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करीब 35 साल पहले भारतीय सेना ने अमृतसर के दरबार साहिब में ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया था जिसका मकसद कट्टरपंथी दमदमी टकसाल के 14वें प्रमुख भिंडरांवाला और उनके हथियारबंद समर्थकों को काबू में करना था जो दरबार साहिब परिसर से समानांतर सरकार चला रहे थे. हालांकि यह ऑपरेशनतत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश के तहत किया गया था लेकिन भिंडरांवाले के उदय के लिए कांग्रेस पार्टी ही जिम्मेदार थी.
नीचे प्रस्तुत है कारवां के राजनीतिक संपादक हरतोष सिंह बल की मई 2014 में प्रकाशित स्टोरी का अंश जिसमें भिंडरांवाला के उदय और कांग्रेस की दोहरी नीति का चित्रण है. हरतोष बताते हैं कि पंजाब के बाहर के “जिन पत्रकारों को भिंडरांवाले जाहिल जैसे लगते थे, वे यह बात भूल गए कि उनकी तीखी जुबान और कड़े फैसले किसान जाटों को आकर्षित करते थे.”
जरनैल सिंह का जन्म 1947 में फरीदकोट जिले के रोद गांव में हुआ था. वह एक बराड़ जाट परिवार था जो पुराने समय से ही टकसाल से जुड़ा हुआ था. राम सिंह की पृष्ठभूमि भी जरनैल सिंह जैसी ही थी. यह कोई इत्तेफाक नहीं था. हरित क्रांति ने पंजाब के ग्रामीण इलाकों को खुशहाल तो बना दिया था लेकिन इसने जाट सिखों में गैरबराबरी को भी बढ़ा दिया था. जाट सिख समुदाय पंजाब का जमींदार तबका है लेकिन जमीन की गैरबराबरी ने इसमें ऊंच-नीच की लकीर पैदा कर दी. भिंडरांवाले और राम सिंह ऐसे परिवारों से आते थे जिनके लिए दो जून की रोटी का इंतजाम करना कठिन काम था. (भिंडरांवाले की मौत के बाद, बंदूक उठाने वाले पंजाब के नौजवानों में अधिकांश ऐसे ही थे.)
परंपरागत रूप से दमदमी टकसाल का संबंध सिखों के 10वें गुरु, गुरु गोविंद सिंह से है. गोविंद सिंह ने दमदमा साहिब गुरुद्वारा में रहते हुए गुरु ग्रंथ साहिब को किताब का रूप दिया और सिखों के एक समूह को गुरु ग्रंथ साहिब पढ़ने की सही विधि और समझ की शिक्षा दी थी. बाद में चलकर टकसाल की छवि सिख धर्म की शास्त्रीय (कट्टर) मान्यता को समर्थन करने वाली बनी. हाल के सालों में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी (एसजीपीसी) ने कई महाविद्यालयों की स्थापना की है. लेकिन इसके पहले प्रमुख गुरुद्वारों के जाठेदार और रागी इसी टकसाल से बुलाए जाते थे. इसी वजह से गरीब परिवारों के बहुत से नौजवानों को टकसाल में भर्ती होने की प्रेरणा मिली. इन नौजवानों को कठिन प्रशिक्षण दिया जाता. राम सिंह बताते हैं, “सबसे पहले हमें गुरु ग्रंथ साहिब को पढ़ने का सही तरीका सिखाया जाता, हर शब्द और दोहे का मतलब याद करना पड़ता. इसके बाद ही हम वेदांत का अध्ययन करते थे. इस पढ़ाई में 7 से 10 साल लग जाते थे.”
जिस साल राम सिंह ने टकसाल में दाखिला लिया था, जरनैल सिंह उसके पार्ट-टाइम रेसिडेंट बन चुके थे. गुरुबचन सिंह चाहते थे कि जरनैल सिंह घर लौट जाएं और शादी कर घर बसा लें. इस कारण जरनैल सिंह घर लौट आए और 1966 में शादी कर जमीन के छोटे से हिस्से में किसानी करने लगे.
द ट्रिब्यून समाचार पत्र में काम करने वाले पत्रकार दलवीर सिंह, 1980 के दशक में भिंडरांवाले के करीब आ गए. अपनी किताब नेदियों दिथे संत भिंडरांवाले (संत भिंडरांवाले को जैसा देखा मैंने) में दलवीर सिंह एक किस्सा सुनाते हैं. यह किस्सा उन्हें भिंडरांवाले ने सुनाया था. भिंडरांवाले ने दलवीर को बताया कि उन्हें घर के बंटवारे में जमीन और पशुधन का सबसे खराब हिस्सा मिला था. एक बार सर्दियों में पशुओं का चारा खत्म हो गया. मैं अपने भाई जगजीत सिंह के गन्ने के खेत में गया और वहां पड़े गन्ने के सूखे पत्तों को उठा लाया ताकि जानवरों को दे सकूं. देखता हूं कि मेरा भाई आता है और मुझसे कहता है, “ ओए जरनैल, तूने किस से पूछ कर गन्ने के सूखे पत्ते लिए?
“मैंने कहा, ‘भाई मैंने किसी से नहीं पूछा.’
“फिर मेरे भाई ने मुझे वे पत्ते वापस खेत में रख देने को कहा. मैं पूरे सम्मान के साथ पत्तों को वापस खेत में डाल आया.”
सालों बाद एक दिन भिंडरांवाले जब अपने अनुयायियों के साथ दरबार साहिब परिसर में बैठे थे तो किसी ने उनका दरवाजा खटखटाया. दरवाजे के पीछे से उनका भाई जगजीत सिंह झांक रहा था. संत ने कहा, “ओए तू यहां क्यों आया है.” जगजीत ने बताया, “मैं आपके दर्शन करने आया हूं”. संत ने कहा, “चल दर्शन हो गया, अब फूट यहां से”.
जरनैल सिंह ऐसे आदमी नहीं थे जो लोगों को माफ कर देता है. जो लोग दिल्ली में बैठकर उनका फायदा उठाना चाह रहे थे, वे शायद इस बात को समझ नहीं पाए. वह जिस जाट समुदाय में पैदा हुए थे उसमें एक छोटी सी गलती भी पीढ़ी दर पीढ़ी खून खराबे का कारण बन सकती है. वहां सम्मान की लड़ाई की परंपरा थी. ऐसा आदमी जो जुबान का पक्का नहीं है और खून खराबे से डरता है, उसकी कोई हैसियत नहीं रहती. जिन पत्रकारों को भिंडरांवाले जाहिल जैसे लगते थे, वे यह बात भूल गए कि उनकी तीखी जुबान और कड़े फैसले किसान जाटों को आकर्षित करते थे.
लेकिन धार्मिक शिक्षा के बिना, केवल अपने तौर-तरीके से वह कट्टरपंथियों को आकर्षित नहीं कर सकते थे. राम सिंह बताते हैं कि जब भी जरनैल सिंह टकसाल आते, वह अपने में खोए रहते. उनका ध्यान खाने पर नहीं होता और वह बहुत कम बोलते या फिर आराम करते. “उनकी गुरबानी के जाप और प्रार्थना का तरीका गजब का था”.
अगस्त 1977 में जरनैल सिंह को टकसाल वापस बुला लिया गया. गुरुबचन सिंह के उत्तराधिकारी संत करतार सिंह की मौत एक सड़क दुर्घटना में हो गई थी. पार्ट-टाइमर के रूप में ही जरनैल सिंह की छाप लोगों पर ऐसी पड़ी कि करतार सिंह के बेटे, भाई अमरीक सिंह की जगह टकसाल का शीर्ष नेता उनको ही चुन लिया गया. बाद में भाई अमरीक सिंह भिंडरांवाले के घनिष्ठ सहयोगी बन गए. पहले टकसाल संगरूर जिले के भिंडरान गांव में था. अपने पूर्ववर्तियों की तरह गरीब किसान पृष्ठभूमि वाले जरनैल सिंह ने अपने नाम के साथ गांव का नाम जोड़ लिया और कभी अपने जानवरों को चारा तक न दे पाने वाला भिंडरांवाले सिखों के इस प्रमुख टकसाल का प्रमुख बन गया.
टकसाल प्रमुख बनने के एक साल से भी कम समय में एक ऐसा धर्म युद्ध हुआ जिसने न सिर्फ पंजाब बल्कि दिल्ली का ध्यान भी अपनी ओर खींचा और ऐसी मिसाल बन गई जिसे आने वाले सालों में बार-बार दोहराया गया. भिंडरांवाले बार-बार अपने भाषणों से हिंसा भड़काते और दरबार साहिब परिसर में पनाह लेकर, बाद में सरकारी तंत्र से बच निकलते.
सिखों के लिए बैशाखी का बड़ा महत्व है. 1978 की बैशाखी में निरंकारियों ने अमृतसर की सड़कों पर जुलूस निकाला. धार्मिक मान्यता है कि इस दिन गुरु गोविंद सिंह ने “खालसा” की स्थापना की थी. निरंकारी की परंपरा जीवित गुरु पर विश्वास की है जो कट्टरपंथी सिखों के अनुसार धर्म विरोधी बात है. अमृतसर में निरंकारियों का जुलूस कट्टरपंथी सिखों के लिए असहनीय बात थी.
सत्तारूढ़ अकाली दल ने कट्टरपंथियों की चेतावनी के बावजूद जुलूस की इजाजत दे दी. भिंडरांवाले ने दरबार साहिब में अपने समर्थकों के सामने निरंकारियों के खिलाफ उग्र भाषण दिया और कृपाण लेकर निरांकारियों की ओर कूच कर दिया. लेकिन निरंकारी हथियारबंद थे जिससे गोलीबारी में भिंडरांवाले के साथ मार्च कर रहे 13 लोगों की मौत हो गई.
इसके बाद निरंकारियों के प्रमुख गुरुबचन सिंह और उनके अनुयायियों को गिरफ्तार कर उनके मामले की सुनवाई को भी राज्य से बाहर हरियाणा भेज दिया गया. हत्याकांड के बाद सिखों के भीतर गुस्सा भर गया था और भिंडरांवाले उनके गुस्से का प्रतीक बन गए थे. भिंडरांवाले ने अकाली दल और उसके नेता प्रकाश सिंह बादल, जो उस वक्त पंजाब के मुख्यमंत्री थे, को यह घटना भूलने नहीं दी. अकालियों को अपने 50 साल के इतिहास में पहली बार एक ऐसे नेता का सामना करना पड़ रहा था जो कट्टरपंथियों को साथ लेकर उन पर हमला कर रहा था.
इसी वक्त दिल्ली में कांग्रेस पार्टी का ध्यान भिंडरांवाले पर गया. खुशवंत सिंह और पत्रकार कुलदीप नैयर की लिखी किताब ट्रेजेडी ऑफ पंजाब में कुलदीप नैयर ने इस बात का जिक्र कुछ इस तरह से किया है. इंदिरा गांधी के बेटे संजय को कानून के दायरे से बाहर काम करना आता था. संजय ने सलाह दी कि अकाली दल की सरकार के खिलाफ किसी “संत” को खड़ा किया जाए. इस काम के लिए दो संतों के नाम प्रस्तावित किए गए और अंतिम फैसले का जिम्मा संजय को दिया गया. दो में से एक में हिम्मत की कमी थी और दूसरे संत थे : भिंडरांवाले. संजय के दोस्त और सांसद कमलनाथ ने नैयर को बताया, “तीखा भाषण करने वाला भिंडरांवाले रणनीति के हिसाब से ठीक लग रहा है. हम उसे कभी-कभार पैसे भी भेजते थे लेकिन हमें कभी यह नहीं लगा कि वह आतंकवादी बन जाएगा.”
बैशाखी की उस घटना के कुछ महीने बाद एक नए राजनीतिक संगठन दल खालसा, ने चंडीगढ़ में एक प्रेस वार्ता की. जल्दी साफ हो गया कि यह दल भिंडरांवाले की सभी मांगों का समर्थन करता है. दल खालसा ने खुद को भिंडरांवाले से सिर्फ इसलिए अलग दिखाया ताकि भिंडरांवाले की ऐसी छवि बनी रहे जो धार्मिक है और जिनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है.
मार्क टली और सतीश जैकब ने अपनी किताब अमृतसरः मिसेज गांधीज लास्ट बैटल में दावा किया है कि दल खालसा की प्रेस कॉन्फ्रेंस का खर्च जैल सिंह ने उठाया था. बाद में इंदिरा गांधी सरकार में जैल सिंह गृहमंत्री बन गए. लंबे समय से पंजाब की राजनीति में सक्रिय जैल सिंह अपने तरीके से भिंडरांवाले की मदद कर रहे थे. जैल सिंह खुद भी धर्म गुरु के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति थे और 1972 से 1977 के बीच पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में अकालियों से भिड़े चुके थे.
जैकब ने मुझे बताया कि सालों बाद जब जैल सिंह राष्ट्रपति बने तो उन्होंने एक बार मुझसे प्रेस कॉन्फ्रेंस में खर्चे के मेरे दावे पर सफाई मांगी. मैंने कहा, “ज्ञानीजी मेरे पास उस बिल की कॉपी अब भी है.” उसके बाद जैल सिंह ने उनसे कभी कुछ नहीं कहा.
पंजाब के बाहर एक समझदारी यह है कि कांग्रेस पार्टी अपने फायदे के लिए भिंडरांवाले का इस्तेमाल कर रही थी. लेकिन टकसाल के प्रमुख के रूप में कट्टरपंथी सिखों के बीच वे पहले ही स्थापित हो चुके थे. यदि कांग्रेस का समर्थन उनको नहीं भी मिला होता तो भी वह एक प्रभावशाली आदमी तो थे ही. सच यह है कि दोनों ही एक दूसरे का फायदा उठा रहे थे और दोनों के बीच यह सहकार्य तब तक जारी रहा जब तक इससे भिंडरांवाले को फायदा होता रहा.
जनवरी 1980 तक इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आ चुकी थीं और भिंडरांवाले का कद और प्रभाव भी पहले से अधिक बढ़ चुका था. उन चुनावों में भिंडरांवाले ने पंजाब के कई कांग्रेसी उम्मीदवारों के लिए प्रचार किया था और इंदिरा गांधी के साथ मंच भी साझा किया था.
लेकिन बैशाखी की उस घटना ने यह दिखा दिया था कि उन को काबू में रखना आसान नहीं होगा. चुनाव परिणामों के आते ही गुरुबचन सिंह और उसके अनुयायियों को रिहा कर दिया गया. इसके तुरंत बाद भिंडरांवाले संत निरंकारी के खिलाफ अधिक उग्र हो गए. अप्रैल में गुरुबचन सिंह की हत्या दिल्ली के उनके आवास में कर दी गई. नैयर लिखते हैं कि सीबीआई ने उस हत्या से जुड़े 7 लोगों को चिन्हित किया था जो भिंडरांवाले समूह के सदस्य या उनके अनुयायी थे. साथ ही 3 अन्य लोगों को हत्या की अंतिम योजना बनाने में प्रत्यक्ष रूप से शामिल पाया था. हत्या के लिए इस्तेमाल किए गए हथियार का लाइसेंस भिंडरांवाले के एक भाई के नाम पर था जिसने अंगरक्षक के लिए हथियार का आवेदन किया था.
जब भिंडरांवाले का नाम पुलिस रिकॉर्ड में आया तो पहली बार भिंडरांवाले ने दरबार साहिब परिसर के गुरु नानक निवास में शरण ली. 1980 के दशक तक भारतीय पुलिस ने एक बार वहां घुसने का प्रयास किया था और उसका नतीजा बहुत गंभीर निकला था. 1955 में जब पंजाब राज्य की मांग तेज होने लगी थी तो दरबार साहिब में पनाह ले रहे अकाली दल के सेवादारों ने कोर्ट अरेस्ट के लिए वहां से जुलूस निकाला था. जिससे राज्य सरकार बौखला गई थी और 4 जुलाई को पुलिस ने परिसर के अंदर घुस कर वहां इकट्ठा सेवादारों पर आंसू गैस से हमला किया था. इस घटना का इतना तीव्र विरोध हुआ था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर ने अकाल तख्त पहुंच कर इस गलती की माफी मांगी थी.
जब तक जैल सिंह उनके बचाव में नहीं आए तब तक भिंडरांवाले दरबार साहिब में ही छिपे रहे. गृह मंत्री जैल सिंह ने संसद में खड़े होकर कहा कि निरंकारी प्रमुख की हत्या में भिंडरांवाले का हाथ नहीं है. इस प्रकार मामले की सुनवाई की संभावना भी खत्म हो गई. दरबार साहिब भिंडरांवाले के लिए सुरक्षित स्थान साबित हुआ लेकिन ऐसा संभव नहीं है कि पुलिस को यह नहीं पता था कि भिंडरांवाले वहां दोबारा जा सकते थे.
सत्ता में वापस आने के बाद इंदिरा गांधी ने पंजाब सहित कई राज्य में विपक्ष की सरकारों को भंग कर दिया. ऐसा करना उन ढेरों बड़ी गलतियों में से एक थी जिनकी अंतिम परिणति ऑपरेशन ब्लू स्टार में हुई और ऑपरेशन के बाद राज्य की राजनीति पूरी तरह से बदल गई. नए मुख्यमंत्री दरबारा सिंह के लिए भिंडरांवाले सर दर्द बन गए थे और राज्य की राजनीति में अपनी पकड़ बनाए रखने की चाहत रखने वाले जैल सिंह, भिंडरांवाले को अपने हिसाब से चलाना चाहते थे.
सत्ता से बाहर होने के बाद अकालियों ने अपने सबसे बड़े शत्रु से हाथ मिला लिया. अकाली को तीन अलग-अलग सोच वाले लोग चला रहे थे. एक थे प्रकाश सिंह बादल जिनसे भिंडरांवाले नफरत करते थे. दूसरे थे अहिंसावादी हरचंद सिंह लोंगोवाल जिससे भिंडरांवाले की थोड़ी सहमति थी. तीसरे थे गुरचरण सिंह तोहड़ा जो एसजीपीसी के प्रमुख और अकाली नेताओं में सबसे कट्टरपंथी भी थे. उनकी ही बदौलत अकाली दल और भिंडरांवाले के बीच गठबंधन बना जो बाद के सालों में मजबूत होता गया. भिंडरांवाले और अकालियों के बीच धार्मिक मामलों को लेकर होने वाली लड़ाई अब राजनीतिक लड़ाई में छलांग लगा चुकी थी जिसका निशाना भारतीय राज्य था.
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