पंजाब के बदहाल सरकारी स्कूलों में तबाह होते अनुसूचित जाति के छात्र

छत्तीसगढ़ के देवगांव के एक स्कूल की तस्वीर. यह फोटो प्रतीकात्मक है. फ्रेडरिक सोल्टन/कोर्बिस/गैटी इमेजिस

जुलाई के आखिर में, जब मैंने पंजाब के श्री मुक्तसर साहिब जिले के खुंडे हलाल गांव में सरकारी हाई स्कूल का दौरा किया, तो कॉरिडोर में आठवीं के कुछ छात्र पैर पर पैर धरे बैठे थे. उनके बैग एक खाली कक्षा के अंदर जमीन पर बिखरे थे. कमरे में कोई बेंच नहीं थी. स्कूल के रिकॉर्ड रजिस्टर से पता चलता है कि कक्षा 1 से लेकर 10 तक 361 छात्रों को स्कूल में दाखिला दिया गया. इनमें से 350 यानी लगभग 97 प्रतिशत अनुसूचित जाति समुदाय से हैं.

स्कूल में एक से पांच तक की प्राथमिक कक्षाओं में नामांकित छात्रों की संख्या 2015 में 168 से गिरकर मौजूदा सत्र में 140 रह गई. इन 140 छात्रों में से 138 अनुसूचित जाति के हैं. स्कूल में सामान्य वर्ग के छात्रों की कमी का जिक्र करते हुए, हेडमास्टर जसविंदर सिंह ने कहा, "ये स्कूल, जैसा कि आपने खुद ही देखा है, केवल गरीबों के लिए बने हुए हैं."

राज्य के स्कूल-शिक्षा विभाग के आंकड़ों के अनुसार, प्राथमिक स्कूल पंजाब के सभी सरकारी स्कूलों की हालत बयान करते हैं. पिछले एक दशक में, पंजाब के सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या में 1.2 लाख से भी ज्यादा की गिरावट आई है. 2009-10 के शैक्षणिक सत्र में जहां छात्रों की संख्या 2452203 थी वहीं 2018-19 के सत्र में यह संख्या घटकर 2329622 रह गई. इसके अलावा, स्कूलों में अनुसूचित जाति के छात्रों की संख्या में इसी दौरान लगभग 1.2 लाख का इजाफा हुआ. जहां 2009 में अनुसूचित जाति के छात्रों की संख्या 1418790 थी वहीं 25 जुलाई 2019 तक मौजूदा शैक्षणिक सत्र में यह संख्या बढ़कर 1537759 हो गई. 2009 में 57.8 प्रतिशत अनुसूचित जाति के छात्र थे और इस वर्ष 25 जुलाई तक यह बढ़कर 63.59 प्रतिशत हो गया. आंकड़ों से पता चलता है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा की खराब गुणवत्ता के कारण पहले से अधिक अनुसूचित जाति के छात्र पीड़ित हैं.

श्री मुक्तसर साहिब जिले के लकड़वाली गांव के एक जर्जर सरकारी स्कूल के प्रधानाध्यापक भारत भूषण वधवा ने मुझे बताया कि स्कूल धन की कमी झेल रहा था. पिछले साल ही 120 डेस्क खरीदे, इससे पहले तो छात्र फर्श पर बैठते थे. उन्होंने कहा, "हमने ब्लैक बोर्ड, चाक और कॉपी-किताब जैसी जरूरी चीजों के लिए अपनी जेब से पैसे दिए." शिक्षाविद प्यारे लाल गर्ग, जो पंजाब के बाबा फरीद यूनिवर्सिटी ऑफ हेल्थ साइंसेज के पूर्व रजिस्ट्रार हैं, ने कहा कि यह समस्या बुनियादी ढांचे से परे है.

शिक्षा क्षेत्र में काम कर रही गैर-लाभकारी संस्था, “प्रथम” की 2018 की वार्षिक शिक्षा रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण पंजाब के सरकारी स्कूलों में तीसरी में पढ़ने वाले 59.5 प्रतिशत छात्र गणित में घटा के सवाल नहीं कर सकते, जबकि उनमें से 63.6 प्रतिशत बच्चे दूसरी कक्षा के बच्चों की किताब नहीं पढ़ सकते. इससे भी ज्यादा बुरा यह है कि आठवीं कक्षा में 41.6 प्रतिशत छात्र भाग के सवाल नहीं कर सकते. गर्ग के अनुसार, सरकारी स्कूलों में शिक्षक भी "सामाजिक रूप से अलग-थलग पड़े हुए छात्र ही हैं, जो मुख्य रूप से गरीब परिवारों से आते हैं."

अनुसूचित जाति के जिन परिवारों से मैं मिला उन्होंने गर्ग की बातों की ही तस्दीक की. चालीस साल के एक व्यक्ति जो मुक्तसर जिले में हाउस पेंटर के रूप में काम करते हैं, और उनकी पत्नी, जो एक खेती मजदूर हैं, ने मुझे बताया कि उनके तीन बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं. दंपति ने अपने मालिकों के डर से पहचान जाहिर न करने को कहा. हाउस पेंटर के अनुसार, शिक्षक अक्सर उनके बच्चों का अपमान करते हैं और उनके साथ “इज्जत" से पेश नहीं आते. उन्होंने कहा, शिक्षकों ने अक्सर उनकी जाति का नाम गाली के रूप में इस्तेमाल किया और इस तरह के बयान दिए, जैसे कि "ये चूहड़े-चमार के बच्चे हैं ये क्या पढ़ेंगे.” उन्होंने कहा "शिक्षक अच्छे परिवारों से आते हैं और कभी-कभी हमारे बच्चों को गंभीरता से नहीं लेते," उनकी पत्नी ने कहा, "कोई भी गरीबों की इज्जत नहीं करता है - न स्कूल, न ही बाहर."

सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से स्वस्थ परिवार अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं भेजना चाहते, उनकी इस बात की पुष्टि चिबरनवाली गांव के एक सरकारी हाई स्कूल के शिक्षक हरबंस झुंबा के साथ हुई बातचीत में हुई. गरीब और निचली जातियों के छात्रों का जिक्र करते हुए झुंबा ने कहा, “ऐसे परिवारों से आने वाले बच्चे अक्सर गाली देते रहते हैं. इसलिए, कौन अपने बच्चों को उनके साथ पढ़ाना चाहेगा?” मुक्तसर के भंगवेवाला गांव के एक सरकारी हाई स्कूल में अंग्रेजी की अध्यापिका खुशवीर कौर ने कहा कि जिनके पास पैसा है, वे भेदभाव और जातिवाद के कारण सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों का ​दाखिला नहीं कराते हैं. सरकारी स्कूलों से नाम कटवाने के पीछे यह भी एक कारण नजर आता है.

लखमीरना गांव के एक प्राइमरी स्कूल के प्रिंसिपल बलविंदर सिंह ने मुझे बताया कि उन्होंने राज्य की स्कूल शिक्षा सरकार के दबाव के कारण इस वर्ष अधिक छात्रों को दाखिला दिलाने के लिए घर-घर जाकर अभियान चलाया. राज्य सरकार के आंकड़ों के अनुसार, शैक्षणिक सत्र 2009-2010 में, कुल 248989 छात्रों ने सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा में दाखिला लिया. 2018-2019 में यह आंकड़ा महज 132173 था. 2017 में सरकार ने आधिकारिक तौर पर अपने स्कूलों में प्री-प्राइमरी कक्षाएं आयोजित करने की पहल की. इस पहल के चलते इस साल पहली कक्षा में अधिक छात्रों का दाखिला होना चाहिए था, लेकिन इसमें चालीस हजार से भी ज्यादा की कमी आई है. 2017-2018 के शैक्षणिक वर्ष में यह संख्या 173253 थी जो मौजूदा सत्र में घटकर 132173 रह गई.

एएसईआर की एक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब में 6 से 14 वर्ष के बीच के 52.2 प्रतिशत बच्चों ने निजी स्कूलों में दाखिला लिया है. लेकिन इन निजी स्कूलों में खुंडे हलाल की अनुसूचित जाति समुदाय के लिए दाखिला लेना प्रभावी रूप से बहुत मुश्किल है. खुंडे हलाल में सब्जी बेचने वाले धर्मिंदर सिंह ने मुझे बताया कि दो साल पहले उन्होंने "अच्छी शिक्षा" की उम्मीद में सरकारी स्कूल से नाम कटवा कर अपनी बेटी हरनूर कौर को दूर के एक निजी स्कूल में दाखिला दिलाया था. अपने घर के खर्च के अलावा अपना मेडिकल बिल चुकाने के चलते वे ज्यादा समय तक बच्ची की स्कूल फीस का भार नहीं उठा पाए. तीन-चार महीनों के भीतर ही धर्मिंदर ने निजी स्कूल से नाम कटाकर वापस खुंडे हलाल के सरकारी स्कूल में दाखिला करा दिया.

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के निर्देश पर, पंजाब के निजी स्कूलों में फीस के मनमाने ढांचों पर गौर करने के लिए 2013 में एक समिति बनाई गई थी. गर्ग समिति के सदस्य थे. उन्होंने मुझे बताया कि कुछ निजी स्कूलों के साथ-साथ राज्य सरकार के निकायों ने भी समिति के साथ सहयोग नहीं किया. इसके चलते समिति मई 2017 में उच्च न्यायालय को रिपोर्ट सौंप पाई. अभी तक इसके निष्कर्षों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई है. 2016 में, राज्य सरकार ने पंजाब रेगुलेशन ऑफ फी ऑफ अनएडेड एजुकेशनल इंस्टीट्यूट एक्ट भी पारित किया, जिसने राज्य के अधिकारियों को पंजाब के निजी स्कूलों में फीस बढ़ोतरी को विनियमित करने का प्रावधान किया. समाचार रिपोर्टों के अनुसार, कुछ निजी स्कूल अभी भी अधिनियम के प्रावधानों की अवहेलना कर रहे हैं.

अगर धर्मिंदर अपनी बेटी को किसी निजी स्कूल में भेज पाते हैं, तब भी उसकी शिक्षा की गुणवत्ता में कोई बहुत बड़ा सुधार नहीं होने वाला है. एएसईआर की रिपोर्ट के कुछ मापदंडों के अनुसार, निजी स्कूलों में भी शिक्षा की गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आई है. निजी स्कूलों में कक्षा 3 के छात्रों में से, 58.2 प्रतिशत कक्षा दो की किताबें नहीं पढ़ सके. आठवीं कक्षा में 31.4 प्रतिशत छात्र भाग का सवाल करना नहीं जानते. बलविंदर के अनुसार, “एक गलत धारणा है कि निजी स्कूल बेहतर हैं. यह स्टेटस सिंबल से ज्यादा कुछ नहीं है.” धर्मिंदर की बेटी अब केंद्र सरकार से जुड़े जवाहर नवोदय विद्यालयों में दाखिला लेने की तैयारी कर रही है. उन्होंने कहा कि सरकारी स्कूल ही उनके पास “एकमात्र विकल्प” है.