कारवां के पत्रकारों पर हमले के मामले में दिल्ली पुलिस खुद पर लगे आरोपों से खुद को बरी नहीं कर सकती

(दाईं) शाहिद तांत्रे/कारवां

10 अगस्त को कारवां ने पत्रकार प्रभजीत सिंह और शाहिद तांत्रे की एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसका शीर्षक था, "दिल्ली पुलिस पर दंगों की शिकायतकर्ता और उनकी बेटी पर हमले और यौन उत्पीड़न का आरोप." उत्तर-पूर्वी दिल्ली के उत्तरी घोंडा इलाके में सुभाष मोहल्ले की स्थानीय महिलाओं ने आरोप लगाया था कि 8 अगस्त की रात भजनपुरा पुलिस स्टेशन परिसर में पुलिस अधिकारियों ने उन्हें पीटा और उनका यौन उत्पीड़न किया. शाहीन खान, शन्नो और उनकी 17 वर्षीय बेटी ने पुलिस पर थप्पड़ मारने, हाथापाई करने और शन्नो और किशोरी की छाती को छूने का आरोप लगाया. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दिल्ली पुलिस ने इन आरोपों का खंडन किया है. महिलाएं दो दिन पहले की एक घटना पर प्रा​थमिकी दर्ज कराने स्टेशन गईं थीं, जिसमें अयोध्या में राम मंदिर शिलान्यास का उत्सव मना रहे स्थानीय हिंदू लोगों ने मुस्लिम मोहल्ले के गेट पर भगवा झंडे बांध दिए थे.

इस घटना पर रिपोर्ट प्रकाशित होने के अगले दिन, 11 अगस्त को कारवां में कार्यरत तीन पत्रकार सिंह, तांत्रे और एक महिला पत्रकार फॉलोअप रिपोर्टिंग के लिए वापिस इलाके में गए. उस दोपहर, जब वे सुभाष मोहल्ले के एक हिंदू इलाके में बंधे भगवा झंडे की तस्वीरें ले रहे थे, स्थानीय लोगों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया और उनके साथ मारपीट की. भीड़ में से एक ने कहा कि वह भारतीय जनता पार्टी का "महासचिव" है. लगभग डेढ़ घंटे तक चले हमले में, पत्रकारों को पीटा गया, सांप्रदायिक गालियां दी गईं और हत्या की धमकी दी गई. हमले से बचने की कोशिश करते वक्त एक व्यक्ति ने महिला पत्रकार का यौन उत्पीड़न करते हुए उनके सामने अपने कपड़े उतार दिए. अंत में पुलिस ने हस्तक्षेप किया और पत्रकारों को भजनपुरा पुलिस स्टेशन ले जाया गया, जहां उन्होंने हमले के बारे में विस्तृत शिकायत दर्ज की. इन शिकायतों के खिलाफ पुलिस ने एफआईआर दर्ज नहीं की. अगले दिन, कारवां ने अपने कर्मचारियों पर हुए हमले और यौन उत्पीड़न के बारे में एक रिपोर्ट प्रकाशित की.

उस रात बाद में दिल्ली पुलिस ने सुभाष मोहल्ले की स्थानीय महिलाओं द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोपों के बारे में 10 अगस्त की रिपोर्ट के बारे में ट्विटर पर अपना जवाब प्रकाशित किया. इसमें दिल्ली पुलिस ने महिलाओं पर हुई किसी भी हिंसा या यौन हमले से इनकार किया और दावा किया कि महिलाएं ''लाख मनाने के बाद'' स्टेशन से गईं. अपनी प्रतिक्रिया में दिल्ली पुलिस ने विषय के स्थान पर केवल 10 अगस्त की रिपोर्ट का उल्लेख किया. हालांकि, इससे सरासर इनकार करने के बाद, जिसे कारवां की रिपोर्ट में पहले ही प्रभावी रूप से दोहराया गया था, दिल्ली पुलिस ने पत्रकारों पर हमले के बारे में 11 अगस्त की रिपोर्ट पर जवाब दिया. इसमें, पुलिस ने पत्रकारों पर "बिना अनुमति" स्थानीय लोगों की तस्वीरें लेने का झूठा आरोप लगाया और सुझाव दिया कि ऐसा करने से वहां "उपस्थित लोगों भड़क सकते हैं और सांप्रदायिक समस्याओं सहित कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा कर सकते हैं."

पहली रिपोर्ट पर दिल्ली पुलिस का ट्वीट नीचे दिया जा रहा है. इसके बाद हम पुलिस के ट्वीट पर सिंह और तांत्रे की प्रतिक्रिया प्रकाशित कर रहे है.

इस प्रतिक्रिया में दो चीजों को समझना बेहद जरूरी है जिन्हें दिल्ली पुलिस ने यहां करने का प्रयास तो किया लेकिन कर नहीं पाई. पहली, दिल्ली पुलिस ने बिना किसी औपचारिक जांच के उस पर लगे एक महिला और एक युवती के यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप से खुद को बचाने का प्रयास किया है. यह न्याय का एक बुनियादी सिद्धांत है कि कोई व्यक्ति अपने खुद के मामले में जज बन कर फैसला नहीं सुना सकता. फिर भी दिल्ली पुलिस ने ठीक यही करने की कोशिश की है. इस प्रयास में उसने खुद पर लगे आरोपों के अपने पहले के खंडन को ही दोहराया है जबकि कारवां इसे पहले ही छाप चुका है. साथ ही उसने इस दावे का कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया.

दूसरा, यौन उत्पीड़न के आरोपों के इस निराधार खंडन के माध्यम से, दिल्ली पुलिस अगले दिन कारवां के पत्रकारों पर हुई हिंसा की घटना से ध्यान हटाने का प्रयास करती दिखी. पुलिस ने यह नहीं बताया कि वह जवाब में पत्रकारों पर हुए हमले का स्पष्टीकरण क्यों दे रही है लेकिन उसने इस माध्यम को मुझे और मेरे सहयोगी पर क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव भड़काने का आरोप लगाने के लिए इस्तेमाल किया. उसने हम पर आरोप लगाया है कि हमने स्थानीय लोगों की सहमति के बिना तस्वीरें खींची. यह सरासर गलत है - हमने स्थानीय लोगों की सहमति से ऐसा किया था और उनके साथ वीडियो साक्षात्कार किए थे. हमने उनके घरों की तस्वीरें नहीं लीं और कानून किसी इलाके के निवासियों की इजाजत के बिना सार्वजनिक स्थान की तस्वीरें लेने पर प्रतिबंध नहीं लगाता.

10 अगस्त की रिपोर्ट के जवाब में पुलिस ने दावा किया कि सुभाष मोहल्ले की महिलाओं द्वारा लगाए गए आरोप "सरासर झूठे और प्रेरित हैं." यह स्पष्ट नहीं है कि महिलाओं को इस तरह के आरोप लगाने के लिए किसने प्रेरित किया होगा. शन्नो ने हमें बताया था कि हमले के दौरान पुलिस ने उनका कुर्ता फाड़ दिया था - इंटरव्यू के दौरान हम उनके आंसू देख सकते थे. यह भी स्पष्ट नहीं है कि क्या पुलिस यह कहना चाहती है कि शन्नो ने उस पर आरोप लगाने के उद्देश्य से अपना ही कुर्ता फाड़ लिया था. पुलिस की प्रतिक्रिया में आगे दावा किया गया, "पुलिस स्टेशन पर ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी और ना ही किसी तरह की चोट की सूचना मिली थी." एक बार फिर यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस ने किससे उम्मीद की थी कि वह "रिपोर्ट" करेगा, या क्या पुलिस को उम्मीद है कि जिन महिलाओं ने अधिकारियों पर पिटाई और यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है, वे फिर उन्हीं पुलिस वालों से इन अपराधों की रिपोर्ट करेंगी.

महत्वपूर्ण बात यह है​ कि पुलिस ने अपने दावों के लिए बहुत कम सबूत पेश किए हैं. अपने जवाब में पुलिस ने कहा कि स्टेशन पर मौजूद महिला अधिकारी ने "पीएस भजनपुरा के पुलिस कर्मचारियों द्वारा छेड़खानी की किसी भी घटना से इनकार किया है." लेकिन जैसा कि कारवां ने बताया, 17-वर्षीय ने हमें बताया था कि "एक महिला अधिकारी पीछे से आई और उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और बार-बार मेरे सिर पर मारा." यह देखते हुए कि खुद महिला पुलिस अधिकारी पर किशोरी को पीटने के गंभीर आरोप हैं, उसके द्वारा छेड़छाड़ के आरोपों के खंडन को शायद ही गंभीरता से लिया जा सकता है. इससे फिर से यह बात उजागर होती है कि पुलिस औपचारिक जांच के बिना अपने खुद के अपराधों पर फैसला नहीं सुना सकती.

अपने जवाब में पुलिस ने दावा किया है कि स्टेशन के बाहर के दुकानदारों ने "शिकायतकर्ता और अन्य महिलाओं के साथ किसी भी तरह की छेड़खानी से इनकार किया है." लेकिन पुलिस पर एक महिला और उसकी किशोर बेटी के साथ यौन उत्पीड़न के आरोपों को देखते हुए, पुलिस के लिए दुकानदारों के साथ अनौपचारिक बातचीत के आधार पर आरोपों से इनकार कर अपना बचाव करना स्वीकार्य नहीं है. उचित आपराधिक प्रक्रिया के अनुसार दिल्ली पुलिस को आरोपों में एक प्राथमिकी दर्ज करनी चाहिए और शन्नो और उनकी बेटी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना चाहिए ताकि पुलिस की उपस्थिति के बिना उनके बयान दर्ज किए जा सकें और फिर पास के दुकानदारों जैसों के बयान दर्ज किए जाने चाहिए. भारतीय आपराधिक प्रक्रिया दिल्ली पुलिस को अपनी सत्यता निर्धारित करने के लिए संज्ञेय अपराधों के आरोपों में अपने विवेक मुताबिक अनौपचारिक जांच करने की छूट नहीं देती है.

यह कानून का एक प्रसिद्ध सिद्धांत है कि अगर कोई शिकायत संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है तो पुलिस को अनिवार्य रूप से एफआईआर दर्ज करनी चाहिए और इससे पहले प्रारंभिक जांच की कोई आवश्यकता नहीं है. सुभाष मोहल्ले की महिलाओं की रिपोर्ट दर्ज करने की मांग के संदर्भ में यह सिद्धांत प्रासंगिक है. उन्होंने शिकायत दर्ज कराते हुए आरोप लगाया था कि इलाके में मुस्लिम क्षेत्र के गेट के बाहर हिंदुओं ने सांप्रदायिक नारे लगाकर तनावपूर्ण माहौल बनाया था. यह स्पष्ट रूप से भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए के तहत धार्मिक शत्रुता को बढ़ावा देने का अपराध है. यह एक संज्ञेय अपराध है. इसलिए यह स्पष्ट है कि पुलिस को शिकायत में प्राथमिकी दर्ज करनी चाहिए.

यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि अपने जवाब के दूसरे पैराग्राफ में, जिसमें दिल्ली पुलिस महिलाओं की शिकायत को संदर्भित करती है, पुलिस ने सांप्रदायिक नारे लगाने के आरोपों को छोड़ दिया है. फिर भी इसने बाद में दावा किया कि "शिकायतकर्ता के पड़ोसियों ने भी राम मंदिर शिलान्यास समारोह के कारण किसी भी समुदाय की ओर से किसी भी प्रकार की अस्थिरता से इनकार किया है." यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस ने किससे सलाह ली लेकिन यह देखते हुए कि स्टेशन पर जाने वाली महिलाओं का समूह आस-पड़ोस का ही था, स्पष्ट रूप से कई पड़ोसी थे जो मानते थे कि स्थानीय लोगों के एक समूह ने सांप्रदायिक नारे लगाए थे.

दिल्ली पुलिस अपने दावों को साबित करने में नाकाम रही है कि महिलाओं के आरोप झूठे थे, कारवां खान, शन्नो और उनकी बेटी के बयान का एक छोटा वीडियो जारी कर रहा है, जिसमें वे स्टेशन पर हुई घटनाओं के बारे में बताती हैं. बेटी की गवाही के मामले में, उनकी पहचान की रक्षा के लिए साक्षात्कार का केवल ऑडियो जारी किया जा रहा है. इन गवाहियों में महिलाएं पुलिस अधिकारियों पर हिंसा और यौन हमले का आरोप लगाती हैं, जैसा कि कारवां की रिपोर्ट में दर्ज किया गया है. "हमें पीटा गया और यौन उत्पीड़न किया गया," शन्नो ने अपनी गवाही में कहा. "हमारी बेटी की इज्जत पर भी हमला करा उन्होंने." इसी तरह, खान ने कहा, "उन्होंने शन्नो को जोरदार थप्पड़ मारा और साथ ही उनकी बेटी पर भी हाथ उठाया." उन्होंने आगे कहा, "बहुत गलत-गलत जगह हाथ मारा गंदे तरीके से."

सुभाष मोहल्ले की महिलाओं द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोपों के बारे में अपने जवाब में दिल्ली पुलिस ने अजीब ढंग से कारवां के पत्रकारों पर हुए हमलों को भी संबोधित किया. हमले के बारे में पुलिस की टिप्पणियां झूठे दावों से भरी हैं जिनकी जांच नहीं हुई है. पत्रकारों पर हमले के बारे में पुलिस की प्रतिक्रिया प्रभावी रूप से हम पर "सांप्रदायिक समस्याएं" खड़ी करने का आरोप लगाते हुए हमले का शिकार हुए पत्रकारों को ही दोषी बता कर घटना से ध्यान हटाने का प्रयास है.

पुलिस ने लिखा है कि पत्रकार "तस्वीरें ले रहे थे जिसके कारण मीडिया के लोगों और स्थानीय लोगों के बीच तीखी बहस हुई." कारवां के पत्रकारों पर हुए निर्मम हमले और यौन उत्पीड़न को कमतर कर "तीखी बहस" कहना भ्रामक है. एक शख्स द्वारा महिला पत्रकार के सामने नंगा होकर यौन उत्पीड़न किया गया है और जब वह उस व्यक्ति की पहुंच से भागी तो भीड़ ने महिला पत्रकार को पीटा. इस बीच तांत्रे को 50-100 लोगों की भीड़ के हमलों का शिकार होना पड़ा. भीड़ ने उन्हें घेर लिया था. उन्हें जान से मारने की धमकी दी, उनके कैमरे की बेल्ट से उनका ही गला घोंटा और लगातार सांप्रदायिक दुर्व्यवहार किया. क्षेत्र से बाहर निकलने का एकमात्र गेट बंद कर दिया गया और भीड़ द्वारा पत्रकार को बंदी बना लिया गया था.

पुलिस ने फिर झूठा दावा किया कि "त्वरित कार्रवाई करते हुए पुलिस मीडिया वालों को थाने में ले आई." पत्रकारों के भीड़ से घिरे होने के करीब दो घंटे बाद दो पुलिस अधिकारी घटनास्थल पर पहुंचे. वे पत्रकारों को भीड़ से छुड़ाने में असमर्थ थे और पुलिस अधिकारियों द्वारा हस्तक्षेप कर पत्रकारों को पुलिस स्टेशन ले जाने में और तीस मिनट लग गए. यह स्पष्ट नहीं है किस तरह से इसे त्वरित कार्रवाई कहा जा सकता है.

पुलिस की प्रतिक्रिया की अगली पंक्ति विशेष रूप से गंभीर चिंता पैदा करती है. दिल्ली पुलिस ने लिखा है, "बिना अनुमति के तस्वीरें लेना लोगों को भड़का सकता है और सांप्रदायिक समस्याओं सहित कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा कर सकता है." सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात यह कि पत्रकारों ने सहमति के बिना किसी की तस्वीर नहीं ली, इसलिए पुलिस का यह दावा गलत है. उन्होंने क्षेत्र के हिंदुओं से पूछा था कि क्या वे कैमरे के सामने अपनी बात कहेंगे. भीड़ इकट्ठी हो गई और घरों के बाहर सार्वजनिक लेन की तस्वीरें लेने के लिए, जहां भगवा झंडे बांधे गए थे, पत्रकारों पर आक्रामक हो गईं. सार्वजनिक स्थान की तस्वीरें लेने पर कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं है और पुलिस का यह कहना गैरजिम्मेदाराना है कि ऐसा करने से सांप्रदायिक तनाव पैदा हुआ. ऐसे क्षेत्र में रिपोर्टिंग करते समय जहां से सांप्रदायिक तनाव की शिकायतें आई हैं, जिसमें भगवा झंडे बांधना भी शामिल है, ऐसे झंडे की उपस्थिति का दस्तावेजीकरण करना किसी भी पत्रकार का कर्तव्य और जिम्मेदारी है.

पत्रकारों पर हुए हमले को पुलिस द्वारा इस तरह चित्रित करना जैसे यह उन्हीं की ग​लती हो, ना केवल संविधान प्रदत प्रेस की स्वतंत्रता पर गंभीर हमला है बल्कि यह घटना को लेकर पुलिस के एक खास दृष्टिकोण को भी दर्शाता है. सांप्रदायिक तनाव जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर रिपोर्ट करना पत्रकारों की जिम्मेदारी है और पुलिस द्वारा पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय उनको इस काम को करने के लिए दोषी ठहराना अस्वीकार्य है. यह इस तथ्य के प्रकाश में विशेष रूप से प्रासंगिक है कि तीनों पत्रकार पुलिस अधिकारियों पर भजनपुरा पुलिस स्टेशन के अंदर महिलाओं की पिटाई और यौन उत्पीड़न के आरोपों पर फॉलोअप रिपोर्टिंग कर रहे थे.

दिल्ली पुलिस ने कहा कि वह "पेशेवर, स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से" अपना काम कर रही है. पुलिस के इसी जवाब में उसके दावे का झूठ सामने आ जाता है. पत्रकारों की शिकायतों पर एफआईआर दर्ज ना कर पुलिस निष्पक्ष कार्य करने का दावा कैसे कर सकती है. और तो और वह कह रही है कि सार्वजनिक स्थान का फोटो लेने के कारण हुए हमले के लिए स्वयं पत्रकार जिम्मेदार थे.

पुलिस ने कहा है कि इलाके की एक महिला ने पत्रकारों के खिलाफ शिकायत दर्ज की है और कहा कि "जांच के निष्कर्ष पर उचित कानूनी कार्रवाई की जाएगी." पुलिस ने पत्रकारों की शिकायतों पर एफआईआर दर्ज नहीं करने के आरोप के जवाब में इस महिला की शिकायत का हवाला दिया है. एफआईआर दर्ज ना कर दिल्ली पुलिस एक बार फिर संज्ञेय अपराधों का खुलासा करने वाली शिकायतों में एफआईआर दर्ज करने के अपने दायित्व में विफल रही है. इन शिकायतों पर दिल्ली पुलिस की निष्क्रियता ने संविधान प्रदत्त पत्रकारों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार और पुलिस की विश्वसनीयता को बहुत नुकसान पहुंचाया है.