पैरहन जो उतर न सका

राष्ट्रवाद के विचार को चुनौती देतीं फ़हमीदा रियाज़ की नज़्में

इप्टा बॉम्बे द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘एक शाम पाकिस्तान के नाम’. मंच पर बाएं से दाएं सलमा सिद्दीकी, अली सरदार ज़ाफरी, इस्मत चुगताई और फ़हमीदा रियाज़ हैं. अभिनेता ए. के. हंगल सामने फर्श पर बैठे हैं.
इप्टा बॉम्बे द्वारा आयोजित कार्यक्रम ‘एक शाम पाकिस्तान के नाम’. मंच पर बाएं से दाएं सलमा सिद्दीकी, अली सरदार ज़ाफरी, इस्मत चुगताई और फ़हमीदा रियाज़ हैं. अभिनेता ए. के. हंगल सामने फर्श पर बैठे हैं.

We’re glad this article found its way to you. If you’re not a subscriber, we’d love for you to consider subscribing—your support helps make this journalism possible. Either way, we hope you enjoy the read. Click to subscribe: subscribing

1980 के दशक तक मुंबई (तब बॉम्बे) के मार्क्सवादी साहित्यकार ख़ूब अड्डेबाजी करते थे. आज भले ऐसे लोगों के मुशायरों को राजद्रोह बता कर प्रतिबंधित किया जा सकता है, लेकिन तब ऐसे जमावड़ों को ख़ूब सम्मान दिया जाता था.

1983 में पृथ्वी थियेटर में आयोजित एक मुशायरे में जानी मानी उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई अपने यात्रावृत्तांत सुना रही थीं और सुननेवाले हंसी से लोटपोट हुए जा रहे थे. लेकिन उस ख़ुशनुमा मौक़े का मक़सद बहुत गंभीर था. चुगताई के बाजू में बैठे शायर, अली सरदार जाफ़री, ने अन्याय और उत्पीड़न के शिकार तीसरी दुनिया के देशों के नाम अपनी एक नज़्म पढ़ी. मंच के दूसरे छोर पर शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी बैठे थे. उन्होंने आम लोगों की आवाज़ को दबाए जाने के ख़िलाफ़ अपनी शायरी सुनाई. कार्यक्रम के संचालक और ‘शोले’ और ‘आइना’ जैसी फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता ए. के. हंगल ने एक बैंड को मंच पर बुलाया जिसने मजदूरों के नाम फैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म सुनाई.

लेकिन यह कार्यक्रम इन हस्तियों या उस ‘अक्टूबर क्रांति’ के लिए नहीं था जिसमें ये कलाकार विश्वास करते थे. उस दिन तमाम कलाकार एक ख़ास मुद्दे और एक ख़ास मोहतरमा के साथ एकजुटता का इज़हार करने के लिए जुटे थे, जो चुगताई के बाईं ओर झुक कर बैठी थीं. फूलों की प्रिंट वाली साड़ी पहनी वह मोहतरमा मंच पर सिगरेट के कश पर कश लगा रही थीं. उस शाम वह एक छोटी सी किताब खोल कर, धीमी लेकिन प्रभावशाली आवाज़ में शायरियां पढ़ती रहीं. मोहतरमा की एक गज़ल इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल पर थी. सुनने वालों ने तालियां बजाईं और नारे उछाले. वह मोहतरमा मौत से भाग कर दो साल पहले ही पाकिस्तान से भारत आई थीं. उनका नाम था फ़हमीदा रियाज़ और उनके सम्मान में आयोजित इस कार्यक्रम का नाम था : ‘एक शाम पाकिस्तान के नाम’.

1980 के दशक की शुरुआत में भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बेहद ठंडे थे. एक दशक पहले, 1971 में दोनों देशों ने एक बड़ा युद्ध लड़ा था. उस जंग से बांग्लादेश का जन्म हुआ. आने वाले वर्षों में पाकिस्तान ने अपने सैन्य शस्त्रागार को बढ़ाने में भारी निवेश किया, जिसमें विवादास्पद परमाणु कार्यक्रम भी शामिल था. दूसरी ओर, भारत विजयी हुआ, जिसने 90,000 पाकिस्तानी सैनिकों से हथियार डलवाए और कश्मीर के बड़े भूभाग पर नियंत्रण हासिल कर लिया. भारत ने शीत युद्ध की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भी अपने लिए जगह बना ली थी. उसे अमेरिकी और सोवियत संघ द्वारा शीर्ष क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्वीकार किया जाने लगा था. 1972 में शांति संधि पर हस्ताक्षर करने के बावजूद, भारत और पाकिस्तान आने वाले दशकों में एक दूसरे को संदेह की नज़र से देखने वाले पड़ोसी बने रहे.

Thanks for reading till the end. If you valued this piece, and you're already a subscriber, consider contributing to keep us afloat—so more readers can access work like this. Click to make a contribution: Contribute