मुकाबला

पश्चिम बंगाल में फुटबॉल और पितृसत्ता का टकराव

तस्वीरें पारोमिता चटर्जी टेक्स्ट Tusha Mittal
26 April, 2022

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सुबह के धुंधलके में कुछ लड़कियां एक खुले मैदान में खड़ी हैं. उन्होंने जर्सी और फ्लोरोसेंट रंग के मोजे पहने हुए हैं. जमीन पर एक गंदली सी फुटबॉल पड़ी है और ठीक सामाने गोल पोस्ट है. अभी-अभी किसी ने गोल पोस्ट पर जाल लगाया है. कुछ दूरी पर लड़कियां एक लाइन में खड़ी हैं. उनके बीच कोई फासला नहीं है. कुछ एक-दूसरे से हाथों से सटीं, इस बारे में हैरान जान पड़ती कि आखिर क्या होना है? फिर भी वे ध्यान से झुकी हुई हैं. कई अपनी जिंदगी में पहली बार फुटबॉल खेलने वाली हैं.

कोलकाता के पार्क सर्कस मैदान पर यही नजारा था जब फोटोग्राफर पारोमिता चटर्जी 2018 की एक सुबह वहां पहुंचीं. लड़कियों को एक गैर-लाभकारी संस्था श्रीजा इंडिया द्वारा आयोजित एक शिविर में फुटबॉल खेलना सिखाया जा रहा था. इस संस्था का मकसद हाशिए के समुदायों की औरतों को मजबूत बनाना है. मैदान पर कहीं किसी तरफ लड़के क्रिकेट खेल रहे थे और कुछ जॉगिंग कर रहे थे. लेकिन भीड़ लड़कियों को खेलता देखने के लिए उमड़ पड़ी थी.

तब चटर्जी की ज्यादा दिलचस्पी इस बात को जानने की थी कि लड़कियों के फुटबॉल खेलते देख लोग क्या प्रतिक्रिया देते हैं. उन्हें लोगों से तिरस्कार पूर्ण बातें सुनी. कोई कह रहा था, "यह किसी चीज का विज्ञापन हो रहा है." दर्शक कौतूहल से भरे थे. कइयों के भाव में तिरस्कार साफ दिखता था.

लेकिन जब चटर्जी ने उन लड़कियों से बात की, तो एक बिल्कुल अलग ही कहानी सामने आई. "जिस तरह वे सुबह-सुबह प्रैक्टिस में आती हैं, वह क्या नजारा होता है," चटर्जी उनके उत्साह और जोश से हैरान होकर बताती हैं. चटर्जी ने कहा कि लड़कियों के मजबूत इरादे और तमाशबीनो के तिरस्कार के बीच के फर्क ने उन्हें इसे एक फोटोग्राफी प्रोजेक्ट बनाने का विचार दिया.

खेल के बाद मैदान में पड़ा टेकोमा फूल. लड़कियां इसे अपने साथ लेकर आती हैं. हालांकि पश्चिम बंगाल में फुटबॉल खासा लोकप्रिय है लेकिन पारंपरिक रूप से इसे एक मर्दाना खेल के रूप में देखा जाता है.
कई खेलों में साजो सामान के अतिरिक्त खर्च होते हैं. जबकि टबॉल एक किफायती और कम खर्चीला खेल है. श्रीजा इंडिया के संस्थापक शिब शंकर दासगुप्ता ने चटर्जी को बताया, "आपको बस एक फुटबॉल और खेलने की जगह चाहिए."

 

शामिल लड़कियों में से कई वंचित समुदायों से आती हैं- कुछ स्कूल छोड़ चुकीं हैं और कुछ गरीबी की मार झेल रही हैं. कुछ शारीरिक शोषण की शिकार रहीं. शिविर टीम भावना को बढ़ाने और उन्हें एक नई सामूहिक पहचान देने की कोशिश करता है.

2018 से चटर्जी पश्चिम बंगाल के तीन जिलों- कोलकाता, बीरभूम और पूर्वी बर्धमान के ग्रामीण इलाकों में श्रीजा इंडिया के फुटबॉल प्रशिक्षण शिविरों का दौरा कर रही हैं. इसके चलते तैयार हुआ फोटो प्रोजेक्ट, जिसका शीर्षक "ड्रिब्लिंग पास्ट पैट्रिआर्की" है. यह इस बात की पड़ताल करता है कि औरतों के लिए एक ऐसे समाज में फुटबॉल खेलने के क्या मायने हैं जो उन्हें लगातार नियंत्रण में रखना चाहता है. चटर्जी की तस्वीरें जेंडर, पहचान और दुनिया की निगाहों की पड़ताल करती हैं. तस्वीरों में करीबी लम्हों को कैदा किया गया है : जैसे कि खेल के बाद टीम की जर्सी को समेटना या तेज धड़कते दिल, बेहिचक नंगी घास पर लेटना. इसके बावजूद ये तस्वीरें बाहरी शक्ति संरचना को दर्शाती हैं जिसमें औरतों का खुले मैदान में खेलना उनकी कहानी के लिए एक रूपक बन जाती है. खेल का मैदान उनकी मजबूरी भी है और मुक्त भी. एक ऐसी जगह जहां उन पर निगाहें होती हैं और उनके बारे में राय कायम की जाती है. इसके बावजूद यह ऐसी जगह है जो धीरे-धीरे मुक्ति का स्थान बन जाती है.

फुटबॉल पश्चिम बंगाल में खासा मशहूर है- दोपहर की धूप में आस-पड़ोस में लड़कों को फुटबॉल खेलते देखना यहां आम है. लेकिन सामाजिक कायदे औरतों को लगातार घर में बंद रखते आए हैं. कई मायनों में यह भी एक वजह है कि लड़कियों का फुटबॉल खेलना ध्वंस और बगावत की कार्रवाई बन जाता है. चटर्जी कहती हैं कि लड़कियों के खेलना शुरू करने से पहले फुटबॉल उनके लिए 'सोच से बाहर' था. कुल मिलाकर उनकी तस्वीरें किसी बेमेल काम को सहज करने की कोशिश जान पड़ती हैं.

पूर्वी बर्धमान जिले के बेलकुली गांव की रहने वाली 14 साल की मंजू बस्के को अपने सौतेले बाप की शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी. उसे दो साल के लिए स्कूल छोड़ने पर भी मजबूर किया गया. जब वह फुटबॉल शिविर में शामिल हुई तो वह घर के अपने संघर्षों को पीछे छोड़कर खेल पर ध्यान लगा सकी. वह धीरे-धीरे शिविर की सबसे बेहतरीन खिलाड़ियों में से एक बनती जा रही है.

शिविरों में आने वाली ज्यादातर लड़कियां वंचित पृष्ठभूमि से आती हैं- कुछ ने स्कूल छोड़ दिया है क्योंकि उनके माता-पिता फीस नहीं भर सकते थे या उन्होंने लड़कियों के बजाए अपने लड़कों को पढ़ाना चुना है. जबकि लड़कियों को घर पर रहने और घर के कामों तक सीमित कर दिया गया है. इसके साथ ही इन लड़कियों को शारीरिक शोषण का सामना करना पड़ता है. कई मामलों में माता-पिता पहले अपनी बेटियों को फुटबॉल शिविर में नहीं जाने देना चाहते. ऐसे में संस्थान को अक्सर बीच-बचाव करना और परिवारों को समझाना पड़ता है. चटर्जी ने एक आम बात बताई जो लड़कियों ने परिवार के सदस्यों और पड़ोसियों से सुनी. चटर्जी ने बताया कि लड़कियों से ऐसा पूछा जाता है कि "अगर तुम लड़कों का खेल खेलोगी तो तुमसे कौन शादी करेगा? अगर तुमको चोट लग गई या तुम्हारे चेहरे पर कोई निशान आ गया तो कौन तुमसे शादी करेगा? यह मर्दों का खेल है."

इस गैर-लाभकारी संस्थान ने कुछ शिविरों में टीमों को जर्सी, शॉर्ट्स और जूते दिए. फंडिंग के जरिए ऐसा हो पाया. बाकी जगह लड़कियां अपने रोजमर्रे के कपड़ों में खेलती हैं और कभी-कभी तो नंगे पैर ही. खेल के दौरान लड़कियां जो शॉर्ट्स पहनतीं हैं उसके लिए लोग अक्सर उसकी आलोचना करते हैं. चटर्जी बर्धमान शिविर में मिली 18 साल की लड़की सोनिया खातून की कहानी याद करती हैं. "वह मेरे सामने फूट पड़ी," चटर्जी ने कहा. खातून का उसके पड़ोसियों ने "जिस्म की नुमाइश करने" के लिए मजाक बनाया था लेकिन खातून को ज्यादा परेशानी तब हुई जब उसकी मां ने भी उसके शॉर्ट्स की आलोचना की. "जब दूसरों ने ऐसा कहा तो मुझे दुख नहीं हुआ लेकिन जब मेरी मां ने भी ऐसा कहा तो मुझे सबसे ज्यादा दुख हुआ."

ऐसी शिकायतों के चलते, कुछ लड़कियां मैदान में पहुंच कर ही अपने फुटबॉल के कपड़े बदलतीं हैं. यह भी खासा चुनौतियों से भरा था. बीरभूम जिले के राजनगर ब्लॉक में एक शिविर का जिक्र करते हुए चटर्जी ने कहा, "उनके पास कपड़े बदलने के लिए ठीक जगह भी नहीं थी. वहां एक छोटा सा जंगल था. वे जंगल में झाड़ियों के पीछे चली जातीं, एक दूसरे को पर्दा करती हुई जर्सी और शॉर्ट्स पहनतीं."

समाज अक्सर उनके कपड़े पहनने के तरीकों से आगे निकल कर उनकी पहचान पर तक सवाल उठाता है. "मुझे लिपस्टिक लगाना पसंद है," चटर्जी ने कहा कि एक खिलाड़ी ने उन्हें बताया. "जब मैं किसी शादी में जाती, तो लोग कहते, दिन में तुम बाहर जा कर फुटबॉल खेल रही हो और रात में तुम लिपस्टिक लगा रही हो, तो तुम क्या हो? तुम लड़की या मर्द या बीच में कहीं हो?"

बीरभूम जिले के राजनगर ब्लॉक की खिलाड़ी खेल से पहले इकट्ठा होते हुए. इनमें से कई पहली पीढ़ी की खिलाड़ी हैं जो जीवन में पहली बार फुटबॉल खेल रही हैं.
खेलों में औरतों को विभिन्न मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है. इस तरह की बाधाएं उन्हें नियमित प्रशिक्षण और खेल में बने रहने से रोकती हैं.

जैसे ही चटर्जी ने लड़कियों की कहानियां सुनी, उन्होंने पाया कि ये कहानियां हमें खुद से जोड़ सकती हैं. उनकी खुद की जिंदगी अचानक उनके आगे खड़ी थी. उन्होंने बतौर फोटोग्राफर अपने संघर्षों को याद किया. पारंपरिक रूप से फोटोग्राफरी को भी मर्दों के पेशे के बतौर देखा जाता है. चटर्जी ने बताया कि कैसे एक पुरुष मेंटोर ने उन्हें अपना औरतपना खत्म करने के लिए कहा था.

"जब आप मौके पर होते हैं, तो आपको मर्दाना होना चाहिए, आपको गिरी हुई चीजें नहीं करनी चाहिए, आपको जमीनी स्तर पर काम करते वक्त औरताना नहीं होना चाहिए," चटर्जी ने कहा कि उनके गुरु ने उन्हें लगातार बताया. "वह व्यक्ति मुझे मर्द बनने के लिए कहता न कि औरत." शुरू में चटर्जी ने उसकी सलाह मानने की कोशिश की. हालांकि इससे वह भ्रमित हो गईं. उन्होंने कहा कि उन्होंने इस दौरान कभी भी आइलाइनर या लिपस्टिक नहीं लगाई. "तब मुझे किसी दिन एहसास हुआ कि मैं मैं नहीं हूं, मैं वह बन रही हूं. यह एहसास परेशान करने वाला था." यह उन शुरुआती असरों से खुद को मुक्त करने का एक संघर्ष था. चटर्जी ने बताया कि हालांकि उन्होंने धीरे-धीरे अपने काम के जरिए खुद को जाहिर करना सीख लिया.

लड़कियों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, "मैंने उन तकलीफों की पहचान की जिनका वे सामना कर रही हैं." जल्द ही, सहज रिश्ता उभर गया. चटर्जी ने कहा, "जब मैंने इन लड़कियों के साथ बातचीत करना शुरू किया, तो उन्होंने और खुल कर बात की. उनकी कहानियां भी मेरी कहानी से मिलती जुलती हैं."

बीरभूम कैंप में नौवीं कक्षा की छात्र सावित्री हेम्ब्रम. उसके माता-पिता किसान हैं और भाई खेत मजदूर है. वह स्कूली पढ़ाई पूरी करने के बाद पेशेवर रूप से फुटबॉल खेलना चाहती है. उसने कहा कि खेल उसे खुद को बेहतर करने के लिए प्रेरित करता है.
जब ओलीक मरांडी बीरभूम में प्रशिक्षण शिविर में शामिल हुई, वह मितभाषी थी और बोलने में झिझक रही थी. एक साल बाद, वह एक सफल खिलाड़ी और छात्र बन गई जिसने स्कूल में सबसे ज्यादा अंक पाए. वह स्थानीय समुदायों की पहली पीढ़ी की लड़कियों को शिक्षित करने के एक कार्यक्रम में छोटे बच्चों को भी पढ़ाती है. भविष्य में वह एक फुटबॉलर और एक शिक्षक बनना चाहती है.
कैंप में आई 15 साल की खिलाड़ी खुशनुमा ने बताया कि कैसे उसके पड़ोसी शॉर्ट्स पहनने को लेकर उसका मजाक उड़ाते थे. खुशनुमा ने चटर्जी से कहा, "उन्होंने लड़कों के लिए बने खेल को सीखने की हमारी जरूरत पर सवाल उठाया." आखिर में खुशनुमा की मां ने विरोध किया और उसके साथ खड़ी हो गई और जोर देकर कहा कि लड़का और लड़की बराबर हैं. खुशनुमा की मां ने पड़ोसियों से कहा, "वह मेरी लड़की है और मैं चाहती हूं कि वह फुटबॉल खेले."

लड़कियों के लिए किसी औरत को फोटोग्राफर के रूप में देखना एक नया अनुभव था. "उन्होंने कैमरामैन तो देखा था लेकिर उन्हें नहीं पता था कि कोई कैमरावुमन भी हो सकती है," चटर्जी ने कहा. "कुछ लोग मुझे 'कैमरामैन दीदी' कहते. वे बहुत उत्सुक होते कि मैं एक औरत होकर अकेली उनका वीडियो बना रही हूं. वे मुझे बताते कि मैं बहादुर हूं. मैं उन्हें बताती कि वे भी बहादुर हैं. चटर्जी बताती हैं कि इन बातचीतों के जरिए लड़कियों ने उन्हें खुद का वह हिस्सा तलाशने में मदद की जो उन्होंने खो दिया था.

"जब लोग मुझे महिला फोटोग्राफर कहते हैं, तो मैं कहती हूं कि मैं बस फोटोग्राफर हूं," चटर्जी ने कहा. “इसी तरह, यह खेल इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि इसे खेलने वाले का जेंडर क्या है.”

चटर्जी की तस्वीरें इन निश्चित पहचानों को चुनौती देती हैं. कुछ तस्वीरों में दर्शक जेंडर की झलक पाते हैं क्योंकि खिलाड़ियों के औरतपने को उभार कर रखा गया है. इन तस्वीरों में औरतें बेधड़क औरत होती दिख रही हैं, खेलते समय भी उनके बाल हवा में लहरा रहे हैं. दूसरी तस्वीरों में खेल से जुड़े साजो-सामान खिलाड़ियों की जगह तरजीह पाते हैं- फुटबॉल, जाल, घुटने तक ऊंचे मोजे, जर्सी और खुले मैदान की तस्वीरें निज को बौना बना जाती हैं. परंपरागत रूप से ये एक मर्दाना खेल के कुलदेवता हैं. फिर भी चटर्जी की तस्वीरों में उनका मर्दानापन खाक हो जाता है. खेल का ये रोजमर्रा का साजो-सामान एक गहरे अर्थ से लबरेज है- एक मायने में वह लैंगिक पहचान से परे है. ये वे औजार हैं जिनके साथ ये लड़कियां सत्ता संरचनाओं का सामना कर रही हैं. वे एक नई, ज्यादा पेचीदा और बारीक पहचान का प्रतीक बन जाते हैं.

जब लड़कियां खुले मैदान में खेलती हैं तो कई लोग उन्हें देखने के लिए ठहर जाते हैं. कुछ बेअदबी से भरे और कुछ महानता बोध से उपजे दंभ के साथ. ज्यादातर औरतें हीं कभी-कभी प्रेरित और उत्सुक नजर आती हैं. हालांकि, ज्यादातर लोगों के लिए औरतों को फुटबॉल खेलते देखना एक अजीब अनुभव होता है.
फुटबॉल के अभ्यास के दौरान ब्रेक लेती छात्राएं. इनकी उम्र आठ से 18 साल के बीच है. श्रीजा इंडिया लड़कियों को खेलों से पहले भोजन भी देती है.
शांति मुर्मू, पूजा मुर्मू और अंजना हेम्ब्रम बीरभूम जिले के संथाल मूलनिवासी समुदाय से हैं और अपनी जिंदगी में पहली बार विश्व मानचित्र को देख रहे हैं. प्रशिक्षण के अलावा श्रीजा इंडिया लड़कियों को व्यापक दुनिया से परिचित कराने के लिए कार्यशालाएं भी आयोजित करती है.

चटर्जी का काम लैंगिक हकीकतों के केंद्रीय विरोधाभास से जूझता है : साफ तौर पर एक औरत होने की आजादी, अपने औरतपन को छिपाना या उसे काबू में करना नहीं, और न ही इसके आम निशानों को खोना है.  

चटर्जी कहती हैं कि आजादी और आत्म-अभिव्यक्ति की यही खोज लड़कियों को फुटबॉल की ओर ले आई है.चटर्जी ने कहा कि लड़कियों में से एक ने उन्हें बताया, "जिस तरह गोल करने पर मर्द खुशी मनाते हुए अपनी शर्ट उतार कर आसमान की ओर देख दौड़ता है, यह मुझे बहुत पसंद है. इसे देखकर मुझे बहुत खुशी मिलती है. जब मैं कोई गोल करती हूं, तो मैं अपनी शर्ट नहीं उतार सकती, लेकिन जब मैं आसमान की ओर देख दौड़ती हूं, तो मुझे लगता है कि मैंने भी ऐसा ही किया, मुझे लगता है कि मैं कुछ भी कर सकती हूं."

उनके घरों में, चीजें अक्सर धूमिल होती हैं - लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, गरीबी का सामना करना पड़ता है, या घर के काम तक ही सीमित रहती हैं. लेकिन मैदान पर खेल उन्हें आजाद कर देता है. चटर्जी कहती हैं, "वे इस तरह जी रही हैं जैसे घर पर नहीं जी सकती थीं." खेल लड़कियों को अपनापन, आत्मविश्वास और एक नई सामूहिक पहचान की भावना देता है. "वे एक-दूसरे की पीठ थपथपा रही हैं, उछल कर हाई फाइव दे रही हैं, सीमाओं को तोड़ आसमान की ओर देख दौड़ रही हैं, जो उन्हें अगले दिन सुबह फिर से वापस आने की प्रेरणा देता है."

बर्धमान शिविर में लड़कियों को खेलते देखतीं औरतें, जैसे उनसे प्रेरणा ले रही हों. चटर्जी ने कहा, "हमारी जिंदगियों में जो कुछ हुआ है, हम उसे बदल नहीं सकते हैं. लेकिन हमारे बच्चे बहुत बेहतर कर सकते हैं. लड़कियों को खेलते हुए देखना बहुत प्रेरणादायक है, हम बहुत आजाद महसूस करती हैं.”
सोनाली सोरेन 11वीं में पढ़ती है और पूर्वी बर्धमान जिले के शिविर की बेहतरीन खिलाड़ियों में से है. उसने राज्य स्तरीय टूर्नामेंट जीते हैं और फिलहाल 2024 महिला विश्व कप में राष्ट्रीय भारतीय महिला फुटबॉल टीम के लिए खेलने पर विचार चल रहा है. सोनाली के पिता एक सीमांत किसान हैं जिनके पास छोटी जोत है. सोनाली एक दिन भारत के लिए खेलना चाहती है.

 

सोनिया खातून को शॉर्ट्स पहनने के चलते अपने समुदाय और अपने परिवार के लोगों के ताने झेलने पड़े. उसने जेंडर और खेल के बारे में उनकी पूर्व धारणाओं को चुनौती दी और खेलना जारी रखा. उसने अब अपनी छह साल की बहन को प्रेरित किया है, जो बड़ी होकर फुटबॉल खेलना चाहती है.

कई बार लड़कियों को देखकर दूसरी औरतों को भी प्रेरणा मिलती है. एक फोटो में मैदान के बाहर बैठी तीन औरतें खेल रही लड़कियों को दूर से देख रही हैं. इनमें से दो छोटे बच्चों को पकड़े हुए हैं. इस तस्वीर के लोग स्थिर बैठे हैं लेकिन यह बाहर की ओर देखने की बार पर जोर देती है. चटर्जी ने कहा, "हमारे जीवन में जो घट चुका है हम उसे बदल नहीं सकते हैं. लेकिन हमारे बच्चे बहुत बेहतर कर सकते हैं. लड़कियों को खेल खेलते हुए देखना बहुत प्रेरणादायक है, हम बहुत स्वतंत्र महसूस करते हैं.”

चटर्जी ने बीरभूम में दो बार शिविर का दौरा किया, एक बार 2019 की शुरुआत में, जब यह अभी शुरू हुआ था और फिर साल के आखिर में. शुरुआत में, लड़कियां कम बोलने वाली, शर्मीली थीं और किसी अजनबी से बात नहीं करती थीं. पर नौ महीने बाद ही अपनी दूसरी यात्रा पर उन्होंने पाया कि लड़कियां भीतर से होनहार हो रही थीं और जमकर खेल रही थीं.

फुटबॉल कोचिंग के अलावा, जो कि शिविरों का प्राथमिक उद्देश्य है, श्रीजा इंडिया लड़कियों को स्कूल में दाखिला दिलाने में मदद करती है. यह लड़कियों को व्यापक दुनिया से परिचित कराने के लिए कार्यशालाएं भी आयोजित करती है. उनमें से कई ने कभी पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ी या महिला खिलाड़ी नहीं देखी थी या उनके पास कोई महिला रोल मॉडल नहीं था. चटर्जी ने कहा, “कुछ महान फुटबॉलरों, नेताओं के भाषणों, सफल महिला खिलाड़ियों की क्लिपिंग उन्हें यह बताने के लिए दिखाई जाती है कि औरतें भी ऐसा कर सकती हैं.” 

खेल की वर्दी ने लड़कियों को एक नई टीम पहचान दी. अक्सर, पड़ोसी और परिवार के सदस्य उनके कपड़े पहनने के तरीके की आलोचना करते हैं. ऐसी शिकायतों की वजह से कई लड़कियां घर पर नहीं बल्कि मैदान पर जाकर कपड़े बदली हैं. कुछ शिविरों में जहां कपड़े बदलने की कोई जगह नहीं होती वहां लड़कियां अक्सर जंगल में जाकर कपड़े बदलती हैं.

जहां फुटबॉल शिविरों ने कई लड़कियों में जुनून पैदा किया है, वहीं यह अपनी आंतरिक दुविधाओं के साथ आता है. चटर्जी ने कहा कि यह विचार कि औरतों को घरेलू कामों तक ही सीमित रखा जाना चाहिए लड़कियों के भीतर बैठा हुआ है. "मैं एक लड़की हूं, मुझे घर का काम करना है, मुझे पता है कि मैं इससे बच नहीं सकती," खातून ने चटर्जी को बताया था. "लेकिन मैं एक दिन फुटबॉलर बनना चाहती हूं क्योंकि मैं अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूं और अपनी रोजी कमाना चाहती हूं."

चटर्जी की एक तस्वीर में, तीन छोटी लड़कियां कंधे से कंधा सटाए बैठी हैं, ऊपर की ओर देख रही हैं, उनकी आंखें विस्मय से खुली हैं. तस्वीर हमें वह नहीं दिखाती है जो वे देख रहे हैं, फिर भी उनकी निगाहें फोटो से परे फैली हुई जान पड़ती हैं, मानो फ्रेम की सीमाओं के बाहर पहुंच रही हों. लड़कियां अपनी जिंदगी में पहली बार दुनिया के नक्शे को देख रही थीं, उस पर अपने गांव को खोज रही थीं, हैरान थीं कि उनका घर एक छोटा सा बिंदु भर है. 

कभी-कभी लड़कियां रोज के कपड़ों में और नंगे पैर खेलती हैं. हालांकि, जहां फंडिंग से मुमकिन हो पाया वहां गैर-लाभकारी संस्था ने टीमों को जर्सी, शॉर्ट्स और जूते उपलब्ध कराए हैं. 

15 साल की खिलाड़ी सोनी शर्मा कोलकाता कैंप में आराम और सुकून के पलों का मजा लेती हुई. एक ओर लड़कों को बाहर फुटबॉल खेलते हुए देखना आम बात है, वहीं लड़कियों को हमेशा घर के अंदर ही सीमित रखा जाता है. ऐसे में लड़कियों का फुटबॉल खेलना बगावत बन जाता है. खेल उन्हें आजाद करता है.

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