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फूलों की माला बेच कर गुजर-बसर करने वाली दो बच्चों की मां पूनम साहनी बताती हैं, "मेरे पति को मरे सात बरस हो चुके हैं. जब भी वह काम पर जाते थे हम लोगों को डर लगने लगता था और उनसे नहीं जाने के लिए लड़ते थे. लेकिन उन्होंने हमारी बात नहीं मानी.” उनके पति गुब्बर सिक्का गोताखोर थे. शास्त्री घाट पर गंगा नदी से एक शव को निकालते समय उनकी जान चली गई. वह 40 साल के थे. साहनी को अब हर तीन महीने आने वाली 500 रुपए मासिक विधवा पेंशन मिलती है. उन्हें अपने बच्चों की पढ़ाई की भी चिंता है. “हमारे पास एक नाव है लेकिन यह अब पूरी तरह से खराब हो चुकी है. घर टूटा हुआ है. मुझे नहीं पता कि क्या करना है, कैसे उन्हें खिलाऊंगी, कैसे उनकी पढ़ाई होगी और कैसे घर ठीक होगा.”
वाराणसी में राज घाट के पास गंगा पर एक डबल डेकर पुल है जो इस शहर को नदी के बाएं किनारे स्थित मुगलसराय से जोड़ता है जो उत्तर प्रदेश का एक महत्वपूर्ण रेलवे जंक्शन है. 1887 में औपनिवेशिक शासन काल में बने मालवीय ब्रिज के निचले डेक पर एक रेल ट्रैक और ऊपर डेक पर एक सड़क है. पैदल चलने वाले और ट्रेन या कार से गुजरने वाले यात्री अक्सर नीचे गंगा नदी में सिक्के फेंकते हैं. मन्नत पूरी हो इसलिए नदी में चिल्लर फेंकने की इस हिंदू प्रथा से गोताखोरों का एक अजीबोगरीब और अनौपचारिक समुदाय अस्तित्व में आया जो सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के कारण नदी से चिल्लर निकालने के काम को करने को मजबूर हुआ.
सिक्का गोताखोरों ने बचपन से ही आर्थिक और आध्यात्मिक मार्ग के संगम गंगा में प्रशिक्षण शुरू कर दिया था. वे सिक्कों और अन्य कीमती धातु की तलाश के लिए लगभग साठ फीट पानी के भीतर गोता लगाते हैं. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनमें से कई अपने नियमित कार्य से अलग, पुल से नदी में कूदने वाले हजारों लोगों को बचाया है और नदियों, झीलों और तालाबों से अनगिनत लाशें निकाली हैं. नतीजतन, गुब्बर जैसे कई गोताखोरों ने बचाव के इस निस्वार्थ कार्यों में अपनी जानें गंवाईं. पिछले पंद्रह से बीस वर्षों में वाराणसी में सिक्का गोताखोरों की संख्या 60 से घटकर केवल पांच रह गई है. हालांकि, गंगा के किनारे बसे कुछ अन्य प्रमुख शहरों में कई सिक्का गोताखोर हैं.
गोताखोरों के इस समुदाय में बड़े पैमाने पर मल्लाह उप-जाति के हैं जो राजघाट के पास पारंपरिक रूप से मछली पकड़ने और नदियों से जुड़े अन्य काम करते हैं. घनी आबादी वाले गंगा बेसिन से आने वाले मानव और औद्योगिक प्रदूषक अनुपचारित सीवेज, कृषि अपवाह, पशु शव, आंशिक रूप से जले हुए या अंतिम संस्कार की चिताओं के अधजले शरीर के अवशेष नदी को तैरने के लिए असुरक्षित बनाते हैं. हालांकि, न तो नाव चलाना और न ही खेत बाड़ी, गोताखोरी ही उनका एकमात्र विकल्प है. वे एक दिन में औसतन 60 से 70 रुपए निकालते हैं. लेकिन कभी-कभी ऐसे काम जिसे कोई करने को तैयार नहीं होता है, वे उनको भी करते हैं.
2015 में गठित जल गंगा गोताखोर समिति के अध्यक्ष गजानंद साहनी ने मुझे बताया, "जब भी कोई पानी में डूबता है या नदी के अंदर कोई काम होता है, तो हमें बुलाया जाता है." यह गोताखोर दूसरे जिलों से भी काम के लिए बुलाए जाते हैं. जब मैंने साहनी से सितंबर 2022 के अंत में बात की थी तब उन्होंने बताया, “अक्सर हमें वहां पहुंचने में पूरा दिन लग जाता है. हम वहां के लोगों से पूछते हैं कि क्या पहले कोई डूबा था. अगर कोई डूब गया था तो उसकी लाश किसने निकाली? क्या लाश अपने आप सतह पर आ गई?” इस तरह वे इसमें शामिल जोखिमों का आकलन करते हैं. "जब ग्रामीण हमें बताते हैं कि लाश अपने आप सतह पर आ गई थी, तो हम जानते हैं कि पानी में कोई जानवर नहीं है और जोखिम कम है."
नदी के बारे में अपने कौशल और ज्ञान को लेकर पहली औपचारिक पहचान शायद उन्हें कुछ साल पहले ही दी गई थी. अप्रैल 2021 में हरिद्वार, प्रयागराज, उज्जैन और नासिक के चार पवित्र स्थलों पर रोटेशन में हर 12 साल में होने वाला दुनिया का सबसे बड़ा महाकुंभ हरिद्वार में आयोजित किया गया था. आयोजकों ने जीवन रक्षक/लाइफगार्ड के रूप में गंगा के लगभग सौ सिक्का गोताखोरों की सेवाएं ली थी. उनका शायद ही कोई निर्धारित पेशा है और डाइविंग के साधारण उपकरण भी उनकी पहुंच से बाहर है.
साहनी ने मुझे बताया, "हमने राज्य सरकार को जल पुलिस में भर्ती करने के अनुरोध के साथ कई बार ज्ञापन सौंपा लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. हमने अनुरोध किया कि वे हमें अनुबंध के आधार पर नियुक्त करें लेकिन इससे भी कुछ नहीं हुआ." किसी भी नागरिक को जो "गंभीर शारीरिक चोट की परिस्थितियों में जीवन बचाने में साहस और तत्परता" दिखाता है उसे जीवन रक्षा पदक से सम्मानित किया जाता है. लेकिन बार-बार जान बचाने के बावजूद गोताखोरों को शायद ही कभी इस तरह से सम्मानित किया गया है.
वाराणसी में अक्सर डूबने की घटनाएं देखी जाती हैं क्योंकि भक्त अपने पवित्र स्नान के लिए पानी की गहराई में उतर जाते हैं. साहनी ने बताया, “जो लोग यहां नहाने आते हैं उन्हें इसकी गहराई का अंदाजा नहीं होता. लोग डुबकी लगाने का मन बना कर ही आते हैं. हमें इन सभी लोगों को बचाना होता है.” पिछले बारह वर्षों में उन्होंने और उनके साथियों ने नदी से लगभग 400 लाशें बरामद की हैं. उन्होंने उस दौरान करीब चालीस लोगों की जान बचाई थी. "इसलिए सरकार को हमें भुगतान के साथ पूर्णकालिक जिम्मेदारी देनी चाहिए ताकि हम अपने परिवारों की देखभाल भी कर सकें." गोताखोर चाहते हैं कि सरकार उन्हें सुरक्षा प्रदान करे. उन्होंने मुझे बताया, "अगर हम में से किसी के साथ कोई दुर्घटना होती है तो हमें पर्याप्त मुआवजा दिया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि हमारे बच्चों को एक अच्छे स्कूल में शिक्षा मिले."
15 अगस्त 2018 को वाराणसी प्रशासन ने पर्यटकों के लिए शहर के प्रमुख घाटों के बीच यात्रा करने के लिए अलकनंदा नामक अपनी पहली लक्जरी क्रूज सेवा का उद्घाटन किया. नाविकों के विरोध को बमुश्किल ही खबरों में जगह मिली. जिन्हें डर था कि यह उनकी आजीविका को नुकसान पहुंचाएगा. तीन साल पहले वन विभाग के विरोध के बावजूद जिसने कछुआ अभयारण्य के रूप में चिह्नित नदी के सात किलोमीटर के हिस्से में यंत्रीकृत नावों को प्रतिबंधित किया हुआ था अस्सी घाट पर दो जल शव वाहिनी मोटरबोटों को हरी झंडी दिखाई गई थी. आज राज्य में जलमार्ग पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अलकनंदा क्रूजलाइन, अंतरा क्रूज और वाराणसी क्रूज जैसी कंपनियों के स्वामित्व वाली स्पीडबोट्स, डबल-डेक और ट्रिपल-डेक जहाजें नदी पर चलते हैं, जिससे इसके पारिस्थितिकी तंत्र खराब होता है. यह प्रवृत्ति मल्लाह नाविकों और गोताखोरों को उनकी पारंपरिक आजीविका से और भी बाहर धकेल सकती है जिससे उन्हें काम की तलाश के लिए दूसरे शहरों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.
गोताखोर शिवनाथ, जो 40 बरस के हैं, ने मुझे बताया, "गोताखोरों का जीवन हमेशा खतरे में रहता है. हम नदी में जाते हैं लेकिन हम कभी नहीं जानते कि हम वापस आएंगे या नहीं. यह काम मेरे पिता करते थे और उन्होंने ही मुझे सिखाया. लेकिन मैं अपने बच्चों को इस काम में नहीं लाऊंगा. मैं उन्हें मन लगा कर पढ़ाई करने के लिए कहता हूं ताकि कोई दूसरा काम कर सकें. लेकिन मैं उन्हें ऐसा नहीं करने दूंगा... यह काम करते हुए मुझे दुख होता है.” अपने साठ के दशक की शुरुआत में एक और तीसरी पीढ़ी के पूर्व गोताखोर, बनारसी निषाद ने इस बात को दोहराते हुए कहा, "अपने बच्चों को कुछ भी करने को कहें लेकिन यह काम नहीं जिसमें हमारे जीवन या मृत्यु की कोई गारंटी नहीं है."
एक गोताखोर के परिवार को जिस भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक तनाव से गुजरना पड़ता है उसे देखते हुए एक युवा भी मौका मिलने पर इस काम को छोड़ने के लिए बूढ़े व्यक्ति की तरह ही सोच रखता है. युवा नाविक लकी ने मुझे बताया, "जब भी हमारे पिता महेंद्र साहनी गोता लगाने जाते हैं तो पूरा परिवार डर जाता है." चार भाई-बहनों में सबसे बड़े 20 वर्षीय लकी ने बताया, “मैं यह काम नहीं करूंगा. उनके जाने से लेकर लौटने तक मेरी मां मायूस रहती है. मैं अपना दिन नाव चलाने में बिताता हूं जबकि दूसरे भाई-बहन पढ़ते हैं.”
अधिकांश तीसरी पीढ़ी के गोताखोरों ने उम्र बढ़ने के साथ अभ्यास छोड़ दिया है. उनके शरीर में अब इसके लिए ताकत नहीं है. लेकिन कुछ के लिए इस काम से पार पा लेना दूर की बात है. अपने पचासवें वर्ष में कदम रखने वाले साहनी ने मुझे बताया, "कई बार हम भी इस काम को रोकने के बारे में सोचते हैं लेकिन जब किसी मृत व्यक्ति का परिवार आपके घर के सामने रोने लगे तो न कहना मुश्किल हो जाता है. आखिर हमें वही करना है जो हमें करते आए है.”
(अनुवाद : अंकिता)
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