भारत में रह रहे तिब्बतियों की चीनी कंपनियों के लिए काम करने की मजबूरी

हिमाचल प्रदेश में तिब्बती स्कूली बच्चों की सभा. पलायन करने वाले तिब्बती बच्चों को समायोजित करने के लिए, जब तक वे तिब्बती नहीं सीखते, टीसीवी मध्य-विद्यालय के पुस्तकालयों में पढ़ने के लिए मैंड्रिन किताबें और पत्रिकाएं थीं. मैसीज वोज्तकोवियाक / आलमी फोटो

तिब्बत से निष्कासित तेंजिन, जिनसे मैं सितंबर 2022 में मिला था, ने मुझे बताया, "विरोध के बाद भी मुझे अपने पेट के लिए और अपने परिवार के लिए कुछ काम करना होगा और अपनी जरूरतों को पूरा करना होगा." वह अपना पूरा नाम नहीं बताना चाहते थे. वह लगभग हर साल 10 मार्च को तिब्बती विद्रोह दिवस मनाने के लिए चीनी दूतावास के बाहर विरोध प्रदर्शनों में भाग लेता हैं. वह एक चीनी बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए एक सेवा सहायक के रूप में काम करते हैं. उन्हें मैंड्रीन भाषा की जानकारी है जो भारत में अत्यधिक मूल्यवान कौशल है. तेंजिन भारत के उन तमाम तिब्बतियों में से एक हैं, जो उन कंपनियों में काम करने को मजबूर हैं जो या तो चीनी स्वामित्व वाली हैं या चीन के साथ व्यापार करती हैं.

निर्वासन में रहने वाले तिब्बतियों की उस भाषा से आजीविका कमाने की विडंबना को नजरंदाज करना मुश्किल है, जिसने तिब्बत पर कब्जा होने के बाद उनकी भाषा को जबरदस्ती बदल दिया. 1959 में चीन द्वारा 10 मार्च के विद्रोह को दबाने के बाद 14वें दलाई लामा तेंजिन ग्यात्सो और हजारों तिब्बतियों ने भारत में शरण मांगी थी. भारत सरकार ने उन्हें अपनी संस्कृति और जीवन शैली को बनाए रखने के लिए विभिन्न संस्थानों को बनाने की अनुमति दी. कब्जे वाले तिब्बत में कई परिवारों ने इस उम्मीद में अपने बच्चों को हिमालय के पार भारत भेजा कि उनके बच्चे दलाई लामा के मार्गदर्शन में बेहतर जीवन जी सकेंगे.

जबकि भारत-चीन संबंधों में तब से गिरावट ही आई है, विशेष रूप से भू-राजनीतिक मोर्चे पर, लेकिन यह कभी भी दोनों के बीच उच्च स्तरीय व्यापार को प्रभावित नहीं करता. जुलाई 2022 में भारतीय वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल ने लोकसभा को सूचित किया था कि पिछले पांच वर्षों में चीन से आयात में लगभग तीस प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इस व्यापार के लिए भाषाई मध्यस्थों की आवश्यकता है, जो हिंदी और मैंड्रिन दोनों में धाराप्रवाह बोल सकें और दोनों देशों के शिष्टाचार से भी अवगत हों.

इस खाली स्थान को भरने के लिए तिब्बतियों को आदर्श उम्मीदवार के रूप में देखा जाने लगा.कलकत्ता विश्वविद्यालय के विद्यासागर कॉलेज में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफेसर ताशी फुंटसोक ने मुझे बताया, "रोजगार में संरचनात्मक परिवर्तनों के कारण भारत में रहने वाले तिब्बती लोग अपनी क्षमता से बहुत सीमित हैं. तिब्बती लोगों को विदेशी होने का कानूनी दर्जा दिया जाना प्राथमिक कारणों में से एक है जिसने उन्हें अपनी बस्तियों से बाहर जाने और छोटे-मोटे काम करने के लिए मजबूर किया है. और कई चीनी जानने वाले लोग अपनी आजीविका और अस्तित्व के लिए चीनी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं. गैर-नागरिक होने के कारण तिब्बती भारतीय सरकारी नौकरियों के लिए पात्र नहीं हैं, इसलिए वे निजी क्षेत्र में रोजगार करने के लिए मजबूर हैं. 2014 की तिब्बती पुनर्वास नीति के तहत कुछ विकास हुए हैं, लेकिन इसका कार्यान्वयन संतोषजनक नहीं रहा है.”

यह संकट भारत तक ही सीमित नहीं है. 11 जुलाई 2022 को फ्रांस के शहर सेंट-लियोनार्ड में एक एशियाई रेस्तरां में अपने चीनी सहकर्मियों द्वारा 32 वर्षीय सुल्ट्रिम नोमजोर त्सांग की हत्या भी एक मामला है. पेरिस में तिब्बत के कार्यालय में काम करने वाले एक प्रेस अधिकारी सेलाइन मेंग्यू ने समाचार पोर्टल “न्यूज इन फ्रांस” को बताया, "फ्रांस में आने वाले इन युवाओं की समस्या यह है कि वे हमारी भाषा नहीं बोलते और अक्सर उनके पास चीनी रेस्तरां में काम करने का ही विकल्प बचता है जहां उनके साथ हमेशा अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता."

2021 में आई तिब्बटन एक्शन इंस्टीट्यूट की एक रिपोर्ट ने कब्जे वाले तिब्बत के निवासियों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला. चीन के बोर्डिंग स्कूलों में जबरन उनके परिवारों से अलग कर दिए गए तिब्बती बच्चों को मुख्य रूप से मैंड्रिन में अत्यधिक राजनीतिक विचारों से प्रेरित शिक्षा दी जाती है. सर्वांगी स्थितियों के कारण उन्हें निचले स्तर के कर्मचारियों के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है जिस कारण वे अपने लिए बहुत कम साधन जुटा पाते हैं. रिपोर्ट में तिब्बती बच्चों और उनके परिवारों पर चीन के इस औपनिवेशिक बोर्डिंग अनुभव के गंभीर प्रभाव, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक आघात और "तिब्बतियों की पूरी पीढ़ियों के लिए निहितार्थ और भविष्य में तिब्बती पहचान के अस्तित्व" को लेकर भी चेतावनी दी गई है.

दूसरी ओर भारत में तिब्बती स्कूलों ने ईंट का जवाब पत्थर से देने के तरीके के रूप में मैंड्रिन पढ़ाने की शुरुआत की. मुझे कर्नाटक में बाइलाकुप्पे में तिब्बत के अनाथ और शरणार्थी बच्चों की देखभाल और शिक्षा के लिए निर्वासन में बनाए गए एक समेकित समुदाय तिब्बती चिल्ड्रन विलेज और उसके बाद में हिमाचल प्रदेश में सूजा में टीसीवी में बिताए अपने दिनों की याद आती है जहां दस साल की उम्र तक के छोटे शरणार्थी बच्चे थे. तिब्बती सीखने तक उन्हें समायोजित करने के लिए हमारे मध्य-विद्यालय के पुस्तकालयों में मैंड्रिन की पुस्तकें और पत्रिकाएं थीं. बड़े होने के बाद उन्होंने हमारे स्कूल में मैंड्रिन सीखने में रुचि रखने वाले बच्चों को मैंड्रिन पढ़ाई, ताकि भविष्य में इसका उपयोग तिब्बत-चीन संघर्ष को हल करने में किया जा सके, विशेष रूप से 2000 के दशक की शुरुआत में चीन-तिब्बत वार्ता को ध्यान में रखते हुए. यह संवाद औपचारिक रूप से 2012 में समाप्त हो गया. और तब से कोई बड़ा विकास नहीं हुआ है.

तिब्बतियों के पास अपने भाषाई कौशल का सार्थक उपयोग करने के सीमित अवसर रहे हैं. और सभी को धर्मशाला में स्थित केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के भीतर समाहित नहीं किया जा सकता है. इसके अलावा भारत की नई शिक्षा नीति, 2020 में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली विदेशी भाषाओं की सूची से मैंड्रिन को हटा दिया. यह भारत के लिए एक जवाबी कदम है. भाषा को आगे बढ़ाने के लिए देश में प्रमुख बुनियादी ढांचे की कमी है और केवल पिछले छह वर्षों से ही भारत ने अपनी सेना के जवानों को गंभीरता से मैंड्रिन पढ़ाना शुरू किया गया है.

तेंजिन जैसे तिब्बती जो चीन की फर्मों में सेवाएं प्रदान करते हैं, उच्च पदों पर आसीन भारतीय कार्यबल की तुलना में सिर्फ अल्पसंख्यक बन कर रह गए हैं. उन्होंने इस बात की सराहना की कि कैसे चीनी सहयोगी भी उनकी असली पहचान के आधार पर भेदभाव नहीं करते थे. लेकिन जब और गहराई से बात हुई तो उन्होंने स्वीकार किया कि "हमारे बीच दुश्मनी की भावना बनी हुई है." उनकी सबसे बड़ी चिंता शायद इस बात को लेकर है कि उद्योग के बाहर के लोग उनकी नौकरी को कैसे देखते हैं. हाल ही में तिब्बतियों को चीनी ऋण ऐप से जुड़े करोड़ों रुपए के घोटालों में शामिल होने को लेकर पुलिस और जांच अधिकारियों द्वारा संदेह का सामना करना पड़ा है.

संयुक्त राज्य अमेरिका में मेथोडिस्ट विश्वविद्यालय में पढ़ रहे राजनीति-विज्ञान के एक छात्र तेंजिन थिनले ने मुझे बताया, "पैसों का सर्वत्र प्रभाव समझन वाली बात है. हालांकि, इस तथ्य से यह समझना कठिन है कि तिब्बती अपने मैंड्रिन कौशल के बहाने संदिग्ध चीनी फर्मों में काम करने के इच्छुक होंगे." वह आगे कहते हैं, "मुझे लगता है कि यह इस मूर्खतापूर्ण सोच से उपजा है कि कोई इस बारे में कुछ करेगा. यह हमारे तिब्बती संघर्ष के सार को नष्ट कर देता है.” यह तिब्बतियों की युवा पीढ़ी के साथ तालमेल बिठाने का समय है, जो तिब्बती समुदाय के प्रति चीन के रवैये के प्रति रोष और अपने वतन लौटने की इच्छा रखते हैं.

तेंजिन ने बताया, "मैं काम के बाद देर रात सोता हूं, सोचता हूं कि क्या मेरा काम तिब्बत के लिए अच्छाई से ज्यादा नुकसान कर रहा है. लेकिन एक बात निश्चित है कि यह मेरे बड़े परिवार को आर्थिक रूप से मदद करता है. मैं असमंजस में हूं. फिर भी मैं तिब्बत के घटनाक्रम पर लगातार नजर रखने की पूरी कोशिश करता हूं." सीटीए के एक पूर्व सुरक्षा मंत्री फगपा त्सेरिंग लाब्रांग ने मुझे बताया, "चीनी कंपनियों में काम करने वाले तिब्बतियों में व्यक्तिगत संपत्ति बनाने की एक अंतर्निहित प्रेरणा है जो वे सामान्य नौकरी करके नहीं बना सकते थे. हालांकि, वे इस रोजगार के उद्देश्य को समझने में विफल रहे हैं. चूंकि चीनियों के अधीन काम करने वाले अधिकांश तिब्बती सीधे तिब्बत से हैं, यह ऐसा है जैसे आप चीनी शासन से बच कर चीनियों के अधीन काम करने के लिए आ गए हैं."

काम की प्रतिबद्धताओं के कारण तेंजिन इस साल मार्च में हुए विरोध प्रदर्शन में हिस्सा नहीं ले सके. हालांकि, हमेशा की तरह वह तिब्बत के मुद्दे पर चीनी लोगों के साथ टकराव और बहस करना जारी रखते है. उन्होंने कहा, "तिब्बत मेरा जीवन है. मैं मैंड्रिन जानता हूं लेकिन मैं चीनी नहीं हूं. मैं हमेशा प्रार्थना करते समय तिब्बत की आजादी की कामना करता हूं- भोद ग्यालों (फ्री तिब्बत)!"