झारखंड में होड़ोपैथी से मलेरिया का उपचार करने वाली आदिवासी महिलाएं

08 जुलाई 2022
वर्ष 2002 में बरईबुरु में आयोजित प्रशिक्षण के दौरान मलेरिया की रोकथाम और इलाज के लिए हर्बल दवाएं तैयार करती आदिवासी महिलाएं. जड़ी-बूटियों से इलाज करना एक पारंपरिक स्वदेशी तरीका और आदिवासी समुदायों के बीच उपचार का एक महत्वपूर्ण भाग रहा है.
गीता राउत
वर्ष 2002 में बरईबुरु में आयोजित प्रशिक्षण के दौरान मलेरिया की रोकथाम और इलाज के लिए हर्बल दवाएं तैयार करती आदिवासी महिलाएं. जड़ी-बूटियों से इलाज करना एक पारंपरिक स्वदेशी तरीका और आदिवासी समुदायों के बीच उपचार का एक महत्वपूर्ण भाग रहा है.
गीता राउत

साल 2020 में ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ता ललिता बोईपई मलेरिया का सर्वेक्षण करने अपने गांव बेरा कुंदरीजोर गई थीं. वह सर्वेक्षण के परिणाम देख कर हैरान रह गईं. उन्होंने मुझे बताया, “मेरी रिपोर्ट में मलेरिया का एक भी मामला नहीं था और मैं यह सोच कर घबरा गई कि उच्च अधिकारी मेरी रिपोर्ट पर शक करेंगे और मुझसे सवाल करेंगे. इस घबराहट में मैंने दो-तीन फर्जी मामले दर्ज कर दिए."

बेरा कुंदरीजोर झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के नोवामुंडी ब्लॉक के 62 गांवों में से एक है. यह जिला मलेरिया महामारी की चपेट में है. राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम के अनुसार झारखंड में 2019 में मलेरिया के 37133 मामले दर्ज किए गए थे जिसमें अकेले पश्चिमी सिंहभूम से 9077 मामले थे, जो पूरे राज्य में सबसे अधिक है. 2020 में ये मामले घट कर 16655 रह गए.

मलेरिया के शून्य मामलों से चकित बोईपई इस चमत्कार को गांव में "मलेरिया काढ़ा" अभियान से जोड़ कर देखती हैं. यह काढ़ा स्थानीय रूप से उपलब्ध वन में मिलने वाली जड़ी-बूटियों से बना एक सिरप है जो मच्छरों के जहर के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रदान करता है. आदिवासी महिलाएं इस काढ़े को प्रत्येक मानसून के मौसम की शुरुआत में तैयार करती हैं और फिर इसे ग्रामीणों में वितरित कर दिया जाता है. इसे तीन दिनों तक खाली पेट आधा गिलास पिया जाता है. यह काढ़ा इस क्षेत्र में तेजी से लोकप्रिय हो गया है.

बोईपाई ने अपने व्यक्तिगत अनुभव से इसकी सफलता के बार मे बताया कि, “पहले हर महीने मेरा एक बच्चा मलेरिया से बीमार पड़ जाता था. मैंने बच्चों के इलाज पर बहुत पैसा खर्च किया. जबसे मैंने इस काढ़े को घर के लोगों को देना शुरू किया है मेरा परिवार मलेरिया से मुक्त हो गया है."

नाओमुंडी के गांवों के निवासियों के लिए दवाओं की उपलब्धता, स्वास्थ्य क्लीनिक तक पहुंच, मुख्य सड़क संपर्क और वित्तीय समस्याएं महत्वपूर्ण मुद्दे रहे हैं. दूसरी ओर हर्बल दवाएं आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं जो काफी किफायती भी होती हैं. सरबिल गांव की रहने वाली हो जनजाति की महिला, बिनीता लागुरी ने मुझे बताया, "मैंने अपने बच्चों को हर्बल दवाओं से ठीक किया और आखिरकार पैसे बचा कर अपना खुद का घर बनाने का सपना पूरा किया. पहले मुझे हर महीने पैसों से जुड़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ता था. मुझे अस्पताल जाने एवं दवाइयां और इंजेक्शन खरीदने में पैसे खर्च करने पड़ते थे.”

नाज़िश हुसैन रांची की फ्रीलांस पत्रकार हैं.

Keywords: Adivasi community Jharkhand indigenous tribe
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