अक्टूबर 2020 में चेन्नई में एक 40 वर्षीय व्यक्ति जिन्होंने कोविशील्ड वैक्सीन के लिए नैदानिक परीक्षण में भाग लिया था, अचानक बीमार पड़ गए. इस कोविड-19 वैक्सीन को सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने स्वीडिश-अमेरिकी कंपनी ऐस्ट्राजनेका और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के साथ मिलकर तैयार किया है. डॉक्टर ने उन्हें बताया कि उन्हें एंसेफैलोपैथी है, जो मस्तिष्क संबंधी तंत्रिका का विकार है. चार दिनों तक वह कभी होश में आते और फिर बेहोश हो जाते. जब वह होश में आते तब भी उनकी हालत बहुत खराब रहती और बहके-बदहवास से रहते. कुछ दिनों तक वह अपने आस-पास के लोगों से बात तक न कर सके और यहां तक कि उन्हें पहचानना भी मुश्किल हो रहा था. “एक बार तो हालत ऐसी हो गई कि उन्हें हमारे बच्चों तक के नाम याद नहीं थे," उनकी पत्नी ने मुझे बताया. एक दिन जब वह अस्पताल में थे तो एक डॉक्टर ने उनकी पत्नी को बताया कि उनकी हालत में सुधार हो रहा है. उन्होंने कहा, "मैं ये सोच कर अंदर गई कि मेरे पति बैठे होंगे और मुझे देखकर मुस्कुराएंगे लेकिन मैंने देखा कि वह बिस्तर पर लेटे हुए दीवार को घूर रहे थे. उन्होंने एक पल के लिए मेरी तरफ देखा लेकिन मुझे पहचाना नहीं. "
पुणे में स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया भारत भर में कई जगहों पर कोविशील्ड का परीक्षण कर रहा है. चेन्नई में रामचंद्र उच्च शिक्षा और अनुसंधान अस्पताल में जहां इसका परीक्षण चल रहा है, उसके शोधकर्ताओं ने 1 अक्टूबर को परीक्षण में शामिल प्रतिभागी को एक इंजेक्शन दिया. 10 दिन बाद प्रतिभागी को तंत्रिका संबंधी दिक्कतें शुरू होने लगीं. प्रतिभागी, उनकी पत्नी और उनके डॉक्टर का मानना है कि परीक्षण के दौरान जो टीका उन्हें लगाया गया था उसके चलते ये लक्षण उभरे हैं लेकिन सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने कहा कि उनकी बीमारी का दवा परीक्षण से कोई लेना-देना नहीं है. परीक्षण में शामिल प्रतिभागी और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने एक-दूसरे को कानूनी नोटिस भेजे हैं. इस पूरे प्रकरण ने वैक्सीन के उम्मीदवारों और अनुमोदित टीकों के बारे में शिकायतों के मामले में कंपनी और सरकार की प्रतिक्रिया पर सवाल उठाया है. यह भारत में नैदानिक परीक्षणों में पारदर्शिता की कमी और उनके नियामक ढांचे की कमियों को भी उजागर करता है.
11 अक्टूबर को परीक्षण में शामिल प्रतिभागी जब उठे तो उन्हें तेज सर दर्द था और मतली आ रही थी. वह ज्यादातर वक्त सोते रहे लेकिन जब वह फिर से उठे तो उनके व्यवहार में गड़बड़ी दिखाई दी. वह अपने परिवेश से नाराज, चिड़चिड़े और अनजान थे. देर शाम तक उन्हें रामचंद्र उच्च शिक्षा और अनुसंधान अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां उन्हें परीक्षण खुराक दी गई. वह बेहोश थे और उनकी शिराओं में तरल पदार्थ डाला गया. परीक्षण करने वाले डॉक्टरों ने 16 दिनों तक उनका इलाज किया.
प्रतिभागी की पत्नी ने मुझे बताया कि परीक्षण स्थल पर डॉक्टरों और मुख्य जांचकर्ता ने सुझाव दिया कि उनमें विटामिन की कमी हो सकती है या उन्हें स्व-प्रतिरक्षा विकार हो सकता है जिसके चलते उनकी हालत ऐसी हुई हो. हालांकि, उनकी जांच में ऐसे किसी ठोस कारण या अंतर्निहित स्थिति का पता चला जिसके चलते एंसेफैलोपैथी हो सकता था. "जब भी मैं पूछती कि उन्हें क्या समस्या हो सकती है, किस कारण से ऐसा हुआ तो वे मुझे बताते कि मुझे खुश होना चाहिए कि मेरा पति ठीक हो रहा है," उन्होंने कहा.
26 अक्टूबर को उनके परिवार ने अस्पताल से उन्हें छुट्टी देने का अनुरोध किया. तब तक प्रतिभागी थोड़ा-बहुत पहचाने लगे थे और परिवार के सदस्यों तथा स्वास्थ्य कर्मचारियों के साथ बातचीत करने में सक्षम थे. वह उल्टी किए बिना भी ठोस आहार ले रहे थे. हालांकि वह उलझन में रहे और इस बात पर ध्यान लगाने या याद करने में नाकाम रहे कि जब वह अस्पताल में थे उस दौरान क्या हुआ था. उनकी पत्नी ने मुझे बताया कि अस्पताल से छुट्टी होने के बाद भी हफ्तों तक उनकी हालत ऐसी ही रही और इसलिए परिवार ने दूसरे डॉक्टर से सलाह लेने का फैसला किया. "परीक्षण स्थल पर डॉक्टरों ने मेरे पति का इलाज किया लेकिन उन्होंने हमें यह नहीं बताया कि अचानक हुई इस बीमारी का कारण क्या है और उनकी हालत में भी कोई सुधार नहीं था ऐसी हालत में हमारे पास अन्य न्यूरोलॉजिस्ट से, जो दवा परीक्षण में शामिल नहीं थे, सलाह लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था," उनकी पत्नी ने मुझसे कहा.
परिवार ने चेन्नई के अपोलो अस्पताल में न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. जहीर अहमद सईद से सलाह ली. सईद ने कई जांचें की लेकिन तंत्रिका संबंधी दिक्कत का कारण नहीं मिल सका. उन्होंने कहा कि "न्यूरो मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन से पता चलता है'' कि व्यक्ति के मस्तिष्क के काम करने के तरीके और संरचना ''में बहुत नाजुक से बदलाव हुए हैं." उन्होंने 21 नवंबर को लिखे एक पत्र में इन टिप्पणियों को लिखा है, जिसे प्रतिभागी के वकील ने मुझे दिखाया. इस बीच परीक्षण में शामिल प्रतिभागी और उनके परिवार से सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया या सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन ने किसी तरह का संपर्क नहीं किया. उन्होंने कहा, ''किसी ने भी हमें जांच करने या किसी भी अन्य गतिविधि के बारे में सूचित नहीं किया. हमें खुद के भरोसे छोड़ दिया गया. हम परेशान थे और नाराज थे और हम इस घटना को सबके सामने बताना चाहते थे," प्रतिभागी की पत्नी ने कहा.
21 नवंबर को प्रतिभागी और उनके परिवार ने आईसीएमआर के महानिदेशक बलराम भार्गव, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला, ड्रग्स कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया वेणुगोपाल जी सोमानी, एस्ट्राजेनेका के सीईओ पास्कल सोरियट, ऑक्सफोर्ड वैक्सीन के मुख्य जांचकर्ता एंड्रयू पोलार्ड और पीवी श्री रामचंद्र उच्च शिक्षा और अनुसंधान अस्पताल के कुलपति विजयराघवन को कानूनी नोटिस भेजा है. 29 नवंबर को सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने एक बयान जारी किया जिसमें 100 करोड़ रुपए से अधिक के नुकसान की मांग की धमकी दी है. उन्होंने दावा किया कि प्रतिभागी की हालत और वैक्सीन के बीच कोई संबंध नहीं है.
यह देखते हुए कि गंभीर प्रतिकूल प्रतिक्रिया ने परीक्षण के संबंध में कई सवाल उठाए थे, दवाइयों के उपयोग पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों के एक स्वतंत्र नेटवर्क अखिल भारतीय ड्रग एक्शन नेटवर्क के सदस्यों ने इस तथ्य पर चिंता व्यक्त करते हुए एक पत्र लिखा था जिसमें एसआईआई ने 6 दिसंबर को सीडीएससीओ से आपातकालीन स्वीकृति अनुरोध किया था. 8 दिसंबर का पत्र कोविशील्ड परीक्षण के सह-प्रायोजक भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद, नीती अयोग के सदस्य विनोद के पॉल, जो कोविड-19 टीकाकरण पर विशेषज्ञ समिति के प्रमुख हैं, और स्वास्थ्य सचिव और नैदानिक परीक्षण नियमों के लिए शीर्ष प्राधिकरण राजेश भूषण को संबोधित किया गया था. इस पत्र में परीक्षण में शामिल प्रतिभागी को कानूनी नोटिस भेजने के एसआईआई के फैसले की भी निंदा है. "परीक्षण के सह-प्रायोजक होने के नाते आईसीएमआर को कंपनी द्वारा इस तरह की धमकी की रणनीति को रोकना चाहिए," एआईडीएएन के सदस्यों ने लिखा.
1 दिसंबर को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह दावा करते हुए कि मामला विचाराधीन है, भूषण ने कहा कि वह इस मामले पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते. अगले दिन समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया ने बताया कि सोमानी, जो क्लिनिकल ट्रायल को मंजूरी देने के लिए जिम्मेदार सीडीएससीओ में शीर्ष अधिकारी हैं, ने गंभीर प्रतिकूल प्रतिक्रिया और कोविशील्ड वैक्सीन के परीक्षण खुराक के बीच किसी भी तरह के जुड़ाव को खारिज कर दिया है. पीटीआई ने बताया कि सोमानी का मूल्यांकन एक स्वतंत्र विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों पर आधारित था. इंडियन जर्नल फॉर मेडिकल एथिक्स की एक परामर्श संपादक संध्या श्रीनिवासन ने कहा, “बिना इस पारदर्शिता के कि प्रतिकूल प्रतिक्रिया से कैसे निपटा गया और कैसे सरकारी अधिकारियों ने निष्कर्ष निकाला कि दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है, हमारे समाने कई अनुत्तरित सवालों और नैतिक चिंताओं को खड़ा करता है."
दवाओं, टीकों या चिकित्सा उपकरणों के परीक्षण के लिए सभी नैदानिक परीक्षण संभावित प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं के लिए तैयार रहते हैं. ज्यादातर मामलों में परीक्षण खुराक की प्रतिक्रियाएं हल्की और गैर-जानलेवा होती हैं. कोविशील्ड के परीक्षणों में प्रतिभागियों को कहा गया था कि वे जहां इंजेक्शन लगा है उसमें दर्द, सूजन और लाल हो जाने, थकान, बुखार और ठंड लगने जैसे लक्षणों पर ज्यादा ध्यान न दें. हल्के से लेकर मध्यम स्तर की ये प्रतिकूल लक्षण आमतौर पर कुछ दिनों के भीतर गायब हो जाते हैं. लेकिन हर परीक्षण गंभीर प्रतिकूल घटना या एसएई पीड़ित प्रतिभागी के जोखिम को बढ़ाता है. सीडीएससीओ के अनुसार, गंभीर प्रतिकूल घटना “से मौत हो सकती है, रोगी को अस्पताल में भर्ती करना पड़ सकता है और लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ सकता है, निरंतर या गंभीर विकलांगता या अक्षमता हो सकती है, बच्चा पैदा करने में विसंगति या जन्म दोष हो सकता है या जीवन के लिए खतरा हो सकता है.” परीक्षण में नामांकित रोगी में देखी गई ऐसी किसी भी प्रतिक्रिया को एसएई के रूप में संदर्भित किया जाता है, भले ही अभी यह तय किया जाना बाकी हो कि क्या ऐसा एसएई परीक्षण के कारण ही हुआ था.
सितंबर में एस्ट्राजेनेका ने खुलासा किया कि ब्रिटेन में परीक्षण में शामिल एक प्रतिभागी में दुर्लभ प्रतिकूल लक्षण दिखे हैं. उनमें रीढ़ की हड्डी में गंभीर समस्या वाले तंत्रिका संबंधी लक्षण सामने आए, जिसे ट्रांसवर्स माइलिटिस कहा जाता है. कंपनी ने परीक्षण को तुरंत रोक दिया और मामले की जांच करने के तीन दिन बाद यह घोषणा करते हुए परीक्षण फिर से शुरू किया कि प्रतिभागी की इस हालत के लिए वैक्सीन जिम्मेदार नहीं थी. भारत में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने अपना परीक्षण तब तक जारी रखा जब तक कि डीसीजीआई ने उन्हें कारण बताओ नोटिस भेज कर इसे रोक देने के लिए नहीं कहा. डीसीजीआई के नोटिस के बाद एसआईआई ने अपने नए स्वयंसेवकों के लिए प्रतिकूल घटना की जानकारी के साथ परीक्षण में शामिल प्रतिभागियों के इकरारनामों को अपडेट किया. एसआईआई ने एस्ट्राजेनेका के ब्रिटेन में फिर से शुरू होने पर ही अपना परीक्षण फिर से शुरू किया.
भारत में नैदानिक परीक्षण में शामिल ऐसे प्रतिभागियों को, जिन्होंने गंभीर प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं झेली हैं, जवाब देने, इलाज करने और क्षतिपूर्ति करने का रिकॉड खराब है. 2017 में सार्वजनिक स्वास्थ्य की पैरोकारी करने वाले समूह स्वास्थ अधिकार मंच ने सूचना के अधिकार के तहत नैदानिक परीक्षणों में गंभीर प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं के बारे में डेटा मांगा था. नवंबर 2017 में स्वास्थ्य मंत्रालय ने आरटीआई का जवाब दिया कि 2005 से 2016 के बीच 20758 नैदानिक परीक्षण प्रतिभागियों को गंभीर प्रतिकूल प्रतिक्रियाओं का सामना करना पड़ा था. आरटीआई के जवाब से यह भी पता चला कि ऐसे प्रतिकूल लक्षणों से 4500 परीक्षण प्रतिभागियों की मृत्यु हो गई लेकिन परीक्षणों की प्रायोजक दवा कंपनियों से केवल 160 परिवारों को मुआवजा मिला. 160 परिवारों का जिक्र करते हुए स्वास्थ अधिकार मंच के संयोजक अमूल्य निधि ने कहा, “हमारे पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि ये लोग कौन हैं तथा उन पर किन दवाओं का परीक्षण किया गया था इसलिए हम यह भी सुनिश्चित नहीं कर सकते कि अपने नुकसान के लिए उन्हें उचित मुआवजा दिया गया था या नहीं.''
पांच साल पहले 2012 में भारत सरकार ने भारत के नैदानिक परीक्षण नियमों में खामियों को हल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी. पीआईएल ने उन घटनाओं का हवाला दिया जहां प्रतिभागियों को गलत जानकारी दी गई थी और जहां जबरन सहमति ली गई थी और प्रतिभागियों में प्रतिकूल लक्षण सामने आए थे जिसके लिए उन्हें चिकित्सा देखभाल या पर्याप्त मुआवजा नहीं दिया गया था. अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को तब तक सभी चिकित्सकीय परीक्षणों को रोकने का आदेश दिया जब तक कि मौजूदा नियमों में संशोधन नहीं हो जाता ताकि नैदानिक परीक्षणों में शामिल प्रतिभागी की सुरक्षा और कठोर निगरानी सुनिश्चित हो सके.
2013 और 2019 के बीच सरकार ने इन खामियों को खत्म करने के प्रयास में मौजूदा कानूनों और नियमों में संशोधन किया. इन नए विनियमों में सबसे व्यापक और विस्तृत 2019 के नये दवा और क्लिनिकल परीक्षण नियम थे. इसने मुआवजे के कानूनों की शुरुआत की और यह निर्धारित करने के बारे में विवरण दिया कि कैसे कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया परीक्षण से संबंधित है या नहीं. इसने मुआवजे की व्यवस्था भी की, प्रायोजकों को क्षतिपूर्ति प्रदान करने के लिए जवाबदेह बनाया. निधी ने कहा कि कानून में हुए बदलाव के बावजूद अनैतिक परीक्षण प्रथाएं समाप्त नहीं हुईं. उन्होंने कहा, "हर साल हम ऐसे नए मामले देखते हैं जिनमें स्वयंसेवकों का शोषण होता है और उन्हें जो नुकसान होता है उसकी भरपाई नहीं होती."
2018 में ग्लेनमार्क फार्मास्यूटिकल्स राजस्थान के चूरू जिले में पुराने ऑस्टियोआर्थराइटिस के दर्द के लिए एक दवा परीक्षण में अनैतिक प्रथाओं के लिए जांच के दायरे में आया था. द वायर की एक रिपोर्ट के अनुसार, परीक्षण में शामिल 19 प्रतिभागियों को बताया गया कि वे एक मेडिकल कैंप में जा रहे हैं, जहां उन्हें एक दिन की दिहाड़ी, शराब, खाना और इंडियन प्रीमियर लीग क्रिकेट मैच देखने का मौका मिलेगा. दिन ढलने तक पुरुषों को मालपानी मल्टीस्पेशलिटी अस्पताल ले जाया गया जहां उन्हें रात का खाना दिया गया और परीक्षण के तहत दवा दी गई. अगले दिन परीक्षण के कुछ प्रतिभागियों को दर्द, उनींदापन और बुखार जैसी प्रतिकूल प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा. कुछ अन्य लोगों को दीर्घकालिक परिणामों का सामना करना पड़ा, उन्हें सीने में दर्द और निरंतर थकान की शिकायत थी, जिसने उन्हें मजदूरी कर पाने में असमर्थ बना दिया. आखिरकार, सीडीएससीओ ने हस्तक्षेप किया और परीक्षण रोक दिया गया. तो भी प्रतिभागियों को चिकित्सा उपचार की पेशकश नहीं की गई. निधि ने कहा, "स्पष्ट रूप से परीक्षण प्रतिभागियों के अधिकारों की रक्षा करने को लेकर हमारे नियामकों पर निर्भर नहीं किया जा सकता है," निधि ने इस घटना पर टिप्पणी करते हुए कहा.
कागजों में तो परीक्षणों की निगरानी के लिए नियामक संस्थाओं के साथ मिलकर पूरी जांच होती है. प्रमुख जांचकर्ता और प्रायोजक के अलावा, अस्पताल की आचार समिति, डीसीजीआई और डेटा सुरक्षा निगरानी बोर्ड को एक एसएई की सूचना दी जाती है. डीसीजीआई में प्रतिकूल घटनाओं की जांच के लिए एक और स्वतंत्र समिति गठित करने की शक्ति है, जो चेन्नई में परीक्षण में शामिल प्रतिभागी के मामले में भी की गई थी.
निधि ने कहा, “कोई ऑडिट नहीं हुआ है. यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि सभी प्रक्रियाओं का सही तरीके से पालन किया जा रहा है या नहीं. जब हम अनैतिक रूप से किए जा रहे किसी परीक्षण पर आवाज उठाते हैं, तब जाकर उनका ध्यान इस पर जाता है, नहीं तो हमें कैसे पता चलेगा कि उन प्रतिभागियों के साथ वास्तव में क्या हुआ है जो प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं झेलते हैं?"
सर्वोच्च न्यायालय के वकील आनंद ग्रोवर ने 2008 और 2014 के बीच स्वास्थ्य के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत के तौर पर काम किया है. उन्होंने नैदानिक परीक्षण की निगरानी के साथ लगाए गए नियामकों और स्वतंत्र समितियों के बीच हितों के संभावित टकराव की बात की. उदाहरण के लिए, प्रायोजक डेटा सुरक्षा निगरानी बोर्ड का गठन करता है, जिसे एक स्वतंत्र समिति माना जाता है. इस स्वतंत्र विशेषज्ञ समिति के चुनाव का तरीका भी पारदर्शी नहीं है. “नैतिक समितियों में एक ही लोग होते हैं. और जब यह अपारदर्शी क्लब इन फैसलों को करता है, तो प्रक्रिया की अखंडता से समझौते का खतरा होता है,” ग्रोवर ने कहा.
ग्रोवर ने कहा कि एक मजबूत नियामक तंत्र की गैर-मौजूदगी में 2019 नैदानिक परीक्षण नियम प्रतिभागियों के स्वास्थ्य और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं. उन्होंने कहा, ''नियमों में नैतिकत समितियों का अनिवार्य पंजीकरण है और मामले में परीक्षण संबंधी चोट या मृत्यु पर मुआवजा दिया जाना चाहिए लेकिन इस बारे में कोई पारदर्शिता नहीं है. ऐसे में हमारे पास उपाख्यानों के डेटा के सिवाय, इस बारे में कोई ठोस राय नहीं है कि क्या चीजें काम कर रहे हैं या नहीं."
विशेषज्ञों ने मुझे बताया कि कुछ नियम कहते हैं कि प्रतिभागी उपचार और मुआवजे के लिए तभी योग्य है जब सीएई "नैदानिक परीक्षण से संबंधित हो", जबकि अन्य यह सुझाव देते हैं कि प्रतिभागी किसी भी सीएई के इलाज और मुआवजे के लिए पात्र है जो "इस नैदानिक परीक्षण के दौरान होता है."
नियमों का अध्याय छह, जो मुआवजे के बारे में है, में एक खंड है जो यह स्थापित करने के लिए मानदंड देता है कि क्या एसएई परीक्षण से संबंधित है. और दूसरा "नैदानिक परीक्षण के दौरान चोट या मृत्यु के मामले में" मुआवजे के लिए एक प्रक्रिया बताता है. इस भ्रम की स्थिति में आग में घी का काम करते हुए एक उपखंड कहता है : "प्रायोजक या इसके प्रतिनिधि नैदानिक परीक्षण या जैव उपलब्धता या जैव-विविधता अध्ययन से संबंधित मामले में गंभीर प्रतिकूल लक्षणों से मृत्यु में मुआवजे का भुगतान करेंगे."
"कानूनी तौर पर मुआवजे के मामले पर कई अर्थ निकलते हैं," फार्मास्युटिकल कंपनी सिप्ला के लिए वैश्विक महाप्रबंधक के रूप में कार्य करने वाले एक वकील मुरली नीलकांतन ने कहा. "'नैदानिक परीक्षण संबंधी चोट' और 'नैदानिक परीक्षण के दौरान प्रतिभागी को चोट' लगने के बीच अंतर होता है. लेकिन नियमों में उनका उपयोग जिस तरह से किया जाता है, वह अनिश्चितता का कारण बनता है."
ड्रग सेफ्टी नामक जर्नल के एक हालिया संपादकीय में उन कारकों पर ध्यान दिया गया है जिनके बारे में नियामकों को प्रतिभागियों में परीक्षण किए जा रहे टीके और एसएई के बीच संबंध स्थापित करते समय विचार करना चाहिए. संपादकीय में नियामकों के लिए प्रश्नों की एक सूची शामिल की गई है, जिसमें यह तय करने से पहले कि क्या एसएई वास्तव में वैक्सीन परीक्षण से जुड़ा हुआ है, पूछा गया है कि क्या अन्य कारणों के लिए सबूत है? क्या टीका या टीकाकरण के साथ कोई ज्ञात सामान्य जुड़ाव है? क्या इस सामान्य जुड़ाव के खिलाफ मजबूत सबूत हैं? संपादकीय भी अन्य योग्य कारकों जैसे कि इस तरह की घटनाओं के पिछले इतिहास, प्रतिभागी के पहले से मौजूद स्वास्थ्य की स्थिति, अन्य दवाओं और संभावित जोखिम कारकों को नियामकों को देखने के लिए कहता है.
2019 के नियम प्रश्नों का ऐसा कोई खाका नहीं देते हैं जिन्हें नियामक को निर्णय करने से पहले जवाब देने का प्रयास करना चाहिए. इसके बजाय, वे "चोट या मृत्यु या स्थायी विकलांगता के संबंध में नैदानिक परीक्षण या जैवउपलब्धता और जैवविविधता अध्ययन से संबंधित होने के लिए सात मानदंड प्रदान करते हैं." मापदंड यह नहीं कहते हैं कि किसी गंभीर प्रतिकूल घटना को तब तक परीक्षण से संबंधित माना जा सकता है जब जांचकर्ताओं को कोई अन्य कारण नहीं मिल जाता है. जब तक कोई निर्णायक परिणाम नहीं मिलता है तो वे कार्रवाई के की प्रक्रिया का भी उल्लेख नहीं करते हैं.
परीक्षण में शामिल प्रतिभागी के न्यूरोलॉजिस्ट चिकित्सक सईद ने अपने पत्र में लिखा है कि "किसी भी अन्य नैदानिक तौर-तरीकों की गैर—मौजूदगी में, उनके टीकाकरण के बाद प्रतिभागी को जिस तंत्रिका संबंधी परेशानी का सामना करना पड़ा, वह कोविड-19 की वैक्सीन कोविशील्ड की प्रतिरक्षाजनकता »इम्यूनोजेनेसिटी½ से संबंधित है." उनके अनुसार, किसी अन्य निर्धारक कारण की गैर—मौजूदगी का अर्थ है कि गंभीर प्रतिकूल घटना वास्तव में परीक्षण से संबंधित है. परिवार को कानूनी नोटिस का मसौदा तैयार करने में मदद करने वाले एक वकील आर राजाराम ने कहा, "प्रतिभागी के परिवार ने ह्रुमेटोलॉजिस्ट से परामर्श किया है, जो एंसेफैलोपैथी के लिए परीक्षण के सिवाय कोई और कारण नहीं तलाश पाए."
मुआवजे के लिए धन का स्रोत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह निर्धारित करता है कि परीक्षण प्रतिभागी के प्रति कौन जिम्मेदार है. नियामकों और प्रायोजकों जैसे विभिन्न हितधारकों के बीच धन के स्रोत को विभाजित करना बेहतर जवाबदेही सुनिश्चित करता है. जापान जैसे कुछ देश सरकारी कोषागार के संयोजन के माध्यम से अपने क्षतिपूर्ति कार्यक्रमों को वित्तपोषित करते हैं. फिनलैंड, नॉर्वे और स्वीडन जैसे यूरोपीय देशों ने मुआवजे के वित्तपोषण के लिए निर्माताओं पर कर लगाया है. भारत में क्षतिपूर्ति के लिए केवल प्रायोजक जिम्मेदार है. भारत के पास परीक्षण प्रतिभागियों के लिए बीमा को अनिवार्य बनाने वाला कानून नहीं है.
निधि ने कहा, ''जब निजी खिलाड़ियों को अनुदान के लिए जिम्मेदार बनाया जाता है, तो सरकार स्वयंसेवक के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाती है.'' उन्होंने मुझे बताया कि निजी कंपनियां अक्सर अपना परीक्षण पूरा करने के बाद देश छोड़ देती हैं. "अक्सर ये प्रायोजक पंजीकृत नहीं होते और सरकार भी उनका पीछा नहीं कर सकती." उन्होंने कहा.
परीक्षण स्वयंसेवकों के लिए बीमा कवरेज मरीजों को प्रायोजक, प्रमुख जांचकर्ता या परीक्षण स्थल के लिए जिम्मेदार ठहराए बिना गलती से मुआवजा प्राप्त करने की अनुमति देगा और डॉक्टरों को सर्वश्रेष्ठ संभावित रोगी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रोत्साहित करेगा,'' सिप्ला के वकील नीलकांतन ने कहा. "प्रायोजकों को रोगी क्षतिपूर्ति दावों के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं होगी और उन्हें नैदानिक परीक्षणों की लागत का बेहतर अनुमान होगा," उन्होंने कहा.
चेन्नई के प्रतिभागी के अनुभव ने दिखाया है कि भारत में नैदानिक परीक्षण नियमों को अपडेट करने के प्रयासों के बावजूद अभी भी कई खामियां हैं जो परीक्षण प्रतिभागियों को उनके स्वास्थ्य के बारे में पर्याप्त जानकारी के बिना अधर में छोड़ देती हैं. मैंने चेन्नई में कोविशील्ड परीक्षण के मुख्य जांचकर्ता से बात की लेकिन उन्होंने मामले पर कोई टिप्पणी नहीं की. मैंने ईमेल भेज कर सोमानी पूछा कि एक स्वतंत्र समिति क्यों बनाई गई थी और समिति के सदस्य कौन थे? लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. यह ज्ञात नहीं है कि समिति ने मामले पर कोई रिपोर्ट तैयार की है या नहीं. इंडियन जर्नल फॉर मेडिकल एथिक्स के श्रीनिवासन ने कहा, "इसके बारे में जरा सोचिए कि कोई स्वस्थ स्वयंसेवक वैज्ञानिक प्रगति के लिए अपना शरीर देता है और अगर इस प्रक्रिया में उसे नुकसान पहुंचता है तो आप उसे अधर में छोड़ देते हैं. "
3 जनवरी 2021 को डीसीजीआई ने "आपातकालीन स्थिति में प्रतिबंधित उपयोग" के लिए कोविशील्ड वैक्सीन को मंजूरी दे दी. डीसीजीआई ने हैदराबाद स्थित कंपनी भारत बायोटेक द्वारा विकसित कोवाक्सिन को भी आईसीएमआर के सहयोग से अनुमोदित किया है जो अभी भी अपने तीसरे चरण के परीक्षण के लिए प्रतिभागियों की भर्ती कर रहा है. कारवां ने पहले भी कोवाक्सिन के तीसरे चरण में परीक्षण स्थल पर अनियमितताओं की सूचना दी थी.
नवंबर 2020 के अंत में अस्पताल से छुट्टी मिलने के एक महीने से अधिक समय बाद परीक्षण में शामिल प्रतिभागी लैपटॉप तक नहीं चला पा रहे थे. वह अपनी परामर्श फर्म के लिए नई परियोजनाएं लेने में असमर्थ थे. उनके 7 और 12 साल के बच्चे अपने पिता के बदले हुए व्यवहार को नहीं समझ सकते. “वह ठीक हो रहे हैं. हर दिन थोड़ा बेहतर होते हैं लेकिन परीक्षण ने निश्चित रूप से हम सभी पर एक स्थायी निशान छोड़ दिया है,” उनकी पत्नी ने मुझसे कहा. वह उस दिन को याद करती हैं जब उन्होंने अपनी पति को अस्पताल के बिस्तर में गुमसुम पड़ा देखा था और बताया कि उसी क्षण उन्होंने परीक्षण करने वाले लोगों से समर्थन या सहानुभूति की उम्मीद छोड़ दी थी. "वह भयानक था लेकिन ऐसा नहीं लगता कि इससे डॉक्टर को कुछ असर पड़ा हो," उन्होंने कहा. “इससे जांचकर्ताओं, कंपनी या सरकार, किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता. जैसे कि मेरे पति और मेरा परिवार जिससे गुजरा है उसकी चिंता किसी को नहीं है.”
(यह रिपोर्टिंग ठाकुर फैमिली फाउंडेशन के अनुदान द्वारा समर्थित है. ठाकुर फैमिली फाउंडेशन का इस रिपोर्ट पर कोई संपादकीय नियंत्रण नहीं है.)