29 फरवरी 2012 की सुबह हिंडालको इंडस्ट्रीज लिमिटेड के पॉवर डिवीजन रेणुसागर, सोनभद्र की पूर्व अध्यापिका सुधा पांडेय रसोई में चाय बना रही थीं जब उनके पति विष्णुदत्त पांडेय ने घर के बरामदे से आवाज दी और कहा कि “देखिए, अखबार में आपकी थीसिस के विषय में क्या छपा है?” उस दिन पहली बार पांडेय ने दैनिक जागरण में अपनी थीसिस के चोरी होने की खबर पढ़ी. 59 वर्षीय सुधा पांडेय ने मुझे बताया, “खबर पढ़ते ही जैसे मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई.” वह बताती हैं, “इतनी मेहनत से मैंने थीसिस लिखी थी. हमने जो संघर्ष किया था सब याद आने लगा."
जागरण की उस खबर के मुताबिक संपूर्णानंद विश्वविद्यालय के विक्रय अधिकारी पद्माकर मिश्र ने तत्कालीन कुलपति बिंदा प्रसाद मिश्र से लिखित शिकायत में आरोप लगाया था कि विश्वविद्यालय के तुलनात्मक धर्म दर्शन के उपाचार्य (रीडर) “डॉ. रजनीश कुमार शुक्ल ने बीएचयू की डॉ. सुधा पांडेय के शोध प्रबंध की नकल करके पीएचडी हासिल की है.” मिश्र ने आरोप में कहा था, “डॉ. शुक्ल के शोध प्रबंध में डॉ. पांडेय के शोध प्रबंध की अक्षरशः कॉपी की गई है.”
पांडेय ने याद करते हुए मुझे बताया, "हमारे गाइड ने बहुत पहले आगाह किया था कि तुम्हारा हिंदी में पहला और इतना अच्छा काम है यदि तुमने पब्लिश नहीं कराया तो कोई चुरा सकता है.” उन्होंने कहा कि तब परिस्थिति बहुत अच्छी नहीं थी कि वह अपनी थीसिस को पुस्तक के रूप में पब्लिश करा पातीं. वह बताती हैं, “हमें तब और ज्यादा बुरा लगा जब पता चला कि हमारी मेहनत से लिखी थीसिस को चुरा कर रजनीश कुमार शुक्ल ने भुना लिया, उसी के लिए उन्हें पुरस्कार भी मिला.”
फिलहाल शुक्ल केंद्रीय विश्वविद्यालय महात्मा गांधी आंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं. वह कुलपति होने के साथ-साथ उच्च शिक्षण संस्थानों की कई मुख्य समितियों में निर्णायक सदस्य की भूमिका में शामिल हैं. वह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), गुजरात विश्वविद्यालय और हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के कार्यपरिषद सदस्य हैं.
शुक्ल पर थीसिस चोरी के आरोप की जड़ें बड़ी दूर तक जाती हैं. इस मामले में शुरू से अंत तक आरोप को निराधार साबित करने में प्रमुख पदों पर आसीन कई लोगों की संलिप्तता नजर आती है.
पांडेय के मुझे बताया कि खबर पढ़ने के बाद जब उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में मौजूद दोनों थीसिस का मिलान किया तो पाया कि शुक्ल ने उनकी थीसिस से नकल कर हू-ब-हू एक दूसरी थीसिस अपने नाम से तैयार कर उसके आधार पर पीएचडी की डिग्री हासिल की है. शुक्ल अपनी थीसिस को 2001 में काण्ट का सौंदर्यशाश्त्र शीर्षक से पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवा चुके थे. जबकि पांडेय ने, जिनकी पीएचडी की थीसिस 1991 की है, पारिवारिक और स्वास्थ्य कारणों से अपनी थीसिस को काफी विलंब के बाद काण्टीय सौंदर्य मीमांसा नामक पुस्तक के रूप में 2014 में प्रकाशित करवाया.
पांडेय ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के दर्शन एवं धर्म विभाग कला संकाय में "काण्ट के सौंदर्यशास्त्र विषयक विचारों का अध्ययन" विषय पर शोध कर 1991 में पीएचडी डिग्री (पंजीयन-147630) प्राप्त की थी. काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के दर्शन एवं धर्म विभाग, कला संकाय से ही शुक्ल ने पांडेय से चार साल बाद "काण्ट का सौंदर्यशास्त्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन" विषय पर थीसिस (पंजीयन-222899) जमाकर 1995 में पीएचडी डिग्री हासिल की. पांडेय के अनुसार रजनीश कुमार शुक्ल ने शीर्षक में हेर-फेर कर उनके ही शोध का अधिकांश हिस्सा नकल कर पीएचडी डिग्री हासिल की है. पांडेय के अनुसार, “शुक्ल ने अपनी थीसिस में उनके शोध से लगभग 80 फीसदी हिस्सा ज्यों का त्यों उतार दिया है और 20 फीसदी पूर्ति के लिए व थीसिस में पृष्ठ संख्या बढ़ाने के लिए अन्य पुस्तकों से छाप दिया है.”
पांडेय ने पिछले आठ सालों से संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से लेकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय तक का चक्कर लगाया लेकिन उन्हें न्याय नहीं मिला. पांडेय का आरोप है कि वर्तमान भारतीय जनता पार्टी की सरकार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शुक्ल का ओहदा बड़ा होने कारण उनके द्वारा शक्ति का दुरुपयोग कर किसी भी जांच को संपन्न नहीं होने दिया गया.
पद्माकर मिश्र द्वारा लगाए गए आरोप के बाद संपूर्णानंद संस्कृत विश्नविद्यालय के तत्कालीन कुलपति बिंदा प्रसाद मिश्र के कार्यकाल में विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद ने थीसिस की जांच समिति के लिए 2013 में दो सदस्यों को चुना, जिसमें गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति बी. एम. शुक्ल और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के प्रोफेसर उमेश चंद्र दूबे शामिल थे. लेकिन दोनों ने असमर्थता व्यक्त करते हुए समिति से खुद को अलग कर लिया. संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद द्वारा जांच समिति के सदस्य बी. एम. शुक्ल के असमर्थता व्यक्त करने के कारण कार्यपरिषद ने दिनांक 25 अक्टूबर 2013 में हुई अपनी बैठक में बी. एम. शुक्ल के स्थान पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के प्रोफेसर जटाशंकर को जांच समिति का सदस्य नामित किया.
वहीं दूसरे सदस्य उमेश चंद्र दूबे की जांच समिति में नियुक्ति कार्यपरिषद की बैठक 20 जुलाई 2013 को हुई थी. (संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय द्वारा सुधा पांडेय की आरटीआई के जवाब में 23 नवंबर 2019 को बताया गया है.) उमेश चंद्र के असमर्थता व्यक्त करने के कारण उनके स्थान पर महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के संस्कृत विभाग के प्रोफेसर श्रीनिवास ओझा की नियुक्ति बगैर कार्यपरिषद की बैठक के तत्कालीन कुलपति पृथ्वीश नाग ने की. ओझा द्वारा की गई संस्तुति पत्र में, जिसमें वह प्राप्त पत्रांक की तिथि 3 सितंबर 2014 का जिक्र करते हैं, पता चलता है कि उस दौरान कुलपति पद पर पृथ्वीश नाग थे. जबकि प्रावधान यह है कि जांच समिति में किसी सदस्य की नियुक्ति कुलपति नहीं बल्कि कार्यपरिषद की बैठक में होनी चाहिए.
नाग अतिरिक्त कार्यकाल पर तीन महीने के लिए तब आए जब तत्कालीन कुलपति बिंदा प्रसाद मिश्र को दो डिग्री हासिल करने के संबंध में हुई गड़बड़ी के चलते अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और शिक्षक संघ द्वारा अस्थिरता की स्थिति पैदा करने के बाद कार्यकाल पूरा करने से एक दिन पूर्व राज्यपाल द्वारा 30 जुलाई 2014 को निलंबित कर दिया गया. इस दौरान रजनीश कुमार शुक्ल अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य थे. इसके अलावा तत्कालीन कुलपति बिंदा प्रसाद मिश्र के कार्यकाल में ही जुलाई 2013 में शुक्ल पर थीसिस के नकल के आरोप के संबंध में कार्यपरिषद के अंतर्गत जांच समिति का गठन हो चुका था. तत्कालीन कुलपति बिंदा प्रसाद मिश्र के कार्यकाल में कई घटनाओं का सीधा संबंध शुक्ल से तो नहीं जुड़ता लेकिन इनका जिक्र किए बिना कुलपति बिंदा प्रसाद के निलंबन की बात पूरी नहीं होती.
तत्कालीन कुलपति बिंदा प्रसाद ने तत्कालीन राज्यपाल को पत्र लिख कर तत्कालीन कुलसचिव बी. राम को अनियमितता के चलते निलंबित कर दिया और रजनीश कुमार शुक्ल को मार्च-2011 में कार्यकारी कुलसचिव का कार्यभार सौंप दिया था लेकिन कम समय में ही पद का दुरुपयोग कर धांधली करने के कारण कुलपति बिंदा प्रसाद ने रजनीश कुमार शुक्ल पर थीसिस चोरी के आरोप के दो वर्ष पूर्व दिसंबर 2011 में पत्रकारों के सम्मुख इस्तीफा मांग लिया था. इसके अलावा 9 अप्रैल 2012 को तत्कालीन कुलपति बिंदा प्रसाद मिश्र ने अपने खाने में जहर मिलाने की आशंका भी जाहिर की थी.
जिस कुलसचिव पद का दुरपयोग कर धांधली करने के कारण तत्कालीन कुलपति मिश्र ने शुक्ल को पद से हटाया था उसकी पुष्टि इस विश्वविद्यालय में अनियमितताओं की जांच के लिए गठित एक विशेष जांच टीम (एसआईटी) की रिपोर्ट से भी होती है. 1 मार्च 2021 को उत्तर प्रदेश के विशेष सचिव मनोज कुमार ने संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलसचिव को पत्र लिख कर विश्वविद्यलाय द्वारा अभिलेखों के सत्यापन में की जा रही अनियमितताओं की जांच के लिए गठित विशेष जांच टीम (एसआईटी) की सिफारिश पर उक्त विश्वविद्यालय से फर्जी डिग्री जारी होने के मामले में 19 लोगों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का निर्देश दिया है. जिन 19 लोगों पर कार्रवाई करने की बात पत्र में है उनमें हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति रजनीश कुमार शुक्ल का भी नाम है.
यदि तत्कालीन कुलपति बिंदा प्रसाद द्वारा रजनीश कुमार शुक्ल से इस्तीफा लेने और उन्हें जहर देने की शिकायत के बीच का समय देखा जाए तो यह दोनों घटनाएं लगभग चार महीने की अवधि के भीतर घटी हैं. दिनांक 29 फरवरी 2012 को दैनिक जागरण के वाराणसी संस्करण में एक खबर प्रकाशित हुई कि कुलपति बिंदा प्रसाद मिश्र रजनीश कुमार शुक्ल पर लगे आरोपों की जांच कराएंगे. इस खबर के प्रकाशन के दो माह बाद कुलपति बिंदा प्रसाद ने दूध में जहर देने की शिकायत दर्ज कराई थी.
सिलसिलेवार घटनाओं के संबंध में मैंने तत्कालीन कुलपति बिंदा प्रसाद मिश्र से बात की. बिंदा प्रसाद अपने कार्यकाल को संघर्षपूर्ण और कार्यकाल से एक दिन पूर्व हुए निलंबन को एक साजिश बताते हैं. वह बताते हैं कि उन्हें फंसाने के लिए उनकी गैरमौजूदगी में संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से ढेर सारे जरूरी कागजात गायब किए गए और उनके कार्यकाल के दौरान लगातार अस्थिरता पैदा करने की कोशिश होती रही. प्रसाद के अनुसार अस्थिरता के हालात पैदा करने में शुक्ल शुरू से ही शामिल थे. बिंदा प्रसाद बताते हैं, “कुलपति के कार्यकाल के दौरान मुझे दूध में जहर मिलाकर देने की कोशिश हुई. दूध उबालने के बाद काला पड़ गया. मुझे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी हुईं. मैंने तत्काल पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, पुलिस ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि दूध पीने योग्य नहीं है.” हालांकि बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि हो सकता है पुलिस की इस जांच रिपोर्ट को भी प्रभावित किया गया हो.
बिंदा प्रसाद निलंबन को साजिश बताते हुए कहते हैं कि तत्कालीन राज्यपाल राम नाईक पर दबाव बनाकर उनसे मेरे ऊपर कार्यवाई कराई गई. “निलंबन के बाद मुझसे जबाब देने को कहा गया, मेरे जबाब देने के बाद राज्यपाल ने लिखित में कहा कि आरोप के संबंध में जांच की आवश्यकता नहीं है.” वह कहते हैं, “शुक्ल की पूरी थीसिस नकल की है और उन्हें बचाने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की महती भूमिका है. यदि निष्पक्षता से जांच हो तो इसमें शामिल एक बड़े रैकेट का पर्दाफाश हो सकता है.”
पांडेय ने थीसिस लिखने के कठिन समय को याद करते हुए मुझे बताया, "बड़ा बेटा पैदा हो गया था. घर में कमाई का कोई जरिया नहीं था. पति 1987 में जेआरएफ हो गए थे. उन्हें फेलोशिप का जो पैसा मिलता था उसी के सहारे मैंने भी अपनी पीएचडी पूरी की. मैंने अपनी थीसिस 1991 में जमा की. मैं 2 फरवरी 1992 में नौकरी करने लगी. 1992 के दिसंबर महीने में फिसल कर गिर गई थी. मेरे पैर और कमर में गहरी चोट आई थी. तब मेरा वेतन 1750 रुपए था. उसी से परिवार का पालन-पोषण होता था. मैंने सन 2000 तक घर को संभाला. डॉक्टर ज्यादा देर तक खड़े रहने से मना करते रहे लेकिन मैंने दर्द झलते दस साल तक पढ़ाया. सन 2000 में पति की नौकरी लगी और मैं सन 2002 में अपनी कमर का ऑपरेशन कराया.”
वह आगे बताती हैं, "लेकिन ऑपरेशन के बाद पढ़ा पाना बहुत मुश्किल भरा काम था. मैं दर्द झेलते हुए पढ़ा रही थी. मैंने 2010 में नौकरी छोड़ दी. नौकरी छोड़ने के एक-डेढ़ साल बाद पता चला कि शुक्ल ने मेरी थीसिस चोरी कर पीएचडी की डिग्री हासिल कर ली है और उसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित करवा लिया है. तबसे मैं अपनी थीसिस चोरी के लिए न्याय पाने की लड़ाई लड़ रही हूं”
मैंने पहली बार रजनीश शुक्ल पर थीसिस चोरी का आरोप लगाने वाले डॉ. पद्माकर मिश्र से बात की. पद्माकर मिश्र बताते हैं कि शुक्ल की चोरी की सूचना सर्वप्रथम उन्होंने ही तत्कालीन कुलपति मिश्र को दी थी जिसके उपरांत रजनीश कुमार की प्रोफेसर पद पर प्रोन्नति कार्यपरिषद ने रोक दी थी. मिश्र बताते हैं कि उन्हें शुक्ल द्वारा थीसिस चोरी की जानकारी उस लड़के से मिली थी जिससे शुक्ल ने पांडेय की थीसिस से टाइप कराया था.
कुलपति नाग के तीन महीने के अतिरिक्त कार्यकाल के दौरान शुक्ल की जांच प्रक्रिया तीव्र गति से आगे बढ़ी. इसी क्रम में सुधा पांडेय को 2014 में राज्यपाल कार्यालय से एक पत्र मिला था जिसमें संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में चल रही जांच प्रक्रिया आगे बढ़ाने की बात की गई. पत्र में विश्वविद्यालय को निर्देशित किया गया था कि जांच प्रक्रिया से पांडेय को अवगत कराया जाए. वहीं पांडेय पत्र पाकर हतप्रभ रह गईं कि जब उन्होंने उस दौरान कोई पत्र राज्यपाल को नहीं लिखा था तो उसके आलोक में राज्यपाल कार्यालय से कैसे उनके पास पत्र पहुंच गया?
पांडेय ने मुझसे कहा, “मैं कोई भी पत्र अपने निजी आवास के पते से लिखती हूं जबकि राज्यपाल कार्यालय से प्राप्त इस पत्र में मेरे पति विष्णुदत्त पांडेय के विभागीय पते यानी काशी विद्यापीठ के दर्शन विभाग का पता दर्ज था.” विष्णुदत्त पांडेय बताते हैं कि इस प्रकार पहली बार उन्हें थीसिस के मामले में शामिल किया गया. सुधा पांडेय का दावा है कि जिस पत्र के आलोक में राज्यपाल कार्यालय से उनके पति के विभागीय पते पर जो पत्र प्राप्त हुआ उस पत्र को उन्होंने नहीं लिखा है. उन्होंने कहा, "उस दौरान रजनीश कुमार शुक्ल को कुलपति पृथ्वीश नाग के रूप में अपना पक्षधर व्यक्ति मिल जाने के कारण मेरे नाम से राज्यपाल को पत्र लिख कर जांच प्रक्रिया आगे बढ़ाने की बात की गई. यदि जिस पत्र के आलोक में राज्यपाल कार्यालय से मेरे पति के विभागीय पते पर पत्र प्रेषित किया गया उसकी जांच हो तो निश्चित रूप से उसमें सुधा पांडेय के नाम से हुए हस्ताक्षर में फर्जीवाड़ा पकड़ा जाएगा."
इसी दौरान रजनीश कुमार शुक्ल रीडर से प्रोफेसर बनने की दौड़ में शामिल थे. साक्षात्कार के दौरान जांच समिति के समक्ष जब थीसिस चोरी का मामला आया तो समिति ने सिफारिश की कि कार्यपरिषद तभी साक्षात्कार का लिफाफा खोले जब जांच समिति के दो सदस्यों का निर्णय आ जाए. जांच समिति की सिफारिश का ध्यान रखते हुए साक्षात्कार में शामिल अन्य का लिफाफा तय तिथि पर खोला गया जबकि रजनीश कुमार शुक्ल द्वारा साक्षात्कार का लिफाफा जांच समिति में शामिल दो सदस्यों द्वारा आनन-फानन में जमा की गई रिपोर्ट के बाद खोला गया और रजनीश कुमार शुक्ल की प्रोन्नति की गई. कुलपति पृथ्वीश नाग के कार्यकाल में जांच समिति के चुने गए दोनों सदस्यों, प्रोफेसर जटाशंकर और प्रोफेसर श्रीनिवास ओझा, ने जांच रिपोर्ट में रजनीश कुमार शुक्ल पर थीसिस की नकल के आरोप को निराधार बताते हुए लिखा कि बतौर रीडर कार्यरत शुक्ल को प्रोन्नत कर प्रोफेसर बनाया जाए.
जांच समिति में पहले शामिल दोनों सदस्यों की असमर्थता व्यक्त करने के बाद समिति में शामिल दोनों सदस्यों- जटाशंकर और ओझा- की क्लीन चिट पर नजर डालें तो मिलता है कि जटाशंकर ने तो संस्तुति करने में सात महीने से अधिक का समय लिया जबकि ओझा ने अतिशय तीव्रता दिखाते हुए चार दिन के अंदर ही अपनी रिपोर्ट में शुक्ल को प्रोन्नत कर रीडर से प्रोफेसर बनाने की संस्तुति की. यानी ओझा ने चार दिन के अंदर ही कुल 489 पृष्ठों की दोनों थीसिस का अध्ययन कर लिया. और साथ ही उन पुस्तकों, पत्रिकाओं, जर्नल्स का भी अध्ययन कर लिया जिनका जिक्र दोनो शोधार्थियों द्वारा किया गया है.
इसके अलावा समिति के दोनों सदस्यों की रिपोर्ट कार्यपरिषद में गए बगैर यानी कार्यपरिषद को बाईपास कर कुलपति पृथ्वीश नाग ने क्लीन चिट विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को भेज दी. कार्यपरिषद के समक्ष न आरोपकर्ता पांडेय को बुलाया गया और न ही आरोपी रजनीश कुमार शुक्ल को. कार्यपरिषद को नजरंदाज कर यह प्रक्रिया क्यों अपनाई गई इसका मतलब स्पष्ट नहीं होता है लेकिन जांच समिति में शामिल दोनों सदस्यों द्वारा क्लीन चिट सौंपने के बाद अगले ही महीने यानी 10 अक्टूबर 2014 को यूजीसी ने शुक्ल को प्रोन्नत कर प्रोफेसर बनाने की स्वीकृति प्रदान कर दी. संपूर्णानंद संस्कृत विश्नविद्यालय के अंतर्गत जांच समिति में शामिल जटाशंकर ने अपनी रिपोर्ट कुलपति बिंदा प्रसाद के कार्यकाल के अंतिम दिनों में प्रस्तुत की और उस रिपोर्ट को बिंदा प्रसाद ने कार्यपरिषद को अग्रेसित किया, वहीं कुलपति पृथ्वीश नाग द्वारा अवैध रूप से नियुक्त किए गए ओझा ने जांच रिपोर्ट चार दिन में ही प्रस्तुत कर दी. जांच प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए पूर्व कुलपति बिंदा प्रसाद कहते हैं, “जांच समिति में शामिल दो सदस्यों की अलग-अलग रिपोर्ट पर कार्यपरिषद को एक बैठक कर दोनों पक्षों के मत सुनने के बाद अंतिम रूप से अपनी रिपोर्ट विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को सौंपनी चाहिए थी लेकिन यदि इस प्रक्रिया को नहीं अपनाया गया तो यह असंवैधानिक कृत्य है.”
सुधा पांडेय इस संदर्भ में कहती हैं, “जांच में इतनी तीव्रता इसीलिए दिखाई गई कि रजनीश कुमार शुक्ल को जल्द से जल्द प्रोन्नत कर प्रोफेसर बनाया जा सके. इसीलिए शुरू में दोनों समिति सदस्यों ने इनकार कर दिया और इन दो नए लोगों को समिति का सदस्य बनाया गया. ये दोनों रजनीश कुमार शुक्ल के करीबी भी हैं.”
इसके अलावा सुधा पांडेय का आरोप है कि क्लीन चिट देने वाले दोनों सदस्य और रजनीश कुमार शुक्ल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबंध रखते थे और अपने रिश्तों को कायम रखने के लिए पक्षपाती रूप से मत प्रस्तुत किया है.
गौरतलब है कि ओझा और जटाशंकर से रजनीश कुमार शुक्ल के विभिन्न तरह के संबंध सामने निकलकर आते हैं. ओझा काशी विद्यापीठ के संस्कृत विभाग में प्रोफेसर थे और जांच प्रक्रिया के दौरान वे असिस्टेंट प्रॉक्टर भी थे. रजनीश शुक्ल को लंबे समय से जानने वाले बनारस के एक प्रोफेसर ने नाम न जाहिर करने को कह कर बताया कि ओझा तत्कालीन कार्यकारी कुलपति पृथ्वी नाग के बेहद करीबी थे. ओझा का पैतृक निवास बलिया था, उस समय परीक्षा केंद्रों पर काशी विद्यापीठ के शिक्षकों की तैनाती हुआ करती थी. उन्होंने कहा, “ओझा बलिया के विद्यालयों में अपनी तैनाती सुनिश्चित करने के लिए कुलपति पृथ्वीश नाग को खुश रखने के उद्देश्य से जीहजूरी करते थे. आशंका जाहिर होती है कि लाभ के उद्देश्य से ही ओझा ने कुलपति के इशारे पर समिति के सदस्य के रूप में पक्षपात और त्रुटिपूर्ण संस्तुति की हो. इसके अलावा ओझा का संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी रहा है. वहीं प्रोफेसर की माने तो कुलपति पृथवीश नाग और रजनीश कुमार शुक्ल का संबंध भी राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से रहा है.”
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दर्शन विभाग के विभागाध्यक्ष एवं समिति के दूसरे सदस्य जटाशंकर, अखिल भारतीय दर्शन परिषद से लंबे समय से जुड़े रहे हैं. वर्तमान समय में जटाशंकर अखिल भारतीय दर्शन परिषद के अध्यक्ष हैं. अखिल भारतीय दर्शन परिषद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका दर्शन त्रैमासिक में रजनीश कुमार शुक्ल 1991 से संपादक मंडल के सदस्य के रूप में रहे हैं. कुछ समय बाद रजनीश कुमार शुक्ल दर्शन त्रैमासिक पत्रिका के संयुक्त मंत्री बने और सन 2000 में पत्रिका के कार्यकारी संपादक और 2003 में प्रधान संपादक आर. आर. पांडेय के साथ संपादक पद पर आसीन थे. रजनीश कुमार शुक्ल लंबे समय तक दर्शन त्रैमासिक पत्रिका के संपादक भी रहे. इसके अलावा इलाहाबाद में दर्शनशास्त्र के एक अध्यापक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि जटाशंकर और रजनीश कुमार शुक्ल का दोस्ताना और घरेलू संबंध भी रहा है. रजनीश कुमार शुक्ल 2017 से 2019 के दौरान भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद, दिल्ली (आईसीपीआर) के सदस्य सचिव थे उसी दौरान जटाशंकर की बेटी क्षमा त्रिपाठी को आईसीपीआर से पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप भी प्राप्त हुई. परिषद में कुल छह सदस्य थे जिसमें जटाशंकर भी शामिल थे. आईसीपीआर में सदस्य सचिव रजनीश कुमार शुक्ल के कार्यकाल के पूर्व क्षमा त्रिपाठी को इसी फेलोशिप के लिए अयोग्य पाया गया था.
इसके अलावा जांच समिति के दोनों सदस्यों- जटाशंकर और ओझा- द्वारा दी गई क्लीनचिट देखने पर रजनीश कुमार शुक्ल के मार्च 2013 के स्पष्टीकरण से खास तरह की समानता नजर आती है. ऐसा प्रतीत होता है जांच समिति के सदस्य वही लिखना चाह रहे हैं जो रजनीश कुमार शुक्ल अपने बचाव में दिए गए स्पष्टीकरण में लिख चुके हैं.
रजनीश कुमार शुक्ल ने सन 2001 में थीसिस को काण्ट का सौंदर्यशास्त्र नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित कराया और अखिल भारतीय दर्शन परिषद ने 2013 में 'काण्ट के द्विशताब्दी सम्मान' पुरस्कार प्रदान किया. सुधा पांडेय ने इस संबंध में संबंधित विश्वविद्यालयों के कुलपति एवं अध्यक्ष अखिल भारतीय दर्शन परिषद, जबलपुर (मध्यप्रदेश) को रजनीश कुमार शुक्ल द्वारा थीसिस के नकल करने की सूचना साक्ष्य के साथ उपलब्ध कराई लेकिन रजनीश कुमार शुक्ल पर किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं हुई. सुधा पांडेय ने इस संबंध में राष्ट्रपति, राज्यपाल और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को पत्र लिखकर सूचित किया.
अभी यह कहना कठिन है कि प्रदेश सरकार की कार्रवाई की अनुशंसा पर वर्धा विश्वविद्यालय क्या कदम उठाता है लेकिन उनकी अकादमिक सफलता में एक तरह की क्रमबद्धता नजर आती है. शुक्ल की प्रोन्नति के बीच न किसी तरह की लंबी रुकावट देखने को मिलती है और न ही आरोपों का कोई असर नजर आता है. रजनीश शुक्ल रीडर से प्रोफेसर बनते ही बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ताल्लुक रखने वाले कुलपति जी. सी. त्रिपाठी के कार्यकाल में कोर्ट मेंबर बने. सुधा पांडेय बताती हैं कि "कोर्ट मेंबर बनते ही रजनीश शुक्ल ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए, मेरे द्वारा सन 2013 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में दिए गए शिकायती पत्र पर कार्रवाई को स्थगित करवाया और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की केंद्रीय लाइब्रेरी से अपनी थीसिस को सार्वजनिक पहुंच से हटवाया." (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय केंद्रीय लाइब्रेरी में रजनीश कुमार शुक्ल की थीसिस अन्य थीसिस के साथ मौजूद नहीं है.)
इसी दौरान रजनीश कुमार शुक्ल भारतीय दर्शनिक अनुसंधान परिषद (आईसीपीआर) के सदस्य सचिव बने, साथ ही अखिल भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) के सदस्य सचिव का अतिरिक्त कार्यभार संभाला. सदस्य सचिव रहने के दौरान ही रजनीश कुमार शुक्ल अप्रैल 2019 में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति पद पर नियुक्त हुए. महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा अगस्त 2019 में कांशीराम की जयंती मनाने व बढ़ते अपराध को लेकर प्रधानमंत्री को सामूहिक पत्र लिखने के कारण रजनीश कुमार शुक्ल के कार्यकाल में छह दलित-पिछड़ी जाति के छात्रों का निलंबन कर दिया गया था. हालांकि आरोपों को निराधार बता कर चार दिनों के अंदर हिंदी विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा निलंबन वापस ले लिया गया. रजनीश कुमार शुक्ल के कार्यकाल में ही 2019-2020 प्रवेश प्रक्रिया में आठ छात्रों ने रजनीश कुमार शुक्ल पर धांधली का आरोप लगाते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच में याचिका दायर की. याचिका में शामिल महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के दलित किसान परिवार से आने वाली छात्रा श्वेता भेंडारकर ने कुलपति रजनीश शुक्ल पर मराठी में पत्र लिखकर आत्महत्या के लिए विवश करने का आरोप लगाया था.
वहीं हाल ही में वर्धा से बीजेपी के वर्तमान सांसद रामदास तड़स ने रजनीश कुमार शुक्ल द्वारा हिंदी विश्वविद्यालय में जारी अनियमितता के संदर्भ में प्राप्त कई शिकायत को लेकर शिक्षा मंत्री से शिकायत की है. केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 11 फरवरी 2021 के पत्र में, जिसकी कॉपी कारवां के पास है, कार्रवाई की जाने की बात की है.
पांडेय और शुक्ल की थीसिस में समानता
सुधा पांडेय की थीसिस और रजनीश कुमार शुक्ल की थीसिस का मैंने विस्तार से अध्ययन कर उन आरोपों की सत्यता जानने की कोशिश की जिसके आधार पर रजनीश कुमार को दोषी ठहराते हुए पांडेय उचित कार्रवाई की मांग कर रही हैं. दोनों थीसिस का अध्ययन करते समय रजनीश कुमार शुक्ल द्वारा आरोप के संदर्भ में 6 मार्च 2013 को संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलसचिव को छह पृष्ठों के दिए गए स्पष्टीकरण के आधार पर भी सत्यता जांचने की कोशिश की. इसके अलावा सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद द्वारा गठित समिति के समक्ष प्रस्तुत दोनों सदस्यों की संस्तुति का भी मैंने अध्ययन के दौरान ध्यान रखा.
शुक्ल की थीसिस का एक बड़ा हिस्सा चार साल पहले 1991 में उसी विभाग में जमा पांडेय की थीसिस से मिलता है. यही नहीं, एक कॉपी से नकल कर दूसरी कॉपी तैयार करने में जिस तरह की समानता देखने को मिलती है उसी तरह की समानता पांडेय की थीसिस से शुक्ल की थीसिस में देखने को मिलती है. हालांकि मार्च-2013 के अपने स्पष्टीकरण में शुक्ल ने अपने ऊपर लगे आरोप को आधारहीन, मिथ्या और मनगढ़ंत बताया है. दोनों शोध कार्य इमैनुएल काण्ट के ग्रंथ "क्रिटिक ऑफ जजमेंट" पर आधारित है. इस संबंध में शुक्ल अपने स्पष्टीकरण के दूसरे बंदु में लिखते हैं कि काण्ट के "क्रिटिक ऑफ जजमेंट" पर वैश्विक स्तर पर 100 से अधिक शोध कार्य हो चुके हैं और पूर्व में हुए शोधों से इसमें अंतर इतना ही है कि ये दोनों ही कार्य हिंदी भाषा में हुए हैं. जबकि पांडेय का कहना है कि काण्ट के ग्रंथ "क्रिटिक ऑफ जजमेंट" पर हिंदी में उनका पहला कार्य है. जिसे उन्होंने स्वयं कड़ी मेहनत और लगन के साथ किया है. वह कहती हैं कि उन्होंने जहां से जो कुछ अपनी थीसिस में शामिल किया है उसका उन्होंने जिक्र किया है. जबकि शुक्ल ने “मेरी थीसिस से कॉपी कर पीएचडी की डिग्री हासिल की है और कहीं जिक्र तक नहीं किया.”
रजनीश कुमार शुक्ल ने मार्च-2013 में संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में थीसिस चोरी के आरोप में अपना स्पष्टीकरण पुस्तक के रूप में प्रकाशित 'काण्ट का सौंदर्यशास्त्र' के संदर्भ में देते हैं जबकि पांडेय का कहना है कि शुक्ल की पुस्तक का संदर्भ सिर्फ इतना है कि उन्होंने दैनिक जागरण की खबर (उपाचार्य के शोध पर सवाल नकल का लगाया आरोप, 29 फरवरी 2012) की पुष्टि उस पुस्तक से की. इसके उपरांत जब डॉक्टर सुधा ने अपनी थीसिस से डॉक्टर शुक्ल की थीसिस का मिलान किया तो पाया कि रजनीश शुक्ल ने उनकी थीसिस का अधिकांश हिस्सा (पांडेय के अनुसार लगभग 80 फीसदी) से अधिक ज्यों का त्यों कॉपी किया है. पांडेय रजनीश शुक्ल पर आरोप लगाते हुए कहती हैं कि शुक्ल थीसिस चोरी के इस मामले को थीसिस के आधार पर प्रकाशित अपनी पुस्तक काण्ट का सौंदर्यशास्त्र पर केंद्रित करने की कोशिश कर रहे हैं.
शुक्ल ने अपने स्पष्टीकरण के तीसरे बिंदु के 'क' खंड में लिखा है कि यह काण्ट के ग्रंथ "क्रिटिक ऑफ जजमेंट" में प्रतिपादित विचारों की प्रस्तुति है. स्वाभाविक रूप से इस में किसी भी अनुसंधानकर्ता द्वारा अपनी ओर से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. वह आगे लिखते हैं कि मैंने और पांडेय ने क्रिटिक ऑफ जजमेंट के अलग-अलग संस्करणों का प्रयोग किया है और तीसरे बिंदु के 'ग' खंड में डॉक्टर रजनीश कुमार शुक्ल लिखते हैं कि अनुवाद में समानता का होना नकल नहीं है." जबकि डॉक्टर सुधा पांडेय इस बात को नकारते हुए कहती हैं कि "रजनीश कुमार शुक्ल ने हमारी थीसिस से सीधा-सीधा कॉपी किया है. मैंने काण्ट के ग्रंथ के अंग्रेजी में अनुवादित पुस्तकों से अपने गाइड की मदद से स्वतः अनुवाद किया है. उन पुस्तकों का मैंने अपने शोध में जिक्र भी किया है. और रजनीश कुमार शुक्ल ने मेरे शोध से कॉपी किया है, उनकी थीसिस में सिर्फ अनुवाद की समानता नहीं है बल्कि एक-एक अक्षर, कॉमा, वाक्य, सिद्धांत, निष्कर्ष सब मेरी थीसिस से मेल खाता है. यह संयोग नहीं है बल्कि जान बूझकर कॉपी किया गया कृत्य है. यदि निष्पक्षता से इसकी जांच हो तो रजनीश कुमार शुक्ल अवश्य दंड के शिकार होंगे."
रजनीश कुमार शुक्ल ने सुधा पांडेय की थीसिस से हू-ब-हू कॉपी किया है. जैसे डॉक्टर सुधा पांडेय की थीसिस में जहां काण्ट को उद्धृत करते हुए लिखा मिलता कि "काण्ट कहते हैं" वहां डॉक्टर रजनीश कुमार शुक्ल की थीसिस में भी वही लिखा मिलता है. जबकि जहां रजनीश कुमार शुक्ल अपनी ओर से थीसिस में काण्ट को उद्धृत करते हुए कुछ लिखते हैं तो वहां "काण्ट कहता है" लिखते हैं. रजनीश कुमार शुक्ल थीसिस के चतुर्थ अध्याय में एक पत्रिका के लेख "काण्ट एंड द ऑब्जेक्टिविटी ऑफ टेस्ट" का जिक्र करते हुए "34" लिखते हैं. जबकि उसकी सत्यता जांचने की हमने कोशिश की तो पाया कि डॉक्टर सुधा पांडेय अपनी थीसिस में वहां "3,4" लिखती हैं. जिस "ब्रिटिश जनरल ऑफ एस्थेटिक्स" पत्रिका के लेख"काण्ट एंड द ऑब्जेक्टिविटी ऑफ टेस्ट" का जिक्र दोनों थीसिस में किया गया है उस पत्रिका को हमने जब देखा तो पाया कि वह लेख "काण्ट एंड द ऑब्जेक्टिविटी ऑफ टेस्ट" 34वें पृष्ठ पर नहीं बल्कि पृष्ठ संख्या 03 से 17 तक पर ही है. अब सवाल यह पैदा होता है कि जर्नल में जो लेख पृष्ठ संख्या 17 पर है वह डॉ. रजनीश कुमार शुक्ल की थीसिस में आते ही 34 वें पृष्ठ पर कैसे हो जाता है? थीसिस में ही नहीं बल्कि शुक्ल अपनी किताब काण्ट का सौंदर्यशास्त्र में भी 3,4 को 34 लिखते हैं.
पांडेय इस संदर्भ में कहती हैं कि शुक्ल ने उनकी थीसिस से टाइप करने के दौरान 3,4 को 34 लिख दिया क्योंकि शुक्ल को उस लेख के बारे में जानकारी नहीं रही होगी जिसका जिक्र मैंने अपनी थीसिस में किया है. उन्होंने कहा, यदि यह टाइप की गलती थी तो क्या छह साल बाद प्रकाशित पुस्तक में इसे सुधारा नहीं जा सकता था. “मेरे पास उस पत्रिका का अंक आज भी उपलब्ध है. रजनीश कुमार शुक्ल के पास निश्चित ही वह अंक उपलब्ध नहीं होगा.”
इससे पता चलता है कि शुक्ल अपनी थीसिस में गलती से 3 और 4 को 34 टाइप कर देते हैं. पांडेय अपनी थीसिस के पृष्ठ संख्या 94 पर लिखती हैं कि निश्चित प्रत्यय नहीं होता, रजनीश कुमार शुक्ल अपनी थीसिस के पृष्ठ संख्या 47 पर आंशिक परिवर्तन करने के साथ वही पंक्ति उसी संदर्भ में लिखते हैं कि कोई प्रत्यय निश्चित नहीं होता. ऐसा करने से उद्देश्य पूरी तरह बदल जाता है और लिखे गए संदर्भ से बात बिलकुल भिन्न हो जाती है. पूरी थीसिस इसी तरह की समानता और गलतियों से भरी पड़ी है.
आशंका तब और प्रगाढ़ हो जाती है जब यह देखने को मिलता है कि शुक्ल के गाइड ने उनके शोध के घोषणा में नहीं लिखा है कि यह रजनीश शुक्ल का मौलिक कार्य है. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में गाइड अपने अंतर्गत शोध करने वाले शोधार्थियों की थीसिस के पहले पृष्ठ पर यह घोषणा करते हैं कि उनके अंतर्गत शोध करने वाले शोधार्थी का यह मौलिक कार्य है. लेकिन रजनीश कुमार शुक्ल के गाइड प्रोफेसर रेवतीरमण पांडेय ने साफ तौर पर शुक्ल की थीसिस में यह घोषणा नहीं करते कि यह रजनीश कुमार शुक्ल का मौलिक कार्य है. जबकि चार साल पूर्व जमा पांडेय की थीसिस में उनके गाइड डॉ. राजेंद्र नाथ मुखर्जी ने घोषणा करते हुए लिखा है कि यह शोध छात्रा का मौलिक कार्य है. "रजनीश शुक्ल के गाइड प्रोफेसर रेवतीरमण पांडेय एक विद्वान व्यक्ति थे. वह जानते थे कि रजनीश कुमार शुक्ल ने यह काम चोरी कर पूरा किया है इसलिए उन्होंने यह घोषणा नहीं की कि शोध कार्य रजनीश शुक्ल का मौलिक कार्य है," सुधा पांडेय कहती हैं.
पांडेय का आरोप है कि डॉक्टर रजनीश कुमार शुक्ल अपने मौलिक लेखन व बातचीत में संस्कृतनिष्ठ भाषा का प्रयोग करते हैं किंतु जहां वे थीसिस से नकल करते हैं वहां बंगाली प्रभावी हिंदी का प्रयोग करते हैं या बनारस की बोल-चाल की भाषा का प्रयोग करते हैं, जिसका प्रयोग पांडेय की थीसिस में हुआ है. पांडेय के अनुसार, उनकी थीसिस में ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके गाइड डॉक्टर आर. एन. मुखर्जी बंगाली मूल के थे और सुधा बनारस की थीं इसलिए थीसिस में दो स्थानों की मिलीजुली भाषा थी. पांडेय कहती हैं कि "यही कारण है कि मेरी थीसिस में कई उदाहरण बंगाली स्थानों से जड़े हैं, जो अन्य पुस्तकों, पत्रिकाओं और शोध पत्रों में नहीं मिल सकते जबकि रजनीश कुमार शुक्ल ने नकल करने के क्रम में उन उदाहरणों को भी ज्यों का त्यों उतार दिया.”
पांडेय दावा करते हुए कहती हैं कि "यदि रजनीश कुमार शुक्ल का शोध उनका मौलिक कार्य है तो उनके पास उसकी पांडुलिपि होनी चाहिए. "मेरा शोध कार्य मौलिक है मेरे पास थीसिस में लिखे एक-एक पृष्ठ की पांडुलिपि है.”
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (उच्चतर शिक्षा संस्थानों में अकादमिक सत्यनिष्ठा एवं साहित्यिक चोरी की रोकथाम को प्रोत्साहन) विनियम, 2018 के तहत साहित्यिक चोरी (अकादमिक चोरी) को परिभाषित करते हुए तीन स्तरों में विभाजित किया गया है. शुक्ल द्वारा नकल की गई थीसिस चोरी प्रथम दृष्टया यूजीसी के तय कानूनों के तृतीय स्तर में देखने को मिलती है. कानून के तृतीय स्तर में अकादमिक चोरी करने वालों पर कठोर दंड का प्रावधान है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तृतीय स्तर की चोरी के लिए तय दंड का प्रावधान है कि "बार-बार साहित्यिक चोरी करने पर पांडुलिपि वापस लेने को कहा जाएगा और की गई साहित्यिक चोरी के निम्न स्तर से एक स्तर ऊपर की साहित्यिक चोरी के लिए दंडित किया जाएगा. यदि की गई “साहित्यिक चोरी सर्वोच्च स्तर की हो तो उसके लिए विहित दंड लागू होगा. यदि तृतीय स्तर के दोष की पुनरावृत्ति की गई तो उच्चतर शिक्षा संस्थान द्वारा सेवा नियमों के अनुसार निलंबन/सेवा समाप्ति सहित अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी."
पांडेय न्याय पाने के लिए पिछले आठ सालों से संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से लेकर राष्ट्रपति, राज्यपाल, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और अदालतों का चक्कर लगा चुकी हैं. पांडेय द्वारा दसियों कार्यालयों में अपनी थीसिस की चोरी को लेकर लगातार लिखे गए पत्र इस बात की गवाही देते हैं कि वह पिछले आठ सालों में एक भी दिन थीसिस को भुला न सकी हैं. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पांडेय ने पहली बार 9 जुलाई 2013 को शिकायत पत्र दिया. इसके बाद वह लगातार बीएचयू प्रशासन को पत्र लिखकर कार्रवाई के विषय में जानकारी मांगती रहीं लेकिन प्रशासन की ओर से एक भी पत्र का जवाब नहीं दिया गया. कुछ समय बाद पांडेय की ओर से बीएचयू में आरटीआई लगाने का सिलसिला शुरू हुआ. इसी क्रम में सुधा पांडेय ने बीएचयू से 15 नवंबर 2017 को आरटीआई दायर कर रजनीश कुमार शुक्ल की थीसिस की फोटोकॉपी मांगी. दो दिन बाद यानी 17 नवंबर को बीएचयू सूचना अधिकारी ने सेंट्रल लाइब्रेरियन को यह मामला सौंप दिया लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. पांडेय ने अगले वर्ष 29 जनवरी 2018 को दूसरी अपील दायर की, जिसके बाद 30 जनवरी 2018 को मामला दुबारा लाइब्रेरियन को सौंपा गया. अगले महीने यानी 3 फरवरी 2018 को लाइब्रेरियन ने जवाब में 29 अक्टूबर 2013 की पॉलिसी का हवाला देते हुए लाइब्रेरी ने थीसिस की फोटोकॉपी देने से इनकार कर दिया. जबकि यह जवाब पहले ही आरटीआई के जवाब में दिया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं किया गया. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की केंद्रीय लाइब्रेरी की नीति तब निराधार हो जाती है जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के अध्यादेश के तहत थीसिस को सार्वजनिक करना वैध बनाया जा चुका है. ध्यान देने वाली दूसरी बात है कि यदि इस नियम और सुधा पांडेय के द्वारा बीएचयू में पहली बार शिकायत पत्र (9 जुलाई 2013) का समय देखा जाए तो सुधा पांडेय के शिकायत के तीन महीने बाद यानी 29 अक्टूबर 2013 को यह नीति बनारस हिंदू विश्वविद्यालय द्वारा बनाई गई है.
पांडेय इसी बीच बीएचयू में रजनीश के खिलाफ शिकायत पर कार्रवाई की जानकारी के लिए आरटीआई लगा रही थीं लेकिन उसका उन्हें कोई उत्तर नहीं मिल रहा था. पांडेय बताती हैं कि वह निराश हो रही थीं लेकिन जब वह अपने थीसिस लिखने के कठिनाई भरे समय को याद करतीं तो उन्हें न्याय पाने के लिए ऊर्जा मिलती और वह दुबारा आगे बढ़ने लगतीं. पांडेय ने बीएचयू में आरटीआई लगाकर जवाब मांगा कि हमारे द्वारा 9 जुलाई 2013 के शिकायत पत्र पर क्या कार्रवाई हुई? बीएचयू ने इस आरटीआई का जवाब नहीं दिया. पांडेय ने सेकेंड अपील 29 जनवरी 2018 को लगाया और पूछा कि हमारे द्वारा 09 जुलाई 2013 को लिखे शिकायती पत्र पर क्या कार्रवाई हुई तो इसके जवाब में बीएचयू ने 30 जनवरी 2018 को बताया कि आपके 9 जुलाई 2013 के पत्र के आलोक में कोई कार्रवाई नहीं हुई. मतलब लगभग छह साल पहले की गई शिकायत पर बीएचयू प्रशासन ने कोई संज्ञान नहीं लिया.
पांडेय को जब बीएचयू से छह साल पहले लिखे शिकायती एप्लिकेशन पर कोई कर्रवाई न करने का जवाब मिला तो सुधा ने न्याय के लिए अप्रैल 2019 में इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया (case - WRIT - C No. - 17374 of 2019). इस केस में बीएचयू ने हाईकोर्ट को गुमराह करने के उद्देश्य से बताया कि अभ्यर्थिनी सुधा पांडेय बीएचयू में पहले न्याय के लिए आई ही नहीं. जबकि बीएचयू ने आरटीआई के सेकेंड अपील 29 जनवरी 2018 के जवाब में 30 जनवरी 2018 को बताया कि सुधा पांडेय द्वारा 9 जुलाई 2013 के पत्र के आलोक में कोई कार्रवाई नहीं हुई. चूंकि प्रार्थिनी सुधा पांडेय के 9 जुलाई 2013 के मूल आवेदन की प्रति (रिसीविंग) पर बीएचयू की मुहर नहीं थी इसलिए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसे ही आधार मानते हुए, सुधा पांडेय की याचिका में उद्धृत व नत्थी आरटीआई को नजरंदाज कर केस को खारिज कर दिया और अभ्यर्थिनी सुधा पांडेय को बीएचयू से न्याय प्राप्त करने के लिए निर्देशित किया.
पांडेय बताती हैं कि वे इलाहाबाद हाईकोर्ट के इस निर्णय के बाद पूरी तरह निराश हो चुकी थीं. उन्हें उस बीएचयू से तनिक भी उम्मीद नहीं थी जहां से छह साल पहले लिखे शिकायती पत्र पर किसी प्रकार की कार्यवाई नहीं हुई थी. वह बताती हैं कि "वापस बीएचयू में न्याय के लिए आना बेहद कठिन था. लेकिन हमारे परिवार ने हमारा साथ दिया हमें अपने पति और परिवार से ताकत मिली और हमने दुबारा बीएचयू का रुख किया.”
और इस बीच चोरी के आरोपी रजनीश कुमार शुक्ल को अप्रैल-2019 में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया जा चुका था. पांडेय ने 25 जून 2019 को बीएचयू के वर्तमान कुलपति प्रोफेसर राकेश भटनागर और यूजीसी की गाइडलाइन के अनुसार विभागाध्यक्ष को प्रार्थना पत्र लिख कर थीसिस की निष्पक्ष जांच कराकर दोषी को उचित सजा देने की मांग की. एक दिन बाद 25 जून 2019 को पांडेय ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर (ऑनलाइन) न्याय की गुहार लगाई. पीएमओ से पांडेय को प्राप्त मेल में सूचित हुआ कि मामला बीएचयू को सौंप दिया गया है और सूचनार्थ में कहा गया कि मामले की अग्रिम जानकारी रजिस्ट्रार से प्राप्त करें.
वहीं दूसरी ओर रजनीश कुमार शुक्ल की दो अन्य विश्वविद्यालयों- जामिया मिलिया इस्लामिया, महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी- के कुलपति की नियुक्ति के साथ ही महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कुलपति पद पर ऐसे समय में नियुक्ति हुई जब देश में 2019 के चुनाव को लेकर आचार संहिता लागू थी. इसी बीच लखनऊ निवासी चंद्रपाल सिंह नामक व्यक्ति ने रजनीश कुमार शुक्ल पर थीसिस चोरी के आरोप को लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय व राष्ट्रपति को पत्र लिखकर सवाल पूछा कि एक आरोपित व्यक्ति को कैसे कुलपति पद पर आसीन किया जा सकता है? उस दौरान न्यूज18 की रिपोर्ट के अनुसार मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि सरकार को रजनीश कुमार शुक्ल पर थीसिस चोरी के आरोप के विषय में कोई जानकारी नहीं थी और रजनीश कुमार शुक्ल ने विजिलेंस क्लियरेंस सरकार के समक्ष प्रस्तुत किए हैं. जबकि रजनीश कुमार शुक्ल द्वारा थीसिस की चोरी के संदर्भ में इलाहाबाद के नैनी से पवन कुमार सिंह नामक व्यक्ति द्वारा 9 नवंबर 2017 को यानी रजनीश कुमार शुक्ल के कुलपति बनने से लगभग दो साल पहले ही भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली और मानव संसाधन विकास मंत्री, भारत सरकार, नई दिल्ली को लिखित पत्र भारतीय डॉक द्वारा भेजा जा चुका था. पवन कुमार सिंह ने पत्र के विषय में यह लिखते हुए पोस्ट किया कि "डॉक्टर रजनीश कुमार शुक्ल, प्रोफेसर, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी एवं सचिव भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद (आईसीपीआर) की पीएचडी थीसिस (1995 काशी हिंदू विश्वविद्यालय) में 100 पृष्ठों से अधिक पृष्ठ डॉक्टर सुधा पांडेय की थीसिस (1991 काशी हिंदू विश्वविद्यालय) से ज्यों का त्यों नकल करने के कारण भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद के सदस्य सचिव पद से हटाने तथा सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी की नौकरी समाप्त करने के संबंध में." हालांकि रजनीश कुमार शुक्ल ने कुलपति बनने के बाद चंद्रपाल सिंह द्वारा लगाए गए आरोप को पुराना होने और विरोधियों द्वारा लगाया गया आरोप बताया. वह कहते हैं कि "मेरे ऊपर यह आरोप बहुत पुराना है. नियुक्ति से पहले, एक जांच की गई है और उसमें मुझे विजिलेंस से क्लीन चिट मिल चुकी है." लेकिन पांडेय आरोप लगाते हुए कहती हैं कि विजिलेंस विभाग आर्थिक मामलों में अपनी रिपोर्ट में रजनीश कुमार शुक्ल को क्लीनचिट दे सकता है जबकि मेरा मामला आर्थिक नहीं बल्कि साहित्यिक चोरी का है.
लेकिन शुक्ल पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं की गई बल्कि उन्हें उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अहम कुलपति पद पर आसीन कर दिया गया. इतना ही नहीं 2018 में केरल से सीपीआई के सांसद के. के. राजेश ने 2018 में सदन के माध्यम से सरकार से प्रश्न पूछा कि 2015 से 2018 के बीच कितने प्लेगरिज्म (नकल/चोरी) के मामले भारत सरकार के समक्ष आए और सरकार ने क्या किया? भारत सरकार ने लिखित जवाब में तीन साल के अंतर्गत तीन मामलों का जिक्र किया लेकिन डॉक्टर सुधा पांडेय की थीसिस से रजनीश कुमार शुक्ल द्वारा चोरी के मामले को गायब कर दिया गया. जबकि रजनीश कुमार शुक्ल द्वारा थीसिस चोरी के संबंध में पवन कुमार सिंह नामक व्यक्ति ने भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्री, प्रकाश जावड़ेकर को 9 नवंबर 2017 को पत्र लिखकर सूचित किया था कि रजनीश कुमार शुक्ल ने सुधा पांडेय की थीसिस से सौ पृष्ठ से अधिक ज्यों का त्यों नकल किया है. इसका मतलब यह है कि सरकार ने सदन के समक्ष सीधा झूठ बोला और शुक्ल को बचाने की कोशिश हुई. सुधा पांडेय को संदेह है कि यहीं से रजनीश कुमार शुक्ल को कुलपति बनाने के लिए मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर और भारत सरकार द्वारा बचाने की कोशिश की गई.
वह बताती हैं कि उन्हें बीएचयू के दफ्तरों के बाहर घंटों बैठे या खड़े रहना पड़ता. कभी-कभी पूरा दिन गुजर जाता है लेकिन कुछ हासिल नहीं होता. शाम घर वापस आने पर पैरों में बेइंतहां दर्द शुरू हो जाता. फिर भी वह कहती हैं कि अंतिम सांस तक हार नहीं मानने की ठान चुकी थीं.
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ से जुड़े लोगों का दबाव
पांडेय ने बताया कि पिछले कुछ दिनों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोगों, स्वयं रजनीश कुमार शुक्ल, उनके सगे संबंधियों, रिश्तेदारों द्वारा सुधा पांडेय और उनके परिवार पर आए दिन दबाव डाला गया. उन्होंने रजनीश कुमार शुक्ल के छोटे भाई अरविंद शुक्ल का भी दबाव डालने वालों में नाम लिया. अरविंद शुक्ल बीएचयू छात्रसंघ के उपाध्यक्ष रह चुके हैं पेशे से अध्यापक हैं. पांडेय बताती हैं कि "अरविंद शुक्ल ने हमें लंबे समय तक मानसिक रूप से प्रताड़ित किया. वह हमसे रजनीश कुमार शुक्ल की थीसिस का केस वापस लेने के लिए बोलते थे. हम बहुत डर गए थे. हमने उनका फोन उठाना बंद कर दिया था लेकिन वह लगातार फोन लगाते रहे. अनगिनत बार उन्होंने हमें फोन किया. हाल ही में उनसे हमारे पति विष्णुदत्त पांडेय जी ने बात भी की और कहा कि दोबारा फोन न करें."
सुधा के पति विष्णुदत्त पांडेय थीसिस के मामले से खुद को अलग ही रखना चाहते हैं. वह कहते हैं कि मैं जितना इस मामले से खुद को दूर रखता हूं उतना ही रजनीश कुमार शुक्ल और उनके करीबी हमें खींचकर इस मामले में लाते हैं. आरएसएस के लोगों द्वारा केस वापस लेने के दबाव के संदर्भ में विष्णुदत्त पांडेय कहते हैं कि "रजनीश कुमार शुक्ल के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में कुलपति बनते ही मुझसे आरएसएस से जुड़े कई लोगों ने और रजनीश शुक्ल के भाई अरविंद शुक्ल ने कई बार संपर्क किया. हमें फोन करके उन्होंने बहुत तंग किया. एक बार मजबूर होकर हमने बात की और उन्होंने कहा कि समझौता कर लीजिए. तो हमने कहा कि "जब आप मैनेज करना जानते हो तो मैनेज कर लो, समझौता क्या करना? आप तो समर्थ हो, हमें तो ट्रक के नीचे दबवा सकते हो. दबवा दो लेकिन हम केस वापस लें ऐसा नहीं हो सकता. हमारी पत्नी जब तक लड़ेंगी हम उनके साथ हैं."
सुधा पांडेय 2013 के एक वाकया का जिक्र करते हुए बताती हैं कि “एक बार मैं बनारस में काशी कंप्यूटर की एक दुकान पर रजनीश कुमार शुक्ल के स्पष्टीकरण का जवाब टाइप करा रही थी. घर पहुंचते ही रजनीश कुमार शुक्ल का फोन आ गया. उन्होंने मुझसे कहा कि इसे यहीं खत्म करिए. कोई फायदा नहीं.” वह आशंका जाहिर करती हैं कि दुकानदार ने रजनीश कुमार से बता दिया कि मैं रजनीश द्वारा चोरी की गई थीसिस के संबंध में जवाब टाइप करा रही हूं. इसी तरह हर कदम पर संपूर्णानंद से लेकर बीचयू तक रजनीश के आदमियों से मुलाकात होती रही, जिनसे “मुझे हमेशा डर बना रहता था.”
लगभग 18 वर्षों तक हिंडालको इंडस्ट्रीज लिमिटेड के पॉवर डिवीजन रेणुसागर, सोनभद्र में अध्यापन का कार्य करने के बाद, साल 2002 में रीढ़ का ऑपरेशन होने से पांडेय अस्वस्थ रहने लगीं और अध्यापन का काम 2010 में छोड़ दिया लेकिन थीसिस को लेकर न्याय पाने की उनकी लड़ाई अभी भी जारी है.
(रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद पाठकों की सलाह पर शीर्षक को संशोधित किया गया है.)