कर्ज और बेजमीनी के साए में "खोए हुए जमीर" को तलाशतीं पंजाब की आंदोलनकारी औरतें

5 दिसंबर 2020 को हजारों आंदोलनकारियों ने दिल्ली-हरियाणा सीमा पर एक छोटे से शहर सिंघू में डेरा डाल दिया. आंदोलन की शुरुआत 26 नवंबर को हुई थी जब पंजाब और हरियाणा के किसानों, मजदूरों और खेत मजदूरों ने सितंबर 2020 में केंद्र सरकार द्वारा लागू किए गए तीन कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए दिल्ली मार्च आयोजित किया. प्रदर्शनकारी औरतें, हालांकि तुलनात्मक रूप से संख्या में कम हैं, लेकिन उनकी मौजूदगी ध्यान खींचती है. शाहिद तांत्रे/कारवां
5 दिसंबर 2020 को हजारों आंदोलनकारियों ने दिल्ली-हरियाणा सीमा पर एक छोटे से शहर सिंघू में डेरा डाल दिया. आंदोलन की शुरुआत 26 नवंबर को हुई थी जब पंजाब और हरियाणा के किसानों, मजदूरों और खेत मजदूरों ने सितंबर 2020 में केंद्र सरकार द्वारा लागू किए गए तीन कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए दिल्ली मार्च आयोजित किया. प्रदर्शनकारी औरतें, हालांकि तुलनात्मक रूप से संख्या में कम हैं, लेकिन उनकी मौजूदगी ध्यान खींचती है. शाहिद तांत्रे/कारवां
22 December, 2020

पंजाब के संगरूर जिले के घरचोन गांव में पूरे दिन आसमान में बादल छाए रहे. ठंड थी और शाम तक बारिश भी होने लगी थी. नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा हाल ही में लागू किए गए तीन कृषि कानूनों का विरोध करने के लिए पंजाब के किसान संगठनों द्वारा अगले ही दिन बुलाई गई “चलो दिल्ली” रैली में जाने से गुरमेल कौर को इनमें से कोई भी अवरोध रोक न सका. उनका इरादा 26 और 27 नवंबर को राजधानी पहुंचने का था. गुरमेल लगभग अस्सी साल की हैं. अपना एक छोटा बैग पैक कर मुस्कुराते हुए वह बोलीं, “मैं अपनी जमीन के लिए मरने को तैयार हूं.” उनके बैग में एक पीली चुन्नी, एक तौलिया, एक टूथब्रश, टूथपेस्ट और एक कंबल था. उन्होंने मुझे बताया कि वह केवल शादी-ब्याह और किसी की मरनी पर ही घर से बाहर जाती हैं, वह भी अपने परिवार के साथ. वह पहली बार किसी आंदोलन में शामिल हो रहीं थीं.

“मैं घर से बाहर घूंघट करके निकलती थी. अब तो कौन घूंघट लेता है पर इस चुन्नी से कभी छुटकारा नहीं मिला मुझे. अब मैं इस चुन्नी की बिल्कुल परवाह नहीं करती. मुझे अब अपना घर पसंद नहीं है. मोदी के खिलाफ इस लड़ाई को जब तक जीत नहीं लेते मैं वापस नहीं आऊंगी.” पंजाब पुलिस की वर्दी में उनके बेटे की एक तस्वीर दीवार से लटकी हुई थी. बीस साल पहले उसकी मौत हो गई थी. अगले दो हफ्तों में किसानों ने दिल्ली की सीमाओं को हरियाणा के सिंघू और टीकरी बॉर्डर पर जाम कर दिया. गुरमेल सिंघू बॉर्डर  के विरोध स्थल पर लगातार नजर रखे हुए थीं.

5 दिसंबर को विरोध प्रदर्शन के नौवें दिन, मैं पंजाब के पटियाला जिले के ककराला भिका गांव की औरतों से टिकरी विरोध स्थल पर मिली. औरतें रात के खाने के लिए रोटियां बेल रही थीं और उन्होंने अपने गांव के उन पुरुषों की ओर इशारा किया जो सब्जी और गाजर की खीर बना रहे थे. 80 साल की मुख्तार कौर ने मुझे अपनी पोती के बारे में बताया. “वह आपकी उम्र है. वह बहुत पढ़ी-लिखी है लेकिन कोई नौकरी नहीं है. अब जमीन भी नहीं रहेगी.” उन्हें सर्दी लग गई थी और सीने में दर्द हो रहा था. फिर उन्होंने कहा, “लेकिन हम लड़ेंगे. मैं अब मरने से नहीं डरती.” 60 साल की अमरजीत कौर अपने पूरे परिवार के साथ विरोध करने आईं थीं. “खेती की हालत पहले भी अच्छी नहीं थी लेकिन अब तो बदतर हो गई है. हमने ही इस सरकार को चुना और अब हम इस तरह के एकतरफा कानूनों के खिलाफ लडेंगे भी.”

गर्मियों के बाद से ही पंजाब के किसान, कृषि उत्पाद व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा विधेयक और आवश्यक वस्तु और संशोधन (संशोधन) विधेयक पर किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) समझौता, बिलों का विरोध कर रहे हैं. इन्हें पहली बार जून में अध्यादेशों के रूप में लाया गया था और 20 और 22 सितंबर को इन्हें संसद में पारित कर दिया गया. राज्य के कई किसान संगठनों ने 25 सितंबर को पंजाब बंद के साथ 24 से 26 सितंबर तक तीन दिवसीय “रेल रोको” का आयोजन किया. राज्य की औरतें और नौजवान भारी संख्या में विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए और विरोध प्रदर्शनों को जन आंदोलन में बदल दिया.

26 नवंबर तक विरोध प्रदर्शन का दायरा पंजाब के किसानों को पार कर गया. हिंदी में इस रिपोर्ट के प्रकाशन के समय तक दिल्ली की सीमाओं पर जारी आंदोलन को 27 दिन हो गए हैं और इसमें हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसान शामिल हैं. कई अन्य राज्यों के किसानों ने किसान आंदोलनकारियों के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए इसी तरह के विरोध प्रदर्शन किए हैं. इसके अलावा 8 दिसंबर को कई क्षेत्रों, जैसे कि खेत मजदूर, श्रमिक, डेयरी किसान, कमीशन एजेंट, खुदरा विक्रेता, महिला अधिकार समूह, सांस्कृतिक कार्यकर्ता और ट्रांसपोर्टरों के सैकड़ों संगठनों ने भारत बंद का आयोजन किया. भारत बंद और विरोध न केवल कृषि कानूनों के लेकर था बल्कि मौजूदा श्रम संहिता में किए गए सुधारों को लेकर भी था, जिन्हें संसद द्वारा 25 सितंबर को पारित किया गया था. ये कानून हैं- औद्योगिक संबंध संहिता कानून 2020, सामाजिक सुरक्षा और व्यावसायिक सुरक्षा संहिता कानून, 2020, स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति संहिता कानून 2020.

25 सितंबर को रायकोट में पहले बंद के दौरान मैं जिन औरतों से मिली. तब वे कृषि कानूनों और अपनी खुद की भागीदारी के बारे में बात करने में संकोच कर रही थीं. उनमें से ज्यादातर ने अपनी तस्वीरें खींचने से मना कर दिया. दो हफ्ते बाद, जबकि पंजाब में रेल नाकाबंदी जारी रही, संगरूर रेलवे स्टेशन पर मैं जिन औरतों से मिली, उन्होंने मुझे पुरुषों से कानूनों के बारे में बात करने के लिए कहा. दोनों ही जगहों पर औरतें मामूली संख्या में थी. सैकड़ों पुरुष और पचास औरतें. जब मैं दो हफ्ते बाद, दशहरा के दिन फिर से संगरूर स्टेशन गई, औरतों की संख्यां बराबर थीं. इस दिन रावण के पारंपरिक पुतले की जगह मोदी का पुलता लगा कर कानूनों के विरोध में उसे जलाया गया. प्रदर्शन में शामिल होने पर औरतें गर्व कर रही थीं. उनका उत्साह देखते ही बनता था. उन्होंने कहा कि मैं उनका इंटरव्यू लूं. वे कैमरे पर कविताएं सुनाना या स्याप्पा करना चाहती थीं.

8 दिसंबर को दिल्ली हरियाणा बॉडर पर टीकरी विरोध स्थल में भाषण देती किसान नेता. कृषि और श्रम कानूनों के खिलाफ हजारों किसान, मजदूर और कर्मचारी संगठनों ने राष्ट्रव्यापी हड़ताल के दिन प्रदर्शन किया. भारत बंद 26 नवंबर से दिल्ली की सरहद को रोके किसान आंदोलन का हिस्सा था. शाहिद तांत्रे/कारवां

सितंबर में पहली बार विरोध प्रदर्शन शुरू होने के बाद से कृषि बिल और श्रम सुधार के खिलाफ पंजाब से औरतों की संख्या बढ़ रही है. पहले कुछ हफ्तों तक, विरोध प्रदर्शन में शामिल होने वाली औरतें मुख्य रूप से सीमांत और छोटे किसान परिवारों से थीं. खेतों में काम करने और खेती से जुड़े दूसरे काम करने के बावजूद उन्हें किसान नहीं माना जाता है. नवंबर के पहले हफ्ते तक खेत मजदूर, मजदूर और दिहाड़ी मजदूर भी इसमें शामिल हो गए. हालांकि किसान औरतें कम ही थीं, जबकि चार हेक्टेयर से अधिक वाले मध्यम और बड़े किसान परिवारों की औरतें की व्यावहारिक रूप से कोई मौजूदगी नहीं थी. हालांकि विरोध प्रदर्शनों में अभी भी औरतों की मौजूदगी मर्दों की तुलना में कम हैं लेकिन आंदोलन ने औरतों की राजनीतिक मौजूदगी को सामान्य करने की दिशा में काम किया है. संकोची दर्शक से लेकर इरादेबंद आंदोलनकारी तक की तब्दीलियों की औरतें गवाह हैं. कानूनों को अच्छी तरह समझ लेने के बाद उन्होंने इसके विरोध में बोलना शुरू कर दिया. उनकी भागीदारी और योगदान में अब समर्थन जुटाना, जागरूकता फैलाना, धन जुटाना और पंजाब में विरोध प्रदर्शन स्थलों को बनाए रखना शामिल है.                                                

संगरूर के मटरन गांव की 40 साल की गुरमीत कौर किसान परिवार से हैं. उन्होंने कहा, “मैं अब उन सामानों के बारे में गुरुद्वारे से घोषणा करती हूं जिसे विरोध स्थलों पर भेजा जा सकता है. इसके अलावा मैं दूसरे किसान परिवारों से भी कहती हूं कि वे जहां भी हों, विरोध प्रदर्शन में शामिल हों.” उन्होंने मुझे बताया कि वह हमेशा से ही शिक्षक बनना चाहती थीं लेकिन उनके परिवार ने इसकी इजाजत नहीं दी और उनकी शादी दूसरे किसान परिवार में कर दी गई. उन्होंने मुझे बताया कि क्योंकि वह जमींदार घर से थीं, उनका “मजदूर” या मजदूर औरतों से बहुत कम संपर्क था. “हमारी बहनें जो मजदूर हैं वे खेतों में काम करती हैं. मैंने हाल ही में एक विरोध प्रदर्शन में उनकी परेशानियों के बारे में जाना.” उन्होंने कहा, “मैंने अपने गांव के गुरुद्वारा में कुछ औरतों को इकट्ठा किया और उन्हें एक-दूसरे के मुद्दों से जुड़ने के लिए कहा. फिलहाल इज्जत की जिंदगी जीने का हम सभी का हक दांव पर है.” उन्होंने कहा कि यह आंदोलन उनके लिए “खोए हुए जमीर” को तलाशने का मौका है.

गराचोन की रहने वाली तेज कौर 70 साल की हैं. वह खेत मजदूर हैं और दलित समुदाय से आती हैं. 26 नवंबर को देशव्यापी हड़ताल के लिए वह सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस के आह्वान में शामिल हुईं, जिस दिन किसान दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचे. “कुछ साल पहले जमीन प्राप्ती संघर्ष समिति (जेपीएससी) के साथ जुड़ कर मैंने पहली बार घर से बाहर कदम रखा था.” जेपीएससी पंजाब विलेज कॉमन लैंड्स (रेगुलेशन) अधिनियम 1961 द्वारा परिभाषित दलितों के भूमि अधिकारों के लिए काम करता है जिसमें “गांव की 33 प्रतिशत कृषि भूमि” अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित की गई है. 25 सितंबर को तेज ने पहले बंद में हिस्सा नहीं लिया लेकिन उन्होंने कहा कि जब किसान नेताओं ने किसानों के प्रदर्शनों में श्रम कानूनों में सुधार के बारे में बात करनी शुरू की, तो उन्होंने भाग लेने का फैसला किया. उन्होंने 5 नवंबर को राष्ट्रीय राजमार्ग 7 पर कालाजार टोल प्लाजा में एक विरोध प्रदर्शन में भाग लिया. उन्होंने मुझे बताया कि जब उन्होंने कुछ साल पहले जेपीएससी द्वारा आयोजित विरोध प्रदर्शन में भाग लिया था तो पुलिस ने उन्हें हिरासत में लिया था. “मैं पुलिस से डरती नहीं हूं. वह आते हैं और हमें डराते हैं. मैं अब बूढ़ी हो गई हूं मेरे भीतर बस सांसें ही बची हैं. वे इसे भी ले जाएं.”

मैंने तीन दर्जन से अधिक औरतों से बात की कि वे किस बात से आंदोलन में शामिल हुईं और अब उन्हें क्या भूमिका मिली है. उनमें से कई ने मुझे बताया कि कोविड-19 के कारण देशव्यापी लॉकडाउन ने जो संकट ग्रामीण औरतों के लिए पैदा किया है वह पिछले कुछ महीनों में अपनी हद पार गया है और खेत मजदूरों, भूमिहीन मजदूरों और सीमांत किसान परिवारों की औरतों ने खुद को माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के कर्ज में फंसा पाया.

पंजाब के मनसा शहर की रहने वाली नरिंदर कौर ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वुमन एसोसिएशन की राष्ट्रीय काउंसलर हैं. वह तीस साल की हैं और उनके दो छोटे बच्चे हैं. उन्होंने बताया कि इन पृष्ठभूमि की ग्रामीण औरतें अक्सर माइक्रोफाइनांस कंपनियों से ऋण लेती हैं जो 30000 रुपए से लेकर एक लाख रुपए तक होता है और वह भी 100 प्रतिशत जैसी उच्च ब्याज दरों पर. कर्जा आम तौर पर बच्चे की पैदाइश में होने वाले खर्च, चिकित्सा आपात स्थिति, किराने का सामान और कुछ मामलों में दूध बेचने के लिए भैंस पालने और ब्यूटी पार्लर और बुटीक खोलने जैसे छोटे व्यवसाय के लिए लिया जाता है. “उन मामलों में जहां औरतों के एक समूह ने ऋण लिया होता है, उनके बीच से किसी को नेता चुना जाता है जिसकी माली हालत आमतौर पर बेहतर होती और जिसे वसूली के लिए जिम्मेदार बनाया जाता है,” नरिंदर ने बताया. लेकिन लॉकडाउन के चलते उनके लिए इसका भुगतान करना बहुत मुश्किल हो गया.

मिसाल के तौर पर फिरोजपुर जिले के कोट करोर गांव की मनप्रीत कौर खेत मजदूर हैं, जिन्होंने भैंस खरीदने के लिए 60000 रुपए का कर्ज लिया था. उन्होंने कहा कि आमतौर पर वह हर महीने पैसा चुकाती थीं “लेकिन इस साल कमाई का एकमात्र मौका धान की बुवाई के 15-20 दिन थे.” औरतों ने मुझे बताया कि उन्होंने मूल ऋण वापस करने के लिए और ज्यादा ऋण लेना शुरू कर दिया, जिसके चलते कई वित्त कंपनियों से असहनीय ब्याज दरों पर ऋण का ढेर लग गया. जब कोई परिवार इस तरह के कर्ज में होता है तो उसकी वसूली अक्सर उन चीजों से होतीं जो औरतों की होतीं जैसे, दहेज में मिले बर्तन, सामान, फर्नीचर की वस्तुएं, हारी-बीमारी और अन्य कामों के लिए बचा कर रखा गए पैसे आदि.

नरिंदर ने कहा कि औरतों के कई समूह जो माइक्रोफाइनेंस कंपनियों को मासिक किश्तों का भुगतान करने में सक्षम नहीं थे, उन्होंने जून में मदद के लिए उनसे संपर्क किया. उन्होंने मुझे बताया कि दस साल से, जब से उन्होंने एआईपीडब्लूए के साथ काम करना शुरू किया है, औरतें उनसे और उनके सहयोगियों से मदद मांगती रही हैं. “एआईपीडब्लूए के वरिष्ठ सदस्यों के निर्देशन पर, मैंने उन्हें औरत कर्जा मुक्ति आंदोलन के तहत संगठित किया.” नरिंदर ने आगे कहा कि उन्होंने 18 जिलों में लगभग साठ हजार औरतों को संगठित किया और 5 अगस्त को बरनाला में अपना पहला प्रदर्शन किया.

नरिंदर ने कहा, “कुछ ही महीनों में इतनी भारी तादात में औरतों का बाहर निकलना मैंने पहले कभी नहीं देखा.” उन्होंने मुझे बताया कि माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से उनकी पहली मांग यह थी कि औरतों को लॉकडाउन के कारण मासिक किस्तों का भुगतान शुरू करने के लिए अतिरिक्त तीन महीने का समय दिया जाए. कोट करोर की एक मजदूर जसप्रीत कौर ने मुझसे कहा, “जब हम एक समूह के रूप में कंपनियों का सामना करते हैं, तो वे हमारी एकता से डर जाते हैं. कभी-कभी वे पुलिस को ले आते हैं. पुलिस हमें गिरफ्तार करने की धमकी देती है और हम उन्हें गिरफ्तार कर लेने के लिए कहते हैं.” नरिंदर ने कहा कि उनकी संख्या और उनकी एकता के कारण उनकी मांग को मंजूर कर लिया गया. उन्होंने कहा, “चूंकि लॉकडाउन बढ़ाया गया था, हमारी मांग है कि उनके ऋणों को उसी तरह माफ किया जाए जैसे अमीर लोगों के ऋण माफ किए गए थे.“

नरिंदर ने मुझे बताया कि जैसे-जैसे कृषि कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है, बहुत सी औरतों ने संगठित होकर उन विरोधों में भी शामिल होना शुरू कर दिया. उन्होंने कहा कि औरतों ने यह समझा कि हालांकि उनकी लड़ाई माइक्रोफाइनेंस कंपनियों के खिलाफ है लेकिन वित्तीय संकट में उनके पड़ने का असली कारण यह था कि वित्तीय संसाधनों की कमी है. उनका आक्रोश श्रम संहिता, कृषि-सुधार और बिजली बिल में संशोधन के लिए केंद्र सरकार की ओर अधिक केंद्रित हो गया.

अगर कोई प्रदर्शनकारी औरतों के गुस्से को बेहतर तरीके से समझाना चाहते तो उसे उनकी मांगों पर गौर करना चाहिए जो हैं, ऋण माफ और ऋण वसूली को निलंबित करना, नए श्रम कानूनों और कृषि कानूनों को समाप्त करना और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत दो सौ दिनों का तयशुदा रोजगार. आधिकारिक मनरेगा वेबसाइट के अनुसार, 2019 और 2020 के वित्तीय वर्ष में पंजाब में उच्चतम दैनिक मजदूरी दर 236.62 रुपए प्रति व्यक्ति थी. अगर सौ दिनों का रोजगार वास्तव में किसी परिवार को मिले, तो वर्ष में घरेलू आय 23662 रुपए होगी.

जिन महिला मजदूरों से मैंने बात की, उनमें से कुछ ने अपनी पहचान जाहिर नहीं करने को कहा. उन्होंने बताया कि नए विधेयकों और कानूनों के तहत बिजली और भोजन आपूर्ति के निजीकरण के चलते, रोजमर्रे के आम घरेलू खर्चे चला पाना असंभव हो गया है. घरों के भीतर श्रम विभाजन ने उन्हें पारंपरिक भूमिकाओं में ढकेल दिया है. वे रसोई में घुसेड़ दी गई हैं. जब रसोई की हालत डगमगाती है, तो औरत की पहचान भी डोलने लगती है. औरतों के अधिकारों के लिए काम करने वाले जसविंद स्त्री सभा पंजाब की महासचिव नीलम घुमान ने नरिंदर की बातों को दोहराया. उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने बीस सालों से जेआईएसपी के साथ काम किया है लेकिन यह पहली बार है कि उन्होंने इस पैमाने पर औरतों को आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों पर एक साथ आते देखा है.

अपनी आवाज बुलंद करती औरतें. शाहिद तांत्रे/कारवां

जेआईएसपी उन प्रमुख संगठनों में से एक है जो विरोध प्रदर्शनों में औरतों की लामबंदी में सबसे आगे रहा है. अमृतसर की रहने वाली गुरिंदर कौर 60 साल की हैं. वे जेआईएसपी के जाने-माने चेहरों में से एक हैं और उन्होंने तीस से भी ज्यादा सालों तक संगठन के साथ काम किया है. मैं 26 नवंबर को पंजाब के शहर और सबसे पवित्र सिख तीर्थस्थलों में से एक फतेहगढ़ साहिब में उनसे मिली. वह दिल्ली की ओर बढ़ रहे एक काफिले का नेतृत्व कर रही थीं. “यह बलिदानों की भूमि है. गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे बेटे यहां शहीद हुए,” उन्होंने सिख गुरु का जिक्र करते हुए कहा. “आज हम दिल्ली में अपना मार्च शुरू करते हैं क्योंकि मोदी के अत्याचारों का हम अपनी सामूहिक इच्छाशक्ति से मुकाबला करेंगे.“ गुरिंदर 13 दिसंबर तक सिंघू बॉर्डर विरोध स्थल पर थीं और उन्होंने बताया कि जब तक कानून रद्द नहीं होता, वह प्रदर्शन में शामिल रहेंगी.

घुमान ने पंजाब के कृषि समाज में विभिन्न जातियों और वर्गों की औरतों की सामाजिक-राजनीतिक वास्तविकताओं को लेकर चल रहे विरोध-प्रदर्शनों में महिलाओं की उपस्थिति के एक और परिणाम की ओर इशारा किया. “सामाजिक मुद्दों पर औरतों को संगठित करना इतना कठिन है. वे बेटियों, पत्नियों या माताओं के रूप में अपने अधिकारों को नहीं जानतीं. वे शायद ही अपने सामाजिक भेदभाव के खिलाफ सामने आती हैं लेकिन जैसे ही आप उनके आर्थिक अधिकारों के बारे में बात करते हैं, वे बाहर निकल आती हैं और संगठन का हिस्सा बन जाती हैं.” इस बार विरोध प्रदर्शनों में कई महिला संगठनों की मौजूदगी ने सबक साझा करने का अवसर दिया है.

मनसा की बलबीर कौर भारतीय किसान यूनियन (डकौंडा) की पंजाब महिला अध्यक्ष हैं. वह वकील हैं और एक दशक से ज्यादा समय से संगठन से जुड़ी हैं. वह मानती हैं कि विरोध ने मजदूर और दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने वाली औरतों और उनके समकक्ष विशेषाधिकार प्राप्त जमींदार और उच्च जाति वर्गों की औरतों के बीच बातचीत के लिए रास्ता खोला है. "इन मुलाकातों में सामंती व्यवस्था को महत्वपूर्ण रूप से बदलने की क्षमता है," उन्होंने मुझे बताया. “खेतिहर औरतों को एहसास है कि मौजूदा आंदोलन आखिरकार उनकी अपनी खुद की पहचान की लड़ाई है. अगर उनकी जमीन छिन जाती है, तो वे मजदूरी करने के लिए मजबूर हो जांएगी. जो औरतें मजदूरी करती हैं उनके सामने कहीं बड़ी समस्याएं होती हैं, जिनका मुकाबला वह अकेली ही करती हैं,” उन्होंने कहा. बलबीर के अनुसार, जमींदार-किसान परिवारों की औरतें, जो ज्यादातर उच्च जाति की हैं, उन औरतों के उत्पीड़न के प्रति संवेदनशील नहीं हैं, जो मजदूरों के रूप में काम करती हैं. "वे न केवल उत्पीड़न से सीधे रूबरू हैं बल्कि अपनी जाति के विशेषाधिकार को भी साफ-साफ देख रही हैं."

मजदूर अधिकार संगठन लोक संघर्ष मोर्चा की महासचिव सुखविंदर कौर ने भी इस तरह की बात की. “मुझे इस बार उम्मीद है कि खेतिहर औरतें घर के अंदर भी अपने रोजमर्रे के उत्पीड़न के खिलाफ खड़ी होंगी. मैं देखती हूं कि वे मंच पर पितृसत्ता के बारे में बात करती हैं. "हमें किसान औरतों के साथ बैठना और मजदूर औरतों की ताकत और समर्पण को देखना चाहिए और उनसे सीखने के लिए उनके पास जाना चाहिए." सुखविंदर एक लैब टेक्नीशियन थीं, जिन्होंने मोर्चे में काम करने के लिए समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया और पच्चीस साल से अधिक समय से संगठन के साथ हैं.

किसान परिवारों की औरतें, खासकर उन भूस्वामी परिवारों की औरतें जिन्हें मध्यम या बड़ा किसान माना जाता है, की सीमित भागीदारी की एक अलग ही कहानी है. इन परिवारों में से कम से कम एक सदस्य कनाडा जैसे दूसरे देशों में रहते हैं. कनाडा की 2016 की जनगणना प्रोफाइल के अनुसार, इसकी लगभग दो प्रतिशत आबादी पंजाबी या पंजाबी मूल की है. पंजाबी कनाडा में तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है और कनाडा की संसद में भारत की संसद से अधिक सिख प्रतिनिधि हैं.

घरचोन की रहने वाली सतवंत कौर तीस साल की होने वाली हैं, उनके दो बच्चे हैं और वह एक किसान परिवार से हैं. “मेरी बहन विदेश में रहती है. मेरे स्कूल और कॉलेज के दोस्त कनाडा में हैं. वहां बच्चों के लिए बेहतर सुविधाएं हैं.” सतवंत ने मुझे बताया कि उनका भाई ऑस्ट्रेलिया में रहता है और उसका परिवार भी आव्रजन दस्तावेजों का इंतजार कर रहा है. “यहां की हालत तो सुधरेगी नहीं और मैं नहीं चाहती कि मरे बच्चे यहां पले-बढें. कोई नौकरी भी तो नहीं है,” उन्होंने कहा.

एक तरह से कनाडा कई परिवारों के लिए पंजाब का विस्तार बन गया है. उनमें से कुछ जो अभी वहां जाने की तैयारी में हैं वे आंदोलन में शामिल होने से इनकार करते हैं. उनके लिए विरोध एक तरह का भटकाव है. “मैं कनाडा में मजदूरी करने के लिए तैयार हूं लेकिन मैं पंजाब में नहीं रहूंगी. मैं यह सब अपने बच्चों के लिए कर रही हूं,” सतवंत ने मुझे बताया. उन्होंने और उनके परिवार ने किसी भी विरोध प्रदर्शन में भाग नहीं लिया.

लेकिन फिर कालाजार की 70 साल की शाम कौर जैसे किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाली भी हैं. उनके बेटे, बेटी और बहू टोरंटो में रहते हैं. उसके लिए भूमि पैतृक विरासत है. “विरोध स्थल मेरा गुरुद्वारा है. अगर हम अपनी जमीन खो देते हैं, तो हम अपना सम्मान खो देते हैं. हमारे बच्चे हमारे धर्म का सिखाया भूल जाएंगे.” 25 नवंबर को दिल्ली जाने के लिए अपना बैग कर वह यहां आ गईं. तब से विरोध प्रदर्शन पर हैं.

विरोध प्रदर्शन में औरतों का एक और वर्ग है जिसके दुखते घाव उन्हें आंदोलन में ले आए. 2017 के एक अध्ययन के अनुसार, 2000 से 2015 के बीच राज्य में कुल 9007 किसानों ने आत्महत्याएं की. अध्ययन में कहा गया कि ज्यादातर मौतों के पीछे का कारण कर्ज की मार थी. कई किसान कर्ज चुकाने के​ लिए अपनी जमीन बेचने को विकल्प नहीं मानते. पंजाब में भूमि मालिकाना इतना कम है कि यह एक सम्मानजनक जीवन की गारंटी नहीं देता. मैंने उन कुछ औरतों से बात की, जिनके परिवार के किसी एक सदस्य ने आत्महत्या की है. उन्हें विरोध प्रदर्शनों में उम्मीद दिखाई देती है.

युवा किसान किरनजीत झुनीर के पिता की मौत 2016 में हो गई थी. नैतिक समर्थन की कमी ने उन्हें अन्य परिवारों के साथ बैठकें आयोजित करने के लिए प्रेरित किया, जो इसी तरह के शोक का सामना कर चुके थे. उन्होंने कहा कि शुरुआती विचार सिर्फ हो चुकी क्षति की बात करना और सुनना था लेकिन धीरे-धीरे यह स्पष्ट हो गया कि उन्हें अपने लिए एक राजनीतिक आवाज की जरूरत है. "अगर हम एक होंगे तो हमें सुना जाएगा," उन्होंने कहा. उन्होंने 2017 में किसान-मजदूर आत्महत्या पीड़ित परिवार समिति का गठन किया. झुनीर ने कहा कि 2017 में मनसा में उनकी पहली सार्वजनिक सभा में 600 विधवाएं शामिल हुईं. बाद के वर्षों में, उन्होंने छह और जिलों में इकाइयां स्थापित कीं.

समिति ने जारी विरोध प्रदर्शन में सक्रिय भाग लिया है. झुनीर ने कहा कि समिति के सदस्य पंजाब में विरोध प्रदर्शन स्थलों पर जा रहे हैं और समर्थन जुटा रहे हैं और नीतिगत बदलावों की बात कर रहे हैं. "संगठनों और आंदोलनकारियों के लिए यह लड़ाई महत्वपूर्ण है क्योंकि नए कानून मौत के मुंह में अधिक परिवारों को धकेलेंगे." उन्होंने आगे कहा, "हमें आत्महत्या के बाद नहीं उससे पहले कृषि और श्रम कानूनों तथा बिजली संशोधन बिल को खत्म करने जैसे राहत पैकेजों की जरूरत है."

रात्रि सेल्टरों में औरतें और बच्चे. शाहिद तांत्रे/कारवां

इस तरह अलग-अलग पृ​ष्टभूमि की औरतों की मौजूदगी ने विरोध स्थलों पर पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को झीना किया है. हरिंदर कौर बिंदू भारतीय किसान यूनियन (एकता उगराहां) की सदस्य हैं. जब वह 14 साल की थीं तब से संगठन में सक्रिय हैं. आंदोलन में इस संगठन की प्रमुख भूमिका है और अच्छी खासी संख्या में इसके जमीनी कैडर हैं. बिंदू ने मुझे बताया कि जब उन्होंने विरोध प्रदर्शनों के समर्थन के लिए गांवों में यात्रा की, तो उन्होंने देखा कि "पुरुष खाना बनाते और परोसते और बर्तन धोते." वे अपनी पत्नियों के लिए रात का खाना तैयार रखते.” संगरूर में धूरी के पास लद्दा कोठी लिंक रोड पर विरोध स्थलों पर मैंने देखा कि युवा मांएं अपनी बेटियों और बेटों को विरोध के पर्चे पढ़ने में मदद कर रही थीं. छोटे बच्चे मंच पर जाते, गीत गाते हैं और संत राम उदासी और लाल सिंह दिल की कविताओं का पाठ करते हैं. दोनों प्रसिद्ध क्रांतिकारी पंजाबी कवि हैं जिनकी दलित चेतना को उभारने में अहम भूमिका थी. साथ ही वे प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि पाश की कविताएं पढ़ते हैं. कालाजार में एक आठ वर्षीय लड़की ने वर्तमान संकट को संक्षेप में बताया और विरोध प्रदर्शन में अपने और अपने साथियों की मौजूदगी का महत्व बताया.

एआईपीडब्लूए की सदस्य नरिंदर अखिल भारतीय केंद्रीय व्यापार संघ की जिला सचिव भी हैं. 26 नवंबर को उन्होंने मनसा में परिवहन कर्मचारियों और मजदूरों के एक मार्च का नेतृत्व किया. “पहली बार जब मैंने बुढलाडा में पंजाब रोडवेज ट्रांसपोर्ट कारपोरेशन के ड्राइवरों और कंडक्टरों के साथ बैठक की, तो उन्हें अजीब लगा. पर जब मैंने उन्हें बताया कि किस तरह से संगठित होकर उनकी समस्याओं को हल किया जा सकता है, तो लैंगिक अंतर गायब हो गया,” उन्होंने बताया.

सुरिंदर कौर सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं और लुधियाना में रहती हैं. वह जेआईएसपी की अध्यक्ष हैं. वह लुधियाना, मोगा और फरीदकोट जिलों में चल रहे विरोधों में जा रही हैं. सुरिंदर ने पंजाब में रह कर लुधियाना के आसपास के गांवों की औरतों को संगठित करने का फैसला किया. “मैंने देखा है कि लुधियाना जिले की औरतें कम भाग ले रही हैं क्योंकि यहां किसान यूनियनों की बड़ी मौजूदगी नहीं है. औरतों को दिल्ली जाने की इजाजत नहीं है. हम अब गांवों में पुरुषों को समझाने के लिए मोर्चा निकाल रहे हैं.” उन्होंने कहा, "हम उन्हें बताते हैं कि औरतें घरों को मजबूत बनाती हैं और औरतें ही सभी विरोधों को मजबूत बनाती हैं. पुरुष हमारी बात सुनते हैं और राजी भी हो जाते हैं.” इंकलाब की उम्मीद करते हुए पाश, जिन्हें अक्सर इन विरोधों पर उद्धृत किया जाता है, ने लिखा था, "मैं एक ऐसी कविता लिखना चाहता था जिसे आप ताउम्र पढ़ते." पंजाब की आंदोलनकारी औरतों से बात करते हुए मैंने पाश के इन शब्दों के बारे में अक्सर सोचा, खासकर घरचोन की 80 साल की गुरमेल से बात करते हुए. 8 दिसंबर को अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा और एनएच 7 पर कालाजार टोल प्लाजा में आंदोलन स्थल पर ही उनकी मौत हो गई.