8 जनवरी को, केंद्रीय जांच ब्यूरो ने मुजफ्फरपुर आश्रय गृह मामले में अपनी नवीनतम स्थिति रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को एक सीलबंद लिफाफे में सौंपी. एजेंसी ने अदालत को बताया कि आश्रय गृह में कोई हत्या नहीं हुई है और सभी "35 लड़कियां जीवित हैं." इस मामले पर कारवां द्वारा की गई जांच से पता चलता है कि एक दर्जन से अधिक नाबालिग गवाहों के बयान सीबीआई के दावे को खारिज करते हैं. मामले के कानूनी दस्तावेजों की जांच से 2013 से 2018 के बीच तीस से अधिक नाबालिगों के शारीरिक शोषण और यौन शोषण के मामले में सीबीआई की जांच में अस्पष्टता का खुलासा होता है. अपनी जांच के दौरान, एजेंसी ने जानबूझकर एक दर्जन से अधिक गवाहों द्वारा मुहैया कराए गए ऐसे महत्वपूर्ण सुरागों की अनदेखी की है जो संस्थागत स्तर पर बिहार सरकार के समाज-कल्याण विभाग और कई हाई-प्रोफाइल नेताओं को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं.
कारवां के पास मौजूद दस्तावेजों से पता चलता है कि सीबीआई की चार्जशीट इस तरह से तैयार की गई थी कि नाबालिकों के यौन शोषण के लिए केवल आश्रय गृह के कर्मचारियों, उसके मालिक ब्रजेश ठाकुर और चार सरकारी अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया जा सके. सीबीआई ने सिर्फ उन्हीं कुछ चुनिंदा व्यक्तियों को आरोपी बनाया जिनके खिलाफ गवाहों ने बयान दिए. एजेंसी ने राज्य के समाज-कल्याण विभाग और इस मामले में शक्तिशाली नेताओं की संभावित भागीदारी को स्वीकार करने से इनकार कर दिया, बावजूद इसके कि इन बयानों में उनका नाम लिया गया था. कम से कम सात गवाहों ने सीबीआई को दिए अपने बयानों में नियमित रूप से बालिका गृह में आने वाले "बाहरी" लोगों की पहचान की है. अन्य गवाहों में ब्रजेश का किराएदार, पड़ोसी और राज्य के सामाजिक कल्याण विभाग के कम रैंक के अधिकारी शामिल हैं. किराएदार ने अपने बयान में कम से कम दो वरिष्ठ नेताओं का नाम लिया था, जिनमें से एक राज्य सभा सदस्य था और दूसरा बिहार विधान परिषद का पूर्व सदस्य था. राज्य के अधिकारियों ने आश्रय गृह के संचालन, निगरानी और धन आवंटन करने वाले सरकारी पदाधिकारियों के विशाल नेटवर्क का ब्योरा दिया है जिनकी आश्रय गृह को चलाने में सहभागिता थी.
कारवां के पास 33 पीड़ितों, ब्रजेश के किराएदार, पड़ोसी और उसके प्रिंटिंग प्रेस के कर्मचारी, जांच अवधि के दौरान समाज-कल्याण विभाग के आधा दर्जन सरकारी अधिकारियों, पहले जांच अधिकारी जिसने 30 मई 2018 को बालिका गृह पर छापा मारा था, के बयान और सीबीआई द्वारा दिसंबर 2018 में बिहार ट्रायल कोर्ट के सामने दायर की गई चार्जशीट मौजूद हैं. सभी बयान सीबीआई ने सितंबर 2018 से दिसंबर 2018 के बीच दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 161 के तहत दर्ज किए थे.
मामला दर्ज होने के दो महीने बाद और मामले को बिहार राज्य पुलिस से सीबीआई को स्थानांतरित करने के एक महीने बाद, अगस्त 2018 से सुप्रीम कोर्ट इस मामले की जांच को देख रही है. एजेंसी नियमित रूप से अदालत को अपडेट करती रही है, लेकिन इसकी सभी प्रगति रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में पेश की गईं. इसका मतलब है कि मामले की याचिकाकर्ता निवेदिता झा और हम सभी को अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल द्वारा अदालत की ब्रीफिंग पर भरोसा करना पड़ा है. जैसा कि कारवां की पिछली रिपोर्ट में बताया गया था कि इस आधी-अधूरी जांच में आगे समझौता किया गया. वेणुगोपाल की ताजा ब्रीफिंग और साथ ही आरोपपत्र सुप्रीम कोर्ट द्वारा दो बड़े हस्तक्षेपों पर चुप थे, जिसमें शीर्ष अदालत ने जांच में कमियों पर ध्यान दिया था और सीबीआई से मामले के विशिष्ट पहलुओं की जांच करने के लिए कहा था. अदालत ने ब्रजेश की गहन जांच करने पर जोर दिया था, जिसमें उसके राजनीतिक संबंध और मामले में सरकारी अधिकारियों की भूमिका भी शामिल थी.
20 सितंबर 2018 को चार्जशीट दाखिल होने से पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिया था कि वह ब्रजेश की पूरी तरह से जांच करे, जिसमें उसके राजनीतिक संबंध भी शामिल हैं. अदालत ने एजेंसी से उन सभी "बाहरी लोगों" की भागीदारी का पता लगाने के लिए कहा था, जो कि आश्रय गृह के संचालन और राज्य के समाज-कल्याण विभाग से सीधे तौर पर नहीं जुड़े थे. शीर्ष अदालत ने 3 जून 2019 को एक सुनवाई में इन निर्देशों को दोहराया. 20 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि, "स्टेटस रिपोर्ट के अवलोकन के बाद कुछ क्षेत्र हैं जिन पर सीबीआई द्वारा आगे जांच की जाने की आवश्यकता है, वे इस प्रकार हैं ... सीबीआई को ब्रजेश ठाकुर के पिछले कामों, संबंधों और प्रभाव पर गौर करना होगा.'' बालिका गृह के अलावा, जिसे सरकारी धन से वित्तपोषित किया गया था, ब्रजेश कम से कम दस गैर सरकारी संगठनों को चलाता था, वह प्रेस सूचना ब्यूरो द्वारा मान्यता प्राप्त पत्रकार था, प्रिंटिंग प्रेस का मालिक था और राज्य सरकार की दो सलाहकार समितियों का सदस्य था.
ब्रजेश की जांच के संबंध में आरोपपत्र में सबसे भयावह चूक, ब्रजेश के किराएदार के बयान को नजरअंदाज करने का सीबीआई का निर्णय है, जो सितंबर 2018 में दर्ज किया गया था. किराएदार बालिका गृह के परिसर में रहता था और उसने आश्रय गृह में रात को बतौर गार्ड काम करता था. उसके अनुसार, "एमएलसी आजाद गांधी ब्रजेश ठाकुर के घर आते थे. वह (ठाकुर के घर पर) भोजन करते थे और बालिका गृह में भी जाते थे और आरएम पैलेस होटल (ब्रजेश के स्वामित्व में) में दो से तीन घंटे तक रुकते भी थे.” आश्रय गृह के परिसर में ही ब्रजेश का घर और प्रिंटिंग प्रेस है. गांधी 1996 से 2001 तक राज्य सभा सदस्य और 2002 से 2007 तक बिहार विधान परिषद के सदस्य रहे. लोक सभा चुनाव के दौरान वह अप्रैल 2019 में जनता दल (यूनाइटेड) से कांग्रेस में शामिल हो गए. पांच महीने बाद, सितंबर 2019 में वह राष्ट्रीय जनता दल में शामिल हो गए.
हालांकि, गांधी ने मुझे बताया, “मुजफ्फरपुर में आश्रय गृह कहां है मुझे नहीं पता. ब्रजेश ठाकुर के साथ मेरा रिश्ता हमारी पत्रकारिता संबंधित बातचीत तक ही सीमित था. मैं पटना से एक उर्दू अखबार भी चलाता हूं, इसलिए मैं ठाकुर को जानता हूं.” जब मैंने आजाद से पूछा कि क्या वह कभी मुजफ्फरपुर आए हैं, तो उन्होंने मुझसे कहा, “मैं अपने पूरे जीवन में वहां नहीं गया.” आगे एक सवाल पर गांधी ने स्वीकार किया कि वह मुजफ्फरपुर में ब्रजेश के घर एक बार गए थे. “मैं चार या पांच साल पहले उसके बेटे की शादी में उसके घर गया था. वहां कुछ बीस हजार लोग थे.” सीबीआई ने अभियुक्तों की सूची में गांधी का नाम शामिल नहीं किया था और दिसंबर 2018 में दायर आरोपपत्र में उनकी भागीदारी की छानबीन तक नहीं की थी.
किराएदार ने अपने बयान में कहा, “ब्रजेश ठाकुर के पिता राधामोहन ठाकुर का पूर्व राज्य सूचना मंत्री रामनाथ ठाकुर के साथ एक करीबी रिश्ता था, जो ब्रजेश ठाकुर के साथ भी कायम रहा. ब्रजेश ठाकुर की समस्तीपुर-ताजपुर रोड पर मनोरमा भवन नाम से एक बिल्डिंग है, जिसमें एक वृद्धाश्रम है. उस कॉलोनी के आसपास ही पूर्व मंत्री रामनाथ ठाकुर का घर है. वहां से ही रामनाथ ठाकुर और ब्रजेश ठाकुर के बीच का रिश्ता बहुत करीबी हुआ. रामनाथ ठाकुर नियमित रूप से ब्रजेश ठाकुर के साहू रोड निवास पर जाते थे." रामनाथ ठाकुर “वहां खाना खाया करते थे और ऊपर लड़कियों के घर भी जाते थे. जब भी रामनाथ ठाकुर मुजफ्फरपुर जाते तो ब्रजेश ठाकुर की गाड़ी में जाया करते जिसका नंबर 5000 है. ड्राइवर विजय कुमार तिवारी रामनाथ ठाकुर को ले जाया करता था."
रामनाथ कर्पूरी ठाकुर के बेटे हैं. कर्पूरी आजादी के बाद के दशकों में राज्य से उभरे सबसे बड़े समाजवादी नेताओं में से थे. उनकी विरासत पर बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री जद (यू) के नीतीश कुमार और राजद के लालू प्रसाद जैसे सभी समाजवादी नेता दावा करते हैं. कर्पूरी 1970 के दशक के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे, एक बार उप मुख्यमंत्री रहे और एक बार राज्य के शिक्षा मंत्री के रूप में काम किया. रामनाथ ने मुझे बताया कि ब्रजेश के साथ उनका लंबे समय से पुराना और दोस्ताना रिश्ता था, जो राधमोहन के साथ शुरू हुआ था. उन्होंने किराएदार के इस दावे की भी पुष्टि की कि समस्तीपुर में उनके घरों की निकटता के कारण भी उनका संबंध था. लेकिन उन्होंने इस बात से साफ इनकार किया कि वह कभी आश्रय गृह गए थे. जब मैंने उनसे पूछा कि क्या वह कभी मुजफ्फरपुर में ब्रजेश के घर गए थे, तो रामनाथ ने कहा कि 2004 में वे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए जद (यू) की एक न्याय यात्रा का नेतृत्व कर रहे थे. इसके बाद उन्होंने ब्रजेश के घर का दौरा किया. उन्होंने कहा कि जद (यू) के सदस्यों ने ब्रजेश के घर पर खाना खाया था. रामनाथ भी सीबीआई की चार्जशीट से गायब हैं.
मैंने सीबीआई द्वारा आरोपित एक अन्य आरोपी अश्विनी उर्फ आसमानी के वकील सुधीर कुमार से भी बात की. अश्विनी डॉक्टर है, पीड़ितों ने अपने बयानों में उस पर आरोप लगाया है कि वह यौन शोषण और शारीरिक शोषण करने से पहले नशीला पदार्थ दिया करता था. कम से कम तीन पीड़ितों के बयानों के अनुसार, अश्विनी ने उनका यौन शोषण किया था. सुधीर ने कहा कि उनका मुवक्किल निर्दोष है और उसे फंसाया जा रहा है और "सीबीआई मामले से जुड़े शक्तिशाली लोगों को बचाने की कोशिश कर रही है." फरवरी 2019 में, सुधीर ने दिल्ली में एक विशेष अदालत में अश्विनी की ओर से याचिका दायर की जो यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम, 2012 के तहत अपराध से संबंधित है. उसी महीने, सुप्रीम कोर्ट ने मामले को बिहार की एक ट्रायल कोर्ट से साकेत की एक अदालत में स्थानांतरित कर दिया था. याचिका में कहा गया है कि "सीबीआई ने मेरे द्वारा दिए गए सबूतों और बयान को छिपाया और उन्हें अदालत के सामने पेश नहीं किया." अश्विनी ने अपनी याचिका में नीतीश कुमार का नाम लिया था, इसकी एक प्रति कारवां के पास है. साकेत कोर्ट ने अश्विनी की याचिका सीबीआई को भेज दी. कुमार ने मुझे बताया कि उन्हें कभी पता नहीं चला कि उनके आवेदन का क्या हुआ क्योंकि सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में मुख्यमंत्री पर आरोप नहीं लगाया. कुमार ने कहा कि सीबीआई ने उनके आवेदन के बारे में भी अदालत को अपडेट नहीं किया.
मार्च 2019 में पटना की पत्रकार निवेदिता झा ने सुप्रीम कोर्ट में एक विशेष-अवकाश याचिका (एसएलपी) दायर की जिसमें सीबीआई की जांच पर आपत्तियां जताई गई. एसएलपी में अदालत से मांग की गई कि वह सीबीआई को निर्देश दे कि वह हत्या, सामूहिक बलात्कार, तस्करी, वेश्यावृत्ति और बाहरी लोगों की भागीदारी के आरोपों की जांच करे, जैसा कि पीड़ितों और अन्य गवाहों ने एजेंसी को अपने बयानों में बताया था. याचिकाकर्ता की वकील फौजिया शकील ने तर्क दिया था कि, "सीबीआई ने महज कर्मचारियों और कम प्रभावशाली अपराधियों और केवल उन व्यक्तियों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया था जिनमें से कुछ आश्रय गृह के दैनिक प्रबंधन से जुड़े थे और कुछ बाल विकास समिति के सदस्य थे लेकिन बाहरी लोगों की पहचान का पता लगाने का प्रयास नहीं किया.” शकील ने कहा कि एजेंसी ने अदालत के 20 सितंबर 2018 के आदेश का अनुपालन नहीं किया.
शकील ने आगे तर्क दिया, "आरोपपत्र के अध्ययन से यह स्पष्ट नहीं होता है कि सीबीआई ने पीड़ितों द्वारा दिए गए अपराधियों के भौतिक विवरण के आधार पर पहचान स्केच तैयार किए या नहीं." कारवां द्वारा की गई आरोपपत्र की जांच से यह भी पता चला है कि सीबीआई ने आश्रय गृह में आने वाले "बाहरी" लोगों और ब्रजेश के "दोस्तों" के बारे में पीड़ितों के विस्तृत विवरण को दरकिनार कर दिया.
3 जून 2019 को, सुप्रीम कोर्ट ने झा की याचिका पर एक आदेश पारित किया और सीबीआई से कहा कि वह अपनी जांच पूरी करने से पहले मामले के चार अन्य पहलुओं की जांच करे. इनमें से एक पहलू था, “(iii) आश्रय गृह के रहने वालों के यौन शोषण में शामिल बाहरी लोगों और अधिकारियों सहित अन्य व्यक्ति.” अदालत ने सीबीआई को अपनी जांच पूरी करने के लिए तीन महीने का समय भी दिया. लेकिन सीबीआई की 8 जनवरी 2020 की स्थिति रिपोर्ट जांच के इस पहलू पर चुप है. वेणुगोपाल ने केवल यह कहा कि आश्रय गृह में "कोई हत्या नहीं" की गई थी.
लगता है कि सीबीआई की चार्जशीट में किराएदार के अलावा कम से कम सात पीड़ितों के बयानों को कोई महत्व नहीं दिया गया, जिसमें बाहर से आए लोगों की पहचान करने में मदद करने के लिए पर्याप्त विवरण था. पीड़िताओं में से एक ने बताया, "एक बार, चुपके से, मैंने देखा कि तीन कारें वहां पहुंचीं. कुछ लोग कारों से बाहर निकले और बालिका गृह में घुस गए. एक महिला ने पार्टी के कपड़े पहने हुए थे और अच्छे तरह तैयार थी. वह कार से बाहर निकली, फिर वह कार में वापस बैठ गई. मीनू चाची उसे लेकर (छह अन्य गवाहों के साथ) नीचे चली गई.” बयान में कहा गया है कि जब पीड़िताएं “तीन-चार घंटे के बाद…'' वापस आईं, ''तो फूट-फूट कर रो रहीं थी” उनके बाल बिखरे हुए थे और कपड़े फटे हुए थे. सीबीआई की रिपोर्ट इस बात पर चुप है कि ये लोग कौन थे और "पार्टी के कपड़े" में वह महिला कौन थी.
एक अन्य पीड़िता के बयान में कहा गया है कि, "बालिका गृह में, ब्रजेश चाचा के साथ कई चाचा रहते थे. एक बार ब्रजेश सर तीसरी मंजिल पर आए और मुझे नीचे ऑफिस में ले गए. एक चाचा वहां थे, उन्होंने मुझे वहां छोड़ दिया और चले गए. अंकल ने मुझे एक कुर्सी पर बैठाया और मेरे हाथों को मेरे दुपट्टे से कुर्सी के पीछे बांध दिया. उन्होंने मेरे स्तन दबाने शुरू कर दिए और मेरा चुंबन लेते हुए अपने मुंह से मेरा मुंह बंद कर दिया. उन्होंने मेरी सलवार को उतार दिया और मेरे मूत्र क्षेत्र को छू लिया और मेरे साथ मारपीट शुरू कर दी. सब कुछ करने के बाद, उन्होंने ब्रजेश सर से कहा कि "मेरा काम हो गया." उस चाचा की मूंछ थी, सफेद शर्ट, नीली जींस पहने हुए था." सीबीआई इस बात का कोई उल्लेख नहीं करती है कि यह "चाचा" कौन था या उसने इसकी पहचान करने के लिए क्या किया?
इसी तरह, अन्य पीड़िताओं के बयानों में उल्लेख किया गया है कि "ब्रजेश के दोस्त" कितनी बार आश्रय गृह में आते और उनका यौन शोषण करते और उन्हें "होटल" में कैसे ले जाते थे, जहां उन्हें "ब्रजेश के दोस्तों" के लिए "नृत्य" करने के लिए मजबूर किया जाता और उनका यौन शोषण करते.
20 सितंबर 2018 के आदेश में, सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ, जिसमें मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता शामिल थे, ने संस्थागत स्तर पर राज्य के समाज कल्याण विभाग की भागीदारी का भी हवाला दिया और सीबीआई को इस बारे में और जांच करने का आदेश दिया था. पीठ ने कहा, “स्टेटस रिपोर्ट में यह भी उल्लेख किया गया है कि कुछ लड़कियों को 20 मार्च 2018 को समाज कल्याण विभाग द्वारा आश्रय गृह से स्थानांतरित किया गया था जो कि सीबीआई द्वारा वर्तमान जांच का विषय है. यह स्पष्ट नहीं है कि लड़कियों को बाहर क्यों स्थानांतरित किया गया था." पीठ ने कहा, "स्थानांतरण से लगता है कि बिहार सरकार के समाज कल्याण विभाग को आश्रय गृह में कुछ अनचाही गतिविधियों के बारे में पता था और संभवत: पीड़ित लड़कियों के स्थानांतरण का यह कारण हो. सीबीआई को इस संबंध में समाज कल्याण विभाग का रिकॉर्ड जब्त करना चाहिए और जांच करनी चाहिए.”
जब सीबीआई ने दिसंबर 2018 में अपनी चार्जशीट प्रस्तुत की, तो इस बात का कोई उल्लेख नहीं था कि एजेंसी ने समाज कल्याण विभाग के रिकॉर्ड की जांच की थी या नहीं. आरोपपत्र में उन परिस्थितियों की व्याख्या भी नहीं की गई है जो शायद पीड़िताओं के स्थानांतरण के लिए आवश्यक थी. कारवां की पिछली रिपोर्ट में बताया गया है कि कैसे राज्य पुलिस द्वारा मामले की रिपोर्ट दर्ज करने से पहले ही पीड़िताओं को कई बार समाज कल्याण विभाग के आदेश पर मुजफ्फरपुर के एक आश्रय गृह से दूसरे गृह में स्थानांतरित किया गया था. दो पीड़िताओं को उनके बयान दर्ज किए बिना ही उनके माता-पिता को सौंप दिया गया था.
सीबीआई ने मामले में कुल 21 आरोपियों में से केवल चार सरकारी अधिकारियों के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया. ये चार अधिकारी थे : बाल कल्याण समिति के अध्यक्ष दिलीप वर्मा (यह एक जिला-स्तरीय निकाय है जिसके पास न्यायिक शक्तियां होती है जो भागे हुए या परित्यक्त बच्चों को आश्रय देती है), सीडब्ल्यूसी के सदस्य विकास कुमार, बाल-संरक्षण अधिकारी रवि कुमार रौशन और मुजफ्फरपुर जिले की बाल-संरक्षण इकाई की तत्कालीन सहायक निदेशक रोजी रानी. हालांकि, कारवां के पास मौजूद दस्तावेजों से पता चलता है कि सीबीआई ने कुछ कम-रैंक वाले सरकारी अधिकारियों द्वारा समाज कल्याण विभाग की भागीदारी के बारे में दी गई जानकारी की अनदेखी की. इसके अलावा, अगस्त 2018 की शुरुआत में मुजफ्फरपुर के डिप्टी सुपरिटेंडेंट मुकुल रंजन ने बिहार में ट्रायल कोर्ट को अपनी पर्यवेक्षण रिपोर्ट सौंपी थी. इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के मुताबिक, रंजन ने कहा कि ब्रजेश ''सेक्स रैकेट चलाता था और टेंडर दिलाने के लिए अधिकारियों को लड़कियों की सप्लाई करता था.” आरोपपत्र में तस्करी के पहलू का जिक्र नहीं है.
समाज कल्याण निदेशालय के तहत काम करने वाली बाल-संरक्षण समिति की तत्कालीन कार्यक्रम अधिकारी अंजू सिंह ने अपने बयान में बताया कि किस तरह से राज्य सरकार द्वारा आश्रय गृहों को चलाने के लिए गैर सरकारी संगठनों का चयन किया गया था और उनकी निगरानी की जिम्मेदारी किसकी थी. सिंह ने कहा, "समाज कल्याण विभाग, मंत्रिमंडल द्वारा बजट मंजूर किए जाने के बाद, विभिन्न गैर सरकारी संगठनों से एक्सप्रेसन ऑफ इंटरेस्ट (गैर सरकारी संगठनों द्वारा बाल गृहों के लिए पात्रता मानदंड) आमंत्रित करता है." सिंह ने आगे कहा कि सीलबंद कवर में बोलियां प्राप्त करने के बाद, "समाज कल्याण निदेशालय द्वारा आवश्यक मानदंडों के अनुरूप होने वाले एनजीओ को छांटने के लिए समिति का गठन किया जाता है. एनजीओ के चयन के बाद, चयनित एनजीओ को समाज कल्याण विभाग द्वारा गठित समिति के प्रमुख सचिव के समक्ष प्रस्तुति देने के लिए पत्र भेजा जाता. "
सिंह ने अपने बयान में यह भी बताया कि चयनित गैर सरकारी संगठनों का भौतिक सत्यापन भी जिला बाल संरक्षण इकाई द्वारा किया जाता. सिंह ने निष्कर्ष निकाला था : “किशोर न्याय अधिनियम के अनुसार, बाल गृहों का त्रैमासिक निरीक्षण अनिवार्य है जो जिला निरीक्षण समिति द्वारा किया जाता है, जिनके सदस्यों में जिला मजिस्ट्रेट, सिविल सर्जन, विशेष किशोर पुलिस इकाई के एक कर्मी, जिला बाल संरक्षण इकाई के सहायक निदेशक, बाल कल्याण समिति और किशोर न्याय बोर्ड के सदस्य शामिल होते हैं. ”
सभी अधिकारियों में से, सीबीआई ने केवल दो सीडब्ल्यूसी सदस्यों और बाल-संरक्षण इकाई की एक सहायक निदेशक, रोजी रानी के खिलाफ आरोपपत्र दायर किया था, जिसने फरवरी 2015 और जून 2017 के बीच 11 निरीक्षण किए थे. रानी ने बालिका गृह पर कोई कुप्रबंधन न होने की सूचना दी, भले ही कई पीड़िताओं के बयान में कहा गया है कि उन्होंने रानी को यौन शोषण के बारे में कई बार जानकारी दी थी. इसी तरह, रानी के बाद, देवेश कुमार शर्मा को उसी पद पर नियुक्त किया गया और अक्टूबर 2017 से फरवरी 2018 के बीच, उसने भी, पांच निरीक्षण किए और कोई भी दुष्कर्म न होने की रिपोर्ट दी. लेकिन सीबीआई की चार्जशीट में शर्मा को आरोपी नहीं बनाया गया.
इसके अलावा, इन आश्रय गृहों के कामकाज में कई उच्च-स्तरीय सरकारी अधिकारी शामिल हैं. ऐसे सभी आश्रय गृह राज्य सरकार द्वारा चलाए जाते हैं और केंद्रीय बाल संरक्षण योजना नामक एक केंद्रीय योजना के तहत वित्तपोषित होते हैं. राज्य 30 प्रतिशत धनराशि प्रदान करता है, केंद्र सरकार 60 प्रतिशत धनराशि प्रदान करती है और शेष एनजीओ को स्वयं उपलब्ध कराना होता है. ब्रजेश का एनजीओ- सेवा संकल्प और विकास समिति- जो बालिका गृह का संचालन करते हैं, को सरकार से एक दशक में अनुदान के रूप में 4.5 करोड़ रुपए मिले थे. सिंह के बयान में उल्लेख किया गया है कि कैसे "जिला बाल संरक्षण इकाई के सहायक निदेशक आईसीपीएस के समन्वय, पर्यवेक्षण और कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार है." सिंह के अनुसार, सहायक निदेशक को "जिला मजिस्ट्रेट, जिला न्यायाधीश, पुलिस अधीक्षक, बाल विकास अधिकारी, श्रम अधिकारी, शिक्षा अधिकारी, मुख्य चिकित्सा अधिकारी, नगरपालिका अधिकारी, जिला परिषद के सदस्य, स्वैच्छिक संगठन, अस्पताल, बाल कल्याण बोर्ड, किशोर न्याय बोर्ड, चाइल्डलाइन सर्विसेज," के साथ समन्वय और तालमेल करना था.
विभिन्न स्तरों पर अधिकारियों के अपराधों का पता लगाने के लिए सीबीआई के जांचकर्ताओं ने इनमें से किसी भी लीड को फॉलो नहीं किया. सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में, इस बात का कोई जिक्र नहीं किया कि एक संस्थान के रूप में विभाग नाबालिगों के यौन शोषण और शारीरिक हिंसा का पता लगाने में तब तक हर स्तर पर कैसे असफल रहा, जब तक कि सरकार द्वारा एक स्वतंत्र ऑडिट नहीं किया गया. इसमें तत्कालीन समाज कल्याण मंत्री मधु वर्मा के पति चंद्रशेखर वर्मा का भी कोई जिक्र नहीं है, जो ब्रजेश का करीबी दोस्त था. सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद इस राजनीतिक संबंध की अनदेखी की गई.
8 जनवरी 2020 को, स्टेटस रिपोर्ट के अलावा सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक और आवेदन दायर किया. आवेदन में जांच की प्रगति की व्यापक शर्तें बिंदुवार उल्लिखित हैं. इस तरह के आवेदन याचिकाकर्ताओं के लिए यह समझने का एकमात्र स्रोत रहे हैं कि सीबीआई क्या कर रही है. सीबीआई के जनवरी 2020 के आवेदन में कहा गया है, “सभी 17 आश्रय गृह मामलों की जांच पूरी हो गई है. 13 नियमित मामलों में अंतिम रिपोर्ट, सक्षम न्यायालय में दायर और अग्रेषित की गई है. सभी 4 प्रारंभिक जांचों की जांच पूरी हो चुकी है और आपराधिक घटना होने को साबित करने वाले सबूत नहीं जुटाए जा सकते हैं और इसलिए इस संबंध में कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई."
आवेदन में आगे कहा गया है कि विभिन्न स्तरों पर वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों की भागीदारी के संबंध में सीबीआई ने "बिहार सरकार के मुख्य सचिव को सभी मामलों में दोषी सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए सिफारिश भेजी है." सीबीआई ने इन "अधिकारियों" के खिलाफ कोई भी आपराधिक आरोप नहीं लगाया और इसके बजाय केवल विभागीय पूछताछ की सिफारिश की है. शकील ने सीबीआई के फैसले पर सवाल उठाया और कहा, "किस आधार पर सीबीआई मुख्य सचिव को इस तरह की सिफारिशें दे सकती है?" उनके अनुसार, ''सीबीआई की जांच में (जिससे हम अनभिज्ञ हैं) निश्चित रूप से अधिकारियों द्वारा चूक या संलिप्तता को दर्शाया गया होगा, इसीलिए सीबीआई ने उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की होगी.” उन्होंने कहा कि कार्रवाई की सिफारिश करने के लिए इस्तेमाल किए गए समान साक्ष्यों का प्रयोग अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए भी किया जा सकता है. “हमें पता नहीं है कि सीबीआई ने जांच के दौरान अपराध में उनकी भागेदारी को स्थापित करने के लिए कौन से साक्ष्य एकत्र किए. तो, अगर यह अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश करने के लिए पर्याप्त था तो चार्जशीट दायर करने के लिए क्यों नहीं था?"
आश्रय गृह में रहने वाली पांच पीड़िताओं और एक किराएदार के बयानों को अनुवाद के साथ नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है.