आठ महीने बाद भी दिल्ली पुलिस नहीं सुन रही फारुकिया मस्जिद हमले के चश्मदीदों की शिकायत

दिल्ली पुलिस ने फरवरी में सांप्रदायिक हिंसा के दौरान बृजपुरी की फारुकिया मस्जिद में की गई आगजनी और तोड़फोड़ की अपनी जांच में दो चश्मदीदों की शिकायतों की अनदेखी की है. दोनों प्रत्यक्षदर्शी हमले में किसी तरह अपनी जान बचा पाए जिन्होंने पुलिस अधिकारियों पर आरोप लगाया और हमलावर दंगाइयों का नाम भी बताया. कारवां/शाहिद तांत्रे
01 December, 2020

उत्तर पूर्वी दिल्ली के मुस्तफाबाद के बृजपुरी इलाके में हिंदू दंगाइयों और पुलिस द्वारा फारुकिया मस्जिद पर धावा बोलने और अंदर नमाज पढ़ रहे लोगों को मार डालने के आठ महीने बाद भी दिल्ली पुलिस ने अब तक हमले की शिकायतों की प्राथमिकी दर्ज नहीं की है. हमले में जीवित बचे लोगों के अनुसार, 25 फरवरी को शाम 6.30 बजे उत्तर पूर्वी दिल्ली में भड़की सांप्रदायिक हिंसा के तीसरे दिन दंगाइयों और वर्दी में आए लोगों ने मस्जिद में आग लगा दी और अंदर नमाज पढ़ रहे लोगों को बेरहमी से पीटा और मरने के लिए छोड़ दिया था. हमले में बचे खुर्शीद सैफी और फिरोज अख्तर, जो उस समय मस्जिद में नमाज पढ़ रहे थे, ने मार्च और अप्रैल में हमले का आरोप लगाते हुए दिल्ली पुलिस और दंगाइयों की नामजद शिकायत दर्ज कराई थी लेकिन सांप्रदायिक हमले में पंजीकृत एकमात्र एफआईआर उनकी शिकायतों को नजरअंदाज करती है.

कारवां ने मार्च में मस्जिद में हमले के बारे में रिपोर्ट की थी और नोट किया कि इस घटना के गवाह बने अख्तर सहित अन्य बचे तीन लोगों ने हमलावरों की पहचान “बल” या “पुलिसकर्मी” के रूप में की. बचे तीन लोग - मुफ्ती मोहम्मद ताहिर, मस्जिद के 30 वर्षीय इमाम जलालुद्दीन, नमाज के लिए बुलावा देने वाले मस्जिद के 44 वर्षीय मुअज्जिन और अख्तर ने कहा कि वर्दीधारी हमलावरों ने लाठियों से उन्हें बेरहमी से पीटा और फिर मस्जिद में आग लगा दी. उन्होंने अनुमान लगाया कि तीस से साठ वर्दीधारी लोगों ने मस्जिद पर हमला किया था. कारवां ने पहले भी रिपोर्ट बताया था कि अगले दिन दिल्ली पुलिस वापिस उस क्षेत्र लौटी और जो भी सीसीटीवी कैमरे पिछली शाम को बच गए थे उन्हें तोड़ दिया और फिर मस्जिद से सटे एक मदरसे को आग लगा दी. इनमें से कोई भी आरोप दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज की गई एफआईआर में नहीं है.

अख्तर पेशे से दर्जी हैं जो हमले के समय मस्जिद में नमाज पढ़ रहे थे. अप्रैल में दायर एक शिकायत में उन्होंने बताया है कि दंगाइयों, पुलिसकर्मियों और "हरी वर्दी पहने कुछ लोग" हथियार लेकर मस्जिद में शाम करीब 6.30 बजे पहुंचे और अंदर आकर बेरहमी से सभी को मारने लगे. अख्तर ने अपनी शिकायत में दयालपुर पुलिस स्टेशन के स्टेशन हाउस ऑफिसर तारकेश्वर सिंह की विशेष रूप से पहचान की. हालांकि अपनी शिकायत में उन्होंने केवल पद से उनकी पहचान की है नाम से नहीं. उन्होंने कहा कि एसएचओ अन्य पुलिस अधिकारियों और "हरी वर्दी पहने लोगों" के साथ मस्जिद में आए और "अंदर नमाज पढ़ रहे लोगों पर हमला कर दिया और जिन लोगों ने मस्जिद से भागने की कोशिश की उन्हें बाहर तैनात पुलिस अधिकारियों ने गोली मार दी."

अख्तर ने मुझे बताया, "मैंने देखा कि पुलिसवाले हमें बेरहमी से पीट रहे हैं और फिर हमें मस्जिद से बाहर खींच रहे हैं." उन्होंने कहा, "पुलिस की वर्दी में एक व्यक्ति ने अपने साथी हमलावरों से यह भी कहा कि कोई भी मुस्लिम लाश मस्जिद के अंदर नहीं रहनी चाहिए क्योंकि इससे जमीन अपवित्र हो जाएगी जिस पर हम अब एक 'मंदिर' बनाएंगे." उन्होंने कहा "मुझे याद है कि हम कम से कम पांच लोग नमाज पढ़ रहे थे जब पुलिसवाले मस्जिद के अंदर आए. उनमें से आधों ने मुझे पकड़ लिया, जबकि बाकी अलग-अलग दिशाओं में भागे, वे हम सभी को डंडों और लोहे की छड़ों से पीट रहे थे. ”

अख्तर ने तीन हिंदू हमलावरों की पहचान की. एक स्थानीय चावला जनरल स्टोर चलाता है, जिस पर उन्होंने मस्जिद के बाहर पुलिस के साथ लोगों को गोली मारने का आरोप लगाया था. एक राहुल वर्मा, जिस पर उन्होंने मस्जिद के अंदर लोगों को गोली मारने का आरोप लगाया था और एक अरुण बसोया, जिसके ऊपर उन्होंने पेट्रोल बम फेंकने का आरोप लगाया था. उन्होंने जोर देकर कहा कि हमलावरों ने इमाम और मुअज्जिन पर हिंसक हमला किया. इमाम पर हुए हमले के बारे में बताते हुए उन्होंने शिकायत में कहा, "मौलाना साहब के पैर ईंटों पर रखे गए थे और फिर एसएचओ के निर्देश पर उन्होंने उनके पैरों पर तब तक मारा जब तक कि वे टूट नहीं गए." अख्तर ने लिखा है कि उन्हें लोहे की रॉड से पीटा गया था जिसके कारण उनके हाथ और सिर पर गंभीर चोटें आईं और फिर जब सीएए विरोधी प्रदर्शन स्थल के टैंट में आग लग गई तो उन्हें उस आग में फेंक दिया गया. उन्होंने आगे बताया कि कि वह किसी तरह बचकर भाग पाए.

तीस-पैंतीस साल के सैफी जो पेशे से इंटीरियर डिजानर ठेकेदार हैं, ने फिरोज की शिकायत के कई हिस्सों की पुष्टि की. उन्होंने अपनी शिकायत में लिखा है कि जब दंगाइयों और सुरक्षा बलों ने बृजपुरी के सीएए विरोध स्थल पर हमला किया तो वह जान बचाने के लिए मस्जिद में भाग गए थे. उन्होंने कहा कि इसके बाद दंगाई और सुरक्षा बल के लोग फारुकिया मस्जिद में घुस आए और भीतर मौजूद सभी लोगों पर जालिमाना हमला किया और लाठियों और डंडों से उनकी पिटाई की. इस हमले में सैफी की बाईं आंख चली गई और उनके चेहरे और सिर पर कई फ्रैक्चर हो गए. अब स्थायी रूप से उनके जबड़े को उखाड़ दिया गया है जिसके कारण वह ठीक से खा नहीं सकते हैं. सैफी के दाहिने गाल में अब हड्डी नहीं है और उन्हें एक तंत्रिका विकार (नर्व डिसॉडर) का सामना करना पड़ा है जिसके कारण अब वह सूंघ भी नहीं सकते. सैफी ने मुझसे कहा, "मैं अब केवल चावल खाता हूं क्योंकि मैं न तो मांस चबा सकता हूं और न ही रोटी खा सकता हूं." चोटों के कारण उन्हें अपनी पिछली नौकरी मजबूरन छोड़नी पड़ी और अब वह मुस्तफाबाद में एक छोटी सी किराने की दुकान चलाते हैं.

15 मार्च को सैफी ने मुस्तफाबाद के ईदगाह मैदान में एक पुलिस हेल्प डेस्क पर शिकायत दर्ज कराई, जिस पर दैनिक डायरी नंबर 61 के साथ स्टेशन द्वारा मुहर लगाई गई थी. सैफी की शिकायत बृजपुरी के सीएए विरोधी प्रदर्शन स्थल पर हमले के बारे में बताती है और प्रदर्शनकारियों पर हमला करने वाली हथियारबंद भीड में शामिल इन्हीं तीनों की पहचान की है. सैफी ने लिखा, ''उन्होंने गोलियों, पत्थरों, लाठी वगैरह से वहां मौजूद औरतों पर हमला किया. “उस समय राहुल वर्मा और अरुण बसोया ने एक बोतल में तैयार किया गया पेट्रोल बम फेंका जिससे प्रदर्शन स्थल पर आग लग गई. लोग भागने लगे और भगदड़ मच गई. मैं उस समय मस्जिद के गेट के पास खड़ा था."

सैफी ने लिखा कि उन्होंने दिल्ली पुलिस, दंगाइयों और हरी वर्दी पहले लोगों को मस्जिद में घुसते देखा है. उन्होंने कहा कि उन्होंने देखा कि "मस्जिद के बाहर खड़े पुलिस अधिकारी उन्हें गोली मार देते और चावला जनरल स्टोर वाला और उसके साथी उन्हें अपनी तलवारों से काटकर गटर में फेंक देते."

सैफी ने अख्तर की तरह वर्मा पर मस्जिद के अंदर लोगों पर गोलियां चलाने और बसोया पर मस्जिद पर  पेट्रोल बम फेंकने का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि बसोया ने इमाम ताहिर का जिक्र करते हुए अन्य दंगाइयों को मौलवी को मारने का निर्देश दिया और कहा, "आज मौलवी और उसके दोस्तों को मार डालो और जब वे मर जाएंगे तो हम इस जगह पर एक मंदिर बनाएंगे." सैफी ने कहा, “उन्होंने मौलवी साहब और मुअज्जिन साहब पर हमला किया, उन्हें लाठियों, डंड्डों और लोहे की छड़ों से मार डाला. जब मैं उन्हें बचाने के लिए आगे बढ़ा तो राहुल वर्मा ने मुझे एक डंडे से मारा जिससे मेरी आंख में चोट लग गई. दूसरा डंडा मेरे सिर पर लगा और मैं नीचे जमीन पर गिर गया. फिर वे सभी मुझे लाठियों और डंडों से पीटने लगे. किसी तरह से मैं वहां से भाग पाया.”

दोनों शिकायतकर्ताओं के नाम से हमलावरों की पहचान की और उनकी शिकायतों पर डायरी नंबर और टिकट मिलने के बावजूद दिल्ली पुलिस ने इन आरोपों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज नहीं की है. फारुकिया मस्जिद में आगजनी और नृशंस हमले का एकमात्र मामला 2020 की एफआईआर 64 में दयालपुर पुलिस स्टेशन में दर्ज किया गया है. फारुकिया मस्जिद मामले पर द वायर द्वारा सितंबर में प्रकाशित एक रिपोर्ट में दिल्ली पुलिस के जवाब में दावा किया गया कि यह एफआईआर सैफी की शिकायत पर दर्ज की गई थी. यह और भी बेतुका हो जाता है कि एफआईआर मस्जिद पर हुए हमले की एक बहुत ही अलग छवि पेश करती है. वास्तव में यह फारुकिया मस्जिद में हुए हमले को मुद्दा ही नहीं बनाती.

एफआईआर में सीएए विरोधी आंदोलनकारियों को उत्तेजक भीड़ और दिल्ली पुलिस को असहाय दर्शक से थोड़ो ही ज्यादा बताया गया है. प्राथमिकी असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर सुरेंद्र पाल सिंह की शिकायत पर दर्ज की गई थी जिन्हें मामले में जांच अधिकारी नियुक्त किया गया था. प्राथमिकी में कहा गया है कि "बृजपुरी पुलिया मस्जिद के पास" आगजनी की सूचना मिलने पर (फारुकिया मस्जिद बृजपुरी में एक पुल के पास है) पुलिस अधिकारियों ने भीड़ को खोजने के लिए इलाके का दौरा किया. शुरुआत में एफआईआर ने पुलिस को घटना के पीड़ितों के रूप में पेश किया. "क्षेत्र में मौजूद लोग कभी-कभी सीएए-विरोधी नारे लगा रहे थे या दिल्ली पुलिस हाय हाय के नारे लगा रहे थे." इसमें आगे कहा गया है कि फारुकिया मस्जिद निर्माणाधीन थी और वहां तोड़-फोड़ हो रही थी लेकिन बार-बार हालात को काबू में लाने की कोशिश करने के बावजूद पुलिस उस तक नहीं पहुंच पा रही थी.

प्राथमिकी में दावा किया गया था कि पुलिस को "हल्का बल प्रयोग करने और आंसू गैस का इस्तेमाल करने के लिए मजबूर होना पड़ा लेकिन भीड़ वहीं रही और लगातार नारे लगा रही थी." प्राथमिकी कहती है, "इस स्थिति में लोगों के जीवन और संपत्ति की रक्षा करने के लिए और सरकारी संपत्ति को बचाने के लिए एएसआई और कर्मचारी मौके पर बने रहे." प्राथमिकी में आगे दावा किया गया कि "उत्तेजित भीड़ ने फारुकिया मस्जिद और मदरसे पर हमला किया और पुलिस को उन पर पथराव कर हमला करने से रोक दिया." तदनुसार, प्राथमिकी ने सीएए विरोधी भीड़ के अनाम सदस्यों पर दंगा करने, सार्वजनिक कर्मचारी के काम में बाधा पहुंचाने, गलत ढंग से शक्ति का प्रदर्शन करने और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने जैसे अपराधों का आरोप लगाया.

अख्तर और सैफी की शिकायतों में विशेष रूप से हत्या, हत्या के प्रयास, आगजनी, सांप्रदायिक हिंसा, धार्मिक लाइनों पर हिंसा भड़काने और आपराधिक धमकी के आरोप लगाए गए. इनमें से एक भी अपराध एफआईआर 64 में सूचीबद्ध नहीं है और न ही उनकी कोई शिकायत एफआईआर के रूप में दर्ज की गई है. इसके अलावा, एफआईआर में अपराध की घटना का समय भी नहीं दिया गया है. इस बीच, पुलिस ने उन व्यक्तियों की मौत की जांच भी रहस्यमय ढंग से छोड़ दी जिनके परिवारों ने कहा था कि वे मस्जिद के हमले में मारे गए थे और इसका भी जिक्र नहीं किया कि पुलिस अधिकारियों पर हिंसा का आरोप लगाया गया था.

हमले के बाद के महीनों में दोनों ने अपनी शिकायतों को आगे बढ़ाने की मांग की है और अदालत में गवाह की सुरक्षा के लिए आवेदन भी दायर किए हैं. सैफी ने मुझे बताया कि वह पुलिस सुरक्षा के लिए अपने आवेदन की सुनवाई के लिए 24 जुलाई को दिल्ली के कड़कड़डूमा जिला अदालत में पेश हुए. उस दिन दयालपुर स्टेशन के वर्तमान एसएचओ वेद प्रकाश ने "मुझे मस्जिद हमले के मामले में गवाह के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया." सैफी ने कहा, "न्यायाधीश ने हालांकि मुझे परेशान करने के लिए एसएचओ को दोषी ठहराया और अंत में पुलिस को मुझे सुरक्षा प्रदान करने का निर्देश दिया."

अख्तर को पुलिस सुरक्षा के लिए दिए गए अपने आवेदन में पुलिस से इसी तरह के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. इस साल अक्टूबर में अदालत ने उनके अनुरोध को मंजूरी दी. अख्तर ने कहा, "पिछले महीने अदालत में पुलिस ने मुझे पीड़ित के रूप में पहचानने से इनकार कर दिया लेकिन जब न्यायाधीश ने एसएचओ से मेरी शिकायत के बारे में पूछा, तो एसएचओ ने कहा कि उन्हें जवाब देने के लिए समय चाहिए. आखिरकार 12 अक्टूबर को उन्होंने अदालत में मेरी शिकायत को स्वीकार किया और फिर भी उन्होंने यह कहा कि, “हमने उसे एक गवाह बना दिया है.” यह स्पष्ट नहीं है कि एसएचओ किस बात का जिक्र कर रहे थे लेकिन अख्तर और सैफी ने दोनों ने मुझे बताया कि उन्हें कभी भी पुलिस द्वारा उनकी शिकायतों के संदर्भ में बयान देने के लिए या फारुकिया मस्जिद में जो कुछ भी देखा उसके बारे में बताने के लिए नहीं बुलाया गया.

एसएचओ ने अख्तर और सैफी के बयान दर्ज करने के बारे में पूछे गए सवालों वाले संदेशों का कोई जवाब नहीं दिया और मुझे बताया कि पुलिस ने अभी तक एफआईआर 64 में चार्जशीट दायर नहीं की है. प्रकाश ने पुष्टि की कि पुलिस ने कुछ लोगों को "गिरफ्तार" किया था लेकिन ''क्योंकि अभी जांच जारी है इसलिए ज्यादा विस्तार से नहीं बता पाएंगे.” अदालत के रिकॉर्ड बताते हैं कि इस मामले में दो लोगों की गिरफ्तार हुई है- राजीव अरोड़ा, जिन्हें एक आदेश में "पिछले 25 वर्षों से चावला किराना स्टोर के नाम से एक सामान्य स्टोर चलानेवाले" और एक को सुनील चौहान के रूप में पहचाना गया है. दोनों को बाद में जिला जज सुधीर कुमार जैन ने जमानत पर रिहा कर दिया, जिन्होंने सैफी और अख्तर के गवाह-संरक्षण के आवेदन भी सुने.

अरोड़ा को 10 अगस्त को जमानत पर रिहा किया गया था. उसके जमानत के आदेश इस तरफ इशारा करते हैं कि दिल्ली पुलिस ने  अदालत को यह बताते हुए जमानत के लिए अरोड़ा के मामले का समर्थन किया कि “वर्तमान एफआईआर में जांच एजेंसी जिन सीसीटीवी फुटेज पर निर्भर है वह शाम के समय तक के हैं और जांच से संबंधित सीसीटीवी फुटेज उस घटना से संबंधित नहीं है जिसके आधार पर एफआईआर दर्ज है. अदालत के आदेश ने तब कहा गया, "इन परिस्थितियों में आरोपी राजीव अरोड़ा की जमानत मंजूर की जाती है." 17 जुलाई को अदालत ने अरोड़ा की पिछली जमानत अर्जी"आवेदक राजीव अरोड़ा के खिलाफ प्रत्यक्ष सबूत" का हवाला देते हुए खारिज कर दी थी.

ऐसा लगता है कि पुलिस जिस एकमात्र सबूत पर निर्भर है वह गलत दिन के सीसीटीवी फुटेज हैं. अगर पुलिस द्वारा सैफी और अख्तर की शिकायतों को ध्यान में रखा जाता और अदालत में पेश किया जाता तो सबूत के लिए दो प्रत्यक्षदर्शी गवाह होते.