सुबह के धुंधलके में कुछ लड़कियां एक खुले मैदान में खड़ी हैं. उन्होंने जर्सी और फ्लोरोसेंट रंग के मोजे पहने हुए हैं. जमीन पर एक गंदली सी फुटबॉल पड़ी है और ठीक सामाने गोल पोस्ट है. अभी-अभी किसी ने गोल पोस्ट पर जाल लगाया है. कुछ दूरी पर लड़कियां एक लाइन में खड़ी हैं. उनके बीच कोई फासला नहीं है. कुछ एक-दूसरे से हाथों से सटीं, इस बारे में हैरान जान पड़ती कि आखिर क्या होना है? फिर भी वे ध्यान से झुकी हुई हैं. कई अपनी जिंदगी में पहली बार फुटबॉल खेलने वाली हैं.
कोलकाता के पार्क सर्कस मैदान पर यही नजारा था जब फोटोग्राफर पारोमिता चटर्जी 2018 की एक सुबह वहां पहुंचीं. लड़कियों को एक गैर-लाभकारी संस्था श्रीजा इंडिया द्वारा आयोजित एक शिविर में फुटबॉल खेलना सिखाया जा रहा था. इस संस्था का मकसद हाशिए के समुदायों की औरतों को मजबूत बनाना है. मैदान पर कहीं किसी तरफ लड़के क्रिकेट खेल रहे थे और कुछ जॉगिंग कर रहे थे. लेकिन भीड़ लड़कियों को खेलता देखने के लिए उमड़ पड़ी थी.
तब चटर्जी की ज्यादा दिलचस्पी इस बात को जानने की थी कि लड़कियों के फुटबॉल खेलते देख लोग क्या प्रतिक्रिया देते हैं. उन्हें लोगों से तिरस्कार पूर्ण बातें सुनी. कोई कह रहा था, "यह किसी चीज का विज्ञापन हो रहा है." दर्शक कौतूहल से भरे थे. कइयों के भाव में तिरस्कार साफ दिखता था.
लेकिन जब चटर्जी ने उन लड़कियों से बात की, तो एक बिल्कुल अलग ही कहानी सामने आई. "जिस तरह वे सुबह-सुबह प्रैक्टिस में आती हैं, वह क्या नजारा होता है," चटर्जी उनके उत्साह और जोश से हैरान होकर बताती हैं. चटर्जी ने कहा कि लड़कियों के मजबूत इरादे और तमाशबीनो के तिरस्कार के बीच के फर्क ने उन्हें इसे एक फोटोग्राफी प्रोजेक्ट बनाने का विचार दिया.
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