर आपको पता चल जाता है कि इस मरीज़ को बचाना मुमकिन नहीं है. उसी वक्त उसने मुझे कॉल किया था.''
जैसा कि मेडिको-लीगल सलाहाकार ने याद करे हुए बताया, ''उनके साथ आए लोग कह रहे थे कि उन्हें मायोकार्उियल इनफैक्शन हुआ था. सीने में दर्द था, उलटी वगैरह हो रही थी. मैं जब यहां पहुंचा, तीन-चार लोग मौजूद थे.'' सलाहकार ने बताया कि वह किसी को नहीं पहचानता था.
उसने बताया, ''मरीज़ के आते ही उसका ईसीजी किया गया और उसमें टर्मिनल रिद्म दिखा रहा था- वह सपाट क्षैतिज रेखा नहीं थी. वह एगोनल रिद्म दिख रहा था.'' जो लोग लोया के साथ मौजूद थे, उनके पास दांडे अस्पताल की ईसीजी रिपोर्ट नहीं थी. उसने बताया, ''हमने जब अगले दिन ईसीजी देखा, तो उसमें एमआइ के संकेत दिख रहे थे''' मायोकार्डियल इनफैक्शन. ''अगर हमने पहले ईसीजी देख लिया होता, तो हमारे निदान में एमआइ निकलता, फिर हो सकता है कि हमने पुलिस को सूचना नहीं दी होती.''
मेडिको-लीगन सलाहकार ने उस वक्त परिवार से संपर्क करना उचित नहीं समझा. उसने बताया, ''यह मेरा काम नहीं है. मरीज़ को लाने वाले लोग तक उसका पूरा नाम नहीं जानते थे.'' मौजूदा दस्तावेजों और विवरणों के मुताबिक जज कुलकर्णी और मोदक, जस्टिस गवई और शुक्रे और संभवत- महाराष्ट्र की न्यायपालिका के अन्य सदस्य सभी मेडिट्रिना में मौजूद थे. अगर वे सभी वहां थे, तो यह समझ पाना मुश्किल है कि उनमें से किसी ने भी लोया का पूरा नाम मेडिको-लीगल सलाहकार को क्यों नहीं बताया होगा.
उसने कहा, ''उस वक्त भी हमारी चिंता मरीज़ को लेकर ही थी. उसके साथ मौजूद लोगों को- वे सब कानूनी बिरादरी के लोग थे- मैंने बताया कि सीआरपीसी की धारा 174 के अंतर्गत हमें पुलिस के पास जाना होगा. वे थोड़ा संकोच में दिखे, लेकिन मैंने उनसे कहा कि यही प्रक्रिया है और पुलिस ही तय करेगी कि पोस्ट-मॉर्टम होना है या नहीं. हम खुद से मौत की वजह नहीं बता सकते क्योंकि हमें उसके बारे में पता नहीं है. जब मरीज़ यहां आया था तो उसकी हृदय गति टर्मिनल थी, जिसके पीछे कुछ भी हो सकता है. इसीलिए किसी भी संदेह से पार जाने के लिए जरूरी है कि पोस्ट-मॉर्टम करवाया जाए.''
मेडिको-लीगल सलाहकार ने बताया, ''मैं उपयुक्त चैनल के माध्यम से इसलिए जाना चाहता था क्योंकि मुझे पता चला कि मरीज़ नागपुर का रहने वाला नहीं था, बंबई से आया था और रवि भवन में ठहरा हुआ था. जब वह यहां आया तो हृदयगति टर्मिनल थी और रेफर करने वाले अस्पताल का ईसीजी हम नहीं देख पाए थे. तो मौत का कारण मैं कैसे बता सकता था?'' उसने बताया कि मेडिट्रिना के रिकॉर्ड के मुताबिक लोया को वहां ''5.30 या 5.40 पर ले जाया गया और 6.15 पर उन्हें मृत घोषित कर दिया गया.'' उसने बताया कि ''मेडिट्रिना में किए गए उनके ईसीजी में क्षैतिज रेखा नहीं आ रही थी, इसीलिए हमने उन्हें 'मृत लाया गया' नहीं दिखाया है बल्कि लिखा है 'आगमन पर मौत'- हमने यथासंभव कोशिश की.''
लोया की पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट की एक प्रति नागपुर पुलिस के संयुक्त आयुक्त की ओर से कारवां को मुहैया कराई गई थी. वह कहती है, ''उन्हें पहले दांडे अस्पताल लाया गया और फिर मेडिट्रिना अस्पताल ले जाया गया जहां उनहें मृत अवस्था में लाया गया घोषित किया गया.''
मेडिट्रिना के मेडिको-लीगल सलाहकार ने बताया, ''हमने सभी संभव रक्षात्मक उपाय किए. सारा इनोट्रोपिक सहयोग दिया. मेरे खयाल से डीसी का झटका तक दिया गया था- वे सभी उपाय जो एसीआरएस दिशानिर्देश के तहत किए जाने चाहिए, किए गए थे.'' उन्होंने बताया, ''उन्हें उलटी भी हुई थी... तो हो सकता है कि उन्हें कुछ दिया गया रहा हो.... साथ आए लोगों ने उलटी होने की बात बताई थी. उन्होंने बताया था कि मरीज़ ने एक या दो बार उलटी की थी.''
भारत के दो सबसे प्रतिष्ठित कार्डियोलॉजिस्ट 27 नवंबर को एनडीटीवी इंडिया के प्राइम टाइम पर पत्रकार रवीश कुमार के साथ शो में आए थे. इन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ईसीजी रिपोर्ट पर चर्चा की. पद्मश्री से 2010 में सम्मानित डॉ. केके अग्रवाल ने कहा कि चार्अ में मायोकार्उियल इनफैक्शन के तगड़े संकेत नहीं दिख रहे. तीप नूर्व राश्ट्रपतियों के चिकित्सक रहे डॉ. मोहसिन वाली ने कहा कि उन्हें भी चार्ट में इसके तीव्र संकेत नहीं दिखते.
लोया की एक और बहन सरिता तांधाने ने कारवां को बताया कि उनके पास सुबह 5 बजे एक फोन आया था किसी बार्डे नाम के शख्स का, जिसने उन्हें लोया की मौत की सूचना दी. जसिटस गवई के विवरण से देखें तो संभवत: यह विजयकुमार बर्डे का फोन रहा होगा जो उस रात लोया के साथ थे. जैसा कि मेडिको-लीगल सलाहकार ने हमें बताया, अगर लोया मेडिट्रिना में 5.30 या 5.40 तक लाए जाने पर भी जिंदा होने के संकेत दे रहे थे और यदि पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट के मुताबिक उन्हें 6.15 पर मृत घोषित किया गया, तो यह साफ़ नहीं होता कि जज के परिवार को उनकी मौत की सूचना मेडिट्रिना लाए जाने से पहले ही क्यों दे दी गई.
पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट पर बदली हुई तारीख
पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट कहती है कि ''01/12/14 की सुबह 4.00 बजे सीने में अचानक हुए दर्द'' की शिकायत के बाद लोया की मौत सुबह 6.15 पर हुई. तारीख को ध्यान से देखने पर ऐसा लगता है कि '01' की प्रविष्टि इसकी पूर्ववत प्रविष्टि '30' को मिटाकर की गई है. ऐसा लगता है कि पहले लोया की मौत 30 दिसंबर 2014 की तारीख में दर्ज की गई थी यानी उनकी वास्तविक मौत के महीने भर बाद जबकि इसे बाद में दुरुस्त कर दिया गया और उसकी जगह 1 दिसंबर 2014 की तारीख डाल दी गई.
उपयुक्त पुलिस जांच का अभाव
नागपुर पुलिस के संयुक्त आयुक्त शिवाजी बोदखे ने 1 दिसंबर 2017 को हमसे अपने दफ्तर में मुलाकात की. उनकी मेज़ पर लोया की मौत की जांच की फाइल रखी हुई थी. यह जांच तीन साल से चल रही है. उन्होंने हमें बताया कि उसके भीतर हादसे से मौत की रिपोर्ट लगी हुई है. इयसे संकेत मिलता है कि लोया की मौत की जानकारी जब पुलिस को मिली रही होगी, तो यह मानने के कारण रहे होंगे कि ऐसा प्राकृतिक कारणों से नहीं हुआ. हमें उस काग़ज़ को या फाइल के अन्य दस्तावेज़ों को देखने नहीं दिया गया क्योंकि वे गोपनीय हैं. (बोदखे ने हमें फाइल में दर्ज कुछ सार्वजनिक दस्तावेज़ बेशक देखने दिए जिसमें लोया की पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट भी शामिल है).
हमने बोदखे से ईसीजी चार्अ में गलत तारीख के बारे में सवाल पूछा. उन्होंने जवाब दिया, ''देखो, मुझे इसका जवाब दो, रेलगाड़ी के साथ दुर्घटना क्यों हो जाती है?''''पटरी के बोल्ट अगर ढीले पड़ जाएं'', हमने अंदाजा लगाया. ''ना, ऐसा नहीं है. देखो, जो आदमी सिग्नल दिखाता है- आजकल हर चीज डिजिटल हो गई है- लेकिन पहले ये सिग्नल दिखाने वाला आदमी क्या करता था?वह हरी बत्ती दिखाता था और ऐसे ही काम चलता था... फिर क्या हो जाता था?मानवीय गलतियां हो जाती हैं. कभी वह भूल भी सकता है. तो मान लो कि कल रात उसने मशीन को ऐसे लगा दिया. तो रात 12 बजे क्या होगा?क्या होगा?बताओ?'' हमने कहा- तारीख बदल जाएगी. उन्होंने कहा, ''ऐसे में मशीनों और कंप्यूटर के साथ क्या होगा?हमें उन्हें सेट करना पड़ेगा. आप खुद जाकर देख लो. तारीख बदलनी पड़ती है. नाम बदलना पड़ता है... इस तरीके से थोड़ी आप कह सकते हो कि ईसीजी गलत है. वहां ऑपेरटर है, देखभाल करने वाला आदमी है, सहकर्मी हैं- इसका मतलब यह नहीं कि यह गलत है.''
दो बार बोदखे के साथ हुई बातचीत में हमें ऐसा अजीब जवाब मिला. हमारे छोटे और सधे हुए सवालों के जवाब में गोल-गोल बातें की गईं जिससे सही सूचना के अभाव को छुपाया जा सके. इस साल की शुरुआत में ही बोदखे का तबादला नागपुर हुआ है, लिहाजा लोया के केस का उन्हें पहले से कोई तजुर्बा नहीं है. 1 दिसंबर को उनसे हुई हमारी मुलाकात तक ऐसे किसी भी व्यक्ति का बयान नहीं लिया गया था जो उस रात लोया के साथ था या उस मामले से जुड़ा था- न तो ईसीजी का कोई टेक्नीशियन, न ही कोई डॉक्टर, न कोई जज जिन्हें उस रात लोया के साथ मौजूद बताया जा रहा है और न ही लोया के परिवार का कोई सदस्य. बातचीत में बोदखे ने बेशक कुछ विवरण दिए थे, लेकिन गवाहों के बयानात के अभाव में यह साफ़ नहीं था कि उन विवरणों का स्रोत क्या है. कोई भी ऐसा स्रोत, जिस पर बोदखे अपनी बात को टिका पाते.
बोदखे ने हमें बताया कि इस मामले में कोई एफआइआर दर्ज नहीं हुई है. यह सीताबल्दी थाने के एसएचओ हेमंत खराबे की बताई बात के ठीक उलट था, जिस थाने के अंतर्गत मेडिट्रिना आता है. खराबे ने हमें बताया था कि लोया की मौत के बाद थाने में एक जीरो एफआइआर हुई है जिसे बाद में सदर थाने के सुपुर्द कर दिया गया, जिसके अंतर्गत रवि भवन आता है (सामान्य एफआइआर की सूरत में पुलिस अपने क्षेत्राधिकार में घटी घटना को दर्ज करती है जबकि जीरो एफआइआर किसी भी थाने में दर्ज हो सकता है जिसे बाद में पड़ताल के लिए उस दूसरे थाने में स्थानांतरित किया जा सकता है जिसके अधिकार क्षेत्र में संबद्ध घटनाएं आती हों).
बोदखे ने यह भी बताया कि लोया को उनकी मौत की रात अस्पताल लेकर कुलकर्णी और बोर्डे गए थे. बोदखे ने बताया, ''वहां कई जज थे, 20 से ज्यादा.'' उन्होंने जज कुलकर्णी, बार्डे और जस्टिस गवई से जुड़ी मीडिया रिपोर्टों का भी हवाला दिया.
हमने पूछा कि क्या लोया की लाश को पोस्ट-मॉर्टम के लिए इसलिए भेजा गया क्योंकि उनकी मौत हादसा हो सकती थी. बोदखे ने कहा, ''हादसा और अप्राकृतिक, हादसा, अप्राकृतिक, प्राकृतिक सब पर्यायवाची हैं.''
हमने पूछा कि लोया की आखिरी रात उनके साथ मौजूद रहे लोगों के बयान क्यों नहीं दर्ज किए गए. बोदखे ने कहा, ''यह तय किया गया कि जांच के वास्ते उनकी कोई जरूरत नहीं है. हमारा उस व्यक्ति की मौत से लेना-देना है और इससे कि मौत हुई है.'' फौजदारी मामलों के एक वकील विजय हीरामत ने हमें बताया कि मानक आचार यह है कि ''जांच की कार्यवाही में उन सब के बयान लिए जाएं जो उस रात लोया के साथ थे.''
लोया की मौत से जुड़ा सबसे ज्यादा परेशान करने वाला एक सवाल यह है कि उनका मोबाइल फोन उनके परिवार को सरकारी चैनल के बजाय ईश्वर बहेटी से कैसे मिला- जिसे लोया की बहन डॉ. अनुराधा बियाणी ने कारवां से बातचीत में ''आरएसएस कार्यकर्ता'' बताया था. बोदखे का कहना था कि लोया का मोबाइल फोन उनकी मौत के बाद कभी भी पुलिस के कब्ज़े में नहीं आया. वे कहते हैं, ''फोन या लाश के इर्द-गिर्द कोई और वस्तु तब ज़ब्त की जाती है जब साक्ष्य की जरूरत हो. फोन का मौत के कारण से कोई लेना-देना नहीं है. उसकी ज़रूरत तब होगी जब आरोपपत्र के लिए साक्ष्य इकट्ठा किए जाएंगे या उनसे रिश्ता बैठाया जाएगा या फिर किसी आपराधिक षडयंत्र की पुष्टि के लिए- ऐसे में उसे ज़ब्त किया जा सकता था.'' कुल मिलाकर ऐसा दिखता है कि पुलिस ने मामले में कोई दिलचस्पी ही नहीं ली है.
सदर थाने में, जहां जीरो एफआइआर सीताबल्दी से ट्रांसफर होकर आई, हमने सुनील बोंदे से बात की जो मामले के जांच अधिकारी हैं. बोंदे भी बोदखे की ही तरह इस साल की शुरुआत में तबादले पर नागपुर आए हैं. उन्होंने हमें बताया, ''जहां तक पुलिस का सवाल है, उसे कोई संदेह नहीं- कहानी खतम है.'' एक दिन पहले बोंदे ने हमें बताया था कि वे फोन पर पत्रकारों से बात नहीं कर सकते. हम जब थाने पहुंचे, तो उन्होंने कहा कि हम कानूनी तौर पर काग़ज़ात हासिल कर सकते हैं लेकिन उनके पास उस दिन या बाद के दिनों में हमसे बात करने का वक्त नहीं था.
लोया का केस आज की तारीख में बोंदे के पास ही है. वे अनिल बोंदे के भाई हैं. अनिल बोंदे मोर्शी विधानसभा क्षेत्र से महाराष्अ्र विधान परिषद के सदस्य हैं और भारतीय जनता पार्टी के नेता हैं.
दूसरे थाने में एफआइआर का स्थानांतरण
विजय हीरामत ने हमें बताया कि ''आम तौर से जहां व्यक्ति को मृत पाया जाता है, वही जगह तय करती है कि कौन सा थाना लगेगा'' लेकिन ''आला पुलिस अफसरों के पास एक थाने से दूसरे थाने केस ट्रांसफर करने का अधिकार होता है.'' लोया के केस में मौजूद तथ्यों के मद्देनज़र सामान्य एफआइआर के बजाय जीरो एफआइआर को दर्ज किया जाना अपने आप में एक असाधारण कृत्य था और इस मामले का स्थानांतरण करने के पीछे फैसला सुविचारित और सुनियोजित ही हो सकता है.
सीताबल्दी के एसएचओ हेमंत खराबे ने हमें बताया कि व्यक्ति की मौत की जगह से यह तय नहीं होता कि जांच कहां की जाएगी, बल्कि इससे तय होता है ''जहां घटना घटी है''. इस बात का कोई संकेत नहीं है कि आखिर रविद भवन में ऐसी क्या घटना घटी होगी जिसके चलते लोया का केस सीताबल्दी थाने से सदर थाने भेजा गया.
लोया के पूर्व सहकर्मी और बैचमेट द्वारा जांच की मांग
''लोया लातूर से थे. जज बनने से पहले वे हमारे सहकर्मी थे'', लातूर बार संघ के मौजूदा अध्यक्ष एडवोकेट अन्नाराव पाटील ने हमसे यह बात शहर के जिला अदालत में कही थी. उन्होंने बताया था, ''लातूर बार उनका मदर बार था. हम आधिकारिक जांच की अपनी मांग मुंबई और दिल्ली में सबसे ऊपर के स्तर पर उठा रहे हैं. अगर कोई स्वतंत्र जांच नहीं बैठाई गई, तब बार आगे की कार्रवाई पर विचार करेगा. हम किसी को दोष नहीं दे रहे, लेकिन जांच होनी ही चाहिए क्योंकि उनकी मौत के इर्द-गिर्द मौजूद संदेह न्यायपालिका के लिए ठीक नहीं है, जो कि हमारे लोकतंत्र का एक अहम स्तंभ है.'' लातूर बार संघ ने 25 नवंबर को लोया की मौत की ''संदिग्ध परिस्थितियों'' में जांच का एक संकल्प पारित किया है.
लोया के एक बैचमेट उदय गावरे जो वरिष्ठ अधिवक्ता और लातूर बार के पूर्व अध्यक्ष हैं, उन्होंने कारवां को दिए इंटरव्यू में कहा था कि लोया ने उनसे मौत से पहले कहा था कि सोहराबुद्दीन केस को लेकर वे ''दबाव में'' हैं.
वरिष्ठ अधिवक्ता और शिव सेना के लातूर में नेता बलवंत जाधव लोया के पुराने दोस्त हैं. उन्होंने हमसे कहा, ''शक की सुई अवकाश प्राप्त जस्टिस मोहित शाह की भूमिका की ओर है जिन्होंने कथित तौर पर लोया के ऊपर दबाव बनाया और यहां तक कि अमित शाह के पक्ष में फैसला सुनाने के लिए प्रलोभन भी दिया.''
जाधव के मुताबिक सवाल इसलिए भी बनते हैं क्योंकि ''लोया की मौत के महीने भर के भीतर उनकी जगह आए जज ने साक्ष्य देखे बगैर आरोपी को बरी कर दिया. इस देश में सीबीआइ सबसे बड़ी जांच एजेंसी है. आखिरी सीबीआइ की चार्जशीट को आरोप तय किए जाने के चरण में कैसे खारिज किया जा सकता है?क्या आप उसकी जांच को उपयुक्त महत्व नहीं देंगे?इतने कम वक्त में क्या जज ने चार्जशीट देखी?इन्हीं तमाम चीज़ों के चलते संदेह बनता है.''
जाधव बताते हैं कि लोया की अंत्येष्टि के दिन ही उनके दिमाग में शक पैदा हो गया था. वे कहते हैं, ''गाटेगांव में उनकी अंत्येष्टि से लौटने के बाद हमारे जानकार एक जज मेरे घर शाम को आए. वे रो रहे थे. उन्होंने मुझसे कहा, 'बलवंत, उन्होंने इसे मार दिया.'''
आधिकररिक जांच की जरूरत को रेखांकित करते हुए बलवंत ने बताया कि यह जज हो सकता है कि ''अभी कुछ न बोले, लेकिन उपयुक्त अधिकारी के समक्ष वे जरूर बोलेंगे.''
मीडिया रिपोर्टिंग से उठे कुछ और मसले
लोया की मौत के संबंध में कारवां की कवरेज के बाद इंडियन एक्सप्रेस और एनडीटीवी की रिपोर्ट पढ़ने के बाद यह साफ है कि दोनों ही रिपोर्टें एक ही किस्म के दस्तावेज़ और स्रोतों पर आधारित थीं. एक अन्य प्रकाशन में संपादक ने कारवां को बताया कि उनके पास भी ऐसे ही दस्तावेज़ और स्रोत भिजवाए गए थे.
एनडीटीवी और इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्टें न केवल गलत तारीख वाली ईसीजी रिपोर्ट पर पूरा भरोसा करते हुए निष्कर्ष देती हैं कि लोया की मौत में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था, बलिक वे अपनी कवरेज को वे ज्यादा से ज्यादा बॉम्बे हाइकोर्ट के दो सेवारत जजों के बयानात पर आधारित करती हैं जो खुद सामने आए (दी इंडियन एक्सप्रेस ने जस्टिस गवई और जस्टिस शुक्रे को उद्धृत किया जबकि एनडीटीवी ने अकेले जस्टिस गवई को). दोनों ही जजों का कहना था कि वे वे लोया को मेडिट्रिना पहुंचाए जाने के बाद वहां पहुंचे थे और इनमें से कोई भी यह दावा नहीं करता कि वह रवि भवन में मौजूद था जहां लोया ने सबसे पहले सीने में अचानक उठे दर्द की शिकायत की थी, और दोनों ही दांडे अस्पताल में होने की बात भी नहीं कहते.
सुप्रीम कोर्ट ने देश में सभी सेवारत जजों के लिए एक आचार संहिता बनाई है जिसका नाम है रीस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज़ ऑफ जुडिशियल लाइफ. इस संहिता का आठवां बिंदु कहता है कि ''एक जज को सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा बनहीं बनना चाहिए और न ही सार्वजनिक रूप से राजनीतिक या अन्य ऐसे किसी मसले पर अपनी राय नहीं देनी चाहिए जो न्यायाधीन हो या फिर न्यायिक निर्णय के लिए जिसे आने की गुंजाइश हो.'' नौवां बिंदु कहता है, ''माना जाता है कि एक जज अपने फैसलों से ही बोलेगा. उसे मीडिया को इंटरव्यू नहीं देना चाहिए.'' उच्च न्यायपालिका के दो सदस्यों द्वारा एक सहोदर जज की मौत से जुड़े सवालों के अपवाद मामले में संहिता का उल्लंघन फिर भी समझा जा सकता है लेकिन यह संहिता मीडिया के लिए भी एक दिशानिर्देश का काम करती है, यही वजह है कि रिपोर्टर आम तौर से सेवारत जजों की प्रतिक्रियाएं नहीं लेते हैं. इस मामले में न तो एनडीटीवी और न ही इंडियन एक्सप्रेस ने यह साफ किया कि क्या जज खुद उनके पास चलकर आए थे या वे चलकर जजों के पास प्रतिक्रिया लेने गए थे. इस बारे में भी नहीं बताया गया कि इन जजों के इंटरव्यू कैसे लिए गए.
मीडिया केंद्रित वेबसाइट द हूट ने रिपोर्ट किया कि जस्टिस गवई ने ''अपने चैम्बर में एक प्रेस मीट बुलाई थी कोर्ट कवर करने वाले प9कारों को यह बताने के लिए कि दिसंबर 2014 में जस्टिस लोया की हुई मौत में कुछ भी संदिग्ध नहीं था.'' रिपोर्ट कहती है, ''द हूट ने बॉम्बे हाइकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डॉ. मंजुला चेल्लूर से यह जानने की कोशिश की कि क्या उन्हें ऐसी प्रेस मीट के बारे में कोई जानकारी है और उन्होंने क्या इसकी अनुमति दी थी. उन्होंने इसका जवाब देने से इनकार कर दिया. उनके कार्यालय की ओर से पहले बताया गया था कि चीफ जस्टिस परंपरा के चलते मीडिया से संवाद नहीं करती हैं.''
जस्टिस गवई और जस्टिस शुक्रे में मीडिया से बात करने के अचानक उपजे उत्साह को देखते हुए हमने भी उनसे बात करने की कोशिश कीा कई बार कोशिशों के बावजूद हम जस्टिस शुक्रे से संपर्क नहीं कर पाए. जस्टिठस गवई के ऑफिस में कॉल करने पर उनके सचिव ने हमें बताया, ''वे जो चाहते हैं मीडिया के सामने पहले ही बोल चुके हैं'' और हमसे बात नहीं करेंगे.
सूचना प्रौद्योगिकी कानून 2010 के अंतर्गत आधिकारिक नियम ''संवेदनशील निजी विवरण या सूचना'' के प्रकाशन को प्रतिबंधित करते हैं जिसमें एक व्यक्ति का मेडिकल रिकॉर्ड भी आता है. नियम यह भी कहता है, ''किसी कॉरपोरेट निकाय द्वारा किसी तीसरे पख को संवेदनशील निजी विवरण या सूचना का उद्घाटन ऐसी सूचना के प्रदाता द्वारा पूर्व मंजूरी की मांग करता है.'' मेडिकल रिकॉर्ड के मामले में मंजूरी देने वाला मरीज़ होता है. सरकारी एजेंसी लिखित अनुरोध के आधार पर ही ऐसी सूचना प्रदाता की सहमति के बगैर प्राप्त कर सकती है. इस अनुरोध के संबंध में नियम कहता है, ''सरकारी एजेंसी को बताना होगा कि इस तरह प्रापत सूचना को किसी और व्यक्ति के साथ साझा नहीं कियाजाएगा और प्रकाशित नहीं किया जाएगा.'' बॉम्बे हाइकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता मिहिर देसाई ने हमें बताया कि दांडे अस्पताल का कथित रूप से जारी किया ईसीजी चार्ट संवेदनशील निजी सूचना की श्रेणी में आता है. उन्होंने कहा, ''तो बिना मरीज़ की अनुमति के आप कुछ भी छाप नहीं सकते. मरीज़ की अगर मौत हो गई तो आपको उसके परिवार से मंजूरी लेनी होगी.'' ध्यान दें कि इंडियन एक्सप्रेस ने ईसीजी चार्ट के प्रकाशन के ही दिन एक दूसरी स्टोरी में बताया था कि लोया परिवार के किसी भी सदस्य से उसका संपर्क नहीं हो सका है.
यह जानने के लिए कि इंडियन एक्सप्रेस ने कैसे वह सरकारी और गोपनीय सामग्री हासिल की जिनमें विसंगतियां मौजूद थीं और कैसे उसने उन आधिकारिक सूत्रों तक पहुंच बनाई जिन्होंने प्रतिक्रिया देने के क्रम में न्यायिक प्रोटोकॉल को ही तोड़ डाला, हमने अखबर से संपर्क साधा. अखबार के प्रमुख संपादक ने हमसे कहा, ''मैं इस पर चर्चा नहीं करता कि हम कोई स्टोरी कैसे करते हैं. स्टोरी अखबार में छप चुकी है. हमें एक भी लाइन कम या ज्यादा नहीं जोड़नी.''
एनडीटीवी के प्रबंध संपादक को निम्न सवाल भेजे गए, जिनका जवाब अब तक नहीं आया है:
1. आपने जस्टिस भूषण गवई के बयान के साथ एक रिपोर्ट चलाई थी. क्या रिपोर्टर ने उनसे संपर्क किया था या फिर उन्होंने खुद रिपोर्टर से संपर्क किया?
2. याचिक आचार संहिता पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाए गए संकल्पपत्र का जज ने उल्लंघन किया है. क्या आपने पता किया था कि उन्होंने ऐसा करते वक्त मंजूरी ली थी या नहीं?
3. द हूट के अनुसार जस्टिस गवई ने इस मसले पर अपने चैम्बर में पत्रकारों की एक बैठक रखी थी. क्या एनडीटीवी का रिपोर्टर इस ब्रीफिंग में गया था? यदि हां, तो यह बात रिपोर्ट का हिस्सा क्यों नहीं थी?
4. जस्टिस गवई के बयान के मुताबिक वे लोया की मौत के बाद अस्पताल पहुंचे थे- इसके पहले वे एनडीटीवी को जो भी बताते हैं वह उनका सुना हुआ है. क्या आपने ऐसी सूचना को प्रकाशित करने से पहले जांच का कोई प्रयास किया?
अमित शाह ने 2 दिसंबर को टाइम्स नाउ पर एक साक्षात्कार दिया. लोया की मौत से जुड़ा सवाल पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ''यह सारा मामला मीडिया के एक तबके का उठाया हुआ है. इसके बाद मीडिया के दूसरे तबके ने उसका जवाब दे दिया. आपको उसे भी पढ़ना चाहिए- वह एक मुकम्मल जांच है.''
कुछ दिन बाद आजतक ने अमित शाह को क सार्वजनिक कार्यक्रम में दिखाया जहां जनता ने उनसे सवाल पूछे. फिर से लोया की मौत से जुड़ा सवाल आने पर शाह ने कहा, ''मुझे बस इतना कहना है कि कारवा पत्रिका ने एक स्टोरी छापी है और इंडियन एक्सप्रेस ने भी एक स्टोरी छापी है. जिस किसी को संदेह हो, उसे तथ्यों को देखना चाहिए. मुझे उम्मीद है कि आपने इंडियन एक्सप्रेस की स्टोरी भी पढ़ी होगी. अगर आपने उसका भी जि़क्र किया होता तो आप ज्यादा तटस्थ जान पड़ते.''
अनसुलझे सवाल
लोया परिवार के जिन सदस्यों ने सबसे पहले कारवां से बात की थी- जज के 85 वर्षीय पिता हरकिशन, उनकी बहनें अनुराधा बियाणी और सरिता मांधाने- उन्होंने ऐसा किसी भी दबाव में नहीं किया और वे कैमरे के सामने यह जानते हुए आए कि यह ऑन रिकॉर्ड बयान है. स्टोरी छपने के एक दिन बाद 21 नवंबर को लोया की बहन अनुराधा बियाणी ने कारवां को संदेश लिखकर भेजा कि उन्हें ''वाकई कोई समस्या नहीं है लेकिन परिवार सदमे में है.'' परिवार ने जो सवाल उठाए वे बहुतायत में थे और सन्न कर देने वाले थे. उनके आधार को लगातार उपेक्षित किए जाने की तमाम कवायदों के बावजूद वे सवाल अब भी मुंह बाये खड़े हैं. इस बीच इन कवायदों ने खुद और ज्यादा विसंगतियों और चिंताजनक मसलों को सामने लाकर रख दिया है. नीचे लोया की मौत से जुड़े कुछ सवाल हैं जिनका जवाब अब भी कायदे से दिया जाना बाकी है:
1. लोया को सबसे पहले हड्डियों के एक अस्पताल में क्यों ले जाया गया जिसे चलाने वाला डॉक्टर आरएसएस से जुड़ा हुआ है, जबकि नागपुर में कहीं ज्यादा सुविधाओं वाले बेहतर अस्पताल जैसे लता मंगेशकर अस्पताल, वोकहार्ट अस्पताल या वोकहार्ट हार्ट हॉस्पिटल मौजूद हैं- खासकर तब जबकि रवि भवन से लता मंगेशकर अस्पताल दांडे अस्पताल जितनी दूरी पर ही स्थित है. लोया को बाद में मेडिटिना अस्पताल क्यों ले जाया गया, वोकहार्अ हार्ट हॉस्पिटल या वोकहार्ट अस्पताल क्यों नहीं जो कि दोनों ही दांडे से ज्यादा करीब स्थित है.
2. साताबल्दी थाने (जिसके क्षेत्राधिकार में मेडिट्रिना आता है) में दर्ज जीरो एफआइआर को क्यों सदर थाने भेजा गया, जिसके अंतर्गत रवि भवन आता है. क्या इसका मतलब यह हुआ कि रवि भवन में कोई ऐसी असामान्य घटना हुई थी जो सदर थाने की पुलिस के संज्ञान में आई थी.
3. रवि भवन की उपस्थिति पंजिका में लोया के ठहरने से जुड़ी प्रविष्टियों से ठीक पहले रिक्तियां क्यों हैं, खासकर तब जबकि बाकी पन्नों पर ऐसा नहीं है.
4. लोया की प्रविष्टि से पहले आखिरी पूर्ण प्रविष्टि में आखिर क्यों किसी अतिथि के सामने 2017 की दो तारीखें दर्ज हैं जो वहां 2014 में ठहरा था.
5. लोया रवि भवन के किस सुइट में ठहरे थे.
6. डॉक्टरों, पुलिस अफसरों और हाइकोर्ट के जजों द्वारा मीडिया में दिए बयानात में इतनी विसंगतियां और विरोधाभास क्यों हैं, जिसमें यह बात भी शामिल है कि लोया को अस्पताल लेकर कौन गया और परिवार तक शव ले जाए जाने पर उसके साथ कौन था.
7. पुलिस ने दांडे अस्पताल द्वारा कथित रूप से किए गए ईसीजी के चार्अ की पुष्टि करने के लिए क्या कदम उठाए, जिस पर पड़ी तारीख लोया की मौत से एक दिन पहले की है.
8. लोया को दांडे अस्पताल कौन लेकर गया. पुलिस ने उनसे बयान क्यों नहीं लिए हैं.
9. लोया रवि भवन में सीने में अचानक हुए दर्द की शिकायत के बाद दांडे अस्पताल तक ले जाने में 45 मिनट का वक्त क्यों लगा जबकि दोनों के बीच की दूरी सुबह के वक्त छह मिनट में तय की जा सकती है.
10. दांडे अस्पताल में लोया को किसने देखा. पुलिस ने उनके बयान क्यों नहीं लिए हैं.
11. लोया को दांडे से मेडिट्रिना ले जाने की सिफारिश किसने की.
12. दांडे अस्पताल से मेडिट्रिना तक लोया के साथ कौन रहा. पुलिस ने इनके बयान क्यों नहीं दर्ज किए हैं. वे अपने साथ दांडे अस्पताल का ईसीजी चार्अ लेकर क्यों नहीं गए.
13. जब पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट कहती है कि ”उन्हें पहले दांडे अस्पताल ले जाया गया और बाद में मेडिट्रिना ले जाया गया जहां उन्हें मृत अवस्था में पहुंचा घाषित किया गया”, तो मेडिट्रिना के मेडिको-लीगल सलाहकार ऐसा क्यों कहते हैं कि लाए जाने के वक्त लोया जीवित थे.
14. लोया के परिवार को तड़के 5 बजे ही कॉल क्यों चली गई कि उनकी मौत हो चुकी है जबकि उस वक्त तक न उनकी मौत हुई थी, न ही उन्हें मेडिट्रिना ले जाया गया था.
15. मौत की रात लोया का मोबाइल फोन किसने अपने कब्जे में लिया. वह ईश्वर बहेटी के पास कैसे पहुंचा. फोन के रिकॉर्ड किसने डिलीट किए.
16. लोया के शव को गाटेगांव कौन लेकर गया. किसने निर्णय लिया कि शव वहां भेजा जाना चाहिए. उसे मुंबई क्यों नहीं भेजा गया.
17. लोया की मौत तक के गवाह अब तक सामने क्यों नहीं आ सके हैं. पुलिस ने उनकी पहचान कर के उनके बयान दर्ज क्यों नहीं किए हैं.
18. लोया का परिवार बाद में चुप क्यों हो गया और उसने मीडिया के आगे अपनी और बात क्यों नहीं रखी.
19. आखिर लोया के परिवार और उनके सहयोगियों द्वारा बताए गए इस आरोप की जांच क्यों नहीं हो रही कि लोया ने उन्हें बताया था कि सोहराबुद्दीन केस में उनके फैसले को प्रभावित करने की कोशिशें की जा रही थीं. लोया से पहले सोहराबुद्दीन केस की सुनवाई कर रहे जज का बीच में ही क्यों तबादला कर दिया गया जबकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश था कि एक ही जज को शुरू से लेकर अंत तक सुनवाई करनी है.