शूद्र कहां हैं?

आज के भारत में लापता शूद्र

जिशान ए लतीफ/कारवां
जिशान ए लतीफ/कारवां
09 November, 2018

1990 के दशक की शुरुआत में जब सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया तो वह पल शूद्रों के लिए एक ऐतिहासिक क्षण था. इस कदम ने सरकारी नौकरियों और सरकारी उच्च शिक्षा में अन्य पिछड़ी जातियों – एक श्रेणी जिसमे अधिकतर पारंपरिक रूप से मजदूरी और कारीगरी करने वाली शूद्र जातियां सम्मिलित थीं – के लिए आरक्षण लागू कर दिया. आयोग ने भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था में सबसे दयनीय मानी जाने वाली श्रेणी के रूप में इन चौथी और सबसे निचली जातियों की पहचान की थी. श्रेष्ठतर समझी जाने वाली जातियों के बरअक्स वे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए थे फिर भी उन्हें सकारात्मक पक्षपात की नीति, जिसे आजादी के बाद दलितों और आदिवासियों (अनुसूचित जातियां और अनुसूचित जनजातियां) के लिए अपनाया गया था, से बाहर रखा गया था. आयोग ने ऐतिहासिक पिछड़ेपन के आधार पर अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की एक अलग श्रेणी तैयार की. ब्राह्मण और वैश्य जातियों, यहां तक कि शूद्रों के एक तबके ने भी, इस कदम का कड़ा विरोध किया. अपेक्षाकृत रूप से अंत: शूद्र जातियों के शिखर पर आसीन संपन्न जमींदार समूहों जैसे कम्मा, रेड्डी, कापू, गौड़ा, नायर, जाट, पटेल, मराठा, गुज्जर, यादव, इत्यादि जातियां दशकों से खुद ब्राह्मण-बनिया जातियों की आदतों और पूर्वाग्रहों को अपनाने में लगीं थीं. 1996 में प्रकाशित अपनी पुस्तक, मैं हिंदू क्यों नहीं हूं, में मैंने इन ‘उच्च’ शूद्र जातियों का वर्णन नव-क्षत्रियों के रूप में किया था. ये समूह इस भरोसे खुद का संस्कृतिकरण कर रहे थे कि वर्ण व्यवस्था में पारंपरिक रूप से दूसरे स्थान पर आसीन और लगातार क्षय होते, क्षत्रियों का स्थान ले पाएंगे.    

मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू हुए ढाई दशक बीत चुके हैं. एक पूरी पीढ़ी बड़ी हो चुकी है. यह वक़्त है पूछने का कि आरक्षण इन शूद्र अन्य पिछड़ी जातियों को कितनी दूर तक लेकर आया है? उच्च शूद्र जातियों, जिन्होंने इस आरक्षण का विरोध किया, का क्या भला हुआ? आज शूद्र भारत में खुद को कहां पाते हैं? भारत की कुल जनसंख्या में शूद्रों की तादाद तकरीबन आधी है – एक ऐसा देश जो जनसंख्या के मामले में दुनिया में दूसरे नंबर पर है. अस्सी के दशक में, मंडल आयोग इस नतीजे पर पहुंचा कि भारत में अन्य पिछड़ी जातियों की तादाद, जिसमे उच्च शूद्र जातियां शामिल नहीं हैं, 52 प्रतिशत है. आज की तारीख में यह संख्या 65 करोड़ से अधिक बैठती है, जो अमरीका की जनसंख्या से दोगुना और पाकिस्तान या ब्राजील से तीन गुना है. जबकि अगड़ी जातियों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को मिलाकर भी यह कुल जनसंख्या का 20 प्रतिशत से ज्यादा नहीं बैठता.

इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद भी, शूद्रों का प्रतिनिधित्व राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में, चाहे वह सरकार, निजी व्यवसायों, धर्म और शिक्षा में, पर्याप्त नहीं था. राष्ट्रीय स्तर पर तो विशेषतौर पर वे ब्राह्मणों और वैश्यों, खासकर, वैश्यों के अधीन थे. यही बात उच्च शूद्रों के ऊपर भी लागू होती है, जो आज अजीबोगरीब स्थिति में हैं. अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में उनका नाम शामिल न किए जाने की वजह रही है उनके द्वारा इस बात पर जोर देना कि उनका अन्य शूद्रों से उच्चतर रूतबा है. इस वक्त लाखों-लाख लोग पूरे देश भर में अवसरों की गतिशीलता में गतिरोध की वजह से गुस्से में हैं और मांग कर रहे हैं कि उन्हें भी अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल किया जाए ताकि वे भी आरक्षण का लाभ उठा सकें.

1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने के लिए संघर्ष करते शूद्र ओबीसी. आज “उच्च” शूद्र, जिन्होंने पहले ओबीसी आरक्षण का विरोध किया था, स्वयं को ओबीसी सूची में डाले जाने की मांग कर रहे हैं. बीसीसीएल

राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में शूद्र कहां हैं? उनमे सबसे अमीर भी कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं, जो पारंपरिक रूप से उनकी आय का प्रमुख साधन रहा है. उद्योग और वित्त के क्षेत्र में उन्होने कोई खास तरक्की नहीं की है. इस क्षेत्र पर बनियों का दबदबा रहा है. पूंजी के लिए शूद्रों को उन पर ही हमेशा की तरह निर्भर रहना पड़ता है. व्यवसाय के क्षेत्र में एक भी ऐसा शूद्र परिवार नहीं है जो अंबानियों, अडानियों या मित्तल को चुनौती देता हो. गरीब शूद्र आज भी खेतों, निर्माण स्थलों और फैक्ट्रियों में काम करते हैं जहां रोज नए शूद्र कारीगर शामिल हो रहे हैं क्योंकि आधुनिक उद्योग के जमाने में उनके परंपरागत कौशल का लगातार अवमूल्यन हुआ है. राष्ट्रीय चेतना और संस्कृति में शूद्र  कहां बसते हैं? समकालीन भारत में बौद्धिक, दार्शनिक और सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में उनका कोई खास योगदान नहीं रहा है. औरतों की तो रहने ही दीजिए, किसी भी शूद्र मर्द को हिंदू धर्म में किसी भी प्रभावशाली पद पर नहीं आने दिया गया है, हालांकि हर कहीं शूद्रों पर हिंदू धर्म को आक्रमकता के साथ थोपा गया है. भारत के हिंदुओं में सबसे अधिक शूद्रों की संख्या है, लेकिन धर्म के मामलों में उनके मत को तरजीह नहीं दी जाती. खुद शूद्रों में जाति-आधारित पाबंदी इस कदर घर कर गई है कि कोई भी शूद्र पुरोहित बनने की सोचता भी नहीं है. इसके अलावा विरले ही ऐसा कोई शूद्र बुद्धिजीवी होगा, जो उनसे भूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में उनके समूह के सामाजिक और राजनीतिक स्थान पर बात कर सके. हद से हद ऐसी शख्सियतें, प्रादेशिक स्तर पर मौजूद हैं और अपनी-अपनी भाषाओं में उनसे संवाद करती हैं लेकिन राष्ट्रीय बहस में वे कभी शरीक नहीं हो पातीं. अकादमिक दुनिया और मीडिया ने भी शूद्र दिमागों को अपने यहां जगह नहीं दी.

शैक्षिक क्षेत्र में शूद्रों ने, कुछ एक अपवादों को छोड़कर, पूरे देश भर में कुछ खास हासिल नहीं किया है. तमाम बौद्धिक और आध्यात्मिक मामलों में वे अधिकतर ब्राह्मणों के नेतृत्व को स्वीकार करते आए हैं. राष्ट्रीय राजनीति और सरकार में शूद्र कहां हैं? उच्च न्यायपालिका और नौकरशाही में उनका प्रतिनिधित्व लगभग ना के बराबर है. सच्चाई तो यह है कि शूद्र नेता अधिक से अधिक प्रादेशिक ताकतें हैं. कुछ उच्च शुद्र जातियों ने बहुत प्रभावशाली तरीके से शक्तिशाली पार्टियों को संगठित किया है. उत्तर प्रदेश और बिहार में यादवों ने, या आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में कम्मा, रेड्डी, कापू और वेलम्माओं ने. लेकिन इन पार्टियों और नेताओं का प्रभाव क्षेत्र उनके अपने राज्यों और अधिकतर जाति और कौमपरस्ती तक ही सीमित रहा है. एक व्यापक एकजुटता जुटाने में वे कामयाब नहीं रहे हैं. इन नेताओं के केंद्र में सत्ता के साथ गठजोड़ बनाने के प्रयास उनकी अधीनता का घोतक रहा है और इससे उनके शूद्र घटकों के लिए कोई भी सार्थक फायदा पहुंचना अभी बाकि है. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी जैसी राष्ट्रीय पार्टियों में शूद्रों के सरोकारों का कोई खास प्रतिनिधित्व नहीं है, ना ही वे निर्णय लेने वाले पदों पर आसीन हैं. दोनों ही पार्टियों में ब्राह्मणों और बनियों का वर्चस्व है.

बी.आर. अंबेडकर ने शूद्र कौन हैं नामक अपनी किताब में 1946 में लिखा था. “इस विषय पर अध्ययन की वर्तमान स्थिति में, शूद्रों के ऊपर किताब को अतिरेकता की संज्ञा नहीं दी जा सकती.” इंडो-आर्यन समाज में वे चौथा वर्ण कैसे बने? नए पुरातत्व और आनुवांशिकी-विषयक अध्ययनों ने उनकी उत्पत्ति के सिद्धांत पर प्रश्न खड़े किए हैं और कि क्या शूद्र वाकई में इंडो-आर्यन थे. लेकिन इसके अलावा शूद्रों पर मिलने वाले अध्ययन की स्थिति इतने सालों में लगभग बिलकुल नहीं बदली है. बिरले ही ऐसे शोधकर्ता होंगे जिन्होंने आजाद भारत में शूद्रों की दुर्दशा पर विशेष रूप से काम किया हो. शूद्रों के इतिहास और संस्कृति पर कोई अच्छी किताब मौजूद नहीं है और मीडिया में भी चुनावी राजनीति के संकुचित दायरे के बाहर शूद्रों से संबंधित कुछ खास देखने को नहीं मिलता. शूद्रों के पास अपनी समस्याओं को लेकर मुड़ कर देखने के लिए खुद के अलावा कोई नहीं है. यहां तक कि अंबेडकर का शूद्रों पर लेखन भी उनके इतना काम नहीं आया जितना उनका अन्य काम अति शूद्रों के, अर्थात उनकी ऐतिहासिक, राजनीतिक और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से समूचे देश में मुक्ति आन्दोलन को प्रेरित करना. एकीकृत चेतना के अभाव में, शूद्रों को उसी हिंदू धर्म में शामिल कर लिया गया जो उन्हें बुनियादी रूप से ही नीच समझता है. हिन्दू धर्म उन्हें बड़ी आसानी से ब्राह्मणवादी राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक संस्थाओं को स्वीकार्य बनाता है. हमेशा की तरह आज भी शूद्रों के बारे में लेखन को अतिरेकता की संज्ञा नहीं दी जा सकती.

1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने के लिए संघर्ष करते शूद्र ओबीसी. आज “उच्च” शूद्र, जिन्होंने पहले ओबीसी आरक्षण का विरोध किया था, स्वयं को ओबीसी सूची में डाले जाने की मांग कर रहे हैं. सकीब अली/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

नरेंद्र मोदी 2014 में पिछड़ी जाति का होने का ढिंढोरा पीट कर प्रधान मंत्री बने. वे खुद को अन्य पिछड़ी जाति का प्रतिनिधि बता रहे थे. कईयों ने इस दावे की गहराई में जाए बिना ही स्वीकार कर लिया. मोदी के जाति समूह, गुजरात के मोध घांची, पर गहरी नजर डालें तो उनके इस दावे को हमें शक की नजर से देखना चाहिए.

ऐतिहासिक रूप से मोध घांची खाने का तेल बनाने और बेचने का व्यापार करते आए हैं. हाल के वर्षों में वे किराने की दुकानें भी चलाने लगे हैं. यह उन्हें अन्य शूद्र जातियों से साफ तौर पर अलग करता है, जो अधिकांशत: खेती और मजदूरी का काम करते है. ब्राह्मणवादी सोच की नजर में एक नीच काम.

वर्ण व्यवस्था पेशे से निर्धारित होती है और इसके अनुसार व्यापार करने वाले लोग तीसरे स्थान पर वैश्य जाति का हिस्सा हैं.

मोध घांची समुदाय की व्यापारिक गतिविधियों में हिस्सेदारी उनके वैश्य होने की निशानी है. उन्हें गुजरात में नीच जाति नहीं समझा जाता. समुदाय की शाकाहारी आदतें भी उनके वैश्य होने की तरफ इशारा करती हैं ना कि शूद्र. मोध घांची पारंपरिक रूप से साक्षर होते हैं, जैसा कि व्यापारियों को होना चाहिए. उनके शूद्र ना होने का यह एक अन्य संकेत है. जाति के नियमों के अनुसार शूद्रों पर लिखने-पढ़ने की पाबंदी है और इस नियम का उल्लंघन करने पर सख्त सजा के प्रावाधान हैं. जब पहली बार मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं, मोध घांची इस सूची में नहीं थे. गुजरात सरकार ने उन्हें अन्य पिछड़ी जाति का दर्जा 1994 में दिया और केंद्र सरकार ने 1999 में उन्हें इस सूची में शामिल किया. इसके दो साल बाद मोदी गुजरात के मुख्य मंत्री बने. राज्य के 2002, 2007 और 2012 के विधान सभा चुनावों में मोदी ने खुद को पिछड़ा दिखाने में कोई फायदा नहीं समझा. तब उन्होंने खुद को एक बनिए के रूप में पेश किया. चूंकि बनिया समुदाय देश का अब तक का सबसे ताकतवर औद्योगिक और व्यापारिक समुदाय है, उसने मोदी को अपने में से ही एक माना और उनका स्वागत दोनों बाहें फैला कर किया. यह सिर्फ 2014 के आम चुनावों के दौरान हुआ कि मोदी को अचानक अपने पिछड़े होने का ख्याल आया.

अपने राजनीतिक जीवन के अधिकांश दौर में नरेन्द्र मोदी ने स्वयं को बनिया बताया. बनिया उद्योगपतियों ने पार्टी के नंबर दो नेता अमित शाह का जोरशोर से साथ दिया. अनुपम नाथ/एपी

नरेंद्र मोदी एकमात्र ऐसे भाजपा नेता नहीं हैं जिन्होंने पिछड़े होने की श्रेणी का सामरिक इस्तेमाल किया है. सुशील कुमार मोदी, जो अब बिहार के उप मुख्यमंत्री हैं, एक बनिया परिवार में जन्मे जिसे अब अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल कर लिया गया है. कई राज्यों, खासकर उत्तर भारत में, बनियों के कुछ तबकों ने खुद को इस सूची में डलवाने में सफलता हासिल की है. यह एक रहस्य ही है कि कैसे इन समुदायों ने खुद को इस सूची में शामिल करवा लिया, जबकि वर्ण, संपत्ति, पेशे, और साक्षरता के हिसाब से ये समुदाय इस श्रेणी में नहीं आते. बनियों को एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनाने के पीछे यह एक चुनावी रणनीति भी हो सकती है.

सभी शूद्रों की इससे आंखें खुल जानी चाहिए. ओबीसी श्रेणी उन लोगों के लिए बनाई गई थी जो वर्ण व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर थे ताकि उनके असल सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को संबोधित किया जा सके. लेकिन कुछ समूह इसे अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. शूद्रों को इस भुलावे में रखा जाता है कि उनका नेतृत्व वे नेता और पार्टियां कर रही हैं जिनका उनकी परेशानियों, हितों और संस्कृति से कोई सीधा संबंध नहीं है और इसी वजह से वास्तविक शूद्रों के प्रतिनिधियों को सत्ता से दूर रखा जाता है.

शूद्रों के बीच एक समतुल्य रुझान देखने को मिलता है, जिसमे अंत: वर्ण वर्गीकरण में नीचे के स्तर पर कुछ जातियां अनुसूचित जातियों का दर्जा चाहती हैं ताकि उसके साथ आने वाले सरकारी फायदे उन्हें भी मिल सकें. उनके दावों को विवेचनात्मक नजरिए से देखने की जरूरत है, खासकर दलितों के, ताकि दलित जातियों पर शूद्रों की ताकत को थोपने से बचाया जा सके. शूद्रों के दलितिकरण के रूप में जो उच्च शूद्रों में बिलकुल उल्टी दिशा में संस्कृतिकरण की तरफ जा रहा है, यह जरूरी हो जाता है कि इससे जातिगत टकराव ना बढ़ें बल्कि इसका इस्तेमाल जाति के खिलाफ संघर्ष में एकजुटता बढ़ाने के लिए हो.

मोदी के नेतृत्व में 2014 में भाजपा की जीत का मतलब था कि राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था पर अब बनिए काबिज हो चुके थे. मोदी का समर्थन बनिए उद्योगपति जैसे गौतम अडानी और अंबानी कर रहे थे और उनकी सरकार भी बदले में उन्हें बढ़ावा दे रही थी. मोदी के नंबर दो के आदमी, अमित शाह, को भाजपा का अध्यक्ष बना दिया गया जिसका मतलब था कि अब एक बनिया एक सत्तारुढ़ पार्टी का सर्वोसर्वा था. अगर भाजपा पहले एक “ब्राह्मण-बनिया” पार्टी के रूप में मशहूर थी तो अब उसने खुद को एक “बनिया-ब्राह्मण” पार्टी के रूप में स्थापित कर लिया है.

अपने राजनीतिक जीवन के अधिकांश दौर में नरेन्द्र मोदी ने स्वयं को बनिया बताया. बनिया उद्योगपतियों ने पार्टी के नंबर दो नेता अमित शाह का जोरशोर से साथ दिया. मनीष स्वरूप/एपी

इस योजना में शूद्रों की स्थिति को समझने के लिए हम एम वेंकैया नायडू के साथ किए गए बर्ताव में देख सकते हैं जिन्हें 2017 में कई महत्वपूर्ण कैबिनेट पदों से इस्तीफा देने को मजबूर किया गया और उपाध्यक्ष के औपचारिक पद तक सीमित कर दिया गया. आज वे सरकार में सबसे प्रमुख शूद्र चेहरे के रूप में अपनी भूमिका तो निभा रहे हैं लेकिन उनसे तमाम शक्तियां छीन ली गई हैं. या हम इसकी मिसाल एन चंद्रबाबू नायडू, आंध्र प्रदेश के शूद्र मुख्यमंत्री, में भी देख सकते हैं. उन्होंने भी 2014 में नई सरकार की खूब बढ़-चढ़कर पैरवी की थी जिसके बदले में उनके राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने का वादा किया गया था. लेकिन सत्ता में एक बार काबिज हो जाने के बाद मोदी-शाह ने अपना वादा नहीं निभाया और उन्हें भी दुत्कार दिया. बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने भी कुछ ऐसा ही करार, मोदी-शाह के साथ किया और अब वे भी बेइज्जत होने की कतार में हैं.

बनिया पूंजी की जरूरतों को पूरा कर मोदी ने अपना दबदबा बनाया ना कि शूद्रों की जरूरतों को पूरा करके. यह उनकी बनिया जड़ों और ओबीसी प्रमाण-पत्र का मिलाजुला नतीजा ही है जो उन्हें वर्तमान भाजपा का एक आदर्श चेहरा बनाता है. पार्टी अपनी संख्यात्मक ताकत के लिए शूद्र वोटरों पर निर्भर करती है, अगर यही सब पर्याप्त होता तो उसे अन्य शूद्र नेताओं का समर्थन करना चाहिए था. लेकिन ओबीसी कार्ड का इस्तेमाल करते हुए बनियों का तुष्टिकरण मोदी से बेहतर कोई नहीं कर सकता था.

इससे पहले बनियों की राजनीतिक ताकत आजादी के वक्त परवान चढ़ी थी जब वे दो कद्दावर नेताओं – मोहनदास करमचंद गांधी और राम मनोहर लोहिया – पर भरोसा कर सकते थे. नेहरु के दौर में, जब कांग्रेस पर ब्राह्मणों का वर्चस्व था, वे राष्ट्रीय राजनीति के परिदृश्य में अद्रश्य हो गए, हालांकि उनका व्यवसाय, उद्योग और निजी प्रेस के जरिए खासा वर्चस्व बना रहा. बनियों ने फिर जन संघ शुरू करने की तरफ रुख किया, जिसने कालांतर में भाजपा का रूप ग्रहण किया. लेकिन वहां भी हाल तक नेतृत्व, ब्राह्मणों के हाथों में ही बना रहा.

अपने रुतबे की अवज्ञा करते हुए, यहां तक कि ब्राह्मणों को पीछे धकेलते हुए, बनियों ने राष्ट्रीय सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना अपने लिए कैसे मुमकिन बनाया? ब्राह्मणों की सन्यासी मूल्य परंपरा के अनुसार बतौर व्यापारी उनके काम को कभी हेय दृष्टि से देखा जाता था. ठीक वैसे ही जैसे शूद्रों के श्रम और कृषि उत्पादन को आज भी देखा जाता है. हालांकि बनियों की जाति और उनके जातिगत पेशे को अब सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. यह बदलाव कैसे संभव हुआ, जबकि शूद्रों के काम और उनके रुतबे में प्राचीन समय से कोई बदलाव नहीं आया है? इस प्रश्न पर शूद्रों को गंभीरता से विचार करना चाहिए क्योंकि उनके लिए यह एक मिसाल के रूप में काम कर सकता है और उन्हें उनके हाशिए पर बने रहने और उत्पीड़न को समझने में मददगार साबित हो सकता है.

इसका एक सीधा जवाब मुद्रा हो सकता है. जब जाति-आधारित समाज में उदारवादी पूंजीवाद का प्रवेश होता है तो जो समूह उससे सबसे अधिक फायदा उठाते हैं वे वही समूह होते हैं जिनका सदियों से जाति व्यवस्था के आधार पर व्यापारिक पूंजी पर एकाधिकार रहा है. वैश्विक बाजार में भारत के उभरने से देश की पूंजी और अर्थव्यवस्था पर बनियों के वर्चस्व को और पुख्ता कर दिया; और सम्पदा, रुतबे को अपने साथ लेकर आती ही है.

लेकिन यह कहानी का सिर्फ एक पहलू है. बनिये तब से अमीर हैं जब उनकी सामाजिक और राजनीतिक साख उतनी ऊंची नहीं थी. बाद के औपनिवेशिक काल में ही बनियों के पास बेशुमार दौलत थी, लेकिन ब्राह्मणें के आगे वे फिर भी बौद्धिक रूप से हीन भावना का शिकार थे. दौलत, इस भाव से पार पाने के लिए काफी नहीं थी. अपनी पारंपरिक सामाजिक हैसियत के इस वैचारिक बंधन को तोड़ने के लिए उन्हें विचारक पैदा करने थे. आज वे जिस स्थिति में हैं उन्हें वहां लाने के लिए, मोहनदास करमचंद गांधी और राम मनोहर लोहिया का बहुत बड़ा हाथ है, ना केवल राजनीतिज्ञों के रूप में बल्कि विचारकों के रूप में भी, जिन्होंने भारतीय सोच को प्रभावित किया. दोनों ही बनिए, जमीनी बुद्धिजीवी थे. दोनों को ही प्रतिष्ठित पश्चिमी शिक्षा प्राप्त थी; और दोनों को ही अंग्रेजी भाषा में महारत हासिल थी. दोनों ने ही खूब लिखा और छपे भी. ब्राह्मण  विचारकों के बीच दोनों ने अपनी खूब प्रतिष्ठा स्थापित की तथा स्वतंत्रता आंदोलन और गणतंत्र के शुरूआती दिनों को दिशा प्रदान की. इसने बनियों की प्रतिष्ठा और आत्म-सम्मान को बहुत ऊंचा उठा दिया.

गांधी खासकर ब्राह्मण के लिए खासे कारगर साबित हुए. उनकी सार्वजनिक छवि और व्यक्तिगत आदतें – उनका पहनावा, उनके व्रत, उनका शाकाहार, ब्राह्मण अनुष्ठानों में शुचिता को लेकर उनका जुनून – ब्राहमण दर्शन के सन्यासीनुमा जीवन पद्धति से बहुत कुछ मिलता-जुलता था. एक बनिया, ब्राहमण तौर-तरीकों को अपनी श्रद्धांजलि दे रहा था. आधुनिक भारतीय राजनीति में औद्योगिक पूंजी के लिए रास्ता खोलने में गांधी का योगदान उतना ही महत्वपूर्ण था. सार्वजनिक रूप से गांधी, औद्योगिक पूंजी के खिलाफ थे और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वापसी की वकालत करते थे. निजी तौर पर उन्हें बनिया उद्योगपतियों से समर्थन लेने और बड़े व्यवसायों को बढ़ावा देने में कोई परहेज नहीं था. उनके संरक्षण में बिड़लाओं और गोयंकाओं ने खासकर भरपूर कमाया और बदले में उन्होंने उदारदिली से दिया भी. वे गांधी के इस सार्वजनिक शब्दाडम्बर से कत्तई भी विचलित नहीं थे. यह गौरतलब है कि गांधी की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की परिकल्पना जाति-आधारित आदर्श श्रम विभाजन से उपजती है. उन्होंने छुआछूत के खिलाफ तो बोला लेकिन कभी भी जाति व्यवस्था के खिलाफ नहीं. कारगर रूप से उन्होंने वाणिज्य और पूंजी पर वैश्यों के एकाधिकार की पैरवी की और शूद्रों और दलितों को उनके द्वारा शोषण के लिए खुला छोड़ दिया.

स्वतंत्र भारत के सत्ताधारियों ने तब से अधिकतर, गांधी का ही अनुसरण किया है. कुछ ही ऐसे राजनीतिज्ञ हुए हैं, चाहे वे ब्राह्मण या कोई और, जो बनियों और उनकी पूंजी को नजरंदाज करना गंवारा कर सकते हों. यह बात उन राजनीतिज्ञों पर भी लागू होती है जिन्होंने गांधी की ही तरह सार्वजानिक रूप से उन हाथों की भर्त्सना की, जो उनके मूंह में निवाला डालते हैं. गांधी का राजनीतिक दर्शन उद्योगों से उत्पन्न वाणज्यिक पूंजी तथा ब्राह्मणवाद से उत्पना सांस्कृतिक पूंजी पर निर्भर करता था. बनियों का एक समुदाय के रूप में खुद को स्थापित करना, इसी मुख्य आधार में प्रतिबिंबित होता है: उनके पास पूंजी की अपार ताकत थी और उन्होंने ब्राह्मणों के तौर-तरीके अपना लिए थे. गांधी ने भारतीय समाज और सत्ता में बनियों के बराबरी के दावे को समाविष्ट किया.

लोहिया के साथ बनियों का संबंध ज्यादा पेचीदा था. वे उनकी बौद्धिकता और ब्राह्मण नेहरु के नेतृत्व को खुली चुनौती का लौहा मानते थे. लेकिन बनियों ने लोहिया का उतना साथ नहीं दिया जितना गांधी का, क्योंकि लोहिया एक पक्के समाजवादी थे और उनके निहित हितों के लिए एक संभावित खतरा.

अपने समाजवादी एजेंडे पर काम करने के लिए 1948 में कांग्रेस छोड़ने के बाद, लोहिया ने अनजाने में ही सही लेकिन बनियों के राजनीतिक उत्थान में सहयोग दिया. उनकी कांग्रेस विरोधी राजनीति की वजह से कई शूद्र पार्टी से अपने निष्कासन से हताश हुए क्योंकि इसकी वजह से ब्राह्मणों का वर्चस्व फिर से कायम हो गया था. लोहिया का समाजवाद, जिसमे गांधी और मार्क्स के विचारों का समावेश था, शूद्र राजनैतिक लामबंदी का प्रमुख आधार बना और बना रहा, खासकर, उत्तर भारत में. लोहिया ने शूद्र जनों को बनियों के नेतृत्व की तरफ देखने के लिए प्रेरित किया और इसी वजह से मोदी-शाह आज तक उसका फायदा उठा रहे हैं. शूद्रों के मध्य लोहिया की प्रतिष्ठा इसलिए भी संभव हो पाई क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक और बौद्धिक मसलों में शूद्रों के नेतृत्व में एक रिक्तता मौजूद थी. उस दौर में सबसे महत्वपूर्ण शूद्र लामबंदी हमें उस समय के मद्रास स्टेट में द्रविड़ आन्दोलन के रूप में देखने को मिलती है. लेकिन पेरियार समेत इसके नेताओं को इसकी परिधि के बाहर कोई खास स्वीकृति नहीं मिली. हालांकि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सैकड़ों शूद्र, स्थानीय नेताओं के रूप में उभरे लेकिन कोई एक भी राष्ट्रीय स्तर के नेता के रूप में स्थापित नहीं हो पाया.

इसमें एक अपवाद जरूर था. उस दौर के शूद्र नेताओं में वल्लभभाई पटेल सबसे जाना-पहचाना चेहरा था. पटेल के पास अंग्रेजी डिग्री थी और वे एक सक्षम वकील भी थे. लेकिन उनके बौद्धिक क्षितिज का एक सीमित दायरा था. गांधी और नेहरु की तरह उन्होंने कभी भी ऐतिहासिक, दार्शनिक, और धर्मशास्त्र के मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया. गांधी ने एक किसान नेता के रूप में, उनके जन आकर्षण का इस्तेमाल किया और बाद में नेहरू ने उन्हें एक आदेशों को लागू करवाने वाले के रूप में. वे “सरदार” और भारत के “लौह पुरुष” के रूप में जाने गए, जिनमें वह बौद्धिक और दार्शनिक अर्थ नहीं छिपा था. इसकी तुलना कीजिये गांधी को दिए गए “महात्मा” नाम से या नेहरू को दिए गए “पंडित” से. पटेल हमेशा गांधी और नेहरू के अधीनस्थ ही बने रहे और उन्होंने कभी भी खुद के लिए कांग्रेस से अल्हदा स्वतंत्र रास्ता तलाशने का प्रयास नहीं किया. उन्होंने शूद्रों को सशक्तिकरण का कोई दर्शन भी नहीं दिया.

इस सन्दर्भ में एक और महत्वपूर्ण शख्सियत, जिनका अध्ययन जरूरी है, वो हैं – बी.आर. अंबेडकर. उनका जन्म एक ऐसी जाति में हुआ जिसे ब्राह्मणवाद अछूत मानता था. उन्होंने भी अंग्रेजी में महारत हासिल की और पश्चिम से शिक्षा ग्रहण की. और गणतांत्रिक भारत को शक्ल प्रदान करने वाले बौद्धिकों के बीच अपनी स्वीकृति मनवाने के लिए गांधी और लोहिया की बनिस्बत अधिक पूर्वाग्रहों का सामना किया. उनका उदाहरण हमें दौलत के अभाव में भी, जिसका इस्तेमाल बनियों ने किया, खुद को ऊंचा उठाने के यंत्र के रूप में दर्शन की ताकत दर्शाता है. उन्होंने जाति उत्पीड़न के सबसे अधिक शिकार लोगों को तरक्की का रास्ता दिखाया. इसमें आत्म-सम्मान और ब्राह्मणवाद को पूर्णत: खारिज करते हुए एक अल्हदा दलित पहचान बनाना भी शामिल था, जिसे वे एक दूसरे का पूरक समझते थे.

ऐतिहासिक रूप से जाति व्यवस्था व्यवसाय के साथ जुड़ी है. बनिया जैसी वैश्य जातियों को व्यपार और शूद्रों को कृषि अर्थव्यवस्था में उत्पादन तथा श्रम का कार्य सौंपा गया है. न्यू यॉर्क पब्लिक लाईब्रेरी

ब्राह्मणवाद को कमजोर करने में अंबेडकर का फलसफा कुछ हद तक सफल रहा है, लेकिन शूद्रों को इसकी ताकत कभी समझ नहीं आई. अगर वे इस विचारधारा या इससे मिलती-जुलती किसी और विचारधारा के साथ चलते, जिसमे उनका ध्यान उनके उत्पीड़न में राज्य और धर्म की भूमिका पर होता, तो उनकी स्थिति आज कहीं भिन्न हो सकती थी. इसकी बजाय उन्होंने क्षेत्रीय नेताओं का रुख किया, जो आत्म-सम्मान के नाम पर जाति-आधारित दुराग्रहों को बढ़ावा दे रहे थे; और एक ऐसे समाजवाद की बात कर रहे थे जो आर्थिक आजादी की बात तो करता था, लेकिन जाति उत्पीड़न की कभी नहीं. गणतांत्रिक भारत के शुरूआती इतिहास में बनियों को ब्राह्मणवादी संस्कृति के सामने औद्योगिक और व्यापारिक ताकत से जोड़कर उन्हें उनकी पिछली स्थिति से ऊपर उठने के रास्ते दिखाए गए. गांधी इस प्रयास में उनका मसीहा था. आज जो प्रतिष्ठा उन्हें हासिल है उसे हासिल करने के लिए उन्होंने तब से अब तक कहीं ज्यादा तरक्की की है. अंबेडकर ने दलितों के लिए बिलकुल अलग रास्ता इख्तियार किया और उन्हें भी कुछ हद तक सफलता प्राप्त हुई है. 

शूद्रों को उनके फंदे से निकालने का रास्ता दिखाने वाला कोई नहीं था. इसी वजह से वे वहीँ बने रहे जहां वे थे – ब्राह्मणवाद द्वारा तय किए गए अपनी कमतर आध्यात्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति में. अगर शूद्रों को ब्राह्मणों के फंदे से निकलना है तो उन्हें अपने खुद के पथ प्रदर्शकों की दरकार होगी. आज के प्रमुख शूद्र राजनेता ना केवल क्षेत्रीय बंधनों में बंधे हैं बल्कि उनकी अपनी बौद्धिक सीमाएं भी हैं.

राम मनोहर लोहिया ने शूद्रों को बनिया नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए प्ररित किया. लोहिया का समाजवाद आज भी शूद्रों के राजनीतिक मोबलाइजेशन के लिए मुख्य आधार है, खासतौर पर उत्तर भारत में.

आज के सबसे प्रमुख शूद्र राजनेताओं में से किसी को भी, किसी भी स्तर का, बुद्धिजीवी नहीं कहा जा सकता. ना ही उनके पास कोई भविष्य दृष्टि है, जो वे अपने समर्थकों को अगले चुनाव के बाद के लिए दे सकें. वे जाति और क्षेत्र के परे तमाम शूद्रों को एकता के बंधन में बांधने और उन्हें ऊपर उठाने के रास्ते की कल्पना तक नहीं कर सकते. इस तरह के काम की कल्पना का काम शूद्र बुद्धिजीवियों का भी है, लेकिन वहां भी कोई ऐसा नहीं है जो राष्ट्रीय स्तर पर इस सामाजिक-राजनैतिक और दार्शनिक भूमिका को निभा सके.

यह एक कड़वी सच्चाई है, जिसे शूद्रों को बदलना होगा. लेकिन इससे पहले कि हम इसमें किसी बदलाव की सोचें हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि शूद्र किस-किस तरह के बंधनों में खुद को फंसा पाते हैं. ब्राह्मणवाद की पकड़ तीन हजार साल पुराने वैदिक लेखन तक जाती है. इस लेखन ने एक ऐसा दर्शन स्थापित किया, जिसने तमाम उत्पादनकारी श्रम और विज्ञान को कलंकित कर दिया और उसके ऊपर भौतिकवाद-विरोधी और अनउत्पादक ब्राह्मणों की आध्यात्मिकता के वर्चस्व को कायम कर दिया. इस विचारधारा को अन्यों ने चुनौती दी, लेकिन मध्य काल तक आते-आते, करीब 1200 साल पहले, ब्राह्मणों का प्रभुत्व गहरे और व्यापक रूप से स्थापित हो चुका था.

इसके तहत शूद्रों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे समाज के अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए सभी आवश्यक चीजों का उत्पादन करें, लेकिन इसके बावजूद उन्हें यह करने के लिए उनसे उनकी गरिमा छीन ली गई और उन्हें तमाम आध्यात्मिक और शैक्षिक अधिकारों से वंचित रखा गया. उनका जीवन कठिन परिश्रम से बंधा था और उन्हें आराम के वक़्त से वंचित रखा गया ताकि उन्हें दर्शन जैसे विषयों के बारे में सोचने का समय ना मिल सके. ब्राह्मणों के लिए आरक्षित, पुरोहित के काम पर उनके लिए पाबंदी लगा दी गई. उन्हें लिखने-पढ़ने की भी आजादी नहीं थी. उनके उत्पीड़न के लिए जिम्मेवार, संस्कृत ग्रंथों की विवेचना तो दूर की बात है, उन्हें उनको छूने का भी अधिकार नहीं था. संपत्ति के अधिकार भी बहुत सीमित हद तक थे. उस समय की कई कीमती चीजें, दैविक चढ़ावे में दे दी जाती थीं लेकिन शूद्र ऐसा नहीं कर सकते थे, क्योंकि उन्हें डर था कि उनका निचला दर्जा उन पर दाग लगाने का काम करेगा. इसलिए तरक्की के दो महत्वपूर्ण रास्ते उनकी पहुंच के बाहर थे: आध्यात्मिक दर्शन हासिल करना और व्यापार के जरिए दौलत का संचयन. शूद्रों को संपत्ति का अधिकार पाने के लिए मुसलमान शासकों के आने का इंतजार करना पड़ा. शूद्र जमींदारी धीरे-धीरे अस्तित्व में आई, लेकिन कुछ चुनींदा जातियों को ही इसका फायदा पहुंचा जिसने वर्ण व्यवस्था के विभाजन को और भी तीखा बना दिया. जमींदारी अपने साथ नए विचारों की संपदा नहीं लाई. मुसलमानों के शासन ने ब्राह्मणों की सत्ता पर कोई गहरा कुठाराघात नहीं किया. शिक्षा और अध्यात्म पर उनका वर्चस्व कमोबेश कायम रहा. शूद्रों के मस्तिष्क पर भी उनकी पकड़ ज्यूं की त्यूं बरकरार रही.

क्रिश्चियन मिशनरी स्कूलों और अंग्रेजों के शासन के आखिरी दौर में अनिवार्य सर्व शिक्षा से इसे पहली चुनौती औपनिवेशिक काल में ही मिली. शूद्रों ने अंग्रेजी शिक्षा को अपनाने की बजाए इसके खिलाफ ब्राह्मणों के राष्ट्रवादी प्रचार में खुद को बहने दिया और इसे नहीं अपनाया. ब्राहमण बाल गंगाधर तिलक, इस विरोध के प्रतीक बने. महाराष्ट्र में महिलाओं और उत्पीड़ित जातियों की शिक्षा के लिए ज्योतिराव और सावित्रीबाई फुले, दोनों शूद्र, अपना पथ प्रदर्शक आंदोलन स्थापित कर चुके थे. तिलक ने उनकी इस मुहिम की आलोचना अपने ब्राह्मण नजरिए से की. उन्होंने सर्व शिक्षा के आह्वाहन का विरोध यह कहकर किया कि महिलाओं और उत्पीड़ित जातियों को शिक्षित करने से जातिवादी ढांचे को खतरा पैदा हो सकता है और भारतीय राष्ट्र ही खतरे में आ सकता है. ब्राह्मण राष्ट्रवादियों ने मिशनरी स्कूलों को अस्तित्ववादी खतरे के रूप में प्रस्तुत किया और उनकी खिलाफत की. इसमें अधिकतर शूद्रों ने राष्ट्रवादियों का समर्थन किया. इस बीच कई ब्राह्मणों ने अंग्रेजी शिक्षा को अपनाया. विलियम कैरी, एक क्रिश्चियन मिशनरी, और राम मोहन रॉय, एक बंगाली ब्राह्मण, ने उन्नीसवीं सदी में कलकत्ता में मशहूर अंग्रेजी माध्यम स्कूल की स्थापना की. इसके तुरंत बाद बनियों ने भी पश्चिमी भारत में ऐसे ही अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की स्थापना कर डाली. इन दोनों वर्णों ने अपने बेटों को बड़े जोर-शोर से अंग्रेजी स्कूलों में भेजना शुरू किया. जब अंग्रेज़ीदां भारतीयों के लिए अंग्रेजी शासन ने प्रशासनिक और कानूनी नौकरियों में भर्ती की शुरूआत की तो यही लोग थे जिन्होंने वे नौकरियां हथियाईं. नेहरू, लोहिया और गांधी इसी दौर की पैदाइश हैं.                      

जब अंग्रेज गए तो स्वतंत्र भारत की सरकार में, ब्राह्मणों ने बड़ी सहजता से उनकी जगह हथिया ली. अब उनका आध्यात्मिक और धार्मिक संस्थानों के अलावा, नौकरशाही और राजनैतिक ताकत पर भी पूरा नियंत्रण था. नेहरू प्रधानमंत्री बन गए. उनके 17-वर्षीय शासन ने, आज़ाद हिन्दुस्तान के शैक्षिक ढांचे को पुख्ता कर दिया. ब्राह्मण और कुछ अन्य कुलीन, जिनमें कई बनिए भी शामिल थे, महंगे अंग्रेजी माध्यम निजी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने लगे. बाकि सभी को गरीब सार्वजनिक स्कूलों में शिक्षा मिली, जहां पढ़ाई प्रादेशिक भाषाओं में होती थी. शीर्ष के सरकारी सहायता-प्राप्त विश्वविद्यालय, कुलीन निजी स्कूलों के स्नातकों को ही अपने “मेरिट” के मानदंड के आधार पर प्राथमिकता देते आ रहे हैं, ताकि उच्च शिक्षा को पहले से ही अमीर और प्रभावशाली तबको के लिए सस्ता बनाया जा सके.

मंडल आयोग के आरक्षण प्रावधानों के आने के बाद, अंतत: शूद्रों को भी अर्थपूर्ण उच्च शिक्षा प्राप्त करने का मौक़ा मिला. लेकिन विश्वविद्यालय और उसके परे उन्हें दो तरह की विरासतों का सामना करना पड़ा. पहली थी अंग्रेजी में उनका हाथ तंग होना. दलितों और आदिवासियों की तरह अधिकतर शूद्र, अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजते हैं, जहां पढ़ाई प्रादेशिक भाषाओं में होती है. इस लिहाज से ब्राहमणों और बनियों की तुलना में, वे भाषाई ज्ञान में लगभग दो सदी पीछे हैं.          

उनमें से अधिकतर, ब्राह्मणों के इस प्रचार की रौ में बह जाते हैं कि प्रादेशिक भाषाओं का राष्ट्रवाद ही उनकी असली धरोहर है, जो कि सच नहीं है. शूद्रों ने कभी यह मांग नहीं रखी कि देश के तमाम सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी में शिक्षा दी जानी चाहिए. देश के शीर्ष सार्वजनिक और निजी विश्वविद्यालय, अंग्रेजी माध्यम में काम करते हैं लेकिन जब तक शूद्र इन संस्थानों में पहुंचते हैं तब तक उनके लिए अपनी अंग्रेजी सुधारने का वक्त गुजर चुका होता है.

इससे उनका प्रदर्शन और उनकी स्नातकोत्तर संभावनाएं प्रभावित होती हैं. केवल प्रादेशिक भाषा में दक्षता उनके लिए मौकों को महज प्रादेशिक स्तर तक ही सीमित कर देती है. अब यह सही है या गलत, लेकिन सच यही है कि भारत में सबसे ऊंचे स्तर पर व्यवसाय, नौकरशाही, कूटनीति, मीडिया, शिक्षा और भी बहुत कुछ मुख्यत: अंग्रेजी भाषा में ही काम करता है. वैश्विक स्तर पर काम करने वाले संस्थानों में भी अंग्रेजी ही चलती है. दलितों और आदिवासियों को तो छोड़ ही दीजिए, शूद्रों के लिए भी इस दुनिया में कोई जगह नहीं है. अंग्रेजी-भाषी दुनिया में प्रभावी रूप से उनकी गिनती आज भी निरक्षरों में होती है, जहां ब्राह्मण और बनिए पश्चिमी कुलीनों के साथ बराबरी के स्तर पर काम करते हैं. दूसरी विरासत है दर्शनशास्त्र में उनकी दिलचस्पी का सम्पूर्ण अभाव. यहां तक कि डर की हद तक. बतौर प्रोफेसर मेरे अनुभव के अनुसार एक शूद्र विद्यार्थी का सबसे बड़ा सपना डॉक्टर, इंजिनियर, नौकरशाह, या, ज्यादा से ज्यादा, राजनीतिज्ञ बनना होता है. सामाजिक या राष्ट्रीय विचारों को प्रभावित करने के लिए उनके सपनों में एक विचारक या लेखक बनना कभी नहीं रहा. यह समस्या सिर्फ शूद्र विद्यर्थियों तक सीमित नहीं है. जब मैं उस्मानिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाता था, जहां अधिकतर वरिष्ठ फैकल्टी सदस्य शूद्र थे, मेरे साथियों की दिलचस्पी दार्शनिक विषयों पर बहस करने में विरले ही हुआ करती थी. उनके सरोकार का दायरा स्थानीय स्तर पर सत्ता, राजनीति, और पैसे तक ही सीमित रहता; लेकिन वे कभी भी ज्ञान पर दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ने के बारे में विचार नहीं करना चाहते. यह हजार सालों के ब्राह्मणों की धमकियों का असर था.

यही असर अंग्रेजी के प्रति शूद्रों के दृष्टिकोण में भी देखने को मिलता है. पीड़ी-दर-पीड़ी उन्हें पंडितों की भाषा, संस्कृत से डरना सिखाया गया है. अब चूंकि ब्राह्मणों ने अंग्रेजी में महारत हासिल कर ली है, शूद्रों के लिए यह नई पंडितों की भाषा बन बैठी. वे इसे एक विदेशी भाषा के रूप में देखते हैं, जिसे किसानों द्वारा नहीं सीखा जा सकता. यही वजह है कि अमीर शूद्र भी, जो अपने बच्चों को निजी अंग्रेजी-माध्यम स्कूलों में डालना गंवारा कर सकते हैं, हमेशा ऐसा नहीं करते. इस बीच ब्राह्मण-बनिया जातियां, अंग्रेजी के प्रति वैसी ही ईर्ष्या का भाव रखने लगी हैं जैसा कि वे कभी संस्कृत के प्रति रखा करतीं थीं. कुलीन अंग्रेजी-माध्यम स्कूल और विश्वविद्यालय, जो कभी एकमात्र क्रिस्चन संस्थान हुआ करते थे, अब उत्तरोत्तर ब्राह्मणों और बनियों के नियंत्रण वाले निजी संस्थान बनते जा रहे हैं. ये संस्थान मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का विरोध करते आये हैं. उदहारण के लिए दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में, ओबीसी समुदाय के लिए किसी किस्म का आरक्षण नहीं है. इसके भूतपूर्व छात्रों में, ब्राह्मण-बनिए बुद्धिजीवियों की एक लंबी सूची शामिल है. इसने कभी भी ऐसा दलित या शूद्र बुद्धिजीवी पैदा नहीं किया, जो देश के जीवन पर ब्राह्मण-बनिया पकड़ को चुनौती दे पाता.

स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े शूद्र नेता वल्लभभाई पटेल का बौद्धिक रुतबा नहीं है. वे पहले गांधी और बाद में नेहरू के नीचे रहे. विट्ठलभाई झावेरी/दिनोदिया

इन कारकों पर जब हम नजर डालते हैं तो हमें मालूम पड़ता है कि क्यों इतने विशाल शूद्र समुदाय ने एक भी अंबेडकर पैदा नहीं किया, जो अंग्रेजी बोल सकता हो, जो पश्चिम से शिक्षा प्राप्त राष्ट्रीय महत्ता का नेता हो, और जो शूद्रों की अस्मिता और उत्पीड़न को आधुनिक विमर्श में शामिल करते हुए लिख सके, जैसा कि उन्होंने दलितों के लिए किया था. इस गैर-मौजूदगी का यह नतीजा निकला कि शूद्रों का उत्पीड़न आज भी राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा नहीं है, यहां तक कि प्रगतिशील तबकों के बीच भी. अंबेडकर के पिता की तरह, कई शूद्रों के पिता भी ब्रिटिश सेना में थे और अपने बच्चों को वैसे ही स्कूलों में भेज सकते थे जैसे स्कूल में अंबेडकर ने शिक्षा प्राप्त की. लेकिन कुछ ही शूद्रों ने ऐसा किया. यह मेरी समझ से बाहर की बात है कि जब अंबेडकर का परिवार अपनी जाति की सीमाओं को तोड़ने का साहस कर सकता था, तो इतने सारे शूद्र परिवार ऐसा करने का साहस क्यों नहीं जुटा पाए.

शूद्रों में हीन भावना की सबसे गहरी जड़ें आध्यात्मिक स्तर पर पैठी हैं. उन्होंने इस विचार को आत्मसात कर लिया है कि ज्ञान का शीर्षस्थ क्षेत्र उनके बूते के बाहर का मसला है और इस विचार के पीछे गहरे तक पैठी गैरबराबरी की अवधारणा है. यह केवल ब्राह्मण-नियंत्रित आध्यात्मिक व्यवस्था के कारण है, जिसने शूद्रों को लगभग यह यकीन दिला दिया है कि उनके पास वे अधिकार नहीं हैं जो प्रभुत्वशाली जातियों के पास हैं, यहां तक कि ईश्वर की नजर में भी. इस अवधारणा को लागू करने के लिए ब्राह्मणों के पास सबसे प्रभावशाली हथियार है पुरोहिताई और उन्होंने इस पर अपना एकाधिकार बनाए रखा है. कोई भी शूद्र, कभी भी तिरुपति या पुरी के मशहूर मंदिरों में पुरोहित नहीं बना. यहीं क्यों, किसी भी छोटे-बड़े हिंदू मंदिर में भी नहीं बना. पुरोहिताई की कामना तक की मनाही, शूद्रों के दर्शनशास्त्र और बौद्धिक विकास के प्रति उदासीन होने की मुख्य वजह रहा है क्योंकि दर्शनशास्त्र की सबसे पुरानी जड़ें धार्मिक विमर्श में रही हैं.

जब तक वे इससे नहीं उबरते, शूद्र अपने बारे में सोचने का साहस नहीं जुटा सकते और ब्राह्मणवादी अध्यात्म, सामाजिक और राजनैतिक विचार के आगे नतमस्तक रहना जारी रखेंगे. पिछले साल केरल के एक धार्मिक बोर्ड ने पहली बार मंदिरों के पुरोहित चुनने के लिए वही आरक्षण नीति अपनाई जो वह सरकारी भर्तियों के दौरान अपनाती है. इसका मतलब हुआ, 62 में से 30 पुरोहित, जो सरकार ने नियुक्त किए, वे शूद्र थे और उनमे से छह दलित. ब्राहमण आधिपत्य को तोड़ने के लिए यह एक जरूरी कदम था, लेकिन सच्चाई यह है कि आज इस तरह के कदम पूरे देश भर में उठाए जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती.v

बौद्ध धर्म अपनाकर बी. आर. अंबेडकर ने दलितों को अध्यात्मिक और राजनीतिक मुक्ति का रास्ता दिखाया. शूद्र समझ नहीं पाए कि अंबेडकर का दर्शन उनकी दुर्दशा की भी बात करता है. एल्मी

शूद्र, अंग्रेजी भाषा में अपनी दक्षता सुधारने को लेकर कभी गंभीर नहीं हुए. ना ही उन्होंने कभी दर्शनशास्त्र और बौद्धिक विकास में अपनी दिलचस्पी दिखाई. अगर उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में अपना निष्कासन समाप्त करना है, तो उन्हें इस स्थिति में बदलाव लाना होगा. लेकिन सवाल अब भी बना हुआ है कि शूद्र बुद्धिजीवियों के सामने कौन से रास्ते खुले हैं इस समुदाय की दुविधा से जूझने के लिए.

जल्द ही उन्हें एक बुनियादी चुनाव करना होगा कि उन्हें उनका उत्पीड़न करने वाले हिन्दू धर्म और इसकी राजनीति के प्रति वफादार बने रहना है या इसे ठुकराना है. इस चुनाव के महत्व को समझने के लिए, दो समुदायों, मराठों और सिखों, के द्वारा चुने गए रास्तों की तुलना करना सहायक सिद्ध होगा.

मराठे, ठेठ शूद्रों की तरह हैं जिन्होंने नव-क्षत्रीय रास्ता चुना. अपने निचले दर्जे को लेकर उनकी प्रतिक्रिया जाति दंभ की रही, जिसके केंद्र में 17वीं शताब्दी के सम्राट शिवाजी का विराट व्यक्तित्व है. अन्य उच्च शूद्र समूहों को भी पूरा यकीन है कि उन सभी ने इतिहास में कभी ना कभी एक महान शासक दिया है. मराठों का अपना कोई विचारक ना होने की वजह से, शिवाजी की जो प्रचलित छवि हमारे सामने पेश की जाती रही है, वह ब्राह्मणों द्वारा अपनी सुविधा के अनुसार गढ़ी गई है. यह छवि, शिवाजी की एक योद्धा के रूप में बहादुरी के किस्सों को तो प्रमुखता से दर्शाती है लेकिन एक सेनापति और राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी कुशाग्रता पर चुप्पी साधे रखती है. और इस तरह मराठों का जोर बुद्धिमत्ता से ज्यादा बहादुरी पर अटक जाता है. इस विवरण में कहीं भी उनके जाति-विरोधी सुधारों और ब्राह्मणों द्वारा उसके विरोध का जिक्र नहीं मिलता. मुगलों और यूरोप के उपनिवेशवादियों से उनके युद्धों का तो जिक्र किया जाता है, लेकिन उनके द्वारा मुसलमान सेनापतियों की नियुक्तियों की उपेक्षा की जाती है और इसी कारण मराठे शिवाजी को हिन्दू राष्ट्रवाद का प्रतिरूप मानने में गर्व का अनुभव करते हैं.

आज मराठे, हिन्दू धर्म और हिंदुत्व के शूरवीर हैं. ब्राह्मण-प्रभुत्व वाली भाजपा, महाराष्ट्र पर राज करती है और मुंबई के बनिए राज्य की वित्तीय राजधानी पर अपना वर्चस्व बनाए हुए हैं. आध्यात्मिक रूप से वे महाराष्ट्र के ब्राह्मणों का अनुसरण करते हैं और खुद पुरोहित बनने का ख्याल भी उनके जहन में नहीं आता. वे ओबीसी सूची में खुद को शामिल करने की मांग कर रहे हैं. लेकिन उनकी यह आस्था है कि वे अन्य शूद्रों से श्रेष्ठ हैं, जिसकी वजह से उनके ओबीसी सूची में शामिल होने की संभावनाएं कम हैं. इसी तरह की चालाकियां कई और गैर-ओबीसी शूद्रों के साथ भी की गई हैं.

ज्योतिराव फुले को मराठों का एकमात्र बुद्धिजीवी कहा जा सकता है. लेकिन उन्हें अखिल भारतीय महत्ता, पंजाब से आने वाले कांशीराम ने दिलवाई, ना कि किसी मराठे ने. मराठे उनको गर्व के भाव से याद नहीं करते क्योंकि वे हिन्दू सामजिक और आध्यात्मिक व्यवस्था के आलोचक थे, जिनकी विरासत को ब्राह्मणों और हिन्दू राष्ट्रवादियों ने दबा दिया. फुले ने शिवाजी को जाति-विरोधी सुधारक के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन यह सब मराठे भूल चुके हैं. अभी हाल ही में, मराठा तर्कशास्त्री गोविन्द पंसारे ने भी शिवाजी को समाज सुधारक के रूप में दिखाया. उनकी 2015 में ह्त्या कर दी गई.

ब्राह्मणों और बनियों के नियंत्रण से सफलतापूर्वक निकलने वाला एकमात्र शूद्र समूह सिखों का है. उन्हें यह करने के लिए हिन्दू धर्म से पूरी तरह से नाता तोड़ना पड़ा और अपनी खुद की आध्यात्मिक व्यवस्था कायम करनी पड़ी. उन्होंने गुरुग्रन्थ नाम से खुद का अपना धर्म ग्रन्थ रचा और खुद के धार्मिक केंद्र स्थापित किये. अकाली दल और कांग्रेस इकाई के जरिए, वे पंजाब की राजनीतिक ताकत पर नियंत्रण रखते हैं. शूद्रों से भिन्न, सिखों ने अपनी वैश्विक दृश्यता में भी इजाफा किया है और कनाडा जैसे देश में सत्ता के गलियारों में उनका रूतबा बढ़ता ही जा रहा है. आध्यात्मिक स्वतंत्रता ही उनकी सफलता का आधार रही है. प्रवासी भारतीयों में अगर कोई दूसरा समूह, ताकत और शौहरत के लिहाज से सफल रहा है तो वह है बनियों और ब्राहमणों का.

इसका यह मतलब कतई नहीं कि सिख धर्म पूर्णत: एक प्रगतिशील धर्म है. समूचे पंजाब में दलित सिखों को, जाट सिखों के हाथों भेदभावपूर्ण बर्ताव सहना पड़ता है. दलित सिख, सिख समुदाय और राज्य का अभिन्न और महत्वपूर्ण अंग हैं और जाट सिख भूतपूर्व शूद्र हैं, जिनका अब सिख धर्म पर पूरा वर्चस्व है. लेकिन ब्राह्मण-बनिया आधिपत्य आज के पंजाब में मुमकिन नहीं.

केरल के नायर, जिन्हें जाति व्यवस्था में शूद्र का दर्जा प्राप्त है, भी दिलचस्प उदाहरण पेश करते हैं. उनके एक बड़े हिस्से ने खुद को सीरियन क्रिस्चन में परिवर्तित कर और औपनिवेशिक दौर में अंग्रेजी भाषा को अपनाकर अपनी हैसियत में सुधार किया. उसी बुनियाद पर उन्होंने अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को हिन्दू नायरों तक भी पहुंचाया और इसी कारण इस समुदाय ने केरल और उसके बाहर धीरे-धीरे ख्याति प्राप्त की. कर्नाटक में लिंगायत समुदाय ने, शूद्र दर्जे के खिलाफ, जो उनके साथ ऐतिहासिक रूप से जुड़ा रहा है, लंबा संघर्ष किया, जिसकी पराकाष्ठा इस मांग पर आकर टिकी कि लिंगायत को हिन्दू धर्म से अलग धर्म माना जाए.

अधितकतर दलितों की तरह मराठों ने भी अपना कोई गुरू या बुद्धिजीवी पैदा नहीं किया, क्योंकि बतौर समुदाय उन्होंने कभी भी ब्राह्मणवादी विचारधारा को चुनौती नहीं दी. फुले इसे समझते थे और उन्होंने शूद्र समाज के जाति नियंत्रण को ललकारा. लेकिन मराठों ने ब्राह्मणवाद की उनकी आलोचना की परंपरा को जारी नहीं रखा.

1870 में छपी फुले की किताब गुलामगिरी में व्यक्त उनके विचारों को विकसित करने का विकल्प अब भी शूद्रों के पास बचा हुआ है. वे इसमें अंबेडकर के विचार जोड़ सकते हैं, जिसने ब्राह्मणवाद का एक स्पष्ट राजनैतिक और आध्यात्मिक विकल्प स्थापित किया था. अगर अंबेडकर ने यह योगदान नहीं दिया होता तो शूद्रों की वैचारिक स्थिति आज से भी ज्यादा दरिद्र होती.

ब्राह्मणवाद को चुनौती देने के लिए शूद्रों के पास एक और विकल्प है, और वह है धर्म परिवर्तन. भाजपा के नेतृत्व और उसके वैचारिक गुरू, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रभुत्वशाली जातियां इसके खिलाफ हैं. लेकिन इतिहास गवाह है कि उन्होंने खुद अपने फायदे के लिए धर्म परिवर्तन का सहारा लिया है. गोवा, बंगाल और अन्य जगहों पर, ब्राह्मणों ने अपने औपनिवेशिक शासकों की नजर में ऊंचा उठने के लिए ईसाई धर्म को गले लगाया.

शूद्रों के पास हिन्दू धर्म को, जुझारू जाति-विरोधी सिद्धांत या अन्य धर्मों की एवज में, खारिज करने का एक और विकल्प है. लेकिन वर्तमान हालातों में ऐसी अपेक्षा करना बचकाना ही लगेगा कि एक साथ इतने सारे लोग इस विकल्प को चुनेंगे. जो दृश्य नजर के सामने है, उसे देखकर तो लगता है कि अभी आने वाले कुछ समय तक तो उनमे से कई हिन्दू धर्म के साथ ही बने रहना चाहेंगे. ऐसे शूद्रों को कम से कम बराबरी के आध्यात्मिक अधिकार और पुरोहिताई में बराबर की पहुंच की मांग तो करनी ही चाहिए. उन्हें हिन्दू धर्मग्रंथों को शूद्र नजरों से देखे जाने के अधिकार के लिए संघर्ष करना चाहिए और इन धर्मग्रंथों की विवेचना करने का अधिकार हासिल करना चाहिए. उन्हें ऐसे स्वतंत्र और खुले हिन्दू धार्मिक विद्यालयों, कॉलेजों, जहां हर हिन्दू, किसी भी जाति से सम्बन्ध रखने के बावजूद, पुरोहिती को चुन सकता हो, की मांग करनी चाहिए. शूद्रों के लिए यह जरूरी है कि वे हिन्दू धर्म के अंदर अपनी सामूहिक ताकत को पहचानें. क्योंकि उनकी उस संख्या के बिना, हिन्दू धर्म के ढह जाने का ही खतरा उत्पन्न हो जाता है. अगर वे अपनी ताकत का इस्तेमाल नहीं करेंगे तो स्थिति ज्यूं की त्यूं बनी रहेगी. उनकी स्थिति नायरों की तरह रहेगी, जो उत्साही हिन्दू होने का तो दावा करते हैं, लेकिन धर्म पर उनका कोई बौद्धिक दखल नहीं है; और वे सदैव ब्राह्मण पुरोहितों के आगे नतमस्तक होने को मजबूर हैं.

अब समय आ गया है कि शूद्रों को हर क्षेत्र में बराबरी की मांग करनी चाहिए, या हर क्षेत्र में विकल्प की मांग करनी चाहिए. अगर हिन्दू धर्म उन्हें आध्यात्मिक बराबरी नहीं दे सकता तो उन्हें अपने न्यायोचित दावे के समर्थन में अपना नया धर्म बनाने के बारे में भी विचार करना चाहिए. उन्हें ब्राह्मणवादी सोच के द्वारा थोपे गए निचले दर्जे को ठुकराना ही होगा और इस सोच को भी कि प्रभुत्वशाली जातियों को ठेस पहुंचाना बुरे कर्म और पुनर्जन्म के खतरे के साथ आता है. इसके लिए उन्हें अपार वैकल्पिक विचारों और साहित्य की रचना करनी पड़ेगी जो वर्तमान ढांचे को विस्थापित कर सके.

उच्च शूद्र मराठों ने अपने निचले दर्जे का विरोध जातीय दंभ से किया. शूद्र विचारकों के न होने से ऐसी भावनाओं को मुख्य रूप से ब्राह्मण अपने हितों के लिए दिशा देते हैं. रफीक मकबूल/एपी

हिन्दू धर्म के अन्दर या उसके बाहर जाकर, शूद्रों के आत्म-सम्मान को केंद्र-बिंदु बनाकर उन्हें अपना वैकल्पिक साहित्य और दर्शन गढ़ना होगा. विश्व भर में इस तरह के लेखन की मिसाल, उत्पीड़ित समाज के अन्य आन्दोलनों में मिलती है – वह चाहे अमरीका का ब्लैक पॉवर आंदोलन हो या यहां भारत में दलित आंदोलन. इन आंदोलनों ने अपना इतिहास रचा, उपन्यास लिखे, फिल्में बनाई, और आध्यात्मिक बहसों को जन्म दिया. यह सब करते हुए उन्होंने उन छवियों और विश्वासों को खारिज किया जो प्रभुत्वशाली समूहों ने उनके बारे में बनाई थीं, और इस प्रक्रिया में अपनी नई गौरवशाली छवि रची. ये नए विचार सामजिक और राजनीतिक कार्यवाई के लिए ईंधन का काम करते हैं. शूद्रों के लिए, आत्म-सम्मान हासिल करने हेतु यह जरूरी है कि वे इस ब्राह्मणवादी सोच को ही उलट कर रख दें कि उत्पादन का काम आध्यात्मिक रूप से दूषित कर देने वाला काम है. हिन्दू धार्मिक और दार्शनिक लेखन में जो शूद्र करते हैं, रचते या उत्पादित करते और खाते हैं उसे दैविक रूप से सम्मानजनक तरीके से नहीं देखा गया है. ऐतिहासिक रूप से इस आक्रमण के आगे वे इतने संकोची हो गए हैं कि उन्हें भी यकीन हो गया कि उनकी खुद की कोई संस्कृति नहीं है. महज इस कारण कि इसका जिक्र किताबों में नहीं मिलता यह कतई साबित नहीं होता कि यह संस्कृति विद्यमान ही नहीं है.

अपने कृषि और उत्पादन के काम पर केंद्रित, शूद्र सहस्त्राब्दी से संस्कृति के वाहक हैं. वैराग्य और अकर्मण्यता के सन्यासी मूल्यों के बरअक्स, शूद्रों के मूल्य उर्वरता, रचनात्मकता और सतत प्रयास पर आधारित हैं. शूद्र संस्कृति, भौतिक वस्तुओं की प्रचुरता की एवज में अक्सर हिंसक हिन्दू पौराणिक कथाओं से परहेज करती है. शूद्रों की संस्कृति, ब्राह्मणों के आध्यात्मिक जुनून की बजाय प्रकृति, कृषि और उत्पादन प्रक्रिया के अपार ज्ञान, जो उसने सालों के वैज्ञानिक और व्यवहारिक निरीक्षण से हासिल किया, को प्राथमिकता देती है. अपने काम के जरिए, शूद्र दवाइयों, खेती, इंजीनियरिंग और कई ऐसे उत्पादनकारी कार्यों से वाबस्ता हुए हैं. इन सभी की तहरीर लिखी जानी और इनका जश्न मनाया जाना चाहिए. शूद्रों को अपने काम की अहमियत और संस्कृति के महान महत्व को मान्यता देने पर जोर देना चाहिए. वे मूलभूत संसाधनों का उत्पादन करते हैं, जैसे खाद्य पदार्थ, वस्त्र, मकान, कला, संगीत, इत्यादि, जिससे एक राष्ट्र का निर्माण होता है. शूद्रों को सवाल उठाना चाहिए कि समाज के कल्याण के लिए कौन ज्यादा योगदान करता है – मेहनतकश शूद्र या अकर्मण्य ब्राह्मण. अगर उत्पादनकारी समुदायों की संस्कृति को गरिमा और सम्मान की नजर से देखा जाएगा, तो वे राष्ट्र निर्माण में अपनी अधिक से अधिक शक्ति झोंक देंगे. देश की उत्पादनकारी मेहनतकश जनता के सबसे बड़े हिस्से की संस्कृति के आत्म-सम्मान को दबाना या कुचलना राष्ट्र के संसाधनों का नुक्सान पहुंचाना है. इसी समझ को नए शूद्र राष्ट्रवाद का मर्म बनना चाहिए.

शूद्र चेतना का एक नया आदर्श, ब्राह्मणवाद और बनिया अर्थशास्त्र के बाहर, हमे एक नई राष्ट्रीय राजनीति के निर्माण की दिशा की तरफ ले जाएगा. स्व-निंदा के भाव को झटकने के अलावा शूद्रों को अपने वर्ण के भीतर जातियों के बीच संबंधों के साथ ही इसके बाहर अन्य उत्पीड़ित जातियों और समुदायों के साथ के संबंध को भी पुन: परिभाषित करना होगा.

अगर शूद्रों को राष्ट्रीय स्तर पर अपनी अपार संख्या का असर देखना है तो उन्हें बिना आपसी भेदभाव के अखिल भारतीय शूद्र अस्मिता का निर्माण करना होगा. इसके लिए उन्हें अपने राज्य और क्षेत्र के तंग दायरे से बाहर आना होगा. शूद्र हीनता की ब्राह्मणवादी धारणा सभी वर्णों पर एक साथ लागू होती है इसलिए इससे इसकी पूर्णता में ही निबटना होगा, ना कि अलग अलग. शूद्र चेतना में बदलाव दलितों और अन्य उत्पीड़ित समूहों की स्थिति को भी प्रभावित करेगा. एक बार शूद्र अपनी हीनता के दार्शनिक आधार को खारिज कर देते हैं तो उनके पास यह मानने का भी कोई आधार नहीं बचा रह जाएगा कि अन्य जातियां उनसे नीचे हैं. एक बार वे ब्राह्मण और बनिया हितों के पक्ष में काम करना बंद कर दें तो उन्हें मुसलमानों और ईसाईयों को धमकाने में भी कोई फायदा नजर आना बंद हो जाएगा. इसके विपरीत, उन्हें कई ऐसे कारण नजर आने लगेंगे जिनकी वजह से वे उन तमाम लोगों के साथ खड़ा होना चाहेंगे, जिनके साथ ब्राह्मणों ने अत्याचार किया. इस चेतना को भी शूद्र राष्ट्रवाद का हिस्सा होना चाहिए, जिसे कभी भी दलितों, आदिवासियों और अन्य समूहों, जो ब्राह्मण-बनिया प्रभुत्व से संघर्ष कर रहे हैं, के खिलाफ नहीं होना चाहिए.

शूद्रों के स्व: निंदा, और अन्य किस्म के प्रभावी भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय राजनीति के प्रारूप को आज देखने की जरूरत आन पड़ी है. ब्राह्मण और बनिये, आजादी के बाद से ही लोकप्रिय राष्ट्रीय भावना को दिशा देते आए हैं, और शूद्रों के, अपने खुद के बुद्धिजीवी न होने के अभाव में, पास बिना सवाल किए उन विचारों को मानते चले जाने के अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं था. अंबेडकर ने असहमति की आवाज उठाते हुए कहा था कि देश की शर्मनाक सामाजिक गैरबराबरी को समाप्त किए बिना राष्ट्रीय गौरव की कोई भी कोशिश खोखली साबित होगी. लेकिन उनके इस दृष्टिकोण को नजरंदाज कर दिया गया.

आज शूद्र हिन्दू राष्ट्रवाद के उत्साही समर्थक हैं. बिना इस बात का एहसास किए कि आखिर में तो यह असल में ब्राह्मण-बनिया राष्ट्रवाद ही है. एक तरफ जहाँ भाजपा का हिंदुत्व, संघ के ब्राह्मण विचारकों की श्रेष्ठता का भरोसा दिलाता है; तो दूसरी तरफ इसकी आर्थिक नीतियां बड़ी-बड़ी बनिया-स्वामित्व वाली कंपनियों के मुनाफे में इजाफा करती हैं.

कांग्रेस एक वैकल्पिक आर्थिक नीति पेश करने में असमर्थ है और अब तो इसका “धर्मनिपेक्ष” राष्ट्रवाद भी लगातार भाजपा के ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद जैसा दिखने लगा है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पहले ही खुद को जनेऊधारी हिन्दू घोषित कर दिया है, यह सोचकर कि उनकी यह रणनीति उन्हें जनता का चहेता बना सकती है. हिन्दू राष्ट्रवाद का अधिकांश हिस्सा, शूद्रों के उत्पीड़न और निष्कासन की बुनियाद पर निर्मित है. गौ-रक्षा की राजनीति इसका एक उदाहरण है. गाय की पवित्रता का सिद्धांत ही अपने आप में, ब्राह्मणों की कारस्तानी है. जिन्होंने कभी भी गाय नहीं चराई और जो न उसके ऊपर कभी आर्थिक रूप से आश्रित हुए वे ही गाय की महत्ता निर्धारित कर रहे हैं. इसका भार भी शूद्रों को उठाना पड़ा. लेकिन उस जानवर के महत्व निर्धारण में उनका कोई मत नहीं रहा. मोदी के सत्ता में आने के बाद से मवेशी मारने पर पाबंदी लगाए जाने की वजह से पूरी मवेशी अर्थव्यवस्था चरमरा गई है क्योंकि अब किसान आर्थिक उद्देश्यों के लिए जानवर बेच नहीं सकते. लेकिन शूद्रों ने यह त्रासदी भी चुपचाप स्वीकार कर ली है. इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को देश भर में बर्बाद कर डाला है. हिन्दू राष्ट्रवाद ने शूद्रों को सिवाय जड़ता के कुछ नहीं दिया. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से, सबसे ऊंचे स्तर के बौद्धिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, और आर्थिक इकाइयों को ब्राह्मण-बनिये के हाथों में सौंप दिया गया है. इस बीच शूद्रों की सामाजिक और आर्थिक हैसियत में कोई बदलाव नहीं आया. हिन्दू राष्ट्रवाद ने ब्राह्मण विचारधारा की ताकत और बनिया पूंजी को और अधिक मजबूती प्रदान की है, और शूद्र इसकी अपनी ही कीमत पर हिफाजत कर रहे हैं, जैसे ये उनकी अपनी हो. अंबेडकर ने शूद्र कौन थे में लिखा कि “ब्राह्मणवाद ने शूद्रों को बिना किसी सभ्यता वाला निचला वर्ग बनाकर छोड़ा, जिसकी ना कोई अपनी संस्कृति है, और ना सम्मान, ना हैसियत.” अफसोस कि उनके समय के बाद से जो कुछ घटित हुआ वह इस चिंताजनक तथ्य को बदलने में बुनियादी रूप से विफल रहा. सिर्फ एक नई शूद्र चेतना ही इसे बदल सकती है और शूद्रों, और उनके साथ देश, को एक बेहतर रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित कर सकती है. 

(अंग्रेजी से अनुवाद राजेन्द्र सिंह नेगी)