1920 के दशक में जो पंजाब के देहातों में ब्रिटिश राज के खिलाफ उस दौर की सबसे बड़ी लामबंदी हो रही थी. इसके बारे में तत्कालीन भारत सरकार ने अपनी फाइलों में लिखा था कुछ इस तरह लिखा है :
सिख किसान उन लोगों द्वारा थोपी गई "आत्मनिर्णय" की नीति के प्रति प्रतिबद्ध हो गया है जो उसके स्वाभाविक नेता नहीं हैं और उसे रहस्यमयी जन मनोवैज्ञान की प्रक्रिया से ऐसी गतिविधि की परिधि में धकेल दिया गया है जो निष्ठा और स्वार्थ की सभी परंपराओं में अवांछित मानी जाती है.
यदि हम उपरोक्त कथन में प्रयोग किए गए "आत्मनिर्णय" शब्द के स्थान पर "खालिस्तान" रख दें और "थोपी गई" के स्थान पर "गुमराह" शब्द को लगा दें तो हम देख सकते हैं कि आज की सरकार और मुख्यधारा की मीडिया तीन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों को लेकर आज भी उसी शैली में बात कर रहे हैं यानी सिख किसानों की अगुवाई भटके हुए खालिस्तानी तत्व कर रहे हैं.
अपनी फाइलों में लिखने के लिए ही सही कम से कम अंग्रेजों को यह समझाने का नाटक तो करना ही पड़ा कि कैसे इतने बड़े समूह पर चंद लोगों ने अपनी नीति थोपी. (हालांकि उनका जवाब अर्थहीन था क्योंकि इसमें कहा गया था कि यह थोपना जन मनोविज्ञान की किसी रहस्यमय प्रक्रिया से हुआ है.)
वहीं दूसरी ओर मोदी सरकार दब्बू मीडिया के आगे कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग करने वाले इतने सारे किसान जुट गए इस सवाल का जवाब देने के दबाव में नहीं है. बजाए जवाब तलाशने के उसके लिए उन्हें शरारती तत्वों द्वारा गुमराह किसान बताना असान है. सरकार के समर्थक नियमित रूप से अपने इस पूर्वाग्रह को प्रकट करते रहे हैं. एक पुलिस वाले से एक आंदोलनकारी को अंग्रेजी में बात करने वाले एक वीडियों पर ट्वीट करते हुए एक औसत दर्जे के फिल्म निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने लिखा, “गरीब भूमिहीन किसान जिनके लिए वोक्स आंसू बहा रहे हैं.”
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