क्या पुष्कर को खत्म करना चाहती है राजस्थान सरकार?

डगलराम रायका अपने ऊंट के साथ मेले में. हालांकि कई लोग ऊंट पालते हैं लेकिन ऊंटों की ब्रीडिंग कराने के लिए केवल रायका रेबारी समुदाय ही है. फोटो सौजन्य : अश्वनी शर्मा

58 साल के राजू नट और 62 वर्षीय सुरेश नट हताश दिख रहे थे. उनके चेहरे की लकीरें साफ बता रही थीं कि वे उम्मीद हार चुके हैं. राजू और सुरेश पुष्कर के रहने वाले हैं. वे नट घुमंतू समुदाय से संबंधित हैं. वे सदियों से नट कला करते आ रहे हैं. सुरेश एकमात्र नट हैं जो 867 वर्ष पुरानी छत्र कला करना जानते है. राजू ने बताया कि "यह कला राजे रजवाड़ों के छत्र से जुड़ी है. राजाओं के सिंहासन से छत्र की पहचान है. एक समय था जब पुष्कर मेले की आन, बान और शान यह कला होती थी. जब तक हम अपने मुंह से बीड़ा नहीं काटते थे, तब तक मेले का समापन नहीं होता था. हमें इस मेले से बहुत उम्मीद थी. किंतु राजस्थान सरकार ने हमारी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है." 

छत्र कला, मुंह से बीड़ा काटने की कला और माउंटी फिरना ये दुर्लभ कलाएं हैं. उनकी इस दुर्लभ कला के लिए पुष्कर मेले के सांस्कृतिक कार्यक्रम में कहीं स्थान नहीं है. लोक अध्येताओं और एक्सपर्ट्स का मानना है कि उपरोक्त उलूल-जुलूल निर्णयों का प्रभाव हमारी आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा. यदि हम पुष्कर को तनिक भी जानते समझते तो ऐसा मजाक नहीं करते. 

राजू इसलिए ऐसा कह रहे थे क्योंकि इस साल राजस्थान सरकार ने विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेले में पशु लाने पर रोक लगाई थी. इसके साथ ही मेले में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों से यहां की लोक संस्कृति को एकदम बाहर रखा गया. जबकि यहां इस बार बंबई से कलाकार आ रहे हैं. 

पशुओं पर रोक का कारण लंपी बीमारी को बताया गया है. लेकिन लंपी बीमारी अब तक तो केवल गायों में देखी गई है और गायें तो पुष्कर मेले में आती नहीं हैं, तो फिर ये रोक क्यों लगाई गई है? इसके पीछे के तर्क का कोई औचित्य समझ नहीं आता. 

सरकार के फैसले ने पशुचारकों की स्थिति भयावह कर दी है. चित्तौड़गढ़ से हरिया देवासी 9 ऊंट लेकर आए थे. मेले से बहुत उम्मीद थी. ऊंट बिकेंगे तो बच्ची की शादी करेंगे. पुलिस ने मेला मैदान के बाहर से ही डंडे मार कर उनको भगा दिया. वह पुष्कर से तीन किलोमीटर दूर गनेडा गांव के पास मिट्टी के टीले पर बैठे हैं. हरिया हमें बताते हैं, "बात केवल पशुओं को बेचने तक सीमित नहीं हैं. यह तो हमारा बुतरा (अपनो से मिलने का स्थान) है. साल में एक बार ही तो अपनो से मिलते हैं. दुख-सुख की बतलाते हैं. अपने मन की बात करते है." हरिया, आगे बताते हैं, "मैंने नए कपड़े बनाए हैं. फैन धोती और बखतरी. साल में एक बार ही नए कपड़े मिलते हैं. बाकी तो जंगलों में खेत खलिहानों में ढोर, रेवड़ (पशुओं) के पीछे घूमते रहते हैं." 

वह कहते हैं, "प्रशासन और नेता इस पुष्कर मेले को बर्बाद करने पर लग गए. अगर पशुचारक इस मेले में आएंगे तो उनके कार्यक्रम भी रखने पड़ेंगे. इसलिए यदि उनको मेले से ही बाहर रखा जाए तो उनके कार्यक्रम भी नहीं रखने पड़ेंगे. इसलिए जहां ऊंट बैठते थे वहां पर उड़न खटोला उतरने (हेलीपैड) का बना दिया. चारों तरफ बाड़बंदी कर दी. अब ऊंट कहां बैठेंगे और सुबह श्याम कहां चरेंगे?" 

हरिया देवासी ने लंबी सांस छोड़ते हुए कहा, "पुलिस हमे डंडा मार कर भगा रही है जैसे हम अपराधी हों. हम तो अपने बाप दादा की लकड़ी पीट रहे हैं. यह मेला हमारे बाप-दादाओं का था. जब छोटे थे तो उनके साथ आते थे. वे भी चले गए, एक दिन हम भी चले जाएंगे. पीछे तो यह मेला रह जाएगा.” बताते-बताते हरिया की आंख भर आई थीं और इतना कह कर हरिया वहां से छोटे-छोटे डग भरता हुआ दूर चला गया. 

कुछ ऐसे सवाल हैं जिनका हल हमें नहीं मिला. जिला प्रशासन ने जिस लंपी बीमारी का आधार लिया है वह लंपी बीमारी केवल गायों में दिखाई पड़ी है. ऊंटों, घोड़ों, गधों और खच्चरों से उसका कोई लेना-देना नहीं है. यहां तक कि भैंस भी इस वायरल इंफैक्शन से दूर हैं. हमें ध्यान रहे कि पुष्कर मेले में गायें नहीं आती हैं. 

मेला मैदान से बाहर पुष्कर के चारों तरफ चौकियां बनी हुई हैं. जो भी पशुचारक यहां आते हैं. वहां पशुओं का नामांकन होता है. पशु चिकित्सक भी रहते हैं. जब कोई पशु बिकता है तो उसकी रवानगी बनती है. उसमें भी पशु चिकित्सक का रोल रहता है. उसके स्वास्थ्य की जांच करता है. यदि किसी पशु को मेला मैदान में दिक्कत है या बीमार है तो वहां डॉक्टर उसे देखते हैं. वहां पशु चिकित्सक की जिम्मेदारी रहती है कि कोई बीमार पशु मेले में न आए. इसलिए उसकी पहले ही जांच हो जाती है. 

यदि जिला प्रशासन को यह लगता था कि कोई ऊंट, घोड़ा, गधा या खच्चर बीमार है तो वे उनको चौकी से वापस भेज सकते थे, उनको वहीं रोका जा सकता था. जैसा कुछ वर्ष पहले भी हुआ था. मेले में लाने वाले पशु को पहले पशु चिकित्सक को दिखा कर उसका मेडिकल बनाकर लाया जा सकता था. फिर पशुओं को मेले में लाने पर रोक लगा देने के निर्णय का कोई औचित्य समझ नहीं आता. 

राजस्थान नागरिक मंच के सचिव अनिल गोस्वामी कहते हैं, "लंपी तो महज एक बहाना है. यह पिछले कई वर्षों से यह होता रहा है. पुष्कर मेले में  पशुचारकों और अन्य घुमंतू समुदायों से प्रशासन और नेताओं को कोई फायदा नहीं है. पहले इवेंट कंपनी (ई-फैक्टर) के साथ मिल कर जिला कलेक्टर ने गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करा लिया. इवेंट में कॉलेज की 5000 लड़कियों का घूमर डांस करवाया. पहले उसकी जगह पर कालबेलिया घूमर डांस करते थे. गिनीज बुक में नाम दर्ज हो गया लेकिन कालबेलियों को मेले से बाहर कर दिया गया है." 

उनका कहना है, "ई-फैक्टर ने सारे इवेंट्स इस तरीके से डिजाइन किए कि बाकी समाज पशुचारक और अन्य समाज मेले से बाहर हो जाएं. कंपनी ने विदेशियों के साफा बांधने की प्रतियोगिता, विदेशियों के साथ कबड्डी खेलने की प्रतियोगिता, विदेशियों के साथ दौड़ने की प्रतियोगिता जैसी गतिविधियां आयोजित की. मुंबई से कलाकार बुलाए, अन्य राज्यों से बड़े कलाकर बुलाए जबकि स्थानीय कलाकारों को इग्नोर कर दिया. भोपों का रावण हत्था, कठपुतली भाट के इवेंट, जोगी का चंग, कालबेलिया का बीन पर सदाबहार लहरिया बजाना जैसे सब इवेंट समाप्त कर दिए. 

वह आगे कहते हैं कि सारी "स्क्रिप्ट पहले ही लिखी जा चुकी है, अब तो उसे महज फिल्माया जा रहा है." अब यह पूरी प्रक्रिया दुबारा से चल पड़ी है कि इवेंट कंपनी को टेंडर दे दिया जाए जो पुष्कर मेले को भरवाए." 

बता दें कि 2 नवंबर 2015 को मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया की बीजेपी सरकार ने राजस्थान के पुष्कर मेले के व्यवस्थापन का ठेका ई-फैक्टर एक्सपीरियंस लिमिटेड को दिया था. इस कंपनी के सह-संस्थापक और सीईओ समित गर्ग हैं, जो एक वेबसाइट के मुताबिक, बीजेपी के प्रवक्ता सुधांशु मित्तल के रिश्तेदार हैं. ई-फैक्टर ने उत्तर प्रदेश में दीपमोहत्व, दिल्ली सरकार का बी. आर. आंबेडकर पर आधारित म्यूजिकल नाटक, समेत कई केंद्रीय और राज्य सरकारों के कई इवेंट्स करवाए हैं. 

पुष्कर मेला 2022 का पोस्टर. 2 नवंबर 2015 को मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया की बीजेपी सरकार ने राजस्थान के पुष्कर मेले के व्यवस्थापन का पांच साल का ठेका ई-फैक्टर एक्सपीरियंस लिमिटेड को दिया था.

पुष्कर अपने अंदर कई पहलुओं को समेटे हुए है. यह मेला हमारी परंपरा, विश्वास, सामासिक संस्कृति और आजीविका का मूल है. यह हमारे पुरखों के जीवंत मूल्यों की पहचान हैं. हमारी अर्थव्यवस्था की नब्ज है. मेले की स्थिति से हमारी पूरी सभ्यता के स्वास्थ का पता चल जाता है. यह खेती, किसानी और लोक जीवन का बैरोमीटर है. हमारे देशज ज्ञान का मूल है. उन संस्कृतियों के जीवन दृष्टियों के फैलाव का केंद्र है. 

यह दृष्टि न जाने कितने हजार वर्षों में विकसित हुई है. जिसने देश दुनिया को अपनी ओर खींचा है. जिस परंपरा और विश्वास को राजे-रजवाड़ों ने तक नहीं छेड़ा, अंग्रेजों के काल में, भले ही उन्होंने हिंदुस्तान के जीवन को नियंत्रित किया हो किंतु पुष्कर मेले पर उन्होंने भी कभी आंख नहीं उठाई. 

राजस्थान के रहने वाले प्रख्यात लोक कलाविद हरी शंकर बालोतीया, जिनकी उम्र अब 80 वर्ष है, कहते हैं, "पुष्कर का खास महत्व है क्योंकि यह हमारे व्यापारिक मार्ग का मुख्य केंद्र हुआ करता था. यहां से कैमल कैरवान या ऊंटों का कारवां गुजरा करता था. वे जैसलमेर-बाड़मेर होते हुए आगे सिंध और मुल्तान से काबुल अफगानिस्तान तथा ईरान तक जाया करते थे." वह आगे बताते हैं कि पुष्कर हमे विविध जीवन दृष्टि देती है, वह कई सोच का समूह है. यह अपने आप में एक संस्थान है, जिसमें एक तरफ विश्वास है, तो दूसरी तरफ उनसे जुड़ी परंपरा. इसके ऊपर के माले पर सामासिक संस्कृति और आजीविका विचरण करती हैं. जिनका केंद्र बिंदु हमारे जीवन के अलग-अलग नजरिए हैं. किंतु हमारे नीति निर्माताओं को यह बात समझ नहीं आती. उनके लिए पुष्कर महज पवित्र स्नान का स्थान मात्र है. इसलिए ऊंटों के बैठने के स्थान पर हेलीपैड बना दिया गया है.

पुष्कर मेले की परंपरा बहुत खास है. मेले की शुरुआत शोभा यात्रा से होती थी. शोभा यात्रा का संदेश रणभेरी बजा कर दिया जाता था. रात में ही ऊंटों का शृंगार कर दिया जाता. रणभेरी के साथ ऊंटों पर नगाड़ा आता था. 

हजारों की संख्या में सजे-धजे ऊंट चलते थे. उनके साथ रायका रेबारी, देवासी बख्तरी, धोती और सर पर रंग बिरंगे साफे बांधकर चलते. पीछे-पीछे राजपूत लोग उनके साथ भोपा, कालबेलिया, बजारे इत्यादि छत्तीस कौम चलती थी. 

एक तरफ नट रस्सी पर अपनी कलाबाजियां दिखाते, दूसरी तरफ भोपा रावण हत्था पर रात में फड़ बाचता था. सैकड़ों की संख्या में कालबेलिया लोग बीन पर सदाबहार लहरा बजाते थे. मेले के दौरान घुमंतू समाजों के अलग-अलग इवेंट आयोजित किए जाते थे. ऊंटों, घोड़ों एवं गधों के कार्यक्रम होते थे. उनके शृंगार की प्रतियोगिता से लेकर उनके नाचने, उनकी दौड़ होती. उनके बाल कतरने की प्रतियोगिता होतीं. 

पुष्कर मेला हमें दिखाता है कि जीवन के कितने तरह के नजरिए हो सकते हैं. कितने तरह के समाज वहां इकट्ठा होते थे. सब की बोली, भाषा अलग, पहनावा अलग, खानपान अलग, रहन-सहन अलग, रीति-रिवाज अलग, पशु अलग, कला हुनर अलग, गीत संगीत अलग. 

अब वे लोग कहां जाए? किसको अपनी पीड़ा बताएं? उनके ऊंट कहां बिकेंगे? उनकी बेटी की शादी का क्या होगा? इसके साथ जो सभी घुमंतू समुदायों की बारह वाली पंचायत होती थी उसका क्या होगा? साल भर के उनके जो विवाद रहते थे उनका समाधान कैसे होगा? 

राजस्थान के प्रसिद्ध कलाविद और ऊंट पालक अशोक टाक बताते हैं कि, "आने वाले दो चार-साल में पुष्कर से ऊंट गायब हो जाएंगे. पर्यटन विभाग, राजस्थान सरकार ने अपने बैनर, फ्लेक्स और बोर्ड पर फोटों तो ऊंटों की लगाई है लेकिन उन पर ही मेले में आने की रोक है. जिला पुलिस देखते ही डंडा बरसा रही है. यह कैसा मजाक है?" 

मीडिया की स्थिति पर भी वह खेद प्रकट करते हैं. अशोक टाक का कहना है कि, "आज के समय में मीडिया भले ही वह इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट सरकार के नैरेटिव को ही आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही है. हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, यहां तक की डीएनए को उठा कर देखिए क्या लिखा है उनमें, जिसको ऊंट मेला देखना है, घोड़ों की प्रतियोगिता देखनी है वह पुष्कर मेले में जाएं. अरे भई, जब पुष्कर में पशु लाने पर ही रोक है. बाहर के लोग सांस्कृतिक कार्यक्रम कर रहे हैं. तो आप यह झूठ फैलाने की कंपनी क्यों बन रहे हैं." 

बात केवल पशुचारकों या कलाकारों तक सीमित नहीं है बल्कि पुष्कर आने वाले देशी-विदेशी पर्यटक से लेकर यहां के स्थानीय दुकानदार, ठेले वाले, संस्कृति और इतिहास को जानने समझने वाले और शोधार्थी सभी इस बात से हताशा और क्षोभ से भरे हुए थे. जो मेला घुमंतू समुदायों का सहज मेला था जिसका प्रबंधन भी इन्हीं समुदायों के पास था, आखिर उसके साथ ऐसा क्यों? 

पिछले 19 वर्षों से घुमंतू समुदायों के साथ कार्य कर रहे अजमेर के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता रॉय डेनियल हमें बताते हैं कि, "पहले से ही रोजगार नहीं है. दो साल कोविड से सब बंद था. उससे पहले इवेंट कंपनी ने सब बर्बाद कर दिया. मेले में स्टॉल लगाने का चार्ज 15000 रुपया रखा गया था." वह आगे बताते हैं कि, "यह मेला तो घुमंतू समुदायों का था. यहां वह अपने हस्त कार्य का काम अपना हुनर दिखाते थे. बिनजारी गोदना बनाती. कालबेलिया सुरमा बनाता. मदारी अपने खलीची शीलता. रायका रबारी उसकी झाल उसका गोरबंद उसकी झालर बनाते हैं. अब इसके लिए भी 15000 का किराया देना पड़ेगा. अब तंबू डेरे वालों के पास कहां से मिलेगा? तो वे अपने आप ही इस मेले की परंपरा से बाहर हो गए." 

वह कहते हैं, "यह सारी उठा-पटक इवेंट कंपनी ई-फैक्टर को दुबारा से टेंडर देने के लिए है. कंपनी का पांच वर्ष का टेंडर पूरा हो चुका है. अब उसे फिर से लाना है तो यह सब करना पड़ेगा. जबकि इस कंपनी ने जिला प्रशासन और नेताओं के साथ मिल कर इस पुष्कर को बिलकुल समाप्त कर दिया. आने वाली पीढ़ियां इस खेल को समझेंगी." 

हम जानते हैं कि रेगिस्तान में जीवन चुनौतियों भरा हुआ है. यहां जिंदा रहने के लिए घुमक्कड़ जीवन शैली और रेगिस्तान की कठिन परिस्थितियों से मुकाबला करने का आधार पशुपालन को बनाया है. यह पशुपालन गाय और भैंस का नहीं हैं बल्कि भेड़ बकरी और ऊंट का रहा है. जो यहां की मिट्टी और जलवायु के लिहाज से बेहतर है. 

रेगिस्तान में रहने वाले हर परिवार के पास दो-चार ऊंटनी और चार-पांच भेड़-बकरियां अवश्य मिलेंगी. जो इनकी तत्काल नकदी व पोषण की आवश्यकता को पूरा करती है. साथ में शेष समुदाय से जुगलबंदी बनाती है. 

जब कभी इन लोगों को नकदी की जरूरत होती है तो वे ऊंट के बच्चे को या भेड़-बकरी के बच्चे को बेच देते हैं. और उनके दूध से अपने परिवार के चाय-पानी और पोषण की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं. 

इन्होंने यहां के भूगोल व पारिस्थितिकी से अपना एक संबंध विकसित किया है. स्थानीय लोगों के खेतों में अपनी भेड़ बकरी और ऊंट को बिठाने से लेकर. यहां से जो विभिन्न तरह की जड़ी बूटियां है जैसे की गरमुंडा है अरंडी है इसके बीजों को पीसकर के पशुओं को फांकी देने का काम करते रहे हैं. 

रेगिस्तान के कुछ महीनों में जब कुछ भी खाने पीने के लिए नहीं रहता है. तब ये लोग अपने रेवड़ लेकर चरवाहों की तलाश में दूसरे क्षेत्रों की तरफ चले जाते हैं और बारिश होने के समय लौटते हैं. 

देवासी समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष और ऊंट पालक सुखदेव देवासी कुछ अन्य बिंदुओं की तरफ हमारा ध्यान दिलाते हैं. वह कहते हैं कि, "हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि ऊंट पालन सभी करते हैं लेकिन ऊंटों की ब्रीडिंग कराने के लिए केवल रायका रेबारी समुदाय ही है. ऊंटनी के बच्चा 12 महीने में होता है. उसके बाद वह एक वर्ष तक उसके साथ घूमता है. उसके बच्चे को दूसरे साल में बेचा जाता है. उसके लिए यह मेले ही हैं, आए दिन ऊंट नहीं बिकते." 

सुखदेव हमें आगे बताते हैं कि, "हमारे लिए सबसे प्रसिद्ध मेला पुष्कर का मेला रहा, फिर पाटन का मेला उसके बाद चैत्रि का मेला रहा. इन मेलों का प्रबंधन उनकी समस्त कार्यप्रणाली से लेकर व्यवस्थाएं ये समुदाय खुद अपने आप करते थे. समय बीतने के साथ-साथ समितियां बनाई गई जो मेला करवाती." वह आगे कहते हैं, "किंतु पिछले कुछ वर्षों से लगातार इन मेलों को समाप्त किया जा रहा है, खासकर विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेले को. अबकी बार घोषणा हुई कि मेला नहीं होगा. यह केवल इस वर्ष की बात नहीं है पहले कोविड-19 था. उससे पहले मेला को ई-फैक्टर को दे दिया गया जिसने मेले से घुमंतू समुदायों के सारे इवेंट ही समाप्त कर दिए. जहां पर ऊंट बैठते हैं उस जगह को पक्की कर दिया. जंगल की बाड़ाबंदी कर दी गई यानी लगातार पिछले कुछ वर्षों से इस मेले को समाप्त करने की दिशा में हम बढ़ रहे हैं." 

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने मेले की शुरुआत में सवा लाख दिए जलाए हैं. क्या इससे मेले की सारी उम्मीदें उससे जुड़ी लोगों की अकांशाए पूरी हो गई? क्या इससे अर्थव्यवस्था में जो रोजगार पैदा होता था, पर्यटन से जो आजीविका मिलती थी वह हासिल हुई? 

इन सवालों का हल तलाशने के लिए हमें पर्यटन विभाग और पशु विभाग के सरकारी आंकड़ों पर नजर डालनी पड़ेगी. सरकारी आंकड़ों की माने तो वर्ष 2001 में पुष्कर मेले में 15460 ऊंट खरीदे और बेचे गए थे. वहीं 2011 में 8200 ऊंट खरीदे और बेचे गए थे. 2019 तक आते-आते यह आंकड़ा 4717 ऊंट पर सिमट गया. पिछले साल 2021 में महज 2340 ऊंट ही थे. वही घोड़ों की बात की जाए तो पिछले साल 2281 घोड़े बिके थे. 

एक ऊंट की कीमत 20000 रुपए से लेकर के 50000 रुपए तक की होती है. वर्ष 2019 में 4 करोड़ रुपए उंटों की खरीद-फरोख्त से कमाए गए थे. 2001 में यह आंकड़ा 10 करोड़ से ऊपर था. इसमें केवल ऊंटों की खरीद-फरोख्त शामिल है. घोड़ों की कीमत इससे दोगुनी है. एक गधे की कीमत 20000 से लेकर 30000 रुपए है. मेले में भैंस भी आती हैं, किंतु गाय नहीं आती हैं. 

एक घोड़े की कीमत 20000 रुपए से लेकर एक लाख रुपए तक होती है. कुछ खास किस्म के घोड़े डेढ़ लाख रुपए तक बिकते हैं. यहां राजस्थान के साथ-साथ हरियाणा और पंजाब से घोड़े आते हैं. इनको खरीदने के लिए गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार तक से व्यापारी लोग आते हैं. 

इसके साथ ही यदि कोई कृषक या स्थानीय व्यक्ति अपना ऊंट भैंस या गधा लेकर आता है और बदले में यहां से दूसरा ऊंट, भैंस या गधा लेकर जाता है तो इसे आटा-साटा कहते हैं इसमें उससे मूल रकम से आधी रकम देनी होती है अर्थात 20000 का ऊंट है तो उसे 10000 में वह मिल जाता है. इससे उस व्यक्ति की खेती किसानी की लागत कम हो जाती है. आटा-साटा के कार्य को मूल बजट में शामिल नहीं किया जाता क्योंकि नेट रिजल्ट जीरो रहता है. जो व्यक्ति जितना पशु लाया वह उतने ही वापस ले गया. 

पुष्कर मेले को देखने के लिए देश-विदेश से पर्यटक आते हैं. जिससे हमारा विदेशी मुद्रा भंडार निरंतर बढ़ता जाता है. साथ ही स्थानीय हस्तशिल्प, स्थानीय ठेला वाला, होटल वालों को रोजगार मिलता है. हर दिन लाखों लोग मेले में पहुंचते हैं. 

सरकारी आंकड़ों की माने तो 2018 में 12800 विदेशी पर्यटक पुष्कर आए थे. इस वर्ष पर्यटक हताश रहे हैं. देश-दुनिया से लोग इस पशु मेले और घुमंतू समुदायों को देखने के लिए आते हैं. उनके कार्यक्रम देखना सुनना चाहते हैं, वे यह नहीं देखना चाहते कि वे लोग साफा बांध कर कैसे लगेंगे बल्कि वे यह देखना चाहते हैं कि जब घुमंतू लोग साफा बांधते हैं तो कैसे दिखते हैं. 

फ्रांस से आए एंथोनी ओकाईची उन्हीं में से एक थे. वह भारतीय प्रबंध संस्थान बेंगलूर में अर्थशास्त्र में अपना शोध कार्य कर रहे हैं. पुष्कर मेले के बारे में उन्होंने बहुत पढ़ा था, सुना था. अब वह भारत में रह रहे हैं तो यहां आना उनकी प्राथमिकता थी. किंतु वह हताश थे. एंथोनी ने मुझसे कहा, "ऐसा सभी देशों की सरकारों का फिनोमिना है. विविधता को समाप्त करके एकरूपता लाना और आत्मनिर्भरता के बजाए दूसरों पर निर्भर बनाना चाहते हैं. मैं जिप्सी लोगों को देखने आया किंतु उनके स्थान पर बड़ी दुकाने मिलीं." 

पूरे हिंदुस्तान में पुष्कर वह स्थान है जहां पर घुमंतू समुदायों की सबसे पुरानी और ऐतिहासिक पंचायत बारहवाली पंचायत आयोजित होती है. इसमें उनके मुद्दे, उनकी समस्याएं उनकी लड़ाई झगड़े का समाधान किया जाता है. 

अब वर्ष भर घूमने वाले घुमंतू समुदाय के लोग कहां मिलेंगे, उनकी शादी विवाह कहां होगी? उनके झगड़ों का निपटारा कहां होगा? पुष्कर वह प्वाइंट था जहां पर घुमंतू समाज के लोग मिलते, अपना दुख दर्द साझा करते. यहां पर नट, भाट, भोपा, कालबेलिया, बंजारा, गाडिया लोहार, बावरिया, रायका रबारी,  दंडचगा, बैदु, शिलाजीत वाले कंजर, कलंदर, मदारी जैसे सैकड़ों की संख्या में घुमंतू समुदाय के लोग इकट्ठा होते हैं. 

पुष्कर में सभी घुमंतू समाज अपने अपने खास नस्ल के पशुओं के साथ आते हैं जैसे कि बंजारा अपने खास नस्ल के गधे लेकर आता. रायका रेबारी अपने ऊंट लेकर के आते. कलंदर अपने भालू लेकर आते. मदारी अपने बंदरों के साथ आते. ओढ़ लोग अपने साथ खास नस्ल के खच्चर लाते. इन खास नस्ल के पशुओं को लेने के लिए दूर-दूर से कितने ही व्यापारी और कितने स्थानीय लोग यहां आते हैं. उनको अच्छी नस्ल के पशु सस्ते दामों पर मिलते हैं. 

अपने तंबू के आगे जमा बहुरूपिया समुदाय की महिलाएं और बच्चे. फोटो सौजन्य : अश्वनी शर्मा

पुष्कर वह स्थान है जहां पर घुमंतु समुदाय न केवल शेष समुदायों को अपने ज्ञान और जीवन संस्कृति से परिचय करवाते हैं बल्कि उस ज्ञान को अन्य समुदायों से साझा करते हैं अपनी अगली पीढ़ी में उसे ट्रांसफर करते हैं. 

पुष्कर में मध्य प्रदेश से आया बैदू समुदाय, शिलाजीत वाले गुजरात के हैं और गोंद चित्तौड़िया जो राजस्थान के हैं. ये तीनों समाज ही जड़ी-बूटी के काम से जुड़े हैं. तीनों के अपने अलग-अलग तरह के नुस्खे हैं. अलग-अलग तरह की बीमारियों के इलाज के अपने दावे हैं. तीनों एक जगह बैठते हैं. तीनों एक जगह पर मिलते हैं तो वे अपनी उस संस्कृति के साथ में अपने उस ज्ञान को भी साझा करते हैं. 

हम भूल जाते हैं कि समाज के इन्हीं रंग-बिरंगे लोगों को देखने और इस बहुरंगी संस्कृति को जानने समझने के लिए देश-विदेश से पर्यटक लोग पुष्कर आते हैं. यही हमारी सॉफ्ट पावर है. 

सवाल है कि हम ऐसा क्यों कर रहे हैं. एक तरफ देशज ज्ञान की बात कर रहे हैं. नई शिक्षा नीति तक में इसको बढ़ाने पर जोर है. 

साथ ही, केंद्र सरकार ने भारत के पारंपरिक शिल्प, व्यंजन और संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए "हुनर हाट पहल" की शुरुआत की है. केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के पूर्व मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने 12 दिसंबर 2021 को गुजरात में आयोजित होने वाले हुनर हाट सम्मेलन से ठीक पहले कहा था कि उनकी सरकार ने पिछले पांच वर्षों में ‘2016- 2021 के बीच हुनर हाट के जरिए सात लाख से अधिक कारीगरों और शिल्पकारों को रोजगार दिया है. उन्होंने कहा था कि सरकार का लक्ष्य अगले दो साल (2023 तक) में इस पहल के जरिए 17 लाख लोगों को रोजगार देने का है. इससे पहले उतर प्रदेश के रामपुर में "हुनर हाट" की एक श्रृंखला के तहत 16 से 25 अक्टूबर 2021 तक "हुनर हाट" का आयोजन किया गया. यह आयोजन भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में "आजादी का अमृत महोत्सव" के तहत देश भर में आयोजित होने वाले 75 हुनर हाट में से एक था. 

इस आयोजन में बड़े उद्योग एवं सार्वजनिक उपक्रम मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने अपने संबोधन में कहा था, "भगवान ने हुनर हाट के कारीगरों और शिल्पकारों के हाथों में कला और कौशल दिया है. हुनर हाट प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के "आत्मनिर्भर भारत" और "वोकल फॉर लोकल" के अभियान को मजबूत करने के लिए सबसे सुंदर मंच है. रामपुर में "हुनर हाट" "आत्मनिर्भर भारत" अभियान को आगे बढ़ाने में मील का पत्थर साबित होगा." 

उस समय समारोह को संबोधित करते हुए मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा था कि "हुनर हाट" प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के "स्वदेशी-स्वावलंबन" और "वोकल फॉर लोकल" के आह्वान को मजबूत करने और पारंपरिक कारीगरों और शिल्पकारों के स्वदेशी उत्पादों को बाजार उपलब्ध कराने के लिए एक "विश्वसनीय मंच" बन गया है. इससे पहले केंद्र सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने हुनर से रोजगार हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था की है. 

पुष्कर मेला नई शिक्षा नीति की आत्मा से एकदम उल्ट है. ये सब कार्यक्रम महज दिखावा बन कर रह जाएंगे जब हम पुष्कर जैसे असल मंचो से हुनर, देशज ज्ञान, कला, संस्कृति और परंपरा को गायब कर देंगे. राजस्थान के मामले में जवाब मुख्यमंत्री गहलोत को देना होगा. भारत कोई भूगोल मात्र नहीं हैं कि अलग-अलग राज्यों के भूगोल के आधार पर इसकी संस्कृति को भी बांट दे. अलग-अलग सरकारों के आधार पर इसकी परंपरा को बांट दें. 

हमें समझना होगा कि भारत मेटाफर है. यह मेटाफर सरकारों ने नहीं बुना, हमारी सामूहिक स्मृतियों ने बुना है. सरकारें रहे न रहें, ये मेटाफर रहेगा. हुनर से रोजगार की बात है जबकि जो समाज उस देशज ज्ञान को जी रहे हैं. जो अपने हुनर से रोजगार पाते हैं. जिनके कार्यों में गजब की बरकत है. जो हमारी हजारों वर्ष पुरानी परंपरा का आधार हैं. 

एक तरफ हम भारत की संस्कृति उसकी सभ्यता का देश विदेश में डंका पीट रहे हैं. यहां ऊंट पालकों पर लाठी चार्ज करके उनको मेले मैदान से खदेड़ रहे हैं. क्या देश-विदेश में हमारी संस्कृति की ओर इस मेले की यही पहचान बनाएगी? 

हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या छोड़कर जाना चाहते हैं, उनको किस तरीके का हिंदुस्तान देना चाहते हैं? क्या हम उनको शर्मिंदा होने का अवसर देना चाहते हैं या पुष्कर को वैसा ही सौंपना चाहते हैं जैसा हमें हमारे पुरखों से मिला था?


अश्वनी शर्मा स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट हैं और घुमंतू समुदायों के साथ काम करने वाली सामाजिक संस्था नई दिशाएं के संयोजक हैं और हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय में पीएचडी हेतु रामचंद्र गुहा और शेखर पाठक के रेफरल स्टूडेंट हैं.