इस साल अप्रैल में जब लोकसभा चुनाव हो रहे थे तभी इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति ने भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), कोलकाता के छात्रों के दीक्षांत समारोह में एक भाषण दिया. किसी पार्टी का नाम लिए बिना मूर्ति ने कहा कि कोई भी देश “विश्वास की स्वतंत्रता” और “भय से मुक्ति के बिना” आर्थिक प्रगति नहीं कर सकता. बहुतों को लगा था कि मूर्ति ने बीजेपी पर तंज कसा है. पीटीआई की एक खबर के मुताबिक अगले महीने मई में गृह मंत्रालय ने इंफोसिस की गैर सरकारी संस्था (एनजीओ) इंफोसिस फाउंडेशन का पंजीकरण रद्द कर दिया. लेकिन इंफोसिस फाउंडेशन ने वक्तव्य जारी कर बताया कि उसने स्वेच्छा से पंजीकरण रद्द किए जाने का आवेदन किया था. पीटीआई अपनी खबर पर बरकरार है और उसने उस खबर पर कोई स्पष्टीकरण जारी नहीं किया है.
अब जबकि मोदी सरकार सत्ता में लौट आई है, तो लगता है कि मूर्ति का भी हृदय परिवर्तन हो गया है. 23 अगस्त को उन्होंने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले तीन सौ सालों की अपनी सबसे अच्छी स्थिति में है. जबकि ऐसे सबूतों का अंबार लगा है जो इस दावे को खारिज करते हैं.
बायो-फार्मास्युटिकल कंपनी बायोकॉन की चेयरपर्सन किरण मजूमदार शॉ को भी पता लग ही गया कि उनके विचारों को सरकार हल्के में नहीं लेती. जब कैफे कॉफी डे के मालिक वीजी सिद्धार्थ मृत अवस्था में पाए गए थे, तो कई लोगों ने शक जाहिर किया कि उन्होंने कर अधिकारियों द्वारा सताए जाने के बाद अपनी जान दे दी. शॉ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार की गरीब-विरोधी नीतियों की कटु आलोचक थीं. उन्होंने भी सिद्धार्थ की मौत के बाद “कर आतंकवाद” पर चिंता व्यक्त की. शॉ ने इस साल अगस्त में समाचार पत्र टेलीग्राफ को बताया कि एक सरकारी अधिकारी ने उनकी टिप्पणी के बाद फोन कर "इस तरह के बयान" न देने की धमकी दी थी.
भारत में उद्यमी आज भी डरे हुए रहते हैं. महज कुछ उद्यमियों ने ही कर अधिकारियों द्वारा उत्पीड़न किए जाने और जबरन चंदा वसूली जैसी बातों को उठाने की हिम्मत की है. कॉरपोरेट जगत में देश में जारी आर्थिक मंदी को लेकर व्यापक असंतोष है लेकिन कुछ ही लोग ऐसे हैं जिन्होंने सार्वजनिक रूप से सरकार की आलोचना करने की हिम्मत दिखाई है. मोदी सरकार की आरोप लगाने वाली प्रवृत्ति और बदले की भावना ऐसी है कि अपनी बात कहने वालों को बुरा अंजाम भुगतना पड़ सकता है. मैंने जितने भी व्यापारियों से बात की, वे पिछले शासन को अच्छे दिनों की तरह याद करते हैं लेकिन ऐसी बातें सार्वजनिक रूप से कहने से डरते हैं. कॉरपोरेट जगत और राजनेताओं के बीच झगड़े, विशेष रूप से मोदी जैसे मजबूत राजनेता से झगड़े, के इतिहास से पता चलता है कि यह डर वाजिब है.
मुख्यमंत्री रहते हुए आलोचना के प्रति मोदी की बेरुखी जगजाहिर थी. फरवरी 2003 में, गुजरात में मुस्लिम नरसंहार के परिणामस्वरूप मिली जीत के बाद, मोदी ने भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई), जो देश का सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण व्यापार संघ है, से अपनी सार्वजनिक छवि को दुरुस्त करने के लिए एक विशेष सत्र आयोजित करने का अनुरोध किया था. इस आयोजन का नाम था- "गुजरात के नए मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ बैठक." जैसा कि कारवां के कार्यकारी संपादक विनोद के जोस ने अपनी 2012 की मोदी प्रोफाइल में बताया है, गुजरात के मुख्यमंत्री के साथ प्रख्यात व्यवसायी राहुल बजाज और जमशेद गोदरेज भी आयोजन में शामिल हुए थे. जिनमें से किसी ने भी मोदी का कोई खास सत्कार नहीं किया. बजाज ने 2002 को गुजरात के लिए "बर्बाद साल" घोषित किया. बजाज ने मोदी से पूछा, "हम कश्मीर, पूर्वोत्तर या उत्तर प्रदेश और बिहार में निवेश क्यों नहीं कर पाते? इसकी वजह महज बुनियादी ढांचे की कमी नहीं है, बल्कि इसके पीछे असुरक्षा की भावना भी है. मुझे उम्मीद है कि यह गुजरात में नहीं होगा. यह पिछले साल की दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के कारण याद आ जाता है.”
इस घटना के तुरंत बाद गुजराती व्यापारियों के एक समूह ने ‘गुजरात का रिसर्जेंट समूह’ नाम के प्रतिस्पर्धी संगठन की स्थापना की. इसके सदस्यों में अडानी समूह के गौतम अडानी और निरमा समूह के करसन पटेल भी शामिल थे. इस समूह ने सीआईआई से अलग हो जाने की धमकी दी. केंद्र में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार थी इसलिए सीआईआई को जल्द पता चल गया कि वह मोदी के साथ झगड़ा नहीं कर सकता. फिर हुआ यह कि सीआईआई के महानिदेशक तरुण दास ने व्यक्तिगत रूप से अहमदाबाद में मोदी से माफी मांगी.
जब मैंने 2012 के राज्य चुनावों की रिपोर्टिंग के लिए गुजरात का दौरा किया, तो कई मंझोले और छोटे उद्यमों के मालिकों ने मुझे मोदी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार के निरंकुश तरीकों के बारे में बताया. उन्होंने कहा कि उस समय, सरकार ने केवल तीन व्यापारिक घरानों अडानी, अंबानी और टाटा को फायदा पहुंचाया था. इनमें से कई उद्योगपति मूल रूप से महाराष्ट्र के थे, जहां वे शिवसेना की ट्रेड यूनियनों और उसके नेता दत्ता सामंत से परेशान थे. गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी के निमंत्रण पर, वे 1980 के दशक में मुंबई से गुजरात चले आए थे. सोलंकी ने उन्हें दस साल के लिए कर भरने की छूट और व्यवसाय करने के लिए अनुकूल माहौल की पेशकश की थी.
2012 तक, सामंत और शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे दोनों की मृत्यु हो चुकी थी और गुजरात में मोदी की बीजेपी सरकार लगभग दस सालों से शासन कर रही थी. अब गुजरात में स्थित इन व्यवसायियों को बीजेपी के पदाधिकारियों को चंदा देना पड़ता था. उन्हें सरकारी मंजूरी हासिल करने में हर तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. वे महाराष्ट्र वापस जाने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण के साथ बातचीत कर रहे थे, जहां चव्हाण उन्हें नवी मुंबई में एक विशेष आर्थिक क्षेत्र देने के लिए तत्पर थे. लेकिन 2014 में, केंद्र और महाराष्ट्र दोनों में बीजेपी ने कांग्रेस से सत्ता छीन ली.
व्यापारी वर्ग के बीच मोदी ने जिस तरह का डर पैदा किया है, उसकी तुलना शिवसेना के 1995 से 1999 के बीच महाराष्ट्र में शासन के वक्त बाल ठाकरे के डर से की जा सकती है.
मई 1995 में, शिवसेना-बीजेपी सरकार के शपथ ग्रहण के कुछ दिनों बाद, मुंबई के प्रतिष्ठित और उच्च सम्मानित ईएनटी विशेषज्ञ डॉ एलके हीरानंदानी ने मुंबई के ताज गेटवे में ठाकरे और उनके परिवार के लिए एक भव्य पार्टी की मेजबानी की. हीरानंदानी के बेटे निरंजन, एक रियल एस्टेट टाइकून हैं और हीरानंदानी समूह के संस्थापक हैं. हीरानंदानी ने नई सरकार का स्वागत करने के लिए भगवा गुलाब, ठाकरे का पसंदीदा पेय- गर्म भारतीय बीयर- और मोएट एट चंडन शैंपेन की नदी बहा दी.
शहर के कम से कम 250 बिल्डरों ने इस दावत में शिरकत की, खासकर इसलिए क्योंकि वे झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों को मुफ्त आवास देने की ठाकरे की योजना से उत्साहित थे. गरीबों को मुफ्त आवास तो मिलता लेकिन झुग्गी-झोंपड़ी वालों से लूटी गई जमीन का एक तिहाई हिस्सा डेवलपर्स के हाथों में लगकर वाणिज्यिक बिल्डिंग या आलीशान हाउसिंग बन जाता.
पिछली कांग्रेस सरकार गरीबों को सस्ते आवास देना चाहती थी, लेकिन उसने बिल्डरों पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए थे. अब उन्हें उम्मीद थी कि सत्ता में बैठी सरकार के संरक्षक ठाकरे उन्हें खुला खेल खेलने देंगे. हालांकि यह बीमार योजना जल्द ही खत्म हो गई और "शिवसेना के मित्र" नामक एक समूह के गठन के साथ कारोबारियों का उत्साह समाप्त हो गया.
लेकिन ठाकरे ने दुश्मन तो छोड़िए किसी दोस्त को भी नहीं बख्शा. जल्द ही, डरावनी कहानियां सामने आने लगीं. शिवसेना सरकार ने उगाही को संस्थागत बना दिया और उसका प्राथमिक लक्ष्य व्यापारी थे. गणपति उत्सव जैसे कार्यक्रमों के लिए जबरन सालाना चंदा वसूला जाने लगा. सेना ने होटलों, अस्पतालों, बैंकों, कारखानों, हवाई अड्डों और अन्य संस्थानों में अपने श्रमिकों की यूनियनों का उपयोग किया ताकि पैसा उगाही के लिए शहर के सबसे धनी लोगों की पहचान की जा सके. वकील, चार्टर्ड अकाउंटेंट और यहां तक कि डॉक्टरों जैसे पेशेवरों तक से उगाही की जाती : उदाहरण के लिए, एक डॉक्टर को किसी हृदय रोगी से लिए शुल्क का एक प्रतिशत शिवसेना को चुकाना होता. रोगी को भी मन मारकर यह हिस्सा देना होता. यहां तक कि वसूली करने वाले लेनदेन का बहीखाता बनाए रखते.
लोगों ने डर के मारे कार खरीदनी बंद कर दी क्योंकि स्थानीय शाखा प्रमुख की मांग जब पूरी नहीं होती तो वह उनकी विंडशील्ड को तोड़ देता और चाहे जितनी बार मरम्मत करवाई जाए वह तब तक उसे तोड़ता रहता जब तक उसे चंदा नहीं मिल जाता. होटल और बैंक्वेट हॉल में शादियों और जन्मदिन पार्टियों के लिए बुकिंग कम होने लगी क्योंकि सेना के सदस्य बुकिंग कराने वालों का पूरा विवरण निकाल लेते और कमीशन की मांग करते. अगर कोई इसका विरोध करता तो हिंसा होती.
सरकार से अपना काम करवाने के लिए व्यवसायियों को भरी कीमत अदा करनी होती और इसके बाद भी कोई गारंटी नहीं थी कि काम हो जाएगा. 1990 के दशक के अंत में एक व्यापारी ने मुझे बताया था, "ठाकरे के घर हमें तीन हिस्से भेजने पड़ते हैं" जिसमें एक हिस्सा खुद ठाकरे का होता, दूसरा उनके एक बेटे का और तीसरी उनकी पसंदीदा बहू का. "उसके बाद भी कोई गारंटी नहीं है," उन्होंने कहा.
कारोबारी अब कांग्रेस को याद करने लगे. उस व्यापारी ने मुझे बताया कि "हमारे सूटकेस नोटों और अफसोस के साथ वापिस आ जाते थे कि हमारा काम नहीं हो सका. कांग्रेस के मंत्रियों ने हमारा पैसे नहीं निगला जैसे यह सरकार करती है. वे लोग भी बदमाश थे, लेकिन कम से कम उनकी बदमाशी में ईमान तो था. ठाकरे परिवार के लोग कंपनी के बोर्ड में जबरन निदेशक बना लेने का दबाव देने लगे. जिंदगी भर पालना पड़ेगा.”
ठाकरे के घर मातोश्री आने वाली कोई चीज सुरक्षित नहीं रहती. फैंसी मर्सिडीज या लेक्सस कारों में मातोश्री जाने वाले व्यवसायी, अक्सर काली-पीली टैक्सियों में घर लौटते. ठाकरे के घर का कोई न कोई व्यक्ति उन कारों की चाबी मांग लेता. खुद मेरे सामने एक उद्योगपति ने, जिसका एयरलाइन का कारोबार था, बाल ठाकरे के भतीजे राज को भारत की पहली स्वचालित कारों में से एक की चाबी सौंपते हुए कहा, “इसे चलाने में आपको बहुत मजा आएगा. अगर आपको पसंद आए तो रख लेना.” राज ने वह कार रख ली.
आखिरकार तंग आकर व्यापारी शिवसेना के खिलाफ एकजुट होने लगे. 1998 में, व्यापारियों के एक समूह ने कुछ हैरतअंगेज ढंग से संसद के एक साधारण कांग्रेस सदस्य लक्ष्मण सिंह, जो मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के भाई थे, का स्वागत करने के लिए दक्षिण मुंबई के एक आलीशान बैंक्वेट हॉल में बैठक की. वहां मौजूद एक व्यवसायी ने सवाल पूछने के बजाय, यह मांग कर डाली कि कांग्रेस - जिसकी 1998 में, दिल्ली और राजस्थान में होने वाले विधानसभा चुनावों में जीतने की उम्मीद थी, वह मध्य प्रदेश में चुनाव जीते.
लक्ष्मण सिंह की कोई कूवत नहीं थी लेकिन उन्होंने कहा कहा, "मेरे भाई दुबारा चुनाव जीतने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं." जिस व्यवसायी ने प्रश्न पूछा था, उसका मध्य प्रदेश से कोई हित नहीं जुड़ा था. वह “शिवसेना के मित्र” का संस्थापक सदस्य था. अब वह उम्मीद कर रहा था कि अगर कांग्रेस दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश में जीतती है, तो यह स्थिति महाराष्ट्र में भी शिवसेना को हराने में मदद करेगी.
कुछ दिनों के बाद जबरन वसूली के शिका सबसे कुलीन व्यापारियों और पेशेवरों ने चौपाटी पर शक्ति प्रदर्शन किया. "बस बहुत हो गया!" लगभग घबराए हुए निरंजन हीरानंदानी ने कहा, जिनके पिता ने तीन साल पहले ठाकरे के लिए स्वागत पार्टी की मेजबानी की थी. "मेरे पिता ने 1947 में कराची से बॉम्बे आने पर इतना नहीं झेला जितना अब उन्हें पचास साल बाद झेलना पड़ा रहा है."
इस प्रदर्शन का फायदा हुआ और रातोंरात जबरन वसूली बंद हो गई. पर्दे के पीछे से, कुछ शीर्ष पुलिसकर्मियों ने ठाकरे और उनके जबरन वसूली करने वालों को किनारे लगाने में व्यवसायियों की मदद की. शिव सेना को काबू में कर लिया गया. मोदी लहर के चलते सत्ता में आने तक, पंद्रह सालों तक शिवसेना सत्ता में वापिस नहीं आ पाई.
लेकिन मोदी को काबू में करना इतना आसान नहीं है जितना ठाकरे को था. केंद्र सरकार ने कई संस्थानों पर अपनी पकड़ मजबूत बना ली है, खासकर न्यायपालिका के सदस्यों पर. ठाकरे ने जीवन भर अदालतों को चकमा दिया, लेकिन गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए भी मोदी के लिए चीजें आसान रहीं. प्रतिरोध का सामना होने पर ठाकरे पीछे हट जाते थे लेकिन ठाकरे की तुलना में मोदी और उनकी सरकार ज्यादा कड़ी मिट्टी की बनी है.
हिंदुत्व, सांप्रदायिक हिंसा या संस्थागत जबरन वसूली जैसे ठाकरे के हथकंडे बड़े पैमाने पर मौजूदा व्यवस्था में भी जारी हैं. लेकिन मोदी से निपटने के लिए, उनके सताए लोगों को इससे भी बड़े पैमाने पर एक साथ आना होगा.
(द कैरवैन के अक्टूबर 2019 अंक में प्रकाशित)