“मुजारों ने बिस्वेदरी प्रणाली के खिलाफ लड़ाई लड़ी. मौजूदा आंदोलन कारपोरेट पूंजीवाद के खिलाफ है,'' पंजाब के मनसा जिले के बीर खुर्द के किसान किरपाल सिंह बीर ने मुझे बताया. 1920 के दशक में जब पंजाब का बंटवारा नहीं हुआ था, पट्टेदार किसानों ने राजाओं, जमींदारों और ब्रिटिश अधिकारियों से भूमि स्वामित्व अधिकार के लिए आंदोलन किया था. उस आंदोलन को मुजारा आंदोलन के नाम से जाना जाता था. किरपाल और उनके भाई सरवन सिंह बीर ने लगभग तीन दशकों तक बिस्वेदरी प्रणाली के खिलाफ लड़ाई लड़ी है. बिस्वेदारी प्रणाली जमीन के किराए से संबंधित व्यवस्था थी. किरपाल अब 93 साल के हैं और इस उम्र में भी जोश से लबरेज हैं. वह खुद को कॉमरेड बताते हैं. मैंने दिसंबर 2020 में उनसे बात की. तब वह कृषि कानूनों के खिलाफ जारी आंदोलन में शामिल होने दिल्ली की सीमाओं पर कई दिन बिता चुके थे. "हालांकि दोनों आंदोलनों में फर्क है. फिर भी मुझे लगता है कि मैं उसी पुरानी सत्ता से लड़ रहा हूं," उन्होंने मुझे कहा.
मुजारा या पट्टेदार किसान आंदोलन एक संगठित प्रयास था और इसकी जड़ें 1920 के प्रजा मंडल आंदोलन में थीं. प्रजा मंडल उपमहाद्वीप में ब्रिटिश और देशी कुलीन तंत्र के खिलाफ लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग के लिए स्थानीय लोगों का आंदोलन था और इसने दो शताब्दियों से इस क्षेत्र में लोगों और किसानों के आंदोलनों की परंपरा को आगे बढ़ाया.
इस ऐतिहासिक आंदोलन की गूंज किसानों के चल रहे विरोध प्रदर्शनों में सुनाई देती है. मैंने मौजूदा किसान आंदोलन में शामिल कई ऐसे लोगों से बात की, जिनके पुरखों परिजनों ने मुजारा आंदोलन में भाग लिया था. उनके लिए मौजूदा आंदोलन कारपोरेट घरानों से जमीन बचाने की लड़ाई है. उनके मानना है कि हाल के कृषि कानून विघटनकारी हैं जो एक सदी पहले की तरह ही किसानों के अधिकारों को खतरे में डालते हैं. दोनों आंदोलनों के बीच समानताएं भी हैं. जैसे दोनों आंदोलनों और उसके चलते हुई किसान गोलबंदी की जड़ में सरकार की नीतियां रही और दोनों ही आंदोलन जमीन के अधिकार की लड़ाई हैं. सत्ता के प्रति अविश्वास दोनों आंदोलनों में था. राज्य की प्रतिक्रिया में भी समानता दिखाई देती है. दोनों ही बार राज्य ने विरोध प्रदर्शनों को ध्वस्त करने के लिए राज्य मशीनरी का इस्तेमाल किया.
विरोध प्रदर्शन को अब छठा महीना हो चला है और सरकार लगातार आंदोलन को अवैध बताने की कोशिश करती रही है, खासकर 26 जनवरी की किसान रैली के दौरान हुई हिंसा के बाद से. कई आंदोलनकारियों के लिए यह मुजारा आंदोलन की तरह ऐतिहासिक आंदोलन हैं जो अतीत से यह सबक हासिल करता है कि किसी लंबे संघर्ष को कैसे जारी रखा जाए.
मुजारा एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है साझा-खेती. इसके तहत कोई जमींदार किसी खेत मजदूर या जोतदार को पहले से तय उपज के हिस्से के बदले जमीन का एक टुकड़ा पट्टे पर देता है. इतिहासकार मुजफ्फर आलम के मुताबिक 1709 में सिख योद्धा बाबा बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब में मुगल युग की जमींदारी व्यवस्था को खत्म कर दिया था. गुरु गोबिंद सिंह की मृत्यु के बाद बंदा सिंह ने 1708 से 1715 के बीच मुगल साम्राज्य के खिलाफ सिख विद्रोह का नेतृत्व किया था. हालांकि 1793 में तत्कालीन ब्रिटिश भारत के कमांडर-इन-चीफ चार्ल्स कॉर्नवॉलिस ने स्थायी निपटान अधिनियम, 1793 के तहत जमींदारी प्रथा को फिर से चालू कर दिया. इस कानून ने ब्रिटिश सरकार के प्रशासनिक ढांचे को कानूनी रूप दिया. कॉर्नवॉलिस के भूमि सुधारों में उप-महाद्वीप में मौजूदा भूमि स्वामित्व प्रारूपों के आधार पर कई क्षेत्रीय भिन्नताएं थी. इसकी एक सामान्य विशेषता जमींदारों और रियासतों के प्रमुखों को भूमि का नियंत्रण प्रदान करना भी थी. पंजाब में नियमों ने सामंती प्रभुओं का साथ दिया और उन्हें भूमि पर अधिकार दिया और जोतदार के स्वामित्व को कमजोर कर दिया. इस "स्थायी बंदोबस्त" का प्राथमिक उद्देश्य एक देशी शासक वर्ग का निर्माण करना था जो ब्रिटिश समर्थन हो और उसकी मदद से पंजाब के एक बड़े हिस्से पर नियंत्रण हो सके.
ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि इस प्रणाली के तहत दो तरह के काश्तकार होते थे जो खेती करते और जमींदारों को उनका हिस्सा देने और ब्रिटिश सरकार द्वारा बिस्वादारों से भू-राजस्व की एक निश्चित राशि लेने के बाद फसल का एक हिस्सा रख लेते. एक थे दखलकारी काश्तकार, जिन्हें निष्कासित नहीं किया जा सकता था लेकिन जमींदार को अत्यधिक कर का भुगतान करना होता था. दूसरे थे निर्भर काश्तकार या मुजारस, जिन्हें कानूनी नोटिस देकर जमीन से बेदखल किया जा सकता था. जैसे-जैसे समय बीतता गया, ज्यादा से ज्यादा काश्तकारों को बाद की श्रेणी में डाल दिया गया और पूरे गांव मुजारस बन गए. इस प्रणाली को बिस्वेदारी प्रणाली या चरम पट्टेदारी के रूप में जाना जाता है. इन वर्षों में बिस्वेदारों ने बटाई का ज्यादा से ज्यादा हिस्सा वसूलना शुरू कर दिया. यहां तक कि राजाओं ने पट्टेदारों से ज्यादा से ज्यादा हिस्सा लेने के लिए विस्तृत कानून बनाए. उदाहरण के लिए अगर मालिक या पट्टेदार परिवारों में जन्म और विवाह होते तो कुछ हिस्सा महाराजाओं को भोग के रूप में भेजा जाना होता था.
बीसवीं शताब्दी की शुरुआत तक पंजाब क्षेत्र ब्रिटिश शासित प्रदेशों का एक समूह था, जिसे ब्रिटिश प्रशासित पंजाब के नाम से जाना जाता था. इसमे दिल्ली, रावलपिंडी, लाहौर, मुल्तान, और जुल्लुंदुर तथा पटियाला, जींद, नाभा , सिरमौर, पटौदी और कलसिया जैसी रियासतें या देशी राज्य शामिल थे. राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन गति पकड़ रहा था और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन हो रहे थे. 1927 में पंजाब क्षेत्र के सुनाम, मनसा और ठिकरीवाला में प्रजा मंडल के कई सम्मेलन हुए. 17 जुलाई 1928 को अकाली आंदोलन के एक नेता सेवा सिंह ठिकरीवाला ने आधिकारिक तौर पर पटियाला से रियासती प्रजा मंडल आंदोलन शुरू किया. ठिकरीवाला इसके अध्यक्ष थे और अकाली नेता भगवान सिंह लौंगोवालिया इसके महासचिव थे. अकाली आंदोलन सिख पूजा स्थलों के सुधार का अभियान था.
मुजारा आंदोलन के उदय को देखते हुए लेखक चज्जू मल वैद ने अपनी पुस्तक पेप्सु मुजारा घोल में लिखा है कि प्रजा मंडल आंदोलन कई गठबंधनों और संरचनाओं के लिए शुरुआती बिंदु था. 1929 तक लगभग 784 गांव मुजारा में शामिल हो गए.
1936 में अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया गया और 1937 में इसकी पंजाब इकाई शुरू हुई. प्रजा मंडल के नेताओं ने अपनी मांगों को एआईकेएस में मिला लिया. 1948 में नाभा, जींद, पटियाला, कपूरथला, मालेरकोटला, फरीदकोट, कलसिया और नालागढ़ की आठ रियासतें स्वतंत्र भारत के एक नए राज्य के रूप में विलय हो गईं, जिसे पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ कहा जाता है. पीईपीएसयू को महाराजाओं के शासन को बनाए रखने के लिए बनाया गया था और नई रियासतों के तहत भूमि व्यवस्था ने उनका समर्थन किया. इसका मतलब यह था कि आजादी के बाद काश्तकार किसानों की हालत नहीं बदली. उनके लिए शासक, जमींदार और राजा बने रहे. 1948 में स्वतंत्रता सेनानी और कम्युनिस्ट नेता तेज सिंह सुतांतर ने लाल कम्युनिस्ट पार्टी का गठन किया. एआईकेएस, प्रजा मंडल और मुजारा आंदोलन ने पार्टी के साथ हाथ मिलाया. उनकी मांगें थी : जमीन जोतने वालों को जमीन का मालिकाना.
29 मई 1952 को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के एक नेता जगसीर सिंह जोगा के नेतृत्व में मनसा में आयोजित एक विशाल सम्मेलन में, बिस्वादारों ने स्वेच्छा से अपनी कुछ जमीन सरकार या काश्तकारों से बिना किसी मुआवजे के दे दी. 784 गांव जो आंदोलन का हिस्सा थे उन्हें यह जमीन मिली. उसी वर्ष लाल कम्युनिस्ट पार्टी का सीपीआई की पंजाब इकाई के साथ विलय हो गया. 1953 में दो और सुधार हुए जब पीईपीएसयू राष्ट्रपति शासन के अधीन था, जिसने मुआवजे के बाद काश्तकारों के मालिकाना हक की इजाजत दी. इसके बाद 1955 में भूमि हदबंदी कानून आया जिसके बाद जमीनदारों को अपनी जमीन का हिस्सा रखने के बाद बाकी हिस्सा काश्तकारों में बांटने के लिए राज्य पर छोड़ दिया. मुजारा संघर्ष का समापन स्थायी काश्तकारों को दिए गए भूमि स्वामित्व अधिकारों के साथ संपन्न हुआ.
मौजूदा किसान आंदोलन को भी ज्यादातर वामपंथी यूनियनों और उनके कैडर द्वारा चलाया जा रहा है. कृषि कानूनों के पारित होने के बाद के शुरुआती हफ्तों में पंजाब के 31 किसान संघों ने एक जुट हो कर 25 सितंबर को एक सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम के तहत देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया. इसके बाद के दो महीनों में पंजाब के टोल प्लाजा, रेलवे स्टेशन और कारपोरेट के स्वामित्व वाले पेट्रोल पंपों के सामने विरोध करने वालों का सैलाब उमड़ पड़ा. फरवरी 2021 तक स्थिति यह है कि दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे आंदोलन के साथ 500 से अधिक यूनियनें राष्ट्रव्यापी किसान मोर्चा के बैनर तले आ गई हैं.
जागीर सिंह पंजाब के संगरूर जिले के गांव रेठगढ़ के निवासी हैं. वह 12 साल की उम्र में लाल कम्युनिस्ट पार्टी में सक्रिय हो गए थे. जब मैंने उन्हें फोन किया तो उन्होंने कहा, "दो घंटे बाद कॉल करना, मैं तब तक जो कुछ हुआ था उसे याद करके लिख लूंगा." बाद में उन्होंने बताया, "यह प्रजा मंडल के नेताओं, सेवा सिंह ठिकरीवाला, हीरा सिंह भट्टल, हजुरा सिंह मटरन, का संकल्प ही था जिन्होंने समर्पित होकर लड़ाई लड़ी." उन्होंने जमींदारों के किराए के उन गुंडों के साथ अपनी मां की मुठभेड़ों के बारे में भी बताया जो सरसों का साग पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले सरसों से भी हिस्सा मांगते थे. "अगर वह दस पौधे तोड़ती तो पांच जमींदार को सौंपने होते.''
उन्होंने मुझे बताया कि 1955 में वह भारतीय दंड संहिता की धारा की 447 (आपराधिक अत्याचार) के आरोप में जिले में लद्दा कोठी जेल में छह महीने बंद रहे. उन्होंने कहा कि आंदोलन की सफलता के बाद, उन्हें चार किला भूमि प्राप्त हुई (एक किला 0.9 एकड़ के बराबर होती है) और बाद में वह दो किला और खरीदी. उनके दो बेटे हैं. एक बेटा कनाडा में रहता है और दूसरा राजमिस्त्री है और उसके दो बेटे हैं. जागीर ने किसान आंदोलन में शामिल होने के अपने फैसले के बारे में कहा, "जब मैं छोटा था तो हमारे बड़े बताते थे कि अतीत एक ऐसी चीज है जिसे पिछली पीढ़ी से लेकर अगली पीढ़ी को सौंपना होता है." लाल कम्युनिस्ट पार्टी के साथ अपने अनुभव के बारे में उन्होंने कहा, “वक्त के साथ आंदोलन का रूप भी बदलता है. अगर मोदी नहीं मानते हैं तो आंदोलन का मौजूदा स्वरूप भी बदल जाएगा.” उन्होंने कहा कि "चूंकि इसकी अगुवाई कॉमरेड कर रहे हैं इसलिए पूरा यकीन है कि नतीजा आएगा”.
जमीन के मालिकाना हक की मुजारा आंदोलन की प्रमुख मांग जमीन मालिकों के साथ-साथ अधिकारियों की प्रवृत्ति से उपजी थी. 1900 के दशक की शुरुआत में पूर्वी पंजाब की रियासतों के एक बंदोबस्त अधिकारी पोफम यंग ने कहा था कि मालिकाना विवाद सामंती प्रभुओं की के पक्ष में जाता है. यंग के दस्तावेजों में उल्लेख है कि ज्यादातर मामलों में राज्य की अदालत ने इस तरह के विवादों का निपटारा काश्तकार को भूमि के स्वामित्व के बजाय स्थायी पट्टेदारी देकर किया था. ऐसा करना अस्थायी पट्टेदारी से मामूली रूप से बेहतर था. इसमें कोई ज्यादा फर्क भी नहीं है कि मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और सुरक्षा) समझौता अधिनियम-2020 बड़े कारपोरेटों को किसानों के साथ अनुबंध पर हस्ताक्षर करने की इजाजत तो देता है लेकिन उपलब्ध कानूनी बड़े व्यावसायिक घरानों का हित साधते हैं. नया कानून किसानों को कोई सुरक्षा नहीं देता है. वे अंतिम तौर पर सिर्फ किसी उप-विभागीय मजिस्ट्रेट के पास जा सकते हैं और कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए कारपोरेट के बराबर संसाधन भी उसके पास नहीं हैं.
खासकर यह प्रावधान उन आठ संशोधनों में से एक था जिन्हें केंद्र सरकार ने 8 दिसंबर 2020 को किसान नेताओं के साथ वार्ता के एक हिस्से के रूप में प्रस्तावित किया था. सरकार के प्रस्ताव ने किसानों को दीवानी अदालतों में जाने की अनुमति दी. हालांकि, संयुक्त किसान मोर्चा ने अगले दिन संशोधनों को खारिज कर दिया और कहा कि ''प्रस्ताव किसानों की मांगों से काफी कम हैं.''
''मोदी सरकार औपनिवेशिक और महाराजा शासन की तरह दमनकारी है. यही कारण है कि मैं 4 जनवरी को हुई सातवें दौर की बैठक को भी विफल समझता हूं," सतनाम सिंह अजनाला ने कहा. मैं 3 जनवरी को उनसे सिंघू बॉर्डर पर मिली. बैठकों के सभी 11 दौर अंततः विफल रहे. अजनाला जम्हूरी किसान सभा के प्रदेश अध्यक्ष हैं जो संयुक्त किसान मोर्चा का हिस्सा है. उन्होंने कहा कि सफल होने के लिए, "हमें अधिक किसानों को जोड़ने की जरूरत है." उनके अनुसार पंजाब में 17 लाख और भारत में 14 करोड़ किसान परिवार हैं. उन्होंने अनुमान लगाया कि प्रदर्शनकारियों की संख्या अभी भी पंजाब के किसान परिवारों का एक प्रतिशत भी नहीं है.
मुजारा नेता किरपाल ने प्रदर्शनकारी किसानों की ताकत बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर दिया. उन्होंने स्पष्ट किया, ''उस समय भी पहले तो संपन्न काश्तकार पट्टेदारों की लड़ाई में शामिल नहीं हुए थे लेकिन जब उनकी जमीन भी आगे चलकर उनके बच्चों के बीच बंट गई तो उनकी हालत भी दयनीय हो गई और उनके स्थायी पट्टे भी छीन लिए गए. तब वे भी इसमें शामिल हो गए. मौजूदा आंदोलन भी इसी तरह का है. छोटे किसान लड़ रहे हैं, बड़े किसान अभी भी इसमें शामिल नहीं हुए हैं.”
वैद की पुस्तक में इसका जिक्र है कि बीसवीं शताब्दी के पहले तीन दशकों के दौरान मिट्टी की उर्वरता कम होने से फसल की पैदावार कम हुई लेकिन जमींदार की बटाई की मांग हर साल बढ़ती गई. महाराजाओं की वसूली की मांग ने बोझ को और बढ़ा दिया. इससे पट्टेदारों के पास गुजारा चलाने के लिए बहुत थोड़ा ही अनाज बच पाया और इसके चलते लोगों को भारी ब्याज दरों पर कर्ज लेना पड़ा. उत्पादन के साधन भी पट्टेदारों पर बोझ थे. जब बिस्वादारों ने कर बढ़ाए, तो भुगतान न कर पाने के चलते कई पट्टेदारों को अपने स्थायी पट्टों से हाथ धोना पड़ा. अधिक से अधिक परिवार अस्थायी पट्टेदार हो गए.
पट्टेदारों के लिए इसका नतीजा अत्याचार की त्री-आयामी संरचना के रूप में सामने आया, जिसमें क्रमश: उनके ऊपर एक बिस्वादर, एक महाराजा और फिर ब्रिटिश राज था. आज इन समानताओं को भूल पाना मुश्किल है. समकालीन भारत के किसानों के लिए जबरदस्ती का नया पिरामिड- कारपोरेट के एजेंट, केंद्र सरकार और कारपोरेट घराने- थोपा जा रहा है.
बीसवीं शताब्दी के शुरुआती दिनों के कृषि मुद्दों की तरह, समकालीन गहन सिंचाई वाले फसल चक्रों ने पंजाब में भूजल स्तर को काफी कम कर दिया है. केवल 27 प्रतिशत कृषि भूमि को मानव निर्मित विधियों से सिंचित किया जाता है. शेष भूजल पर निर्भर है. 2019 की रिपोर्ट में, केंद्रीय भूजल बोर्ड ने कहा कि "राज्य में 300 मीटर की गहराई तक उपलब्ध सारा भूजल संसाधन 20-25 वर्षों में समाप्त हो जाएगा." रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग के कारण पिछले पांच दशकों में मिट्टी की उर्वरता में भी भारी गिरावट आई है.
इससे पंजाब के किसानों में कर्ज और आत्महत्याओं का एक सिलसिला चल पड़ा है. 2017 में पंजाब के तीन विश्वविद्यालयों के एक अध्ययन में पाया गया कि राज्य में 2000 से 2015 के बीच 16606 किसानों और ग्रामीण मजदूरों ने आत्महत्या की है. अध्ययन में पाया गया कि इन मौतों में ज्यादातर मौतें कर्ज के चलते हुई हैं. इन सभी कारकों के अलावा गेहूं और चावल को छोड़कर सभी फसलों पर सुनिश्चित आय की गारंटी की कमी और अतीत के कृषि संकट की गूंज सुनाई देती है.
इन परिस्थितियों में किसानों को अब डर है कि उन्हें अपनी जमीन के मालिकाने हक से बेदखल कर दिया जाएगा. उनका डर नई नीतियों के दो पहलुओं पर आधारित है. पहला है, किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम 2020 के तहत कृषि उपज मंडी समितियों का अंतिम विघटन. जिन्हें राज्य सरकारों द्वारा लेन-देन को विनियमित करने और खुदरा विक्रेताओं द्वारा किसानों को शोषणकारी प्रथाओं से बचाने के लिए स्थापित किया गया था. दूसरा है, न्यूनतम समर्थन मूल्य का न होना जो उन्हें बाजार की कीमतों और अन्य आकस्मिक स्थितियों से सुरक्षा की गारंटी देता.
जमीन का मालिकाना हक गंवाने का डर, जिसको पाने के लिए पहले ही उन्हें कठिन संघर्ष करना पड़ा था, प्राथमिक कारकों में से एक है जिसने वर्तमान आंदोलन को जन्म दिया है. चंडीगढ़ के इंद्रजीत सिंह जेजे ने मुझे बताया कि 1950 के दशक के दौरान उनके परिवार के पास 70 गांवों में जमीन थी, जो लगभग पांच हजार किला थी. "हमने 1950 के दशक में पट्टेदार किसानों को स्वेच्छा से लगभग 800 किला दे दिए. अभी क्या हो रहा है कि वही जमीन जो उस समय कई किसानों को मिली थी उसे वापस लेकर कारपोरेटों को दे दिया जाएगा."
युवाओं के बीच भारी बेरोजगारी ने भी मौजूदा आंदोलन में आग में घी का काम किया है. जमीन के मालिक माता-पिता भी चिंतित हैं कि अगर जमीन हाथ से चली जाती है, तो उनके बच्चों को मजदूरी करने के अलावा कोई काम नहीं मिल पाएगा. जयपाल सिंह ने कहा, "मैं पढ़ाई कर सकता था क्योंकि मेरे परिवार को कुछ जमीन मिल गई थी." वह एक सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं. वह प्रजा मंडल के नेता हजुरा सिंह मटरन के पोते हैं. “हालांकि हम सीमांत किसान हैं लेकिन फिर भी जमीन का एक सहारा तो है. मेरी बेटियां प्राइवेट सेक्टर में काम करती हैं. लॉकडाउन के दौरान जमीन का ही भरोसा था कि अगर उनकी नौकरी चली गई तो इसके सहारे काम चल जाएगा.” जयपाल मौजूदा आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हैं. “मैं तीसरी पीढ़ी का आंदोलनकारी हूं. मेरे पिता ने 1958 में लेवी सुधार के खिलाफ आंदोलन में भाग लिया." लेवी जमीन पर लिया जाने वाले एक कर था जो राज्य के हस्तक्षेपों के कारण बढ़ गया था. "अब मेरी बारी है," उन्होंने कहा.
वैद की किताब और उस वक्त के रिकॉर्ड बताते हैं कि सामाजिक न्याय पर जोर प्रजा मंडल आंदोलन के प्रमुख पहलुओं में से एक था. प्रजा मंडल के संविधान में “जाति या धर्म के अंतर के बिना सभी पट्टेदारों को समान भूमि अधिकार” का उल्लेख किया गया है. मार्च 1933 में ठिकरीवाला ने छुआछूत के खिलाफ रायकोट में दो दिवसीय सम्मेलन आयोजित किया. कई प्रजा मंडलों ने दिल्ली और लुधियाना में ऐसे सम्मेलन आयोजित किए. लाल कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख सुतंतर ने सुनिश्चित किया था कि मुजारा आंदोलन द्वारा हासिल किए गए भूमि अधिकारों को जातिगत भेद को ध्यान में रखे बिना वितरित किया जाए. मौजूदा आंदोलन भी पंजाब के भूमिहीन मजदूरों के साथ एकजुटता के उपायों को विकसित करने का प्रयास कर रहा है. उनमें से अधिकांश दलित समुदाय से हैं. दलित राज्य की आबादी का लगभग 32 प्रतिशत हैं और उनके पास कृषि भूमि का केवल 2.3 प्रतिशत हिस्सा है.
पंजाब के मानसा जिले के गोबिंदगढ़ जेजियन के 36 वर्षीय रोही सिंह दलित परिवार से हैं. वह मजदूर मुक्ति मोर्चा के सदस्य हैं, जो पंजाब में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के किसान संगठन अखिल भारतीय खेत मजदूर सभा का संगठन है. रोही ने कहा कि मुजारा आंदोलन के चलते उनके दादा को जमीन मिली. वह संगठन में अपनी जिम्मेदारियों के कारण दिल्ली में विरोध प्रदर्शन में शामिल नहीं हुए लेकिन उन्होंने विरोध प्रदर्शनों को समर्थन देने के लिए काम किया है. उन्होंने मुझे बताया कि तीन कृषि कानूनों के खिलाफ मौजूदा आंदोलन ने किसान-मजदूर एकता को एक नारे के रूप में उभारा है लेकिन वह इसकी संभावनाओं के बारे में बहुत आशांवित नहीं थे. "समर्थन करना वक्त की मांग है और अपनी तरफ से हम ऐसा कर रहे हैं," उन्होंने कहा.
67 वर्षीय प्यारा सिंह भी गोबिंदगढ़ जेजियन से हैं. उनका ताल्लुक रविदासिया सिख समुदाय से हैं. यह दलित समुदाय है जो पंद्रहवीं शताब्दी के कवि रविदास की शिक्षाओं का अनुसरण करता है. उनके परिवार को भी 1950 के दशक में जमीन मिली थी क्योंकि वे पट्टेदार किसान थे. वह एक सेवानिवृत्त चिकित्सक हैं और अभी भी जमीन के मालिक हैं. वह दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे आंदोलनों में नियमित रूप से शरीक होते हैं. प्यारा ने कहा कि उनके गांवों में प्रतिरोध और टकराव का एक समृद्ध इतिहास है. उन्होंने अपने गांव का एक किस्सा सुनाया जिसका जिक्र वैद की एक अन्य किताब टेनेंट्स स्ट्रगल इन द पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट्स यूनियन (पीईपीएसयू) में भी है. किस्सा कुछ इस तरह है कि पटियाला के आखिरी महाराजा यदविंदर ने स्थानीय पुलिस प्रमुख से उन लोगों को मार देने के लिए कहा जो गांव के प्रमुख द्वारा एक पट्टेदार की हत्या कर दिए जाने के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे. अर्जन सिंह भंगू नाम के एक पट्टेदार नेता जनता और पुलिस के बीच आकर खड़े हो गए और पुलिस ने आखिरकार यदविंदर के आदेशों को मानने से इनकार कर दिया.
हालांकि कुछ लोगों के लिए यही इतिहास उन्हें वर्तमान आंदोलन के प्रति उन्माद से भर देता है. संगरूर जिले के सफीपुर गांव में कई दलित परिवार रहते हैं जिन्हें मुजारा आंदोलन के दौरान जमीन का अधिकार मिला था. इसी गांव के दलित समुदाय के 72 वर्षीय बंत सिंह जमीन के मालिक हैं जो दिल्ली के टिकरी बॉर्डर के पास बहादुरगढ़ मेट्रो लाइन के नीचे गांव के बाकी लोगों के साथ डेरा डाले हुए हैं. उनके तीन बेटों में सबसे बड़ा भारतीय सेना में था और पंद्रह साल पहले मारा गया. उन्होंने कहा, "मैंने अपनी पोती को कनाडा जाकर बसने के लिए कहा है. हम बहुत लंबे समय से गांव में जमींदारों, महाराजा, भारत सरकार और बड़े भूस्वामियों से लड़ रहे हैं. मैं चाहता हूं कि मेरे पोते-पोती विदेश में बस जाएं.”
बंत का मोहभंग निराधार नहीं है., पंजाब में कुछ गांव हैं जो अभी भी जमीन के मालिकाना हक के लिए लड़ रहे हैं. सफीपुर में अभी भी लगभग 100 किला जमीन है जहां असल मालिकों के नाम पर कागजात नहीं हैं. इसी गांव के निवासी दर्शन सिंह ने कहा, "जो भी चाहते थे कि कानूनी कागजात सीधे उनके नाम पर हों, उन्हें जमींदार परिवार को भुगतान करना पड़ा था."
ऐसा ही एक और गांव है जिओंद. आंदोलन में शामिल होने के लिए गांव से ट्राली भर-भर कर लोग आए हैं. इन्होंने बहादुरगढ़-रोहतक राजमार्ग पर बने एक पुल की नीचे डेरा डाला हुआ है. जिओंद गांव के रहने वाले गुलाब सिंह ने कहा, "हमें अपने गांव की जमीन पर नजर रखनी हैं क्योंकि जमींदारों की औलादों को नजर जमीन कब्जाने पर है. बाकी हम सरकार और अंबानी-अडानी के खिलाफ यहां डेरा डाले हुए हैं." इन गांवों के लोग फिलवक्त दो झगड़े झेल रहे हैं : जिस जमीन को वह जोत रहे हैं उस पर मालिकाना हक की लड़ाई, जो मुजारा संघर्ष की याद ताजा करता है, और उसी जमीन को आज कारपोरेट से बचाने की लड़ाई.
ऐतिहासिक निरंतरता भी एक अन्य पहलू से इन दो संघर्षों को जोड़ती है. संघर्ष के लंबा खिंचते चले जाने पर हिंसा का अंतर्निहित खतरा. भाकपा नेता जगसीर सिंह जोगा के भतीजे जगजीत सिंह जोगा अखिल भारतीय किसान सभा के सदस्य और भाकपा की राष्ट्रीय परिषद सदस्य हैं. "अगर उत्पीड़न लंबे समय तक चलता है, तो उत्पीड़क के खिलाफ संगठित होने और लड़ने में अधिक समय लगेगा," उन्होंने मुझे बताया. जगजीत की जमीन, घर और सामान को मुजारा आंदोलन में शामिल होने के कारण कई बार पुलिस ने जब्त किया था.
जगजीत मानसा के पास किशनगढ़ के रहने वाले हैं. किशनगढ़ के कई ग्रामीण दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाले हुए हैं. वे विरोध प्रदर्शनों में शामिल हैं क्योंकि बढ़ते कर्ज के कारण कस्बे में किसान और मजदूरों की आत्महत्या की घटनाएं काफी बढ़ गई हैं. यह कस्बा मुजारा संघर्ष से जुड़ी ऐतिहासिक भूमि है. कस्बे के प्रवेश द्वार के पास एक स्मारक गेट है जिसमें लिखा है, "पीईपीएसयू-मुजारा आंदोलन के शहीदों की स्मृति को समर्पित जिन्होंने सामंतवाद और राजशाही के खिलाफ लड़ाई लड़ी."
ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि 16 से 18 मार्च 1949 के बीच पटियाला के महाराजा ने 11 सैन्य टैंक, 400 सैन्यकर्मियों और लगभग 100 पुलिस वालों को भेजा और उन्होंने गांव पर बमबारी की क्योंकि पट्टेदारों ने बटाई देने या जमीन खाली करने से इनकार कर दिया था. मुजारा नेता धरम सिंह फक्कर ने शांति बहाल करने के लिए 85 अन्य काश्तकारों के साथ स्वेच्छा से गिरफ्तारी दी. इस घटना ने गांवों में पट्टेदारों को खुद को हथियारबंद करने के लिए मजबूर कर दिया. इसके बाद पट्टेदारों ने गांवों में बड़ी संख्या में किराए के गुंडों और राज्य पुलिस से लड़ने के लिए सशस्त्र इकाइयों स्थापना की जिसने आंदोलन को लगभग गुरिल्ला संघर्ष में बदल दिया.
गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड के बाद की घटनाएं भी आज किशनगढ़ में राज्य की प्रतिक्रिया का कुछ हद तक एक प्रतिबिंब पेश करती है. इसके बाद दिल्ली की सीमाओं पर विरोध स्थलों में भारी मात्रा में पुलिस बल, बैरिकेड्स और भीड़-नियंत्रण हथियार तैनात किए गए थे. 28 जनवरी को लोगों के एक समूह ने दावा किया कि वे स्थानीय निवासी हैं और पुलिस की भारी मौजूदगी के बावजूद सिंघु विरोध स्थल पर एकत्र हुए और प्रदर्शनकारी किसानों पर हमला किया और पुलिस खड़ी देखती रही. कई मीडिया संगठनों ने बताया कि बीजेपी के कार्यकर्ताओं के साथ "स्थानीय लोग" दरअसल कैसे बाहरी लोग थे. लगभग 150 किसानों को दिल्ली पुलिस ने हिरासत में लिया है या गिरफ्तार किया है और 30 से अधिक यूनियन नेताओं के खिलाफ 25 एफआईआर दर्ज की गई हैं.
केंद्र सरकार ने प्रदर्शनकारियों को अलगाववादी और कट्टरपंथी तत्वों के रूप में चित्रित करने का भी प्रयास किया है. बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं ने प्रदर्शनकारियों को खालिस्तानी करार दिया और मुख्यधारा की मीडिया ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की इस कहानी को खूब प्रचारित किया. मुजारा आंदोलन को काबू में करने के लिए रियासत के शासकों ने भी धर्म का इस्तेमाल किया था. उदाहरण के लिए, वैद की किताब के अनुसार, पटियाला रियासत में मुजारा गांवों को किसी भी गुरुद्वारे का निर्माण करने की अनुमति नहीं थी क्योंकि शासकों का मानना था कि धार्मिक केंद्र किसानों पर उनके उत्पीड़न की कहानियों के जनमानस में फैलने और उन्हें संगठित होने तथा अपने अधिकार मांगने के तरीके सोचने के लिए रास्ता देंगे. गणतंत्र दिवस पर गृह मंत्रालय द्वारा बंद की गई इंटरनेट और फोन सेवा भी इसकी याद ताजा करता है. शांति बनाए रखने के बहाने हरियाणा के 16 जिलों में इंटरनेट सेवा को बंद करना किसानों के बड़े स्तर के संगठन पर अंकुश लगाने का एक प्रयास था.
ब्रिटिश राज और रियासत के शासन के तहत किसान परिवारों के लिए सामाजिक और शैक्षिक स्थानों का विकास बाधित करना सूचना के स्रोतों पर अंकुश लगाने के लिए था. मौजूदा स्थिति इससे कुछ अलग नहीं है. 30 जनवरी को दिल्ली पुलिस ने दो पत्रकारों, मनदीप पुनिया और धर्मिंदर सिंह को हिरासत में लिया-धर्मेंद्र को उस रात छोड़ दिया गया, जबकि पुनिया ने दो दिन जेल में बिताए. दोनों ही पिछले दिनों सिंघू सीमा पर प्रदर्शनकारियों पर हुए पथराव, नारेबाजी और आंसू-गैस के गोले दागे जाने को लेकर दिल्ली पुलिस की भूमिका पर रिपोर्टिंग कर रहे थे. यह ध्यान देने योग्य है कि मुजारा आंदोलन में लड़ने वाले किसान जमीनी स्तर पर किराए के गुंडों से लड़ रहे थे. रियासतकालीन पुलिस ने किसानों को डराने के लिए गुंडों के साथ काम किया था.
हालांकि, दोनों आंदोलनों के बीच एक फर्क राजनीतिक शक्ति को उलट देने की इच्छाशक्ति को लेकर है. अजनाला के अनुसार, 1937 में पंजाब किसान सभा के गठन का उद्देश्य अंग्रेजी राज और राजसी शासन को उखाड़ फेंकना था. 1956 में पंजाब राज्य में पीईपीएसयू के विलय के बाद जगसीर सिंह जोगा और धर्म सिंह फक्कर क्रमशः मानसा और बुधलाड़ा से विधान सभा के सदस्य बने. उन्होंने जेल में रहते हुए चुनाव लड़ा. हालांकि मौजूदा आंदोलन में विशेष रूप से गाजीपुर की सीमा पर कई प्रदर्शनकारी ऐसे हैं जो बीजेपी के मतदाता हैं और आंदोलन की मांग भी बहुत सीधी है. मैंने जिन प्रदर्शनकारियों से बात की उनमें से कई ने कहा कि पिछले कुछ महीनों में ही उन्हें मोदी सरकार के "फासीवादी" और "धर्मशासित" स्वरूप का एहसास हुआ है.
मुजारा आंदोलन और मौजूदा विरोध दोनों की अपनी भिन्नताएं भी हैं. मुजारा आंदोलन में महिलाओं की उपस्थिति नहीं थी. यह वर्तमान विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं द्वारा निभाई जा रही मुखर भूमिका के ठीक विपरीत है. औरतों की संख्या तेजी से बढ़ती गई है. फिर भी औरतों ने अपनी क्षमताओं के अनुरूप मुजारा आंदोलन में योगदान दिया था. प्रजा मंडल के नेता भगवान सिंह लौंगोवालिया की पत्नी बीबी धर्म कौर अपने पति की तरह आंदोलन की एक प्रमुख नेता थीं. उन्होंने 1920 के दशक में आंदोलन में भाग लेने के लिए गांव की महिलाओं को संगठित किया था. उनकी बेटी शमिंदर कौर लौंगोवालिया का जन्म जेल में हुआ था. शमिंदर अब 85 साल की हैं और मौजूदा आंदोलन में शामिल हैं. "मैं दो बार दिल्ली की सीमाओं पर गई. मैंने देखा है कि इन दिनों औरतें ज्यादा भाग ले रही हैं. हालांकि तब औरतों के लिए भाग लेना मुश्किल था. लेकिन फिर भी वे शामिल हुई थीं.
दृढ़ता, धीरज और साहस मुजारा आंदोलन की विरासत हैं. इसमें वर्तमान आंदोलन के सबक हैं क्योंकि केंद्र सरकार प्रदर्शनकारियों को थका देने की कोशिश कर रही है. भारतीय किसान यूनियन (एकता उगराहां) की सदस्य हरिंदर बिंदू भी फरीदकोट में पट्टेदार किसान गांव भगतुआना की हैं. मुजारा आंदोलन में उनके परिवार को जमीन मिली थी. बाद में उनके पिता को खालिस्तानी अलगाववादियों ने मार डाला था. उन्होंने बस इतना कहा, "हमारे बुजुर्गों ने जमीन पाने के लिए बहुत संघर्ष किया और अब हम इस जमीन को अपने पास रखने के लिए लड़ेंगे."