तमिलनाडु के थूथुकुडी जिले के तटीय नगर कयालपट्टनम के कुछ निवासी, तेजी से लुप्त हो रही अरवी भाषा के बारे में लोगों के बीच फिर से जिज्ञासा पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं. अरवी को अरबू-तमिल भी कहा जाता है, जो कयालपट्टनम में समुद्री यात्रा करने वाले अरबों और तमिलनाडु के तमिल भाषा बोलने वाले मुसलमानों के बीच एक सेतु भाषा के रूप में विकसित हुई. चेन्नई के न्यू कॉलेज में अरवी अध्ययन विभाग के एक एसोसिएट प्रोफेसर केएमए अहमद जुबैर के एक शोध पत्र के अनुसार, आठवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक समुदाय में अरवी भाषा बोली जाती थी. यह व्यापार, संपत्ति लेनदेन और पत्राचार का माध्यम बन गई और तमिल मुसलमानों के बीच साक्षरता बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभाई. एक लेखक सलाई बशीर ने मुझे बताया, "अरवी अपनी दो शास्त्रीय मूल भाषाओं तमिल और अरबी की एक अद्भुत उपज है. हालांकि हाल के दिनों में इसने अपना उद्देश्य और चमक खो दी है, लेकिन इसे बचाया और संरक्षित किया जाना चाहिए.
अरवी पढ़ने के इच्छुक लोगों ने नगरपालिका के समग्र इतिहास और संस्कृति को रिकॉर्ड करने और संरक्षित करने के उद्देश्य से सितंबर 2022 में एक संगठन, कयालपट्टनम ऐतिहासिक अनुसंधान केंद्र की स्थापना की. अरवी के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए केंद्र जल्द ही कयालपट्टनम के वावु वजीहा कॉलेज फॉर विमेन में एक कार्यक्रम आयोजित करेगा.
कयालपट्टनम के एक तमिल मुस्लिम होने के कारण मुझे अपने समुदाय और पास-पड़ोस से अरवी की उत्पत्ति के बारे में पता चला. मैंने कुछ शोध पत्र भी पढ़े हैं जिनमें पिछले कुछ वर्षों में इसके विकास का दस्तावेजीकरण किया गया है. अरवी के आगमन को समझने के लिए हमें विशिष्ट मातृस्थानीय बंदरगाह शहर के तौर पर कयालपट्टनम के भूले हुए इतिहास को देखना चाहिए. सत्रहवीं शताब्दी से पहले जब उत्तरी यूरोपियों ने अपना प्रभुत्व जताते हुए समुद्री मार्गों पर कब्जा कर लिया, तब हिंद महासागर का व्यापार पश्चिम एशिया के अरबों और फारस की खाड़ी से आए फारसियों से भर गया था.
लगभग सातवीं शताब्दी के बाद से भ्रमणशील अरब व्यापारी, जिनमें कुली, फेरीवाले, छोटे-बड़े व्यापारी शामिल थे, धीरे-धीरे भारतीय प्रायद्वीप के तटीय इलाकों में बसने लगे और स्थानीय महिलाओं से विवाह करने लगे. इन अंतःक्रियाओं के माध्यम से अरवी का उदय हुआ. कयालपट्टनम की स्थानीय महिलाएं अपने समुद्री यात्रा करने वाले पिताओं, भाइयों और “आने वाले पतियों” के साथ संपर्क में रहने के लिए अरवी का उपयोग करती थीं. “आने वाले पतियों” शब्द हिंद महासागर के इतिहास के विद्वानों द्वारा यात्रा करने वाले उन व्यापारिक पतियों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जो जब भी, एक वर्ष में एक बार या दो बार इन नगर में आते तो अपनी पत्नियों और बच्चों से मिलने जाते थे.
अरवी भाषा के छात्र अनीस अहमद के अनुसार ऐसी कई मिश्रित भाषाएं हिंद महासागर से होने वाले व्यापार की वजह से पैदा हुई थीं. अहमद ने बताया, "यह संकरण उन देशों की स्थानीय भाषाओं के साथ हुआ था जहां अरबों ने अपने पैर रखे थे. अरवी मलयालम, जावी इसके कुछ उदाहरण हैं." अहमद और उनके दोस्त मोहम्मद इब्राहिम अंसारी, जो एक सॉफ्टवेयर डेवलपर हैं, एक ऐप विकसित कर रहे हैं जो अरवी और इसकी लिपि को आसानी से सुलभ बनाता है, जिसे केएचआरसी इवेंट में लॉन्च किया जाना है.
शायद अरवी का सबसे उल्लेखनीय पहलू, जिसे मेरे समुदाय की महिलाएं प्रमाणित कर सकती हैं, वह यह है कि इसे तमिल भाषी मुस्लिम महिलाओं द्वारा भी व्यापक रूप से पढ़ा और लिखा जाता था. सत्रहवीं शताब्दी में एक धार्मिक मौलवी और लेखक सैम शिहाबुद्दीन द्वारा लिखे मौलिक लेख जैसे पेन पुत्थी मलाई, विशेष रूप से महिलाओं के लिए लक्षित थे. उन्नीसवीं शताब्दी में सैय्यद आसिया उम्मा जैसी अरवी की उल्लेखनीय महिला लेखक और कवि भी थीं. इतिहासकारों का तर्क है कि अरवी का इतिहास एक हजार साल से अधिक पुराना है, लेकिन जुबैर के शोध पत्र के अनुसार, इसके साहित्यिक कार्यों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा 1525 में पर्ल फिशरी तट की पुर्तगालियों से लड़ाई में खो गया था, जो तूतीकोरिन से कोमोरिन तक कोरोमंडल तट में फैली हुई थी.
शोध में कहा गया है कि यह कयालपट्टनम के संत हाफ़िज़ अमीर वली अप्पा थे, जो पुर्तगालियों के जाने के बाद पहली बार अरवी को फिर से सामने लेकर लाए और इसे लेखन की एक व्यवस्थित शैली दी. बाद में टाइपफेस पर लिथोग्राफिक प्रिंटिंग के प्रसार के साथ, उन्नीसवीं शताब्दी में अरवी में किताबें रंगून से बॉम्बे तक मुद्रित की जाने लगीं. दक्षिण एशिया में मुस्लिम संस्कृति और समाज के विशेषज्ञ विद्वान और अनुवादक टॉर्स्टन सच्चर के एक शोध पत्र के अनुसार, मद्रास में 1909 में स्थापित किताबों की एक दुकान और प्रकाशन कंपनी, हाजी एमए शाहुल हमीद एंड संस, अरवी का एकमात्र जीवित प्रकाशक है. हालांकि, पिछले कई दशकों में उन्होंने केवल पुरानी रचनाओं को ही पुनः प्रकाशित किया है.
इस भाषा का अधिकांश इतिहास मौखिक रूप में मौजूद है, जो पूर्वजों से चला आ रहा है. कयालपट्टनम में सांस्कृतिक और रचनात्मक विकास के लिए बने एक सामुदायिक केंद्र, अबाती के रचनात्मक निदेशक और निरीक्षक जारिया अज़ीज़ ने मुझे बताया, "कयालपट्टनम के सूफियों ने धार्मिक अवसरों पर अपने उपदेशों को जोर से पढ़कर सुनाने वाले सत्रों के जरिए इस भाषा को जीवित रखा हे." शहर के कई मदरसों ने प्राथमिक विद्यालय के बच्चों को अरवी पढ़ने और सिखाने की पहल की है. हम अभी भी कयालपट्टनम में पांच पीढ़ियों पहले तक के परिवारों की अरवी किताबें और ग्रंथ देख सकते हैं.''
कुछ लोगों के प्रयासों के कारण ही अरवी यहां तक बच पाई है. सलेम जिले की एक बुजुर्ग, पूर्व उस्ताद बी (इस्लामिक धर्मग्रंथों पढ़ाने वाली एक महिला शिक्षिका) अम्माजी अक्का आज तक छोटे बच्चों को अरवी पढ़ाती हैं. अज़ीज़ ने बताया, "अबाती में हमारे पास बच्चों को किताबों के जरिए और वयस्कों के लिए भी लिपि के बारे में बताने और सिखाने के लिए दीर्घकालिक योजना है, क्योंकि लिपि अब उपलब्ध कराई गई है, जिसके लिए अंसारी और अनीस को धन्यवाद." ऐसा प्रतीत हो सकता है कि अरवी केवल अरवी लिपि में लिखी गई तमिल है, क्योंकि अरवी वर्णमाला अरबी वर्णमाला जैसी है. लेकिन इसकी लिपि में स्वरों और कई व्यंजनों का प्रतिनिधित्व करने के लिए उपयोग किए जाने वाले अतिरिक्त अक्षर हैं जिन्हें अरबी ध्वनियों में नहीं देखा जा सकता. अरवी एक विशिष्ट साहित्यिक शैली और अपनी खुद की एक समन्वित शब्दावली का भी दावा करती है. अरवी में रचना करने वाले कवियों ने संश्लेषित व्याकरण के अभाव में, जो न तो इलक्कनम (तमिल व्याकरण) न ही नह्व (अरबी व्याकरण) के अनुरूप है, ने अपनी खुद की पद्धतियां ईजाद कीं.
राज्य में तमिल और अंग्रेजी को शिक्षा के माध्यम के रूप में अपनाने वाले स्कूलों ने भी अरवी के पतन में योगदान दिया. बशीर के अनुसार, "आजादी के बाद के भारत में ही जब देश को भाषा के आधार पर राज्यों में विभाजित किया गया था, अरवी ने धीरे-धीरे तमिल मुस्लिम हलकों के बीच भी अपनी पकड़ खो दी थी."
यहां तक कि क्षेत्र में अरवी के अंतिम संस्थागत संरक्षकों, उलेमा बीसवीं सदी की शुरुआत में तमिल मुस्लिम सुधारकों के बीच अकेले पड़ने लगे थे, बिल्कुल भाषा की तरह. सुधारकों ने तमिलनाडु में आत्म-सम्मान आंदोलन को देखते हुए, अरवी के आरक्षित कुलीन पाठक वर्ग के रूप में माने जाने वालों को चुनौती दी. अधिकांश अरवी के लेखक सूफी रुझान वाले थे. बीसवीं सदी के इस्लामी पुनरुत्थानवादी प्रवचनों ने सूफी रहस्यमय प्रसंगों की निंदा की, जिन्हें अरवी ग्रंथों में बड़े पैमाने पर प्रलेखित किया गया था. इसने अरवी के विद्वानों को यह सुझाव देने के लिए प्रेरित किया कि आम पाठकों को गलत व्याख्या से बचने के लिए ऐसे ग्रंथों से दूर रखा जाना चाहिए, यह तर्क देते हुए कि गूढ़ अनुभवों को हर कोई नहीं समझ सकता है. त्सैचर के शोध पत्र में अनुमान लगाया गया है कि उलेमा कि इस तरह की बचाव नीति ने मुस्लिम ब्राह्मणों की छवि गढ़ने में योगदान दिया होगा, जिसे आत्म-सम्मान आंदोलन द्वारा सामने लाया गया था.
हाल ही में उद्घाटन किए गए केएचआरसी के समन्वयक, कयाल एसई अमानुल्लाह ने कहा, "यह जो कुछ बचा है उसे संरक्षित करने की जिम्मेदारी हम पर, भावी पीढ़ी पर है." केएचआरसी ने अब तक विभिन्न इस्लामी धार्मिक मदरसों और परिवारों द्वारा दान किए गए व्यक्तिगत संग्रह से कई पुरानी अरवी किताबें और दस्तावेज एकत्र किए हैं.
बशीर ने आज विविध पहचानों को मिलाकर एक बनाने के दबाव डाले जाने पर अपनी चिंता व्यक्त की. उन्हें लगता है कि यह विविध भाषाओं, संस्कृतियों और विश्वासों को मिटाने का एक तरीका है. बशीर ने कहा, "मुझे लगता है कि अपनी पहचान को बनाए रखना अब पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. भारत का गौरव इसकी बहुलता और विविधता है.”