13 जुलाई 2021 को उत्तर प्रदेश सरकार ने उन चुनाव कर्मचारियों की सूची जारी की जिनकी अप्रैल और मई में स्थानीय निकाय चुनावों में ड्यूटी के 30 दिन के दौरान कोविड-19 से मृत्यु हुई है और जिनके परिवार मुआवजे के पात्र हैं. भदोही जिले की रहने वाली 19 वर्षीय उत्तमा मौर्य ने मुझे बताया कि वह यह जानकर परेशान हो गईं कि उनके पिता छविनाथ मौर्य का नाम सूची में नहीं है. छविनाथ की चुनाव ड्यूटी के 35 दिन बाद 20 मई को कोविड-19 से मृत्यु हो गई थी. उत्तमा ने अपने पिता मेडिकल दस्तावेज और रिपोर्टें जमा कर ली थीं लेकिन सरकार की 30 दिन की कट-ऑफ के कारण वह मुआवजे का दावा नहीं कर सकतीं.
यूपी सरकार ने 30 लाख रुपए की अनुग्रह राशि की घोषणा की है. सरकार की सूची में 2020 लाभार्थी शामिल हैं. कारवां ने कई ऐसे परिवारों से बात की जिनके मृतक रिश्तेदार पात्र होने चाहिए थे और जिन्होंने मुआवजे के लिए आवेदन भी किया था लेकिन सूची से बाहर हैं. राज्य सरकार के 30 दिन और परिवार से कोविड-19 की पॉजीटिव रिपोर्ट की मांग ने परिवारों को मुआवजे से वंचित कर दिया है.
मई के मध्य में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने चुनाव आयोग पर आरोप लगाते हुए कहा कि उसने कोविड-19 मौत के लिए सख्त मानदंड बनाए हैं. आयोग के अनुसार, किसी व्यक्ति की मृत्यु ड्यूटी के दौरान तभी मानी जाती है जब उसकी मृत्यु कार्य स्थल पर, काम करने के रास्ते में या घर के रास्ते में होती है. बिष्ट ने अधिक परिवारों को मुआवजा देने के लिए उदार नजरिया अपनाने की अपील की. राज्य ने ड्यूटी पर रहते हुए मृत्यु को 30 दिनों तक बढ़ा दिया है, यह अभी भी कम है.
इस साल जून में कारवां ने एक रिपोर्ट में बताया था कि कैसे यूपी सरकार ने कोविड-19 की दूसरी लहर के बीच स्थानीय निकाय चुनाव करा कर चुनाव ड्यूटी में नियुक्त शिक्षकों की जान जोखिम में डाली. राज्य विधान परिषद के अनुमान के अनुसार वायरस के संपर्क में आने के कारण मरने वाले प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षकों और नॉन टीचिंग स्टाफ की संख्या लगभग 3000 है. कारवां ने उस समय छविनाथ और दक्ष सहित नौ शिक्षकों की मृत्यु का विवरण दिया था.
इसके अलावा उत्तमा ने मुझे बताया कि ऐसा भी नहीं है कि राज्य सरकार 30 दिनों की कट ऑफ को ही मान रही है. जैसे अतुल भारद्वाज के मामले में हुआ है. वह एटा जिले में एक सहायक शिक्षक थे और चुनाव ड्यूटी करने के 32 दिन बाद उनकी मृत्यु हुई. पिता शर्मा ने बताया, "हमें डर था कि दो दिन के अंतर के चलते समस्या होगी लेकिन सौभाग्य से सरकार ने उन्हें पात्र मान लिया है."
उत्तमा कहती हैं, "मैं सरकार से अपील करती हूं कि हमारे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है. वह अकेले कमाने वाले थे और यह अनुग्रह राशि हमें बचा सकती है." उन्होंने यूपी के मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री सहित कई अधिकारियों को ट्वीट किए हैं. उन्होंने बताया, “मैं अपने ट्वीट और पत्रों के माध्यम से बुनियादी शिक्षा विभाग, राज्य सरकार और केंद्र सरकार को भी समझाने की कोशिश कर रही हूं कि हमारे मामले को गंभीरता से लें और अनुग्रह राशि के लिए पात्र मानें. लेकिन बदकिस्मती से अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है.”
धवल गुप्ता के भाई दक्ष कुमार का नाम भी छविनाथ की तरह सूची में नहीं है. भारद्वाज की तरह दक्ष ने चुनाव के दिन मतदान केंद्र पर ड्यूटी दी थी और फिर बीमार पड़ गए थे. मतदान अधिकारी के रूप में काम करने के 38वें दिन दक्ष की मृत्यु हो गई. गुप्ता ने यह भी कहा कि 30 दिन की कट-ऑफ अनुचित थी. उन्होंने कहा, "चिकित्सा विज्ञान के अनुसार ऐसी मौतों की जटिलता और संभावनाओं को देखते हुए उन्हें मृत्यु की अवधि के नियम में ढील देने पर विचार करना चाहिए ताकि हम जैसों को न्याय मिल सके."
शोध कहीं नहीं कहते कि कोविड-19 के कारण मौतें एक विशिष्ट अवधि के भीतर होती हैं. ऐसा इसिलए कि यह संक्रमण दूसरी तमाम बीमारियों की आशंकाओं को बढ़ देता है और लंबे समय तक कोविड संक्रमण का असर दिखता रहता है.
दिल्ली मेडिकल काउंसिल के अध्यक्ष अरुण गुप्ता ने मुझे बताया, “कोविड-19 संक्रमण के कारण मृत्यु के मुआवजे के लिए 30 दिनों की अवधि तय करना अच्छा विचार नहीं है. चिकित्सकीय रूप से कोई नहीं जानता कि शरीर में क्या और कब स्थिति बिगड़ जाए." दिल्ली के यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ मेडिकल साइंसेज और गुरु तेग बहादुर अस्पताल में मेडिसिन विभाग में सहायक प्रोफेसर कुलदीप कुमार ने कहा कि यूपी सरकार को ऐसी कोई समय सीमा नहीं बांधनी चाहिए क्योंकि संक्रमण के बाद के छह महीने या उससे भी अधिक समय बाद भी मरीज की मृत्यु हो सकती है."
राज्य सरकार ने 1 जून को मुआवजे का दावा करने के मानदंड से संबंधित दिशानिर्देश जारी किए. आवेदनों को 15 जून से 22 जून के बीच जमा करना था. जिला प्रशासन को तथ्यों का सत्यापन करना था और आवेदनों को मंजूरी देनी थी. सत्यापन प्रभारी अधिकारी को उन दस्तावेजों की जांच करनी थी जिनसे पता चले कि मृत्यु कोविड-19 के कारण हुई है.
शिवेंदु शेखर ओझा, जिनकी मां प्रियंबदा ओझा की बलिया जिले में चुनाव ड्यूटी के दौरान मौत हुई थी, इस समय सीमा से चूक गए. उन्हें अनुग्रह राशि योजना की जानकारी ही नहीं थी. उन्होंने कहा, "विभाग का यह कर्तव्य था कि वह हमें इस बाबत जागरूक करता. मैंने जिलाधिकारी से मिलने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हो सका. आखिरकार मैंने मुख्यमंत्री, जिला मजिस्ट्रेट और बुनियादी शिक्षा विभाग को पत्र लिख कर अपनी कहानी बताई."
ओझा ने मुझे बताया कि जब उनकी मां बीमार पड़ने के बाद जिला अस्पताल गईं तो उनकी कोविड-19 की जांच नहीं हुई और उन्हें घर वापस भेज दिया गया. डॉक्टरों ने कहा कि उन्हें कोविड है और उन्हें ऑक्सीजन की जरूरत है लेकिन कोविड टेस्ट नहीं किया. ओझा ने घर पर अपनी मां के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर की व्यवस्था की लेकिन वह नहीं बचीं. नतीजा यह हुआ कि उनके कोविड-19 की रिपोर्ट नहीं है. वह पूछते हैं, “क्या जांच की जिम्मेदारी अस्पताल की नहीं थी?"
ओझा ने कहा कि उन्होंने प्रशासन से अनुरोध किया है कि उन्हें एक मौका दिया जाए और मुख्यमंत्री को भी राज्य भर में उनके जैसे मामलों पर विचार करना चाहिए. दूसरी लहर के दौरान परीक्षणों की कमी के चलते प्रियंबदा जैसे कई लोगों की कोविड-19 जांच कराए बिना ही मौत हो गई.
बलिया जिले के नवानगर ब्लॉक में सुरेंद्र राम और शम्सुद्दीन अंसारी ऐसे दो और शिक्षक थे जो खांसी, सर्दी और बुखार जैसे लक्षणों से बीमार पड़े और फिर सांस लेने में तकलीफ के कारण मौत हो गई. जब मैंने उनके परिवारों से फोन पर बात की तो उन्होंने कहा कि दोनों शिक्षकों की कोई कोविड-19 जांच नहीं हुई. राम के बेटे दीपक कुमार ने मुझे बताया कि डॉक्टर ने कहा था कि उनके पिता को कोविड-19 है लेकिन टेस्ट नहीं किया. राम को केवल टाइफाइड की जांच कराने को कहा गया था. दीपक अनुदान योजनाओं के लिए आवेदन नहीं कर सके.
मैंने नवानगर में सहायक शिक्षिका ललिता देवी के बेटे रजनीश कुमार से बात की. चुनाव ड्यूटी के प्रशिक्षण में शामिल होने के तीन दिन बाद 18 अप्रैल को उनकी मृत्यु हो गई. वह पचास-बावन साल की थीं. रजनीश ने कहा कि जिला प्रशासन ने देवी पर प्रशिक्षण में भाग लेने का दबाव डाला. रजनीश ने बताया कि 17 अप्रैल को उन्हें पहले सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले गए थे लेकिन वहां कोई नहीं था इसलिए बलिया के सदर अस्पताल जाने के लिए कहा गया. सरकारी अस्पताल में ऑक्सीजन बेड नहीं थे इसलिए वे एक निजी अस्पताल गए जहां छाती के एक्स-रे से पता चला कि देवी को निमोनिया था. रजनीश ने बताया, "हमें पता नहीं है कि एक्स-रे क्या है और निमोनिया होने का क्या मतलब है. मैं समझ गया कि डॉक्टर को कोविड का शक है लेकिन कोविड की कोई जांच नहीं की गई." देवी की मृत्यु 18 अप्रैल को दोपहर 2 बजे के करीब हुई थी. दुख की इस घड़ी में परिवार ने उनकी मृत्यु के दस्तावेजीकरण के बारे में नहीं सोचा.
सहायक प्रोफेसर कुलदीप ने देवी के मामले में लापरवाही पर कहा कि "डॉक्टरों का यह आपराधिक कृत्य है. न केवल वे मौत के लिए जिम्मेदार हैं बल्कि उन्होंने समुदाय में कोविड-19 को फैलाया है क्योंकि इन रोगियों के लिए क्वारंटीन की कोई व्यवस्था नहीं थी." उन्होंने आगे कहा, "गैर-कोविड रिश्तेदारों को अस्पताल में रोगी की देखभाल करने को कहा गया." दिल्ली मेडिकल काउंसिल के अरुण ने इस पर सहमति जताई और कहा, “अगर कोविड मामलों में बढ़ोतरी के दौरान किसी रोगी में कोविड जैसे लक्षण हों तो डॉक्टर को उसकी कोविड जांच करनी चाहिए. अगर उनकी टाइफाइड की जांच की जाती है और कोविड की नहीं तो यह सरासर लापरवाही है.” उन्होंने कहा, "अगर किसी सरकारी या निजी अस्पताल में ऐसा होता है तो प्रशासन को इसे गंभीरता से लेना चाहिए और सख्त कार्रवाई करनी चाहिए."
मई में उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षक संघ ने 1621 प्राथमिक-विद्यालयों के शिक्षकों की सूची जारी की जिनकी कोविड-19 से मृत्यु हो गई थी. इनमें से तीस बलिया के थे. बलिया जिला के बुनियादी शिक्षा विभाग ने 27 शिक्षकों को कोविड-19 से मरने वाला माना है. जिला मजिस्ट्रेट अदिति सिंह ने मुझे बताया कि उनके परिवारों में से केवल 12 को अनुग्रह राशि का पात्र माना गया है.
डॉक्टरों ने कहा कि यूपी में दूसरी लहर के दौरान हुई मौतों को कोविड-19 से हुई मौत माना जाना चाहिए. कुलदीप ने कहा, “हमने कई मामलों में देखा है जहां रैपिड एंटीजन टेस्ट और आरटी-पीसीआर दोनों नेगेटिव थे लेकिन उन रोगियों के छाती के एक्स-रे और उच्च रिजॉल्यूशन वाले कंप्यूटर टोमोग्राफी स्कैन में लक्षण दिखाई दे रहे थे. कई मामलों में ये टेस्ट भी नहीं किए गए.”
उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष दिनेश चंद्र शर्मा ने मुझे बताया कि सरकार दूसरी लहर के दौरान चुनाव अधिकारियों के रूप में काम करने वाले शिक्षकों की मदद नहीं कर रही है. “पहले हम चाहते थे कि अनुग्रह राशि के लिए स्वीकृत लोगों को उनका भुगतान मिले और फिर हम उन लोगों के मामलों पर विचार करेंगे जिन्हें सूची में छोड़ दिया गया है. हम तब तक लड़ते रहेंगे जब तक प्रत्येक शिक्षक को न्याय नहीं मिल जाता.” उन्होंने मुझे बताया कि उन्होंने लिखित रूप में मांग की है कि "यूपी में कोविड मामलों में वृद्धि के दौरान चुनाव ड्यूटी में जिस भी व्यक्ति की मौता हुई उसे कोविड मौत माना जाए."
इस बीच राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद उन लोगों का डेटा एकत्र कर रही है जिनकी कोविड-19 के कारण मृत्यु हुई है. लेकिन उनके पास यह साबित करने के लिए कोई जांच रिपोर्ट नहीं है कि उन्हें कोविड हुआ था. परिषद के अध्यक्ष हरि किशोर तिवारी ने कहा कि उनके बहनोई की मृत्यु कोविड-19 के कारण हुई लेकिन वह अपने जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी को कोविड-19 मृत्यु प्रमाण पत्र देने के लिए राजी नहीं कर पाए. उन्होंने कहा, "यह एक लंबी लड़ाई है और हम इसके लिए तैयार हैं."