"सुरेखा भोतमांगे का नाम नहीं सुना है तो आंबेडकर को अवश्य पढ़ें", एक था डॉक्टर एक था संत का अंश

17 सितंबर 2019
आंबेडकर ने पूरी हिम्मत से, जो हिम्मत आजकल के हमारे बुद्धिजीवी नहीं जुटा पाते, कहा था, ''अछूतों के लिए हिन्दू धर्म सही मायने में एक नर्क है.’’
आंबेडकर ने पूरी हिम्मत से, जो हिम्मत आजकल के हमारे बुद्धिजीवी नहीं जुटा पाते, कहा था, ''अछूतों के लिए हिन्दू धर्म सही मायने में एक नर्क है.’’

जाति का विनाश लगभग अस्सी वर्ष पुराना भाषण है. एक ऐसा भाषण, जो कभी दिया न जा सका. जब मैंने इसे पहली बार पढ़ा तो लगा, मानो कोई व्यक्ति किसी घुप अंधेरे कमरे में जाए और फिर खिड़कियां खोल दे. जो कुछ भी भारतवासियों को स्कूल में पढ़ाया जाता है और जो असली वास्तविकता हम हर रोज अपने जीवन में देखते और भुगतते हैं, उसमें एक खाई है और डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर का अध्ययन उस खाई के बीच एक पुल का काम करता है.

मेरे पिता एक हिन्दू परिवार से थे, जो बाद में ब्रह्म समाजी बन गए. मैं उनसे तब तक नहीं मिली, जब तक मैं बीस-बाईस साल की नहीं हो गई. मैं कम्युनिस्ट-शासित केरल के एक छोटे से गांव आईमनम में, एक सीरियन ईसाई परिवार में, अपनी मां के साथ पली-बढ़ी. और फिर भी मेरे चारों ओर जाति की फटन और दरारें थीं. आईमनम में एक अलग 'परयां’ चर्च था जहां 'परयां’ पादरी एक 'अछूत’ धार्मिक समूह को उपदेश देते थे. हर व्यक्ति की जाति, उसके नाम से, एक-दूसरे को सम्बोधित करने के तरीके से, पेशे से, पहनावे से, उनकी तय की हुई शादियों से या उनकी बोली-भाषा से एकदम स्पष्ट हो जाती थी. इस सब के बावजूद मुझे स्कूल की किसी भी पाठ्यपुस्तक में जाति के विषय में कभी कुछ भी पढ़ने को नहीं मिला. आंबेडकर को पढ़ने से मुझे अहसास हुआ कि हमारे शैक्षणिक संसार में कितनी चौड़ी खाई है. उनको पढ़ने से यह भी साफ हो गया कि यह खाई क्यों है, और हमेशा क्यों रहेगी जब तक कि भारतीय समाज में कोई बुनियादी इन्कलाबी बदलाव नहीं आ जाता.

इंकलाब भी आते हैं, और अक्सर इंकलाबों का आगाज पढ़ने से होता है.

यदि आपने मलाला यूसुफजई का नाम सुना है लेकिन सुरेखा भोतमांगे का नहीं, तो आप आंबेडकर को अवश्य पढ़ें.

मलाला ऐसी लड़की थी जिसकी आयु मात्र पंद्रह वर्ष थी, लेकिन तब तक वह कई 'अपराध’ कर चुकी थी. पाकिस्तान की स्वात घाटी में रहती थी, बीबीसी ब्लॉगर थी, न्यूयॉर्क टाइम्स वीडियो में आई थी, और स्कूल जाती थी. मलाला डॉक्टर बनना चाहती थी, लेकिन उसके पिता उसे राजनेता बनाना चाहते थे. वह एक बहादुर बालिका थी. जब तालिबान ने फरमान जारी किया कि स्कूल लड़कियों के लिए नहीं बने हैं, अर्थात् लड़कियां स्कूल न जाएं, तब मलाला ने परवाह नहीं की. तालिबान ने धमकी दी कि यदि मलाला ने उनके विरुद्ध बोलना बन्द नहीं किया, तो उसकी हत्या कर दी जाएगी. 9 अक्टूबर, 2012 को एक बन्दूकधारी ने मलाला को स्कूल बस से नीचे घसीट लिया, और उसके सर में गोली दाग दी. मलाला को इंग्लैंड ले जाया गया जहां उसे सर्वोत्तम सम्भव चिकित्सकीय सुविधा मिली, और वह बच गई. यह एक चमत्कार ही था.

अरुंधति रॉय द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस की लेखिका हैं. यह उपन्यास हिंदी में अपार ख़ुशी का घराना नाम से प्रकाशित हुआ है.

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