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खुशकिस्मत होते हैं वे शहर और जगह जहां सार्वजनिक पुस्तकालय होती हैं. खासकर छोटे शहर. ऐसे मुफस्सिल इलाके जहां सपने और महत्वाकांक्षाएं तो बेशुमार होते हैं लेकिन संसाधन सीमित हैं. जहां पाठक भी हैं और किताबों की मांग भी है लेकिन शायद उन किताबों तक पहुंचने की परिस्थितियां नहीं हैं. पब्लिक लाइब्रेरी, जो मैंने इस साल जुलाई में देवघर में देखी थी, शायद ऐसे स्थानों में सबसे अच्छे और सबसे उपयोगी सामाजिक चलन में से एक हैं.
देवघर शहर झारखंड के देवघर जिले का मुख्य क्षेत्र है. यह संथाल परगना प्रमंडल के छह जिलों में से एक है. संथाल परगना के बनने की कहानी 1855 के संथाल विद्रोह में छिपी हुई हैं, जब सिदो और कान्हू मुर्मू भाइयों के नेतृत्व में संथाल के लोग ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और जमींदारी व्यवस्था के खिलाफ उठ खड़े हुए थे. आज, देवघर हिंदू भगवान शिव को समर्पित बैद्यनाथ धाम मंदिर और वार्षिक श्रावणी मेले के लिए प्रसिद्ध है. हालांकि, मैं देवघर को वहां स्थित दो पब्लिक लाइब्रेरी के लिए सबसे अधिक याद रखूंगा.
उनके बारे में मुझे अचानक ही पता चला था. मैं वहां एक इलेक्ट्रिक रिक्शा से देवघर के झौसागढ़ी क्षेत्र से टावर चौक की ओर यात्रा कर रहा था, जो एक क्लॉक टावर (घंटाघर) के नाम से एक प्रसिद्ध जगह है जो हर घंटे बजता है. इस रास्ते में एक चहारदीवारी के भीतर एक बहुमंजिला इमारत थी. इसमें पोर्टिको पर देवनागरी लिपि में हिंदी में, सार्वजनिक पुस्तकालय, लिखा था.
लाइब्रेरी में किशोरों से लेकर पच्चीस साल तक की उम्र के विद्यार्थी थे. ग्राउंड फ्लोर पर ज्यादातर लड़कियां थीं, जबकि पहली और दूसरी मंजिल पर सिर्फ लड़के थे. दूसरी मंजिल अपेक्षाकृत खाली थी. तीसरी मंजिल की छत पर ताला लगा हुआ था. मैं दूसरी मंजिल पर एक मेज पर बैठ गया और अपना अनुवाद का काम करने लगा.
काम करने का समय सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक है और रविवार को लाइब्रेरी बंद रहती है. कर्मचारियों ने मुझे बताया कि मासिक सदस्यता शुल्क 120 रुपए है और किताबें उधार लेने की अनुमति नहीं है, लेकिन सदस्य यहीं पर ही सभी किताबें पढ़ सकते हैं और अपनी खुद की किताबें भी ला सकते हैं. इंटरनेट से मुझे आगे की जानकारी मिली कि इस लाइब्रेरी की स्थापना 1996 में हुई थी और लगभग तीन सौ छात्र प्रतिदिन यहां आते हैं. यहां की अधिकांश किताबें प्रतियोगी परीक्षाओं और शैक्षणिक कार्य करने वालों के लिए थीं.
टावर चौक से पश्चिम की ओर चलते समय राष्ट्रीय राजमार्ग 333 पर एक साइनबोर्ड लगा था जिस पर लिखा था अंबेडकर लाइब्रेरी. मैं वहां रुक गया. मुझे यह पता चल गया था कि देवघर में पढ़ने और रचनात्मकता की संस्कृति है. उदाहरण के लिए, झौसागढ़ी क्षेत्र में, कुष्ट आश्रम रोड पर, एक निजी आवास था जिसकी नेम प्लेट पर देवनागरी लिपि में "लेखक" लिखा था. यह पहली बार था जब मैंने किसी घर की दीवार पर किसी लेखक को अपना पेशा लिखते हुए देखा.
मैंने टावर चौक के पास नवयुग नाम से एक किताब की दुकान भी देखी. दुकान में खुदरा दर पर बिक्री होती है. ग्राहक अपने ऑर्डर देने के लिए सीधे काउंटर पर आते थे, जिनमें ज्यादातर कोर्स की किताबें और प्रतियोगी परीक्षाओं की किताबें होती हैं. हालांकि, दुकान की एक दीवार पर शोकेस में किताबें अटी पड़ी थीं. मैंने हारुकी मुराकामी द्वारा लिखित “मेन विदाउट वुमेन” और कोलीन हूवर द्वारा लिखी गई कई किताबें देखी. मैं कई किताबों के साथ लौटा जिसमें 1980 के दशक में बिहार और उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की बढ़ती संख्या बारे में एक प्रखर लेखक शिबल भारतीय द्वारा लिखित “बेनाज समर”; डेनिएल स्टील की “द रेंच”, क्योंकि किशोरावस्था में मुझे उसकी विंग्स बहुत पसंद थी; सिंथिया कदोहाटा द्वारा लिखी “चैक्ड” क्योंकि इसके कवर पर डोबर्मन छपा था; और एम्मा डोनोग्यू की “द पुल ऑफ द स्टार्स” थी.
टाउन लाइब्रेरी की तरह, डॉ. भीमराव आंबेडकर लाइब्रेरी में भी चार मंजिलें हैं, जिनमें से सभी उपयोग में हैं, जिसमें छत भी शामिल है. दीवारों पर बीआर आंबेडकर, जोतिराव, सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख की तस्वीरें हैं. 2017 में स्थापित इस लाइब्रेरी की सभी मंजिलें टेबल और बेंचों से भरी हुई हैं और जब भी मैं वहां गया लगभग सभी मेजें भरी हुई थीं. आंबेडकर लाइब्रेरी की वेबसाइट बताती है कि यहां 98 बुकशेल्फ, 104 टेबल और 160 बेंच हैं. एक स्टाफ सदस्य ने मुझे बताया कि लगभग पांच सौ पाठक प्रतिदिन यहां आते हैं. लाइब्रेरी में हर उपलब्ध स्थान पर, यहां तक कि प्रत्येक मंजिल की अग्रदीर्घा में भी किताबों से भरी हुई अलमारियां थीं.
लाइब्रेरी जाने के मेरे पहले दिन एक अन्य स्टाफ सदस्य ने मुझे बताया कि इस इमारत का कोई किराया नहीं दिया जाता. उन्होंने बताया, "कर्मचारियों का भुगतान, किताबों की खरीद, लाइब्रेरी का रखरखाव, यह सब जनता के दान और सदस्यता शुल्क के माध्यम से किया जाता है." बुकशेल्फ और किताबों में उन व्यक्तियों का नाम लिखा गया था जिन्होंने उन्हें दान दिया था या उन्हें खरीदने में आर्थिक योगदान दिया था. इनमें देवघर और बाहर के सरकारी अधिकारी, व्यावसायिक उद्यम और अन्य नागरिक शामिल थे. मैंने बुकशेल्फ पर जमशेदपुर के एक दानदाता का नाम लिखा हुआ देखा और फिर बाहर की दीवार पर दान देने वालों की एक पूरी सूची अंकित देखी. सदस्यता शुल्क 220 रुपए प्रति माह है, जो टाउन लाइब्रेरी से कहीं अधिक था, लेकिन वहां अधिक सुविधाएं थीं और निश्चित रूप से अधिक किताबें थीं. मैंने पहली मंजिल पर छह डेस्कटॉप कंप्यूटर और दूसरी मंजिल पर पांच डेस्कटॉप कंप्यूटर रखे देखे और वहां मुफ्त वाई-फाई था. जिस चीज ने मेरा ज्यादा ध्यान खींचा वह थी प्रत्येक मंजिल पर पीने के पानी और धो कर दोबारा उपयोग की जाने वाली कई स्टील की बोतलों की सुविधा.
जब एक शाम मैं दूसरी मंजिल पर अपने अनुवाद पर काम कर रहा था, तब वहां के एक अधिकारी ने स्पीकर पर घोषणा की कि "कृपया इस लाइब्रेरी से किताबें और पानी की बोतलें न लें." यह लाइब्रेरी के सदस्यों के लिए एक नियमित सूचना थी. टाउन लाइब्रेरी की तरह, आंबेडकर लाइब्रेरी भी अपने सदस्यों को किताबें ले जाने की अनुमति नहीं देती, लेकिन वे अपनी किताबें ला सकते थे या बुकशेल्फ से किताबें ले सकते थे और उन्हें वहीं पर ही पढ़ सकते थे. टाउन लाइब्रेरी की तरह, अधिकांश किताबें या तो अकादमिक थीं या प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं से संबंधित थीं. हालांकि, मैंने अरुंधति रॉय की “द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स” और प्रेमचंद की “कर्मभूमि” और “गबन” की तीन-तीन प्रतियां देखीं और अज्ञेय की “शेखर : एक जीवनी”, भीष्म साहनी की “तमस”, मन्नू भंडारी की “आपका बंटी” की एक-एक प्रति और होमर की “ओडेसी” का हिंदी अनुवाद भी देखा.
धर्मशास्त्र के शेल्फ में देवनागरी लिपि में कुरान शरीफ की एक प्रति, अथर्ववेद और रामचरितमानस की प्रतियां भी देखी. वहां अरामी भाषा से देवनागरी में ट्रांसलेट की गई बाइबिल की एक प्रति भी थी. हिंदी में डॉ. आंबेडकर की संपूर्ण वांग्मय और दलित अध्ययन, आदिवासी अध्ययन और दर्शन पर अनेक किताबें थीं जैसे ओम प्रकाश वाल्मिकी द्वारा लिखित “जूठन” और “दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र”, राम दयाल मुंडा और रतन सिंह मानकी की “आदि धर्म”, कांचा इलैया शेफर्ड द्वारा लिखित “हिंदुत्व- मुक्त भारत” की और ईवी रामासामी की “धर्म और विश्वदृष्टि.”
टाउन लाइब्रेरी के विपरीत, आंबेडकर लाइब्रेरी 24 घंटे खुली रहती है. गेट सुबह 5 बजे खोले जाते हैं और रात 10 बजे बंद कर दिए जाते हैं, जो सदस्य रात में वहां रहना चाहते हैं वे रात 10 बजे से पहले इमारत में प्रवेश कर सकते हैं और रात भर रुक सकते हैं. मैं सुबह 5 बजे आंबेडकर लाइब्रेरी गया और उस स्थान की शांति ने मुझे बहुत प्रभावित किया, विशेषकर तीसरी मंजिल की छत से जहां से मुझे देवघर शहर का मनोरम दृश्य दिखाई दिया. मुझे आश्चर्य हुआ कि जब टाउन लाइब्रेरी पहले से ही वहां मौजूद थी तब भी क्या आंबेडकर लाइब्रेरी की आवश्यकता थी. इसका उत्तर मुझे आंबेडकर लाइब्रेरी के दो सदस्यों से मिला.
एक युवक, जिससे मैंने उस दिन बात की थी जब मैं सुबह 5 बजे लाइब्रेरी गया था, उसने कहा, "मैं यहां से लगभग आठ किलोमीटर दूर, देवघर हवाई अड्डे के पास एक गांव में रहता हूं और मेरी वित्तीय स्थिति ऐसी नहीं है कि वे सभी किताबें खरीद सकूं जो मैं पढ़ना चाहता हूं. इसलिए मैं रात यहीं पढ़ाई करके बिताता हूं और सुबह घर लौटता हूं." वह युवक एक स्थानीय कॉलेज में मानविकी का छात्र था और मैंने उसे कंप्यूटर पर काम करते देखा था.
लाइब्रेरी के एक सदस्य ने मुझे बताया, "मैंने अभी-अभी अपनी बारहवीं कक्षा पास की है और नीट प्री-मेडिकल परीक्षा की तैयारी कर रहा हूं. मैं सभी किताबें नहीं खरीद सकता इसलिए मैं इस लाइब्रारी में पाठ्यपुस्तक पढ़ने के लिए आता हूं. यदि कोई विशेष पुस्तक है जिसकी हमें आवश्यकता है लेकिन लाइब्रेरी में वह नहीं है, तो हम एक ऑर्डर देते हैं और लाइब्रेरी उसे हमारे लिए खरीद लेती है.''
मेरा मानना है कि जब किताबों की, किताबों की दुकानों और लाइब्रेरी की बात आती है, तो यह जितनी अधिक होती हैं उतनी ही बेहतर होती हैं, खासकर भीतरी और पिछड़े इलाकों में. कोलकाता के सेंट जेवियर्स में कला और विज्ञान संकाय के डीन अच्युत चेतन ने मुझे समझाते हुए कहा कि छोटे शहरों में पब्लिक लाइब्रेरी का सामाजिक प्रभाव, उन संसाधनों की पहुंच से बहुत दूर है जिन्हें अक्सर बड़े शहरों में हल्के में लिया जाता है.
चेतन देवघर से लगभग छियासठ किलोमीटर दूर स्थित दुमका के रहने वाले हैं, जो संथाल परगना डिवीजन का मुख्यालय और राज्य की उप-राजधानी है. कभी बिहार का हिस्सा रहे दुमका में पले-बढ़े चेतन को 1956 में बिहार सरकार द्वारा स्थापित, दुमका के इस राजकीय पुस्तकालय में 1980 के दशक के अंत और 1990 के दशक की शुरुआत में पुस्तकों को खोजाना आज भी याद है. पड़ोसी राज्य ओडिशा के भुवनेश्वर में एक चलती-फिरती बुकशॉप-कम-लाइब्रेरी, वॉकिंग बुकफेयर के सह-संस्थापक अक्षय रौतारे 2022 में लाइब्रेरी का नवीनीकरण करने वाली टीम का हिस्सा थे. रौतारे ने मुझे बताया कि लाइब्रेरी में हजारों उपयोगी किताबें थीं और उनमें से कई दुर्लभ और अप्रचलित संस्करण थे. वहां ऐसे प्रकाशकों की किताबें थी जो अपने आप में किंवदंतियां बन गई हैं, जैसे, “अल्फ्रेड ए नोपफ” और “पेंगुइन क्लासिक्स”; वहां लेखक द्वारा हस्ताक्षरित प्रथम-संस्करण प्रतियां भी थीं. वर्ष 2022 में, चेतन ने अपनी पहली किताब “फाउंडिंग मदर्स ऑफ द इंडियन रिपब्लिक” प्रकाशित की.
उन्होंने मुझे बताया, "मैंने व्यावहारिक रूप से अपनी किताब दुमका में राज्य लाइब्रेरी में मिली सामग्री की मदद से लिखी थी." चेतन के ये किस्से छोटे शहरों में सार्वजनिक लाइब्रेरी के महत्व को समझने में मदद करते हैं. जब वे दुमका के संताल परगना कॉलेज में पढ़ाते थे, तब से उनके कई छात्रों ने जिला और कॉलेज लाइब्रेरी में सुविधाओं का लाभ उठाया था. "वे सभी अब शिक्षक हैं और अगर गांव में एक व्यक्ति भी शिक्षक बन जाता है, तो इससे वह बहुत बदलाव ला सकता है."
चेतन ने जो दूसरा किस्सा सुनाया उसने मुझे कुछ हद तक विचलित कर दिया. चेतन ने कहा, “कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी भारत की सबसे बड़ी लाइब्रेरी है. यह सार्वजनिक लाइब्रेरी के विपरीत राष्ट्रीय महत्व से जुड़ी लाइब्रेरी है. हालांकि, सेंट जेवियर्स में एक शिक्षक के रूप में मेरे चार वर्षों में, मेरे केवल दो छात्रों ने नेशनल लाइब्रेरी में सदस्यता ली है! इससे पता चलता है कि बड़े शहरों में मूल्यवान संसाधनों को कितनी गंभीरता से लिया जाता है.” मैंने इसकी तुलना आंबेडकर लाइब्रेरी से की, जिसकी वेबसाइट पर उन व्यक्तियों की एक पूरी लिस्ट है, जिन्होंने लाइब्रेरी से लाभ उठाया और सफलतापूर्वक परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं या अन्य उपलब्धियां हासिल कीं. वास्तव में, एक शाम जब मैं पहले फ्लोर पर अलमारियों को छान रहा था, तब गुमला जिले के सरकारी अधिकारियों का एक समूह वहां आया. उन्होंने अपना छात्र जीवन आंबेडकर लाइब्रेरी में बिताया था और देवघर में श्रावणी मेले में मजिस्ट्रेट के रूप में तैनात होने के दौरान, उस स्थान का दौरा करने आए थे जिसने उनकी उपलब्धियों में योगदान दिया था.
उन्होंने छात्रों को संबोधित किया और अपने जीवन से जुड़ी कहानी और कुछ सुझाव साझा किए. पूरी तरह से जनता के दान और सदस्यता शुल्क पर चलने वाली यह संस्था उस राजनेता के लिए एक उपयुक्त श्रद्धांजलि है जिसके नाम पर इसका नाम आंबेडकर लाइब्रेरी रखा गया है. पब्लिक लाइब्र्री शब्दों और विचारों के लोकतांत्रिक प्रसार में एक महत्वपूर्ण उपकरण हैं. जहां भी स्थापित की जा सके वहां एक लाइब्रेरी होनी चाहिए. चाहे वे छोटी हों, बड़ी हों या देवघर की आंबेडकर लाइब्रेरी जितनी अच्छी हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता- बस किताबों के साथ एक शांत जगह और पढ़ने की आजादी की जरूरत है.
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