एक शताब्दी पहले के मुजारा आंदोलन में अपनी जड़े तलाशता मौजूदा किसान आंदोलन

05 मार्च 2021
26 दिसंबर 2020 को टिकरी बॉर्डर में किसानों के विरोध प्रदर्शन में शामिल पंजाब के मानसा जिले के किशनगढ़ कस्बे की औरतें.
गुरदयाल धालिवाल
26 दिसंबर 2020 को टिकरी बॉर्डर में किसानों के विरोध प्रदर्शन में शामिल पंजाब के मानसा जिले के किशनगढ़ कस्बे की औरतें.
गुरदयाल धालिवाल

“मुजारों ने बिस्वेदरी प्रणाली के खिलाफ लड़ाई लड़ी. मौजूदा आंदोलन कारपोरेट पूंजीवाद के खिलाफ है,'' पंजाब के मनसा जिले के बीर खुर्द के किसान किरपाल सिंह बीर ने मुझे बताया. 1920 के दशक में जब पंजाब का बंटवारा नहीं हुआ था, पट्टेदार किसानों ने राजाओं, जमींदारों और ब्रिटिश अधिकारियों से भूमि स्वामित्व अधिकार के लिए आंदोलन किया था. उस आंदोलन को मुजारा आंदोलन के नाम से जाना जाता था. किरपाल और उनके भाई सरवन सिंह बीर ने लगभग तीन दशकों तक बिस्वेदरी प्रणाली के खिलाफ लड़ाई लड़ी है. बिस्वेदारी प्रणाली जमीन के किराए से संबंधित व्यवस्था थी. किरपाल अब 93 साल के हैं और इस उम्र में भी जोश से लबरेज हैं. वह खुद को कॉमरेड बताते हैं. मैंने दिसंबर 2020 में उनसे बात की. तब वह कृषि कानूनों के खिलाफ जारी आंदोलन में शामिल होने दिल्ली की सीमाओं पर कई दिन बिता चुके थे. "हालांकि दोनों आंदोलनों में फर्क है. फिर भी मुझे लगता है कि मैं उसी पुरानी सत्ता से लड़ रहा हूं," उन्होंने मुझे कहा.

मुजारा या पट्टेदार किसान आंदोलन एक संगठित प्रयास था और इसकी जड़ें 1920 के प्रजा मंडल आंदोलन में थीं. प्रजा मंडल उपमहाद्वीप में ब्रिटिश और देशी कुलीन तंत्र के खिलाफ लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग के लिए स्थानीय लोगों का आंदोलन था और इसने दो शताब्दियों से इस क्षेत्र में लोगों और किसानों के आंदोलनों की परंपरा को आगे बढ़ाया.

इस ऐतिहासिक आंदोलन की गूंज किसानों के चल रहे विरोध प्रदर्शनों में सुनाई देती है. मैंने मौजूदा किसान आंदोलन में शामिल कई ऐसे लोगों से बात की, जिनके पुरखों परिजनों ने मुजारा आंदोलन में भाग लिया था. उनके लिए मौजूदा आंदोलन कारपोरेट घरानों से जमीन बचाने की लड़ाई है. उनके मानना है कि हाल के कृषि कानून विघटनकारी हैं जो एक सदी पहले की तरह ही किसानों के अधिकारों को खतरे में डालते हैं. दोनों आंदोलनों के बीच समानताएं भी हैं. जैसे दोनों आंदोलनों और उसके चलते हुई किसान गोलबंदी की जड़ में सरकार की नीतियां रही और दोनों ही आंदोलन जमीन के अधिकार की लड़ाई हैं. सत्ता के प्रति अविश्वास दोनों आंदोलनों में था. राज्य की प्रतिक्रिया में भी समानता दिखाई देती है. दोनों ही बार राज्य ने विरोध प्रदर्शनों को ध्वस्त करने के लिए राज्य मशीनरी का इस्तेमाल किया.

विरोध प्रदर्शन को अब छठा महीना हो चला है और सरकार लगातार आंदोलन को अवैध बताने की कोशिश करती रही है, खासकर 26 जनवरी की किसान रैली के दौरान हुई हिंसा के बाद से. कई आंदोलनकारियों के लिए यह मुजारा आंदोलन की तरह ऐतिहासिक आंदोलन हैं जो अतीत से यह सबक हासिल करता है कि किसी लंबे संघर्ष को कैसे जारी रखा जाए.

मुजारा एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है साझा-खेती. इसके तहत कोई जमींदार किसी खेत मजदूर या जोतदार को पहले से तय उपज के हिस्से के बदले जमीन का एक टुकड़ा पट्टे पर देता है. इतिहासकार मुजफ्फर आलम के मुताबिक 1709 में सिख योद्धा बाबा बंदा सिंह बहादुर ने पंजाब में मुगल युग की जमींदारी व्यवस्था को खत्म कर दिया था. गुरु गोबिंद सिंह की मृत्यु के बाद बंदा सिंह ने 1708 से 1715 के बीच मुगल साम्राज्य के खिलाफ सिख विद्रोह का नेतृत्व किया था. हालांकि 1793 में तत्कालीन ब्रिटिश भारत के कमांडर-इन-चीफ चार्ल्स कॉर्नवॉलिस ने स्थायी निपटान अधिनियम, 1793 के तहत जमींदारी प्रथा को फिर से चालू कर दिया. इस कानून ने ब्रिटिश सरकार के प्रशासनिक ढांचे को कानूनी रूप दिया. कॉर्नवॉलिस के भूमि सुधारों में उप-महाद्वीप में मौजूदा भूमि स्वामित्व प्रारूपों के आधार पर कई क्षेत्रीय भिन्नताएं थी. इसकी एक सामान्य विशेषता जमींदारों और रियासतों के प्रमुखों को भूमि का नियंत्रण प्रदान करना भी थी. पंजाब में नियमों ने सामंती प्रभुओं का साथ दिया और उन्हें भूमि पर अधिकार दिया और जोतदार के स्वामित्व को कमजोर कर दिया. इस "स्थायी बंदोबस्त" का प्राथमिक उद्देश्य एक देशी शासक वर्ग का निर्माण करना था जो ब्रिटिश समर्थन हो और उसकी मदद से पंजाब के एक बड़े हिस्से पर नियंत्रण हो सके. 

संगीत तूर सायबर सुरक्षा जानकार हैं और चंडीगढ़ में रहती हैं. वह पंजाब में भूमि अधिकार और किसान संघर्ष का दस्तावेजीकरण कर रहीं हैं.

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