बाबासाहब के फिर अंतिम दर्शन हुए उनके अंत समय में ही. सुबह मैं हमेशा की तरह अपने काम पर निकला. अखबारों के पहले पेज पर ही खबर छपी थी. धरती फटने-सा एहसास हुआ. इतना शोकाकुल हो गया, जैसे घर के किसी सदस्य की मृत्यु हुई हो. घर की चौखट पकड़कर रोने लगा. मां को, पत्नी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं इस तरह पेपर पढ़ते ही क्यों रोने लगा? घर के लोगों को बताते ही सब रोने लगे. बाहर निकलकर देखता हूं कि लोग जत्थों में बातें कर रहे हैं. बाबासाहब का निधन दिल्ली में हुआ था. शाम तक विमान से उनका शव आने वाला था. नौकरी लगे दो-तीन महीने ही हुए होंगे. छुट्टी मंजूर करवाने वेटरनरी कॉलेज गया. अजीर का कारण देखते ही साहब झल्लाए. बोले, ''अरे, छुट्टी की अजीर में यह कारण क्यों लिखता है? आंबेडकर राजनीतिक नेता थे और तू एक सरकारी नौकर है. कुछ प्राइवेट कारण लिख.’’ वैसे मैं स्वभाव से बड़ा शान्त. परन्तु उस दिन अजीर का कारण नहीं बदला. उलटे साहब को कहा, ''साहब, वे हमारे घर के एक सदस्य ही थे. कितनी अंधेरी गुफाओं से उन्होंने हमें बाहर निकाला, यह आपको क्यों मालूम होने लगा?’’ मेरी नौकरी का क्या होगा, छुट्टी मंजूर होगी या नहीं, इसकी चिंता किए बिना मैं राजगृह की ओर भागता हूं. ज्यों बाढ़ आई हो, ठीक उसी तरह लोग राजगृह के मैदान में जमा हो रहे थे. इस दुर्घटना ने सारे महाराष्ट्र में खलबली मचा दी.
(दया पवार, अछूत, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 168-169)
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध दलित लेखक दया पवार के इस मर्मस्पर्शी संस्मरण से आंबेडकर के किसी निकट सहयोगी के जुड़ाव का एहसास हमें नहीं मिलता. पवार आंबेडकर के राजनीतिक आंदोलन में तो सक्रिय थे मगर व्यक्तिगत रूप से उन्हें जानते नहीं थे. न ही उनका यह संस्मरण बम्बई के उस मुट्ठी भर संपन्न अस्पृश्य तबके की भावनाओं को दर्शाता है जिसके बीच आंबेडकर का ज्यादातर जीवन गुजरा था. आंबेडकर के अंतिम संस्कार में न केवल विशाल जनसमूह ने हिस्सा लिया-जैसा कि पवार इशारा कर रहे हैं-बल्कि उनके अंतिम संस्कार के साथ पूरे भारत में शोक और सहानुभूति की एक लहर दौड़ गई थी. आंबेडकर का प्रभाव अब सिर्फ महाराष्ट्र की सीमाओं तक महदूद नहीं था. यह बात उत्तरी भारत में भी उनके द्वारा स्थापित राजनीतिक पार्टियों की चुनावी सफलताओं से स्पष्ट हो जाती थी. मराठी के अलावा कई भारतीय भाषाओं में भी उनकी ज्यादातर रचनाओं के असंख्य संस्करण छप चुके थे. आंबेडकर सही मायनों में एक अखिल भारतीय शख्सियत बन चुके थे. वह निर्विवाद रूप से समूचे भारत में प्रभाव रखने वाले पहले अस्पृश्य नेता थे. ख्याति व प्रतिष्ठा के मामले में उनके निकटतम सहयोगी भी उनके आसपास नहीं पहुंचते थे.
ऐसे हालात में यह सोचने की बात है कि उनके जीवन, काम और उनके चिंतन पर इतने कम अध्ययन क्यों हुए हैं? साल 2000 में भी उपेंद्र बख्शी को लिखना पड़ा कि 'आंबेडकर सिरे से विस्मृत व्यक्तित्व हैं.’ इस उपेक्षा का सबसे स्पष्ट संकेत यह है कि 1990 के दशक तक भी उन पर केंद्रित किताबें गिनती भर की थीं. और तो और, सारे क्षेत्रीय कांग्रेसी नेताओं की भी एकाधिक जीवनियां लिखी जा चुकी हैं जबकि गांधी और नेहरू पर लिखी गई किताबों की तो गिनती ही छोड़ दीजिए. मगर, अंग्रेजी में आंबेडकर के बारे में लिखी गई स्तरीय किताबें बहुत कम रही हैं. आंबेडकर की संकलित रचनाओं का प्रकाशन भी सत्तर के दशक में जाकर शुरू हुआ जबकि गांधी, नेहरू और पंत की संकलित रचनाएं इससे बहुत पहले प्रकाशित होने लगी थीं.
इस विसंगति के लिए आंशिक रूप से तो भारतीय समाज विज्ञान के दायरे में जीवनी लेखन के सीमित प्रचलन को जि़म्मेदार ठहराया जा सकता है और आंशिक रूप से इसका कारण ये रहा है कि आज भी भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर आंबेडकर एक अस्वीकार्य -यहां तक कि भयजनक- प्रतीक हैं. इसके पीछे बहिष्कार या तिरस्कार का भाव भी रहा है जिसे इस आरोप से खुराक मिलती रही है कि आंबेडकर तो अंग्रेजों के हामी और साथी थे. सारा श्रेय आज भी स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं को ही मिलता है. आंबेडकर का संघर्ष इससे अलग था मगर इससे कम महत्त्वपूर्ण नहीं था.
दूर से देखने पर आंबेडकर का जीवन साधारण साधनों के सहारे अपने दम पर तरक्की के शिखरों को छूने वाले नायकों की परिकथा जैसा लगता है. भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को इंदौर के पास स्थित महू नामक छावनी कस्बे में हुआ था. यह कस्बा इसी नाम की रियासत की राजधानी हुआ करता था जिसको आजादी के बाद मध्य भारत (वर्तमान मध्य प्रदेश प्रान्त) में शामिल कर लिया गया था. इंदौर रियासत के बहुत सारे बाशिंदों की तरह उनका परिवार भी महाराष्ट्र से यहां आया था. गौरतलब है कि इस रियासत का राजवंश भी निचली जाति से ही था. उनका गांव अम्बावाड़े मराठा रियासत की कोंकण तटीय पट्टी में पड़ता था. लिहाजा आंबेडकर का मूल नाम अंबावाड़ेकर भी इसी आधार पर पड़ा था (वर्ष 1900 में उनके एक ब्राह्मण अध्यापक ने उनकी कुशाग्र बुद्धि और व्यक्तिगत गुणों को देखकर उन्हें अपना नाम दे दिया था और इस तरह वह आंबेडकर कहलाने लगे).
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