दिल्ली विश्वविद्यालय के एडहॉक शिक्षक पिछले कई दिनों से नियमितीकरण की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में ऐसे शिक्षकों की भारी संख्या है जो दशकों से एडहॉक के तौर पर सेवारत हैं लेकिन उन्हें स्थाई नहीं किया गया है. किरोड़ीमल कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर राजीब रे वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष हैं. वह फेडरेशन ऑफ सेंट्रल यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं. स्वतंत्र पत्रकार, श्रीराग पीएस के ने, राजीब रे से डूटा के आंदोलन पर बातचीत की.
श्रीराग पीएस : दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों के विरोध के पीछे क्या कारण है?
राजीब रे : मैं कहां शुरू करूं. मैं इसकी महाभारत नहीं सुनाना चाहता. दिल्ली विश्वविद्यालय में एडहॉक शिक्षकों की व्यवस्था पुराने समय से चल रही है. इसकी शुरुआत 1970 के दशक के आखिर और 1980 के दशक के आरंभ में हुई. लेकिन उस वक्त ऐसे शिक्षकों की संख्या बहुत कम थी. एडहॉक शिक्षकों की सबसे ज्यादा भर्ती 1989 और 1993 में नेट के मामले के समय में हुई. 2005 में फिर ऐसा ही हुआ जब स्थाई पदों में 10 से 15 प्रतिशत की भारी कमी की गई. इन पदों को भरा नहीं जाना था. अब हम फिर बहुत ज्यादा हैं. आज लगभग चार से साढ़े चार हजार एडहॉक टीचर हैं. पिछले लगभग चार महीनों में, खासकर दिल्ली विश्वविद्यालय में कोई इंटरव्यू नहीं हुआ है.
28 अगस्त को विश्वविद्यालय ने पत्र जारी कर कहा कि इस साल के बाद सभी पदों को गेस्ट फेक्लटी से भरा जाएगा. सितंबर, अक्टूबर और नवंबर में हमने हर कहीं पत्र लिखा. मैं केंद्रीय विश्वविद्यालय शिक्षक संगठनों के परिसंघ (एफसीयूटीए) का अध्यक्ष भी हूं. हमने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से इस मामले में दखल देने का अनुरोध किया. दिल्ली विश्वविद्यालय प्रधानाचार्य संगठन ने कहा कि जब तक विश्वविद्यालय स्पष्टीकरण नहीं देता तब तक हम एडहॉक शिक्षकों की नियुक्ति को एक्सटेंड नहीं कर सकते.
ऐसी स्थिति में हम अनिश्चितकालीन प्रदर्शन करने लगे जिसमें इनविजीलेशन और मूल्यांकन और अन्य चीजें शामिल हैं. पहले दिन के कार्यक्रम में हमने उपकुलपति के कार्यालय का घेराव किया. मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने औपचारिक रूप से हमसे मुलाकात की और दूसरे दिन कुछ स्पष्टीकरण भी दिए. एक प्रकार से अस्थाई राहत दी गई. यह अस्थाई राहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के पदों और द्वितीय स्तर के पदों के लिए थी. इन सब में स्पष्टीकरण की जरूरत होती है. लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कुछ स्वागतयोग्य कदम भी उठाए.
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