बाबासाहब के फिर अंतिम दर्शन हुए उनके अंत समय में ही. सुबह मैं हमेशा की तरह अपने काम पर निकला. अखबारों के पहले पेज पर ही खबर छपी थी. धरती फटने-सा एहसास हुआ. इतना शोकाकुल हो गया, जैसे घर के किसी सदस्य की मृत्यु हुई हो. घर की चौखट पकड़कर रोने लगा. मां को, पत्नी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि मैं इस तरह पेपर पढ़ते ही क्यों रोने लगा? घर के लोगों को बताते ही सब रोने लगे. बाहर निकलकर देखता हूं कि लोग जत्थों में बातें कर रहे हैं. बाबासाहब का निधन दिल्ली में हुआ था. शाम तक विमान से उनका शव आने वाला था. नौकरी लगे दो-तीन महीने ही हुए होंगे. छुट्टी मंजूर करवाने वेटरनरी कॉलेज गया. अजीर का कारण देखते ही साहब झल्लाए. बोले, ''अरे, छुट्टी की अजीर में यह कारण क्यों लिखता है? आंबेडकर राजनीतिक नेता थे और तू एक सरकारी नौकर है. कुछ प्राइवेट कारण लिख.’’ वैसे मैं स्वभाव से बड़ा शान्त. परन्तु उस दिन अजीर का कारण नहीं बदला. उलटे साहब को कहा, ''साहब, वे हमारे घर के एक सदस्य ही थे. कितनी अंधेरी गुफाओं से उन्होंने हमें बाहर निकाला, यह आपको क्यों मालूम होने लगा?’’ मेरी नौकरी का क्या होगा, छुट्टी मंजूर होगी या नहीं, इसकी चिंता किए बिना मैं राजगृह की ओर भागता हूं. ज्यों बाढ़ आई हो, ठीक उसी तरह लोग राजगृह के मैदान में जमा हो रहे थे. इस दुर्घटना ने सारे महाराष्ट्र में खलबली मचा दी.
(दया पवार, अछूत, राधाकृष्ण प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 168-169)
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध दलित लेखक दया पवार के इस मर्मस्पर्शी संस्मरण से आंबेडकर के किसी निकट सहयोगी के जुड़ाव का एहसास हमें नहीं मिलता. पवार आंबेडकर के राजनीतिक आंदोलन में तो सक्रिय थे मगर व्यक्तिगत रूप से उन्हें जानते नहीं थे. न ही उनका यह संस्मरण बम्बई के उस मुट्ठी भर संपन्न अस्पृश्य तबके की भावनाओं को दर्शाता है जिसके बीच आंबेडकर का ज्यादातर जीवन गुजरा था. आंबेडकर के अंतिम संस्कार में न केवल विशाल जनसमूह ने हिस्सा लिया-जैसा कि पवार इशारा कर रहे हैं-बल्कि उनके अंतिम संस्कार के साथ पूरे भारत में शोक और सहानुभूति की एक लहर दौड़ गई थी. आंबेडकर का प्रभाव अब सिर्फ महाराष्ट्र की सीमाओं तक महदूद नहीं था. यह बात उत्तरी भारत में भी उनके द्वारा स्थापित राजनीतिक पार्टियों की चुनावी सफलताओं से स्पष्ट हो जाती थी. मराठी के अलावा कई भारतीय भाषाओं में भी उनकी ज्यादातर रचनाओं के असंख्य संस्करण छप चुके थे. आंबेडकर सही मायनों में एक अखिल भारतीय शख्सियत बन चुके थे. वह निर्विवाद रूप से समूचे भारत में प्रभाव रखने वाले पहले अस्पृश्य नेता थे. ख्याति व प्रतिष्ठा के मामले में उनके निकटतम सहयोगी भी उनके आसपास नहीं पहुंचते थे.
ऐसे हालात में यह सोचने की बात है कि उनके जीवन, काम और उनके चिंतन पर इतने कम अध्ययन क्यों हुए हैं? साल 2000 में भी उपेंद्र बख्शी को लिखना पड़ा कि 'आंबेडकर सिरे से विस्मृत व्यक्तित्व हैं.’ इस उपेक्षा का सबसे स्पष्ट संकेत यह है कि 1990 के दशक तक भी उन पर केंद्रित किताबें गिनती भर की थीं. और तो और, सारे क्षेत्रीय कांग्रेसी नेताओं की भी एकाधिक जीवनियां लिखी जा चुकी हैं जबकि गांधी और नेहरू पर लिखी गई किताबों की तो गिनती ही छोड़ दीजिए. मगर, अंग्रेजी में आंबेडकर के बारे में लिखी गई स्तरीय किताबें बहुत कम रही हैं. आंबेडकर की संकलित रचनाओं का प्रकाशन भी सत्तर के दशक में जाकर शुरू हुआ जबकि गांधी, नेहरू और पंत की संकलित रचनाएं इससे बहुत पहले प्रकाशित होने लगी थीं.
इस विसंगति के लिए आंशिक रूप से तो भारतीय समाज विज्ञान के दायरे में जीवनी लेखन के सीमित प्रचलन को जि़म्मेदार ठहराया जा सकता है और आंशिक रूप से इसका कारण ये रहा है कि आज भी भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर आंबेडकर एक अस्वीकार्य -यहां तक कि भयजनक- प्रतीक हैं. इसके पीछे बहिष्कार या तिरस्कार का भाव भी रहा है जिसे इस आरोप से खुराक मिलती रही है कि आंबेडकर तो अंग्रेजों के हामी और साथी थे. सारा श्रेय आज भी स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं को ही मिलता है. आंबेडकर का संघर्ष इससे अलग था मगर इससे कम महत्त्वपूर्ण नहीं था.
दूर से देखने पर आंबेडकर का जीवन साधारण साधनों के सहारे अपने दम पर तरक्की के शिखरों को छूने वाले नायकों की परिकथा जैसा लगता है. भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को इंदौर के पास स्थित महू नामक छावनी कस्बे में हुआ था. यह कस्बा इसी नाम की रियासत की राजधानी हुआ करता था जिसको आजादी के बाद मध्य भारत (वर्तमान मध्य प्रदेश प्रान्त) में शामिल कर लिया गया था. इंदौर रियासत के बहुत सारे बाशिंदों की तरह उनका परिवार भी महाराष्ट्र से यहां आया था. गौरतलब है कि इस रियासत का राजवंश भी निचली जाति से ही था. उनका गांव अम्बावाड़े मराठा रियासत की कोंकण तटीय पट्टी में पड़ता था. लिहाजा आंबेडकर का मूल नाम अंबावाड़ेकर भी इसी आधार पर पड़ा था (वर्ष 1900 में उनके एक ब्राह्मण अध्यापक ने उनकी कुशाग्र बुद्धि और व्यक्तिगत गुणों को देखकर उन्हें अपना नाम दे दिया था और इस तरह वह आंबेडकर कहलाने लगे).
आंबेडकर सालों तक अस्पृश्यों के साथ होने वाले दैनिक भेदभाव से बचे रहे क्योंकि उनके पिता एक छावनी में काम करते थे जहां इस तरह का भेदभाव नहीं था. उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में सिपाही थे. खैर, धीरे-धीरे उन्हें भी एक अस्पृश्य व्यक्ति के रूप में जीवन की धूप-छांव का सामना तो करना ही था. चुनांचे, बचपन में ही उन्हें इस सवाल से जूझना पड़ा कि कोई नाई उनके बाल क्यों नहीं काटना चाहता? सबसे बढ़कर, उन्हें एक ऐसे अपमानजनक अनुभव से गुजरना पड़ा जिसने उनकी जि़ंदगी की दिशा बदल दी और जिसे वे कभी भी भुला नहीं पाए. यह घटना यों थी : एक दिन वह अपने भाई और बहन के साथ रेल में सवार होकर पिता से मिलने के लिए रवाना हुए. वे वहां जा रहे थे जहां उनके पिता काम करते थे. जब वे मंजि़ल पर पहुंचे तो स्टेशन मास्टर ने उनको पास बुलाकर कुछ पूछताछ की. जैसे ही स्टेशन मास्टर को उनकी जाति का पता चला, वह 'पांच कदम पीछे हट गया!’ तांगे वाले भी उन्हें उनके पिता के गांव तक ले जाने को तैयार नहीं होते थे. एक तांगेवाला तैयार तो हुआ मगर उसने शर्त रखी की तांगा बच्चों को खुद ही हांकना होगा. कुछ दूर जाने पर तांगेवाला नाश्ता करने के लिए एक ढाबे के सामने रुक गया. वह तो भीतर जाकर नाश्ता करने लगा मगर बच्चों को बाहर ही इंतजार करना पड़ा. उन्हें पास में बह रही एक धारा के रेतीले पानी से ही अपनी प्यास बुझानी पड़ी. आंबेडकर के दिलो-जहन में अपने हालात का यह भीषण एहसास शायद इसलिए भी तीखा रहा होगा क्योंकि उनके पास बहुत संवेदनशील और पैना दिमाग था.
वर्ष 1907 में इन्हीं बौद्धिक गुणों की बदौलत उन्हें बम्बई स्थित एल्फिन्स्टन हाईस्कूल से मेट्रिकुलेशन का सर्टिफिकेट मिला. कुछ साल पहले उनके पिता यहीं आकर बस गए थे. इसके बाद उन्होंने वजीफा हासिल किया, विख्यात एल्फिन्स्टन कॉलेज में दाखिला लिया और 1912 में यहीं से बी.ए. की डिग्री ली. इसके बाद उन्हें अमेरिका जाकर आगे पढ़ाई के लिए एक और छात्रवृत्ति मिली. उनसे पहले उनकी जैसी पृष्ठभूमि के किसी व्यक्ति को ऐसा अवसर नहीं मिला था. उन्होंने न्यूयॉर्क स्थिति कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एम.ए. की डिग्री हासिल की और फिर 1916 में वे लंदन के लिए रवाना हो गए जहां उन्हें कानून की पढ़ाई के लिए ग्रेज इन में दाखिला मिल गया था. बाद में वह लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में अपनी पढ़ाई जारी रखते रहे मगर यहां वे ज्यादा समय तक नहीं रह पाए. जल्दी ही उन्हें भारत लौटना पड़ा क्योंकि उनकी छात्रवृत्ति खत्म हो चुकी थी.
इस तरह, 1917 में वे लंदन से भारत आ गए. उनकी इन अकादमिक उपलब्धियों के फलस्वरूप अंग्रेजों का ध्यान भी उनकी ओर गया. उन्हें आंबेडकर में अस्पृश्यों का एक भावी प्रतिनिधि दिखाई पड़ रहा था. 1919 में मताधिकार प्रदान करने के लिए योग्यता कसौटी में संशोधन करने के लिए साउथबॅरो कमेटी बनाई गई थी ताकि और ज्यादा भारतीयों को विभिन्न प्रांतों की असेम्बली में चुनाव के लिए मतदान का अधिकार मिल सके. इस कमेटी ने जिन लोगों से सलाह मांगी उनमें आंबेडकर भी एक थे. यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण क्षण था क्योंकि 1919 में ही ब्रिटिश भारत की प्रांतीय असेम्बलियों और सरकारों को पहले से ज्यादा अधिकार व सत्ता देने वाले सुधार शुरू किए गए थे. इसके बाद ही भारतीय मंत्रियों (लेजिस्लेटिव काउंसिल के प्रति उत्तरदायी) को भी सरकार में शामिल किया जाने लगा था. आंबेडकर ने अस्पृश्यों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल और आरक्षित सीटों की व्यवस्था की मांग उठाई थी.
साल 1920 में उन्होंने शिवाजी के वंशज, कोल्हापुर के महाराजा शाहू महाराज की आर्थिक सहायता से मूक नायक नामक एक नया जरनल शुरू किया. मगर, जब शाहू महाराज ने आंबेडकर को एक बार फिर इंग्लैंड जाने और पढ़ाई जारी रखने के लिए वजीफे की पेशकश की तो उन्होंने फौरन यह प्रस्ताव मंजूर कर लिया. क्रमश:, 1921 में उन्होंने मास्टर ऑफ साइंस की डिग्री हासिल की और अगले साल 'दि प्रॉब्लम ऑफ दि रुपी’ (रुपए की समस्या) शीर्षक के तहत अपना शोध पत्र प्रस्तुत किया.
इसके बाद वह भारत लौटे और उन्होंने बम्बई में वकालत की दुनिया में अपने पैर जमाने की कोशिश की. अछूत होने के कारण उनके लिए ग्राहक जुटाना बहुत मुश्किल था. दिल में गहरी कड़वाहट के साथ उन्होंने संकल्प लिया कि वह अपना जीवन जाति व्यवस्था के उन्मूलन के अभियान में समर्पित कर देंगे. तत्पश्चात, जुलाई 1924 में उन्होंने बहिष्कृत हितकारिणी सभा का गठन किया और 1928 तक इसका नेतृत्व भी संभाला. इससे पिछले साल उन्हें अंग्रेज सरकार ने बॉम्बे प्रेजि़डेंसी की लेजिस्लेटिव काउंसिल में मनोनीत किया था. काउंसिल में रहते हुए आंबेडकर ने अस्पृश्यों को कुंओं से पानी निकालने (यही आगे चलकर 1927 में कोंकण तट पर महाड़ में होने वाली उनकी पहली विशाल गोलबंदी का लक्ष्य बनने वाला था) और मन्दिरों में प्रवेश का कानूनी अधिकार दिलाने के लिए हर सम्भव प्रयास किया. मन्दिर प्रवेश के सवाल पर आंबेडकर ने जो आंदोलन शुरू किया वह 1935 तक रह-रह कर चलता रहा.
तीस का दशक आंबेडकर के लिए दलगत राजनीति में नए प्रयोगों का दौर रहा. उन्होंने अंग्रेजों से मांग की कि अस्पृश्यों को पृथक निर्वाचक मंडल का अधिकार दिया जाए. अगर उनकी यह मांग मान ली जाती तो अस्पृश्य निश्चित रूप से एक मजबूत राजनीतिक शक्ति में रूपान्तरित हो सकते थे. अंग्रेज सरकार ने भी कम्युनल अवॉर्ड के सिलसिले में हुई चर्चाओं के दौरान उनके तर्कों पर आंशिक सहमति दे दी थी जिसकी घोषणा भी सरकार की ओर से 24 अगस्त, 1932 को की गई थी. मगर, चूंकि गांधीजी को भय था कि अस्पृश्यों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की व्यवस्था हिंदू एकता को क्षीण कर देगी इसलिए वे तत्काल ही पूना स्थित यरवदा जेल में अनशन पर बैठ गए थे. फलस्वरूप, आंबेडकर को पृथक निर्वाचन मंडल की अपनी मांग छोड़नी पड़ी और 24 सितम्बर, 1932 को पूना पैक्ट पर दस्तखत भी करने पड़े. इस घटनाक्रम से आंबेडकर को गहरा धक्का लगा था. हालांकि बाद में सदाशयता का भाव दिखाते हुए गांधी ने इस बात को माना था कि अस्पृश्यों को बड़ी संख्या में आरक्षित सीटें मिलनी चाहिए.
1936 में आंबेडकर ने अपनी पहली राजनीतिक पार्टी-इंडिपेंडेट लेबर पार्टी (आईपीएल)-का गठन किया. यह फैसला 1937 में होने वाले चुनावों के मद्देनजर लिया गया था. 1937 के चुनाव गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट, 1935 के प्रावधानों के तहत कराए गए थे. यह कानून प्रांतीय सरकारों और असेम्बलियों को 1919 के सुधारों से कहीं ज्यादा शक्तियां व अधिकार देता था. आईएलपी ने केवल बॉम्बे प्रेजि़डेंसी और मध्य प्रांत में ही अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे और यहां पार्टी को कुछ सफलता भी मिली. पार्टी के 9 अन्य सदस्यों के साथ-साथ आंबेडकर भी निर्वाचित घोषित हुए.
दूसरे विश्व युद्ध ने भारतीय राजनीति में बदलावों की गति और तेज कर दी थी. ब्रिटेन ने कांग्रेस की सलाह और सहमति के बिना भारत को भी विश्व युद्ध में घसीट लिया था. लिहाजा, कांग्रेस के प्रतिनिधियों ने उन आठों प्रांतीय सरकारों से इस्तीफा दे दिया जिनका नेतृत्व उनके हाथ में था. बाकी भारतीयों को युद्ध प्रयासों के पक्ष में करने के लिए अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और आईएलपी जैसी छोटी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को अपनी और खींचना शुरू किया. इस क्रम में आंबेडकर 1941 में डिफेंस एडवाइजरी कमेटी के सदस्य बने और 1942 में उन्हें श्रम मंत्री नियुक्त किया गया.
मंत्री के रूप में अपनी गतिविधियों के साथ-साथ वह अपनी पार्टी की रणनीति को भी तराशते रहे और 1942 में उन्होंने शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन (एससीएफ) के नाम से एक नए संगठन का गठन किया. 'शेड्यूल्ड कास्ट्स’ (अनुसूचित जतियां) उन अस्पृश्य जातियों का समूह था जिनको सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल किया गया था. शिक्षा व्यवस्था और सरकारी नौकरियों में इन जातियों को आरक्षण देने के लिए सरकार ने यह सूची तैयार की थी. सभी मजदूरों में अपना राजनीतिक जनाधार फैलाने का प्रयास करने के बाद आंबेडकर अपनी कोशिशों को सिर्फ अस्पृश्यों के बीच ही सीमित करते गए. कांग्रेस की विराट राजनीतिक ताकत के सामने एससीएफ का कोई मेल नहीं बैठता था. लिहाजा मार्च 1946 में एससीएफ को प्रांतीय असेम्बलियों के चुनावों में भारी पराजय का सामना करना पड़ा. और तो और, खुद आंबेडकर भी अपनी सीट नहीं जीत पाए.
बहरहाल, इस नाकामयाबी के बावजूद अस्पृश्यों के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधि के रूप में उनका राजनीतिक उभार जारी रहा. 3 अगस्त, 1947 को जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अपनी सरकार में विधि मंत्री नियुक्त किया और तीन सप्ताह बाद 29 अगस्त को उन्हें संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए बनाई गई ड्राफ्टिंग कमेटी (मसविदा समिति) का अध्यक्ष बना दिया गया. 1947-50 के बीच यही उनकी सारी सरगर्मियों का केंद्र रहा.
संविधान में समाज सुधारों के लिए एक अनुकूल रूपरेखा तय की गई थी. खासतौर से अस्पृश्यता को समाप्त घोषित करने और जाति, नस्ल व लिंग के आधार पर होने वाले भेदभावों को निषिद्ध घोषित करके संविधान में समाज सुधार के लिए एक अनुकूल रूपरेखा तय की गई थी. आंबेडकर भारतीय समाज की तमाम विकृतियों को मुकम्मल तौर पर खत्म करने के लिए कृतसंकल्प थे. इसीलिए जनवरी 1950 में उन्होंने विवाह व तलाक, उत्तराधिकार और दत्तकता आदि के बारे में प्रावधान तय करने के लिए तैयार किए गए हिंदू कोड बिल में संशोधन का अभियान शुरू किया. उनका कहना था कि यह कानून हिंदू समाज में दीर्घकालिक सुधारों का साधन बनना चाहिए. मगर नेहरू इस बात से चिंतित थे कि कांग्रेस के रूढ़िवादी नेता रेडिकल सुधारों की वजह से दूर छिटक सकते हैं. लिहाजा, नेहरू ने आंबेडकर के प्रस्तावों पर एक खामोशी बनाए रखी और फलस्वरूप सितम्बर 1952 में आंबेडकर ने सरकार से इस्तीफा दे दिया. एक बार फिर वह विपक्ष में बैठे और सोशलिस्टों के साथ अपने पुराने ताल्लुकात को फिर से खंगालना शुरू किया. 1951-52 के चुनावों में इस गठजोड़ को भी भारी झटका झेलना पड़ा.
इसके बाद वह बौद्ध धर्म की तरफ मुड़े. उनकी अंतिम मुख्य रचना, दि बुद्ध एंड हिज धम्मा उनके इसी बदलाव पर केंद्रित है. यह किताब मरणोपरांत 1957 में प्रकाशित हुई. इस किताब के प्रकाशन से एक साल पहले उन्होंने 14 अक्टूबर को दशहरा के महत्त्वपूर्ण हिंदू पर्व के दिन नागपुर में एक विशाल जनसमूह के सामने बौद्ध धर्म अंगीकार किया. इस अवसर पर हजारों दूसरे अस्पृश्यों ने भी उनका अनुसरण करते हुए बौद्ध धर्म कुबूल किया. अगले माह 30 नवंबर को वह दिल्ली लौटे और 6 दिसंबर, 1956 को उनका देहांत हो गया.
इस किताब का मकसद आंबेडकर के जीवन की घटनाओं को गिनवाना नहीं है जिसकी कुछ महत्त्वपूर्ण कड़ियों का मैंने अभी जि़क्र किया है. इस किताब का मकसद इस बात पर रोशनी डालना है कि अस्पृश्यों की मुक्ति में और सामान्य रूप से भारत के सामाजिक एवं राजनीतिक रूपांतरण में आंबेडकर का क्या योगदान रहा है.
आंबेडकर ने जातिगत उत्पीड़न का विश्लेषण कैसे किया और मुक्ति की अपनी रणनीति कैसे गढ़ी? आंबेडकर के बारे में एक रूमानी नजरिया अपनाने की बजाय मैं इस सवाल पर एक रणनीति-केंद्रित पद्धति से विचार करने का प्रयास करूंगा. उनके करिअर का विश्लेषण करने के लिए यह पद्धति ही ज्यादा उपयुक्त है. 31 जनवरी, 1920 के मूक नायक के पहले ही अंक में, जब वे सार्वजनिक पटल पर प्रवेश ही कर रहे थे, उन्होंने एक ऐसे मंच की जरूरत पर जोर दिया था 'जहां हम अपने ऊपर और दूसरे दबे-कुचले लोगों के साथ हो रहे बेतहाशा अन्याय या संभावित अन्याय पर विचार कर सकें और उनके भावी विकास के लिए उचित रणनीतियों पर विवेचनात्मक ढंग से चिंतन किया जा सके.’ मगर, इससे पहले कि मैं उनकी रणनीतियों पर चर्चा करूं, मैं यह समझने की कोशिश करूंगा कि आंबेडकर 'आंबेडकर’ कैसे बने. इसके लिए सबसे पहले मैं उनको महाराष्ट्र और उनके पारिवारिक व सामाजिक परिवेश के सन्दर्भ में देखने का प्रयास करूंगा. तत्पश्चात मैं इस बात का विश्लेषण करूंगा कि जाति व्यवस्था को खत्म करने के लिए शुरू से ही वह उसके बारे में किस तरह सोचने लगे थे. राजनेता आंबेडकर और कार्यकर्ता आंबेडकर की छवियों के पीछे एक चिंतक आंबेडकर की छवि प्राय: छिपी रह जाती है और यह एक अफसोस की बात है क्योंकि उनकी बहुत सारी रचनाएं बहुत अव्वल दर्जे की बौद्धिक कृतियां हैं. फिर भी, दूसरे चिन्तकों के विपरीत उनका अपना लालन-पालन और हालात ऐसे रहे कि वह समाजशास्त्री के रूप में अपनी प्रतिभा का प्रयोग अपने सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य के लिए कर पाए : उन्होंने जाति की संरचना की चीर-फाड़ इसलिए की ताकि वह ऊंच-नीच पर आधारित इस सामाजिक व्यवस्था को जड़ से खत्म कर सकें और इस मिश्रित पद्धति की वजह से ही उन्हें एक विशुद्ध समाज वैज्ञानिक के रूप में मान्यता नहीं मिल पाई.
एक पथप्रदर्शक के रूप में आंबेडकर एक उद्देश्य से दूसरे उद्देश्य की ओर बड़ी एहतियात से कदम बढ़ाते हुए दिखाई पड़ते हैं. सबसे पहले उन्होंने अस्पृश्यों को सुधारने का प्रयास किया ताकि उन्हें वृहत्तर हिंदू समाज के भीतर तरक्की के मार्ग पर ले जा सकें (मुख्य रूप से शिक्षा के माध्यम से). बाद में, तीस के दशक में वे राजनीति में दाखिल हो गए. उन्होंने जिन पार्टियों की स्थापना की वे कभी अस्पृश्यों के संगठन दिखाई पड़ती थीं तो कभी उत्पीड़ितों की गोलबंदी का आधार दिखाई देती थीं. मगर उन्होंने अपनी राजनीतिक कार्रवाइयों को सिर्फ दलगत राजनीति तक सीमित नहीं रखा. उन्होंने सरकारों के साथ दोस्ती बनाने और तोड़ने में भी कभी गुरेज नहीं किया. चाहे अंग्रेज हों या कांग्रेस की सरकारें हों, सत्ता में बैठे लोगों पर भीतर से अपने उद्देश्य के हित में दबाव पैदा करने के लिए वह सरकारों में जाते रहे और उनको छोड़ते भी रहे. अपनी इसी पद्धति की बदौलत वह भारतीय संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में अस्पृश्यों के हित में आवाज उठा पाए और गांधी के कुछ विचारों को हाशिए पर रखने में कामयाब हुए. मगर आंबेडकर इस तरह की राजनीतिक सक्रियता से संतुष्ट नहीं थे. अंतत: वह इसे निर्रथक मानने लगे थे. नियमित अंतराल पर वह रह-रह कर एक ज्यादा रेडिकल रास्ता अपनाते रहे, एक ऐसा रास्ता जो आखिरकार एक अन्य धर्म को अपनाने तक जा पहुंचा. यह परिणति जाति व्यवस्था के उनके विश्लेषण और इस निष्कर्ष की स्वाभविक उत्पत्ति थी कि जाति व्यवस्था हिंदू धर्म के मूलाधार का अंग है. वह 1920 के दशक से ही इस निष्कर्ष पर पहुंचने लगे थे मगर अपने जीवन के अंतिम साल तक धर्मांतरण के इस साहसिक फैसले को लागू करने से बचते रहे.
इस तरह, आंबेडकर दो छोरों के बीच झूलते दिखाई देते हैं. एक तरफ तो वह हिंदू समाज या समूचे भारतीय राष्ट्र में अस्पृश्यों की उन्नति चाहते हैं और दूसरी तरफ वे एक पृथक निर्वाचक मंडल या पृथक दलित पार्टी या हिंदू धर्म को छोड़ कर कोई अन्य धर्म अपनाने जैसी विच्छेद की रणनीतियों पर भी काम करते रहे. उन्होंने समाधानों की तलाश की, नई-नई रणनीतियां आजमाईं और ऐसा करते हुए दलितों को मुक्ति के एक कठिन मार्ग पर ले चले.
किताब : भीमराव आंबेडकर एक जीवनी
लेखक : क्रिस्तोफ जाफ्रलो
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन