अधिकारों के स्थान पर कर्तव्यों पर जोर देने की मोदी सरकार की मंशा

अब मुद्दा केवल अधिकारों के साथ कर्तव्यों को लेकर नहीं है, बल्कि कर्तव्यों को प्रभावी रूप से अधिकारों से ऊपर होना चाहिए. सौजन्य इंटरनेट आर्काइव/लॉयल सिटीजनशिप (1922) रीड, थॉमस एच (थॉमस हैरिसन) द्वारा
16 January, 2023

2022 का साल कैसा रहा यह बताने के लिए बहुत कुछ है. लेकिन एक चीज जो बाकि सभी मुद्दों को पीछे छोड़ देती है, वह है हमारे जनप्रतिनिधियों और सरकार द्वारा किया गया अधिकारों के विचार पर लगातार हमला. कुछ समय से यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि "अधिकार" शब्द सरकार के बड़े पैमाने पर जारी किए गए विज्ञापनों और प्रकाशनों में अनुपस्थिति रहा है. इसकी शुरुआत अधिकारों के पूरक रूप के तौर पर धार्मिक कर्तव्यों के आह्वान करने के साथ हुई, फिर भले ही संविधान उन्हें एक समान स्तर पर नहीं रखता है. अब, बात केवल अधिकारों के साथ कर्तव्यों को लेकर नहीं है, बल्कि कर्तव्यों को प्रभावी रूप से अधिकारों से ऊपर होना चाहिए.

प्रधानमंत्री मोदी ने 20 जनवरी को ब्रह्मा कुमारियों को संबोधित करते हुए वर्ष की शुरुआत की और कहा कि भारत की आजादी के 75 वर्षों में, "अधिकारों के बारे में बात करने और लड़ने पर बहुत अधिक ध्यान देने से देश कमजोर हुआ है." यहां उनके लिए संघर्ष का मतलब बहुत स्पष्ट था क्योंकि मोदी ने आंदोलनजीवी शब्द का उपयोग करते हुए उपहासपूर्ण ढंग से बात की थी कि नागरिकता-विरोधी संशोधन अधिनियम 2019 को लेकर हुए विरोध के बाद प्रदर्शनकारियों की कुछ श्रेणियों को "उनके कपड़ों से" पहचाना जा सकता है. संविधान को अपनाने की 70वीं वर्षगांठ पर संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक के कुछ हफ्ते पहले मोदी ने स्वीकार किया था कि लोगों ने अधिकारों पर जोर इसलिए दिया क्योंकि कई लोग समानता और न्याय से वंचित महसूस करते थे. लेकिन फिर भी दावा किया कि "अब वक्त की मांग है कि समाज अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों पर विचार करे.”

इस महीने की शुरुआत में मानवाधिकार दिवस पर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश अरुण मिश्रा, जो अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष हैं, ने कहा, "संवैधानिक के अनुच्छेद 51ए के अनुसार मानव का सम्मान के साथ जीने का मौलिक अधिकार जिम्मेदारी और अनुशासन को भी वहन करता है." मनावाधिकार की शीर्ष संस्था से होने का मतलब देश में सभी नागरिकों के लिए मानवाधिकारों का प्रहरी होना है लेकिन यह उनका यह कहना कि अधिकार उनके लिए है जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, आश्वस्त करने वाली बात नहीं थी.

इस वर्ष अधिकारों के ह्रास को लेकर चतावनी देने वाला सबसे महत्वपूर्ण मामला मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ्तारी थी, जिन्हें एक जांच पर वैध सवाल उठाने के लिए आरोपी बनाया गया था. वह करीब दो महीने तक जेल में रहीं. इसके अलावा सरकार से सहायता प्रात करने वाले लाखों गरीबों को लाभार्थी या प्रधानमंत्री की दया पर रहने वालों के रूप में दर्शाना अधिकारों के विचार का प्रत्यक्ष चोट है. इस नई परिभाषा के अनुसार गरीब एक अनुचित शक्ति समीकरण के चलते शासन से सहायता लेने के सही हकदार नहीं हैं बल्कि वे शासक की दरियादिली से दी गई सहायता प्राप्त कर रहे हैं.

अधिकारों के जोरदार और स्पष्ट दावे के बिना कोई सामाज आगे नहीं बढ़ सकता. जाति व्यवस्था की श्रेणीबद्ध असमानता जैसे प्रतिगामी सामाजिक ढांचे, जिन्हें अक्सर धर्मग्रंथों द्वारा सही ठहराया जाता है, का कभी विरोध भी नहीं किया जाता अगर मानव समानता के लिए निरंतर आह्वान नहीं किया जाता. अभिजात वर्ग इसलिए पीछे नहीं हटा कि वह दयावान था. ब्राह्मणवादी वर्चस्व और दलित बहिष्कार को तोड़ने के लिए वैकोम सत्याग्रह द्वारा जबरन मंदिर में प्रवेश करना, अरुविप्पुरम आंदोलन, सत्यशोधक समाज, ब्रह्म समाज और पेरियार के स्वाभिमान आंदोलन सभी को अधिकारों के संदर्भ में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया था. अनुच्छेद 17 और अस्पृश्यता का उन्मूलन आधुनिक भारत के मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा किसी दैवीय आशीर्वाद के चलते सुनिश्चित नहीं हुआ है.

अधिकारों से ही आर्थिक स्वतंत्रता संभव हुई है. दिन में 18 घंटे काम का नियम समाप्त नहीं होता अगर संगठित श्रमिकों ने कठोर कदम नहीं उठाए होते. जोतदारों के लिए इंसाफ की मांग वाले तेभागा संघर्ष को भले ही नए शैक्षिक पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया गया हो लेकिन इस आंदोलन ने लोगों को अपने अधिकारों के बारे में जागरूक करने में बड़ी भूमिका खेली थी. अधिकारों का बेधड़क कॉल सत्ता में बैठे लोगों को डराता है. आज जिन्हें हम यूं ही हल्के में लेते हैं जैसे दिन में 8 घंटे काम का अधिकार, श्रमिकों को अवकाश का अधिकार, महिलाओं का मताधिकार आदि यह ट्रेड यूनियन और संगठित ताकत की बदौलत है. हजारों लोगों के संघर्ष के बाद ही न्यूनतम मजदूरी संभव हो पाई.

भारत जैसे बहुलतावादी और विविधतापूर्ण समाज में व्यक्तियों के लिए अधिकारों की अभिव्यक्ति को लेकर कई पैमान हैं. यह एक आधुनिक नागरिकता के निर्माण करने और लोगों को समुदायों और पहचानों द्वारा खींची गई प्रतिबंधात्मक सीमाओं से बचाता है जिनमें वे पैदा होते हैं.

भारतीय संविधान नागरिकों साथ ही हाशिए या उत्पीड़ित माने जाने वाले समूहों को अधिकार प्रदान करता है. लेकिन इस साल हरियाणा द्वारा शुरू किए गए परिवार पहचान पत्र जिसे जम्मू कश्मीर में भी लागू किया जाना है, व्यक्तियों की पहचान को पूरी तरह से परिवार से जोड़ते हैं. ये हानिकारक हो सकते हैं क्योंकि वे परिवार को राष्ट्र की इकाई के रूप में प्रस्तुत करते हैं, न कि व्यक्ति को. यह भी भारत जैसे सामाजिक संदर्भ में जहां परिवार अक्सर व्यक्तिगत इच्छाओं और विकास को दबाने वाला पहला क्षेत्र होता है. कुल मिला कर यह अपने स्वयं के अधिकारों, स्वतंत्रता और अंततः बेहतर भविष्य की मांग करने वाले व्यक्तियों के आधुनिक राष्ट्र के विचार के विरुद्ध है. 11 राज्यों में लागू लव जिहाद पर कानून युवाओं को उस विचार में कैद कर देता है जिसमें वे पैदा हुए थे. और अंतरात्मा की स्वतंत्रता के अधिकार को छीन लेता हैं.

2022 में हमारी त्रासदी इस बात में है कि भारत का लक्ष्य क्या था और हम कहां आ गए हैं. आजादी से काफी पहले भारत अधिकारों और स्वतंत्रता पर वैश्विक रिवायत लिखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था. इसने दुनिया भर में लोगों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ अपनी लड़ाई को संरेखित किया.

मिलन कोठारी जून 1945 में सैन फ्रांसिस्को में संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर एमके गांधी के प्रेस को दिए बयान के बारे में बताते हैं कि 8 अगस्त 1942 के अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के प्रस्ताव से उद्धृत बयान में कहा गया है, "भारत की स्वतंत्रता की मांग किसी भी तरह से स्वार्थ पर आधारित नहीं है. इसका राष्ट्रवाद अंतर्राष्ट्रीयतावाद है.”

दिसंबर 1948 में अपनाए गए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणा के मसौदे के कई स्तरों पर हंसा मेहता, मिनोचर “मीनू” मसानी और लक्ष्मी मेनन ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था. बाद में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद के खिलाफ कठोर लड़ाई में भारत के रुख ने, जिसमें कहा गया था कि कोई भी देश राष्ट्रीय सीमाओं के पीछे छिप कर अपने लोगों की सार्वभौमिक स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं कर सकता था, न केवल दक्षिण अफ्रीका की नियति पर बल्कि अधिकारों से जुड़े मुद्दे पर भी एक शक्तिशाली प्रभाव छोड़ा.

अपनी ऐतिहासिक भूमिका के संदर्भ में और जिस स्थान से आधुनिक भारत ने दुनिया के सामने बात रखी, उसके सबसे शक्तिशाली नेताओं के लिए अब अधिकारों से पीछे हटना एक उपहास जैसा है. यहां गलत यह है कि अपने कर्तव्यों का पालन करने वाले नागरिकों को भेड़ की तरह मानने का विचार न केवल मौजूदा सरकार को हमेशा के बने रहने में मददगार है, बल्कि दार्शनिक रूप से भी यह उन लोगों के कुटिल तर्क के साथ मेल खाता है जो चाहते हैं कि कुछ जातियां अपने स्थान पर बने रहते हुए ही निर्विवाद रूप से कर्तव्य निभाती रहें. कर्तव्यों के नाम पर जाति का गला दबा दिया जाता है. विशेष रूप से हिंदुत्व के समर्थकों द्वारा अधिकारों के बदले कर्तव्यों का आह्वान एक साधारण बयान नहीं है, जो आरक्षण पर प्रहार करते हैं लेकिन कभी भी जाति के उन्मूलन का आह्वान नहीं करते. सामाजिक न्याय या सदियों से लाखों लोगों को बांधे हुए जातिगत पदानुक्रम को खत्म करने की बजाय, यह सुनिश्चित करने की कोशिश की जाती है कि उत्पीड़ित लोग सवाल न उठाएं और सामाजिक व्यवस्था को खत्म न करें.

नेता के कल्ट का निर्माण, व्यक्तियों को परिवार पहचान पत्रों में सीमित करने का प्रयास, मानवाधिकार रक्षकों को कैद करना और नागरिको को लाभार्थी बता कर कृतज्ञ के रूप में पेश करने से एक आधुनिक राष्ट्र की आत्मा को पंगु बनाने और आधुनिकता के सभी लाभ को उलट देने का खतरा है, जिसने लाखों भारतीयों को आजादी का एहसास दिलाया है. 2016 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुए आंदोलन के दौरान और 2019 में सीएए के विरोध में आजादी शब्द को गाली के तौर पर पेश करने की कोशिश की गई थी. शायद जनता के विचारों पर अपनी पकड़ के बारे में जानते हए ही भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने के जश्न के आधिकारिक नारों में आजादी शब्द का इस्तेमाल किया गया था. अरबपति व्यवसायी मुकेश अंबानी की रिलायंस कंज्यूमर प्रोडक्ट्स लिमिटेड भी गुजरात में एक एफएमसीजी ब्रांड का नाम स्वतंत्रता रख कर इस शब्द की अत्यधिक शक्तिशाली अपील से लोगों को आकर्षित करने की कोशिश कर रही है.

यकीन मानिए कि आजादी वहां बच नहीं सकती जहां लोगों के पास अधिकार न हों और जहां लोग अधिकारों को प्राप्त करने में सक्षम न हों. अधिकारों को भुला कर केवल कर्तव्य पर जोर देने वाली जहरीली धारणा को फैलने देना गलत और आत्म-विनाशकारी होगा.

(अनुवाद : अंकिता)