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मुंबई के पूर्व में बसे उपनगर ट्रॉम्बे की मछुआरिन शारदा पंधारे कोली ने मुझे बताया कि वह शादी होने से पहले से ही मछली पकड़ने का काम कर रही हैं. उन्होंने कहा, "हम तब हर साइज़ की मछलियां पकड़ पाते थे. हम अब भी मछली पकड़ना चाहते हैं लेकिन अफ़सोस की बात है कि पानी में अब पहले जितनी मछलियां नहीं है.”
जलवायु परिवर्तन, बदलते मौसम और बढ़ते प्रदूषण के कारण मुंबई के तट पर मछलियों की संख्या में बहुत गिरावट आई है. मुंबई के मछुआरों की सबसे बड़ी चिंता प्लास्टिक प्रदूषण है जिसका सबसे अधिक असर महिलाओं पर पड़ता है.
मछुआरा समुदायों के लिए प्लास्टिक कचरा जीवन-मरण का मामला बन गया है. सेंट्रल मरीन फिशरीज़ रिसर्च इंस्टीट्यूट के 2016-2017 के अध्ययन के अनुसार, मुंबई के पास के मछली पकड़ने वाले स्थानों में प्लास्टिक कचरे की मात्रा सबसे अधिक है. सीएमएफआरआई, मुंबई के वैज्ञानिक केवी अखिलेश ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया था, "पहले, हम जीवों को प्लास्टिक के मलबे में फंसे या उलझे हुए देखते थे, अब हम उनके पेट में प्लास्टिक देख रहे हैं. इसका मतलब है कि प्लास्टिक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और तटीय जल में तेजी से बढ़ रहा है. हमारे गहन सर्वेक्षणों के दौरान भी, अरब सागर से 1000 मीटर से अधिक गहराई तक प्लास्टिक का मलबा एकत्र किया गया." पूरे विश्व में भारत प्लास्टिक पॉलिमर का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. भारत में प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पादन में अग्रणी राज्य, महाराष्ट्र, से 2020-21 की अवधि में 311254 टन प्लास्टिक अपशिष्ट निकला. इस अपशिष्ट में राजधानी मुंबई का हिस्सा एक तिहाई था.
मुंबई के सबसे पुराने मछली पकड़ने वाले समुदाय कोली को न केवल पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि मछली पकड़ने वाले परिवारों में भी गिरावट आ रही है. भारत की समुद्री मत्स्य जनगणना बताती है कि मुंबई में मछली पकड़ने वालों के 30 गांव हैं. 2005 और 2010 के बीच, मछली पकड़ने वाले परिवारों की संख्या 10082 से घट कर 9304 हो गई.
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