जायज नहीं किसान आंदोलन पर बेहिसाब उम्मीदों का बोझ लादना

किसान आंदोलन की ताकत थी कि मोदी सरकार के लगभग सभी विरोधी शुरुआत में उसके पीछे खिंच आए लेकिन आंदोलन ने कभी भी उन सभी आशाओं और अपेक्षाओं को पूरा करने की आकांक्षा नहीं रखी. दानिश सिद्दीकी / रॉयटर्स
22 November, 2021

साल भर से भी ज्यादा समय हो गया है नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा तीन कृषि कानूनों को पारित किए हुए. लेकिन उनके खिलाफ जारी प्रतिरोध आंदोलन आज के भारत में एक व्यापक और सतत विरोध आंदोलनों में से एक रहा है. अपनी व्यापकता और दृढ़ता के साथ यह आंदोलन विभिन्न समूहों के लिए उम्मीद की किरण लेकर आया और इससे सभी की अपनी-अपनी उम्मीदें रही हैं. इनमें से कई तो उन मुद्दों से संबंधित हैं जो कभी भी आंदोलन का हिस्सा नहीं थे. सरकार की विराट प्रचार मशीनरी, जिसमें मुख्यधारा की लगभग सारी मीडिया शामिल है, ने इन उम्मीदों को हवा दी और हर गलती को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया और आंदोलन और सहभागी समूहों के बीच दरार को चौड़ा करने का काम किया. इसने आंदोलनों को ऐसी कसौटी पर रख दिया जिसे अमल में लाना मुमिकन ही नहीं है.

सिंघु बॉर्डर पर लखबीर सिंह की लिंचिंग ने एक बार फिर जाति के मुद्दे सहित इन मुद्दों को तेजी से फोकस में ला दिया है. खबरों के मुताबिक सिख धर्म में धर्मान्तरित दलित समुदाय के लखबीर को अक्टूबर में निहंग सिखों ने काटकर हत्या कर दी. उस पर एक धार्मिक किताब की बेअदबी का आरोप लगाया गया था.

इस घटना को ध्यान में रखते हुए इस बात को फिर से दोहराना बेहतर होगा कि यह आंदोलन किसका प्रतिनिधित्व करता है. इसके निशाने पर नए कानूनों के तहत प्रस्तावित कृषि का निगमीकरण है जिसके प्रभाव पर मैंने इस पत्रिका के मार्च अंक में विस्तार से चर्चा की है. इन कानूनों को उन क्षेत्रों में सबसे मजबूत चुनौती का सामना करना पड़ा है जहां सरकारी खरीद के मौजूदा मॉडल के तहत कृषि संगठित और टिकाऊ है, जो किसानों को एक मामूली वित्तीय सुरक्षा देती है. मोटे तौर पर पंजाब से पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैली इस बेल्ट में जमीन पर बड़े पैमाने पर जट्ट सिख और हिंदू जाट किसानों का मालिकाना है और वही खेती भी करते हैं. इन्होंने हरित क्रांति के दौरान सरकारी प्रोत्साहनों को सबसे बेहतर ढंग से अपनाया.

जमीन के मालिकाने और सत्ता में जातीय असमानताएं इन क्षेत्रों में भी सामाजिक संबंध की भारतीय हकीकत को दर्शाती हैं. किसान आंदोलन का कैडर न तो ऐसी सामाजिक वास्तविकता से है जो विश्वमानव होने के करीब हो और न ही इस हकीकत को बदलने के नजरिए से आंदोलन कर रहा है. जो बात आंदोलनकारियों को साथ लाती है वह यह अहसास है कि नए कानूनों के जरिए पेश किया गया वैकल्पिक आर्थिक मॉडल मौजूदा हालात से भी बदतर है. खासकर जट्ट और जाट किसानों के लिए और क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था इन्हीं की कमाई पर टिकी है तो पूरे ग्रामीण समुदायों के लिए. बिहार जैसे राज्यों की स्थिति से इस तबाही का अंदेशा हो जाता है जहां इन कानूनों का एक रूप दशक भर से ज्यादा समय से विनाशकारी नतीजों के बावजूद लागू है.

आंदोलन का नेतृत्व काफी हद तक इसी पृष्ठभूमि से है, भले ही उनकी वैचारिक और धार्मिक प्रेरणाएं अलग-अलग हैं. आंदोलन के प्रमुख समर्थन क्षेत्र, पंजाब के ज्यादातर आंदोलन के नेता इस इलाके में रही वामपंथी सक्रियता की लंबी परंपरा से आते हैं जो आर्थिक असमानता की धुन में सधे देश के बाकी वामपंथियों की तरह जाति की हकीकत से प्रभावी ढंग से निपटने में विफल रहे थे. हालांकि आंदोलन के नेतृत्व ने किसी भी अन्य की तुलना में, दूसरे समुदायों तक पहुंचने की कोशिश की है. यह नेतृत्व काफी हद तक जट्ट सिखों से बना है. पंजाब से अलग आंदोलन के एकमात्र प्रमुख नेता राकेश टिकैत हैं जो भारतीय किसान यूनियन के जरिए अपने पिता की विरासत पर टिके हैं जो जाट खाप के लोकाचार पर आधारित है.

आंदोलन के कैडर का एक कोर वामपंथ से जुड़ा है लेकिन बड़ी संख्या में प्रदर्शनकारी अन्य पृष्ठभूमि से आते हैं. पंजाब के कई लोग सिख हैं, जो उसी तरह की एक कृषि जीवन शैली और आदिवासी सम्मान के विचार को साझा करते हैं, जैसा कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट कैडर में है. आंशिक रूप से दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाला खेत मजदूर संगठन आंदोलन के समर्थन का केवल एक छोटा सा हिस्सा हैं, हालांकि लिबरल मीडिया द्वारा कवरेज में उनकी भागीदारी को अक्सर बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है.

कैडर की संरचना इसे यह लाभ देती है कि हिंदुत्ववादी सरकार इसे आसानी से काबू में नहीं कर सकती. यह हिंदुओं और सिखों को आपस में जोड़ता है. इसके पास लंबे समय तक आंदोलन जारी रखने के लिए संसाधन और पिछले अनुभव हैं. इसे आंदोलन के मूल क्षेत्रों में मोदी की भारतीय जनता पार्टी और इसकी विचारधारा का समर्थन करने वालों द्वारा संख्यात्मक रूप से नहीं देखा जा सकता. यही ताकतें शुरुआत में मोदी सरकार के लगभग सभी विरोधियों को आंदोलन के पीछे ले आई लेकिन आंदोलन ने कभी भी उनकी सारी आशाओं और अपेक्षाओं को पूरा करने की कोशिश नहीं की, न ही आंदोलन इसके लिए किया गया.

शुरू से ही आंदोलन का एक मुख्य अंतर्विरोध पंजाब में वाम और सिख लोकाचार के बीच लंबे समय से चली आ रही गुत्थम-गुत्थी के इर्द-गिर्द घूमता रहा है. एक आम संघर्ष में इन असमान ताकतों का संयोजन अपने आप में एक नई चीज है और इस जोड़ी ने बड़े पैमाने पर काम किया है, सिवाय इसके कि जहां सिख कट्टरपंथियों ने आंदोलन को अपने उस लक्ष्यों तक ले जाने की कोशिश की है जिनका खेती से कोई लेना-देना नहीं है.

ऐसे कई कट्टरपंथियों ने, जो भारत में तो बहुत कम हैं लेकिन प्रवासी भारतीयों में जिनकी संख्या काफी है, खालिस्तान के विचार को आगे बढ़ाने की कोशिश की है. ऐसा लगता है कि इसका पंजाब में तो लगभग कोई लेना-देना नहीं, केवल सोशल मीडिया पर इसकी मौजूदगी है. उन्होंने जरनैल सिंह भिंडरांवाले के पंथ को भी पूरा करने की कोशिश की है जिसके समर्थकों की संख्या अधिक होने के बावजूद सीमित है. यह कट्टरपंथी वास्तव में आंदोलन में बहुत कम योगदान देते हैं लेकिन आंदोलन करने वाले सिख किसानों से अपने कारणों के प्रति निष्ठा की मांग करने का हकदार महसूस करते हैं. इस तरह की कोई भी भावना विरोध को धार्मिक आधार पर विभाजित कर देगी, उनके लिए यह कोई चिंता का विषय नहीं है, क्योंकि वे आंदोलन को भारतीय राज्य से अलग सिख पहचान को बढ़ावा देने के एक अन्य साधन के रूप में देखते हैं.

वामपंथी नेतृत्व ने इन तत्वों से दूर रहने की कोशिश की है जो पंजाब के बाहर जन धारणा में राज्य की तुलना में कहीं अधिक प्रभाव डालते हैं. बीजेपी समर्थक भारतीय मीडिया ने चुनिंदा रूप से इन अलग-थलग पड़े अभिनेताओं को राष्ट्रीय आवाज दी है. दीप सिद्धू जैसे एक असफल अभिनेता जिनकी अपनी कोई वास्तविक स्थिति नहीं है, ने खालिस्तान जैसे मुद्दों पर अपनी भव्यता के जरिए चंद मिनटों की प्रसिद्धि का मजा लिया है.

पिछले कई सालों में पारंपरिक सिख नेतृत्व यानी अकालियों के पतन से यह आसान हो गया है. जवाब देने के लिए जिनके पास बहुत कुछ है लेकिन अलगाववाद की उन्होंने कभी वकालत नहीं की है. खालिस्तानी नेटवर्क का हमेशा से भारतीय खुफिया विभाग के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है, जैसा कि पूर्व खुफिया अधिकारियों सहित कई लेखकों की हाल की कई किताबों में स्पष्ट रूप से स्थापित हुआ है. भारतीय राज्य का दीप सिद्धू के साथ लगातार उकसावे की स्थिति में भी रवैया बेहद ढिलाई का रहा. जबकि शाहीन बाग या भीमा कोरेगांव से जुड़े लोगों को उसी वक्त बहुत ज्यादा गंभीर परिणामों का सामना करना पड़ा है. यह दर्शाता है कि राज्य इस लॉबी का अपने हिसाब से दुतरफा इस्तेमाल करता है.

वामपंथी नेतृत्व ने अधिकांश कैडरों के प्रमुख सिख लोकाचार के जरिए विभाजन के पार पहुंचने की उम्मीद की है लेकिन मजबूत उदारवादी सिख आवाजों की गैरमौजूदगी में इसने अलग-​थलग पड़े तत्वों को आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने दी. इस मामले में सीमित विकल्प के साथ वामपंथी बयानबाजी में सिख भावनाओं को साथ के लिए भावनात्मक बल नहीं है. नेतृत्व ने विरोध स्थल के मंचों को उन निहंगों जैसे समूहों के लिए भी खोलने की अनुमति दी है, जिनका किसानों के मुद्दों से बहुत कम लेना-देना है. निहंग सिखों के बीच एक उग्रवादी व्यवस्था है. निहंग अपने आप में एक कानून हैं. यहां तक ​​​​कि कट्टर सिख गुरु भी उन पर बहुत कम नियंत्रण रखते हैं. जब निहंगों ने एक बर्बर हमले के लिए पवित्र किताब की बेअदबी का बहाना बनाया, तो नेतृत्व के पास उनसे दूरी बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था. लेकिन इसने कभी इसका जवाब नहीं दिया कि यह पहले भी उनका समर्थन लेने के प्रति क्यों आकर्षित हो रहा था. इसका एक ईमानदार जवाब इस बात को स्वीकार करना होगा कि आंदोलन का जीवन नेतृत्व के नियंत्रण की सीमा से परे एक जैविक जीवन है और कोई भी व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह पूरी तरह से इसका प्रभारी नहीं है.

दीप सिद्धू जैसे तत्वों के मेल-जोल से और एक हुक्मबरदार मीडिया के इस लाइन को तोते की तरह रटना आंदोलन के अन्य हितों के लिए एक आड़ है. जनवरी में दिल्ली के लाल किले पर धावा बोलने से आंदोलन को हुए नुकसान की भरपाई अभी भी नहीं हुई है. भारतीय जनता, खासकर मध्यम वर्ग अपने हितों को लेकर चंचल और जटिल मुद्दों पर राय रखने की क्षमता में सीमित और मीडिया से काफी प्रभावित रहा है. जिसके चलते पंजाब और हरियाणा के बाहर आंदोलन के लिए प्रारंभिक समर्थन काफी कम हो गया है. लखबीर सिंह की हत्या का अधिकांश कवरेज इस दायरे को और बढ़ाता सा है.

अगर सिख चरमपंथ आंदोलन पर एक बोझ डालता है, तो दूसरा बहुत अलग तरह की अपेक्षा से आता है. जितना संभव हो सके एक व्यापक समर्थन के लिए आंदोलन के नेताओं ने शुरुआत से ही मजदूरों और दलित समूहों के साथ एकजुटता दिखाने की कोशिश की है. जिसे अक्सर बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है. प्रदर्शन स्थल पर एक दलित पर हमला उन आरोपों के प्रति खासतौर पर संवेदनशील हो जाता है कि आंदोलन जमींदार समूहों के हितों को आगे बढ़ाने का एक साधन है. खालिस्तानियों को उकसाने का आरोप भी आंदोलन के लिए उतना हानिकारक नहीं है जितना यह दावा कि लखबीर की हत्या धर्म साध कर किया गया एक जातीय अपराध है.

इस मुद्दे का मूल्यांकन इस वास्तविकता के खिलाफ किया जाना चाहिए कि भले ही यह आंदोलन जीत हासिल कर ले, यह पंजाब में वर्ग या जाति के समीकरणों को बदलने वाला नहीं है. फिर भी इन दायरों में एकता कायम करने की कोशिश, भले ही वह सामरिक हो, उस सामाजिक सच्चाई को सामने लाने की शुरूआती हालत पैदा करती है जो उनसे ऐसा करने की चाह रखती है और जिसे उन्होंने अब तक बड़े पैमाने पर भुला दिया गया है. शायद इसी वजह से आंदोलन के समर्थक हत्या की प्रतिक्रिया में बचाव की मुद्रा में दिखे. कुछ लोगों ने तर्क दिया कि अगर मामला ऐसा ही है ​जैसा कि निहंगों ने इसके औचित्य में दावा किया है, तो उनकी बर्बर प्रतिक्रिया लगभग उसी तरह की है जैसी की अपराधी के ब्राह्मण होने पर होती. लेकिन इस बिंदु पर जोर देते हुए, कई लोगों ने यह दावा किया कि सिख धर्म में जाति कोई मुद्दा नहीं है. लेकिन सच्चाई अलग है. जाति की सामाजिक वास्तविकता पंजाब में अत्यधिक प्रचलित है और अक्सर तीखे भेदभाव का कारण बनती है. हालांकि, सिख धर्म में जाति के औचित्य को सा​बित करने के लिए कोई धर्मशास्त्रीय आधार नहीं है और यह हिंदी पट्टी के समाज से बेहतर है.

बेअदबी के मुद्दे को पंजाब के हाल के इतिहास के विपरीत देखा जाना चाहिए. एक ऐसा इतिहास जिसे अक्सर देश के बाकी हिस्सों द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है. जो राज्य की ओर तभी ध्यान देता है जब वह बड़ी उथल-पुथल में होता है. पंजाब के आतंकवाद के बाद के युग से सिख धार्मिक पहचान सख्त हो गई है, इस प्रक्रिया में देश के अधिकांश हिस्सों में हिंदुत्व के बढ़ते ज्वार की प्रतिक्रिया के रूप में काफी तेजी आई है. पंजाब की वर्तमान कांग्रेस सरकार से पहले अकाली शासन के समय गुरु ग्रंथ साहिब की बेअदबी की कई घटनाओं ने राज्य को झकझोर दिया था, हालांकि उनमें से किसी की भी संतोषजनक जांच नहीं हुई थी.

इसके बाद बेअदबी की किसी भी खबर ने कथित घटनाओं की गंभीरता के अनुपात से कहीं अधिक दहशत पैदा की है. जिसके चलते कुछ सबसे घिनौने कारनामों में दलितों को निशाना बनाया है. पिछले साल कारवां ने एक दस वर्षीय दलित लड़की के मामले को बेतुके ढंग से फंसाए जाने की रिपोर्ट की, जिस पर एक गुरुद्वारे में गुरु ग्रंथ साहिब के पन्नों को फाड़ने का आरोप लगाया गया था जहां वह नियमित रूप से सेवा किया करती थी. लड़की, उसके माता-पिता और उसके सात वर्षीय भाई को अदालत में पेश किए बिना तीन रातों तक एक पुलिस स्टेशन में हिरासत में रखा गया. इस तरह के मामले केवल इस बात को दोहराते हैं कि जब दलितों को गुरु ग्रंथ साहिब तक पहुंचने या ग्रंथियों के रूप में सेवा करने में कोई रोक नहीं है, जो धार्मिक समारोहों में पुस्तक का पाठ करते हैं. लेकिन जब सिख समुदाय की बेअदबी के कामों के लिए बलि का बकरा खोजने की बात आती है तो दलितों को निशाना बनाने की पूरी संभावना है.

यह कहना जल्दबाजी होगी कि क्या सिंघु का मामला इसी श्रेणी में आता है क्योंकि अभी भी ऐसी खबरें आ रही हैं. कथित बेअदबी के इस मामले में सिखों का पवित्र ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब शामिल नहीं है बल्कि एक दूसरी किताब की कथित बेअदबी हुई है, जिसका सम्मान निहंग करते हैं. मुख्यधारा के मीडिया घरानों ने आंदोलन के पूरे नेतृत्व पर हमला करने के लिए इसमें कूदने और निहंगों की बर्बरता का इस्तेमाल करने से पहले मामले के साफ होने तक का इंतजार नहीं किया.

अगर बेअदबी और दलितों को निशाना बनाना मीडिया की वास्तविक चिंता होती तो पहले के मामले जैसे कि ऊपर उल्लेखित मामले, वस्तुतः अप्रकाशित नहीं होते. निहंगों के खूनी कृत्य से स्पष्ट रूप से खुद को दूर करने वाले सिख नेताओं को निशाना बनाने वाले वही आउटलेट लखीमपुर खीरी में क्रूरता पर मोदी की चुप्पी पर सवाल करने के बारे में नहीं सोचेंगे. प्रधानमंत्री ने अपने गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा के बेटे द्वारा वहां विरोध कर रहे किसानों की सामूहिक हत्या की निंदा करते हुए एक शब्द भी नहीं कहा है. मिश्रा को अपने मंत्रिमंडल का हिस्सा बने रहने देने का मोदी का फैसला अपराध में उनकी संलिप्तता की खुद मंजूरी है क्योंकि वह जानते हैं कि मिश्रा के बेटे को अपने पिता से हौसला मिलता है.

इस पृष्ठभूमि के उलट, किसान आंदोलन को उसके मूल लक्ष्यों से आंका जाना चाहिए. आंदोलन की सफलता, जो एक हद तक तय है, बताएगी कि इस सरकार की मनमानी का एक मजबूत विरोध मुमकिन है, देश में कारपोरेट समर्थक कानूनों को चुनौती दी जा सकती है और किसी कानून को हकीकत बनाने के लिए सबसे अधिक प्रभावित लोगों की लोकतांत्रिक सहमति अभी भी जरूरी है. आंदोलन पहले ही बहुत कुछ हासिल कर चुका है और इस आंदोलन से गहरी जड़ें जमा चुकी सामाजिक असमानता को बदलने या पर्यावरण को साफ करने या खालिस्तान या किसी भारतीय यूटोपिया में घुसने की उम्मीद करना बहुत कम समझ में आता है. किसान आंदोलन को उन अपेक्षाओं के उलट नहीं आंका जा सकता है जिन्हें उन्होंने न तो खुद उठाया है और न ही संबोधित करने का दावा किया है.