दस या बारह साल की उम्र में घर से कुछ घंटों की दूरी तय कर बिहार के गया जिले में फल्गु नदी को पार करने की घटना आज भी रह-रह कर याद आती है. पानी का बहाव इतना था कि मैं मुश्किल से अपना सिर पानी से ऊपर उठा पा रहा था. मेरे आगे चल रहे मेरे पिता ने मुझे एक हाथ से पकड़ रखा था और मेरे चचेरे भाई गौतम मेरा दूसरा हाथ पकड़े हुए थे. हमारे आसपास दर्जनों कांवड़िए भी चल रहे थे. कावड़ियों में पिता के एक मित्र भी थे. साभी बांस से लटके लकड़ी के छोटे-छोटे बर्तनों में गंगा की इस सहायक नदी से पानी ले जा रहे थे. हम भगवान शिव को जल चढ़ाने के लिए गया के उत्तर में स्थित बराबर पहाड़ी पर स्थित एक मंदिर जा रहे थे.
नदी से निकलने के बाद हम किनारे पर चलने लगे. मुझे पहाड़ी शिलाखंडों के एक विशाल ढेर की तरह लग रही थी गोया किसी ने इन शिलाखंडों को बेतरतीबी से नीचे फेंक दिया हो. गौतम और मैं बहुत बहस करने के बाद मान गए कि यह जरूर हनुमान रहे होंगे. हम जानते थे कि वह पहाड़ों को उठा सकते थे और स्वयं शिव के ही अवतार थे. हमारे लिए यह मिथक और आश्चर्य से भरी यात्रा थी.
चढ़ाई के समय जब भी हम थक कर लड़खड़ा जाते तो पीछे से सुनाई पड़ने वाला नारा "बोल बम!" हमें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता. कभी-कभी मेरे पिता और उनके दोस्त यह नारा लगाते जो जानबूझ कर हमारे पीछे चल रहे थे ताकि वे हम पर नजर रख सकें. हमें लगा कि उनमें से हर एक हमारा ख्याल रख रहा है. हम जानते थे कि कांवड़िए अक्सर एक-दूसरे को बुलाने के लिए "बम" शब्द का इस्तेमाल करते थे लेकिन हमें पहले कभी इस तरह से संबोधित नहीं किया गया था. हर बार जब भी हम में से एक को बम कहा जाता है, तो यह हमें अचकचा देता.
पहाड़ी की चोटी पर पहुंचने पर हमें एक छोटा सा मंदिर मिला जिसमें एक छोटा दरवाजा था. वहां पहले से ही बहुत कम जगह थी और उसमें कांवड़ियों भर गए थे. हम मंदिर तक नहीं जा सके और न ही अंदर रखी मूर्ति को देख सके. कई कांवड़ियों ने दूर से ही जोर से "बोल बम" कह कर अपना पानी मंदिर के दरवाजे पर ही उड़ेल दिया.
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