किसान आंदोलन के प्रति मोदी सरकार का औपनिवेशिक रवैया

1946 में सिंचाई मामलों पर भाषण देता सिख किसान. सिख किसानों के आंदोलन का इतिहास 100 सालों से ज्यादा पुराना है. मार्गरेट बोर्के-व्हाइट/ दि लाइफ पिक्चर कलेक्शन / गैटी इमेजिस

1920 के दशक में जो पंजाब के देहातों में ब्रिटिश राज के खिलाफ उस दौर की सबसे बड़ी लामबंदी हो रही थी. इसके बारे में तत्कालीन भारत सरकार ने अपनी फाइलों में लिखा था कुछ इस तरह लिखा है :

सिख किसान उन लोगों द्वारा थोपी गई "आत्मनिर्णय" की नीति के प्रति प्रतिबद्ध हो गया है जो उसके स्वाभाविक नेता नहीं हैं और उसे रहस्यमयी जन मनोवैज्ञान की प्रक्रिया से ऐसी गतिविधि की परिधि में धकेल दिया गया है जो निष्ठा और स्वार्थ की सभी परंपराओं में अवांछित मानी जाती है.

यदि हम उपरोक्त कथन में प्रयोग किए गए "आत्मनिर्णय" शब्द के स्थान पर "खालिस्तान" रख दें और "थोपी गई" के स्थान पर "गुमराह" शब्द को लगा दें तो हम देख सकते हैं कि आज की सरकार और मुख्यधारा की मीडिया तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों को लेकर आज भी उसी शैली में बात कर रहे हैं यानी सिख किसानों की अगुवाई भटके हुए खालिस्तानी तत्व कर रहे हैं.

अपनी फाइलों में लिखने के लिए ही सही कम से कम अंग्रेजों को यह समझाने का नाटक तो करना ही पड़ा कि कैसे इतने बड़े समूह पर चंद लोगों ने अपनी नीति थोपी. (हालांकि उनका जवाब अर्थहीन था क्योंकि इसमें कहा गया था कि यह थोपना जन मनोविज्ञान की किसी रहस्यमय प्रक्रिया से हुआ है.)

वहीं दूसरी ओर मोदी सरकार दब्बू मीडिया के आगे कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग करने वाले इतने सारे किसान जुट गए इस सवाल का जवाब देने के दबाव में नहीं है. बजाए जवाब तलाशने के उसके लिए उन्हें शरारती तत्वों द्वारा गुमराह किसान बताना असान है. सरकार के समर्थक नियमित रूप से अपने इस पूर्वाग्रह को प्रकट करते रहे हैं. एक पुलिस वाले से एक आंदोलनकारी को अंग्रेजी में बात करने वाले एक वीडियों पर ट्वीट करते हुए एक औसत दर्जे के फिल्म निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने लिखा, “गरीब भूमिहीन किसान जिनके लिए वोक्स आंसू बहा रहे हैं.”

लेकिन सिख किसान को सीधे सरल ढांचे में रखने की किसी भी तरह की कोशिश बेकार साबित हुई है.

पंजाब में कृषि आंदोलनों का इतिहास सौ साल से अधिक पुराने "पगड़ी संभल जट्ट" आंदोलन से आरंभ होता है जिसका नेतृत्व भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह बंधु ने किया था. उन किसानों ने जोती गई जमीन को पाने के लिए लड़ाई लड़ी और उन्हें पश्चिम पंजाब में नहर किनारे नई बसी कॉलोनियों का स्वामित्व दिया गया जिनसे ब्रिटिश प्रशासन ने नए कानून बनाकर वंचित करने का प्रयास किया था. साल भर चला यह आंदोलन सफल रहा कानून वापस करवाने में सफल रहा.

ब्रिटिश शासन को रहस्यमयी लगने वाला वाला यह आंदोलन गुरुद्वारा सुधार और नियंत्रण को लेकर शुरू हुआ था. इससे अकाली दल, जिसने संघर्ष का नेतृत्व किया और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति जो अब मंदिरों का प्रबंधन करती है, की स्थापना हुई. अगले पांच वर्षों में जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ता गया, 400 से अधिक लोग मारे गए. 1925 में अंग्रेजों ने मांगों को मान लिया और एक कानून बनाकर एसजीपीसी को नियंत्रण सौंप दिया.

1928 में पटियाला के पूर्व महाराजा- पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के पूर्वज- के दक्षिणी पंजाब में नियंत्रण वाले क्षेत्र में सिख किसानों पर सामंती व्यवस्था लागू की गई थी जो महाराजा द्वारा नियुक्त लोगों को जमीन का मालिकाना देती थी. प्रजा मंडल आंदोलन ने अंततः 1952 में 25 साल के लंबे संघर्ष के बाद इस व्यवस्था तो खत्म करवा दिया. शुरुआत में उस आंदोलन को अकालियों और कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था लेकिन बाद के दौर में केवल वाम नेतृत्व ही अगुवाई कर रहा था.

इन सभी आंदोलनों में वही किसान वर्ग आगे रहा जो आज के किसान आंदोलन की अगुवाई कर रहा है. इसके पीछे कई कारण एक जैसे हैं. जैसे उनकी जीविका किसानी पर पड़ने वाला अत्याधिक आर्थिक दबाव और यह भावना कि दिल्ली की सरकार उनके लिए पहचान के मुद्दे को महत्वपूर्ण नहीं समझती.

1900 के दशक जब कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका में पहला पलायन हुआ तब भूमि पर स्वामित्व, पहचान और अधिकार के लिए संघर्ष के इस इतिहास को एक विश्वदृष्टि मिली. लेकिन कानूनी अन्याय का विरोध करने की यह क्षमता केवल ब्रिटिश शासन के संपर्क या उपनिवेशवाद के प्रभाव से पैदा नहीं हुई थी. 1847 तक पंजाब का अधिकांश हिस्सा एक स्वतंत्र राज्य था और 1870 के दशक की शुरुआत में ही वहां अंग्रेजों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो चुका था. इस जागरूकता और लामबंदी के प्रमुख कारणों में से एक को कारवां के लिए लिखे 2018 के निबंध में कांचा इलैया शेपर्ड ने इस तरह पेश किया है :

ब्राह्मणों और बनियों के नियंत्रण से सफलतापूर्वक निकलने वाला एकमात्र शूद्र समूह सिखों का है. उन्हें यह करने के लिए हिंदू धर्म से पूरी तरह से नाता तोड़ना पड़ा और अपनी खुद की आध्यात्मिक व्यवस्था कायम करनी पड़ी. उन्होंने गुरुग्रंथ नाम से खुद का अपना धर्म ग्रंथ रचा और खुद के धार्मिक केंद्र स्थापित किए. अकाली दल और कांग्रेस इकाई के जरिए, वे पंजाब की राजनीतिक ताकत पर नियंत्रण रखते हैं. शूद्रों से भिन्न सिखों ने अपनी वैश्विक दृश्यता में भी इजाफा किया है और कनाडा जैसे देश में सत्ता के गलियारों में उनका रूतबा बढ़ता ही जा रहा है. आध्यात्मिक स्वतंत्रता ही उनकी सफलता का आधार रही है. 

पंजाब में सिख धर्म मंडल कमीशन से 500 साल पहले चला ओबीसी आंदोलन था. यह न तो पूरी उपलब्धि थी और न ही आखिरी लेकिन यह पर्याप्त थी. इसे जाति व्यवस्था विरासत में मिली जो जाट सिखों और उनके दलित समकक्षों, जिन्हें मजहबी कहा जाता है, के बीच आज भी जारी है लेकिन सिख शास्त्रों में इसकी मंजूरी नहीं है.

सिख धर्म ने यह सुनिश्चित किया है कि उसके अनुयायियों का विशाल समूह, जिसमें जाट समुदाय 50 प्रतिशत से अधिक है, बौद्धिक और वित्तीय रूप से, देश की आबादी के पांच प्रतिशत से कम, ब्राह्मण या बनिया सवर्ण अल्पसंख्यक द्वारा नियंत्रित न हों.

जैसा कि शेपर्ड ने लिखा है, शूद्र, जिनमें देश की आबादी का पचास प्रतिशत हिस्सा हैं, को कहीं और ऐसा फायदा नहीं मिला है. "अपने विशाल संख्या वाले समूह के लिए शूद्र, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के सभी पहलुओं में सत्ता के पदों पर बहुत ही कमतर रहते हैं, चाहे वह सरकार में हो, व्यवसाय में हो, धर्म में हो या शिक्षा में हो."

जो किसान आंदोलन का विरोध कर रहे हैं उनकी विचारधारा सरकार के इशारे पर काम करने वाली मीडिया में परिलक्षित होती है. मीडिया ने आंदोलन को दबाने में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का साथ दिया है. मीडिया काफी हद तक उसी उच्च जाति वाले हिंदुत्व के हितों से चलती है जो इस सरकार की जड़ है. विरोध के बारे में अक्सर मीडिया में एक सवाल उठाया जाता है कि विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व केवल पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा ही क्यों किया जा रहा है? लेकिन इस सवाल को सर पर खड़े करने की जरूरत है. पूछा जाना चाहिए कि किसान आंदोलन के आलोचकों में किसानों का प्रतिनिधित्व इतना कम क्यों है? दूसरे शब्दों में, विरोध के आलोचक, चाहे वह अर्थशास्त्री हो, सरकार के मंत्री हो या कारपोरेट प्रमुख, लगभग सभी उच्च जाति के हैं.

कारवां के लिए शाहिद तांत्रे

28 नवंबर को जब प्रदर्शनकारी दिल्ली की तरफ बढ़ रहे थे, एक मारवाड़ी के स्वामित्व वाले मीडिया संगठन दैनिक जागरण ने “किसानों के कूच के दौरान हरियाणा में लगे पाकिस्तान के समर्थन में नारे! बीजेपी ने कहा अब तो इशारे समझो" शीर्षक से एक लेख छापा. इस खबर को सोनीपत की एक वायरल वीडियो क्लिप से लिया गया था, जिसके बारे में एक रिपोर्ट में बताया गया था कि इस खबर को अखबार ने सत्यापित नहीं किया है. इसमें स्थानीय वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक का भी हवाला दिया गया, जिन्होंने वहां इस तरह के नारों के लगने की बात से इनकार किया. फिर भी शीर्षक ने नारों को सच्चाई के रूप में पेश किया और इस पर बीजेपी की प्रतिक्रियाओं को स्थान दिया. उसी दिन मारवाड़ी के स्वामित्व वाले एक अन्य समाचार पत्र न्यू इंडियन एक्सप्रेस ने यह बताया कि बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव दुष्यंत कुमार गौतम “ने कहा कि विरोध प्रदर्शन में 'खालिस्तान जिंदाबाद' और 'पाकिस्तान जिंदाबाद' जैसे नारे लगाए गए हैं.”

उसी दिन डीएनए ने, जिसका स्वामित्व भी मारवाड़ी समाज के व्यक्ति के पास है, अपनी वेब टीम की बाइलान से प्रकाशित रिपोर्ट में खबर चलाई, “विरोध की आक्रामक प्रकृति स्पष्ट रूप से इंगित करती है कि इसे राजनीतिक दलों- कांग्रेस, अकाली दल और आम आदमी पार्टी (आप)- ने अपने स्वार्थ के लिए नियंत्रण में कर लिया है. समाचार पत्रों में विज्ञापन निकालना, हैशटैग का प्रयोग करना और आक्रामक विरोध प्रदर्शन, निश्चित रूप से किसानों द्वारा अपने दम पर नहीं किया जा सकता है. हैरानी होती है कि खालिस्तान जैसा आतंकी संगठन भी आंदोलन में शामिल हो गया है.” ट्विटर पर चल रहे हैशटैग किसानों के कार्यों से परे लगते हैं. यहां यह मान्यता काम करती है कि अच्छी तरह से अंग्रेजी न बोल पाने वाले शिक्षित नहीं होते और वे स्पष्ट रूप से कृषि कानूनों को समझने में असमर्थ हैं.

लेकिन यह सिर्फ उस मीडिया भर की बात नहीं है आंदोलन विरोधी है बल्कि ऐसे सिख अर्थशास्त्रियों की भी कमी नहीं है जिन्होंने कृषि कानूनों की समस्याओं के बारे में जोर देकर लिखा है. स्टूडियो चर्चाओं में प्रदर्शनकारियों का प्रतिनिधित्व करने वाले चेहरे किसी भी तरह से उन लोगों से मिलते-जुलते नहीं हैं जो विरोध कर रहे हैं. ऐसा कभी-कभार हो तो ठीक है लेकिन यह मानक नहीं होना चाहिए. ऐसा लगता है जैसे प्रदर्शनकारियों की ओर से नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं या उच्च जाति के उदारवादी बात कर रहे हैं.

यह सोच नस्लवादी है. इस मान्यता से कि किसान अपनी आजीविका से जुड़े मुद्दों पर खुद नहीं बोल सकते, उच्च जाति के विशेषाधिकार की बू आती है और यह उस बयानबाजी से बहुत अलग नहीं है जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान होती थी. इस सोच में सिख किसानों की छवि एक अच्छे, वफादार और गूंगे लोगों की है जिन्हें आसानी से ऐसे बेईमान लोग गुमराह कर सकते हैं जो उपनिवेशवाद या उच्च जाति के आधिपत्य को चुनौती देते हैं. ये दोनों की बातें एक जैसी हैं. अंग्रेजों को अपनी गलती को समझने में पांच साल लगे. स्वतंत्र भारत को उनसे बेहतर समझ रखनी चाहिए.