6 सितंबर 1915 को 22 वर्षीय कला बगई अपने पति और तीन बेटों के साथ एसएस कोरिया जहाज से एंजेल द्वीप पर पहुंची. कला का सामान उनकी जिंदगी का आर्काइव था. इसमें सोने के गहने, खुद की एक तस्वीर और खास मौकों के लिए एक आसमानी-नीली रेशमी साड़ी थे. कला ने यह सामान जानकर चुना था क्योंकि उसे पता था कि उसके पति वैष्णो दास बगई संयुक्त राज्य अमेरिका में एक घर बनाने का इरादा रखते हैं.
एंजेल द्वीप पर पूछताछ और जांच के बाद बगई परिवार सैन फ्रांसिस्को के लिए रवाना हुआ. सोलह दिन बाद वैष्णो ने नागरिकता का आवेदन दिया. यह देखते हुए कि एक विवाहित महिला और बच्चे की राष्ट्रीयता पति की राष्ट्रीयता से जुड़ी होती है वैष्णो का आवेदन पूरे परिवार के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण था.
वैष्णो ने अपनी नागरिकता का मामला इस उम्मीद के साथ तैयार किया कि वह एक श्वेत व्यक्ति के रूप में अपनी योग्यता साबित कर लेंगे. उस समय संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रत्येक आप्रवासी को देश में पांच साल के वैध आवास को साबित करना होता था और साथ ही यह भी कि वह ''एक अच्छे चरित्रवाला... मुक्त श्वेत व्यक्ति" है. मुक्त श्वेत होने की आवश्यकता 1790 में अमेरिकी कांग्रेस के पहले समान नागरिकता कानून द्वारा बताई गई थी जिसका मकसद अमेरिका को श्वेत राष्ट्र के रूप में ढालने और व्यवस्थित करना था. 1868 में जबकि जन्मजात नागरिकता को वैध कर दिया गया और 1870 के नागरिकता अधिनियम ने "जन्म से विदेशी अफ्रीकी और अफ्रीकी मूल के व्यक्तियों" के लिए नागरिकता का विस्तार कर दिया था, वास्तव में सभी अन्य अमेरिकी नागरिकता के इच्छुकों को "मुक्त श्वेत व्यक्तियों" के रूप में कानूनी रूप से अर्हता प्राप्त करने की आवश्यकता थी. 1878 और 1952 के बीच अमेरिकी संघीय अदालतों ने, यह निर्धारित करने के लिए कि कौन श्वेत है, एशिया, प्रशांत, मध्य और दक्षिण अमेरिका के अप्रवासियों के पचास से अधिक मामलों पर विचार किया था.
भारतीय अप्रवासी, यह साबित करने के लिए गए कि वे गोरे हैं, काउंटी क्लर्कों के कार्यालयों और फिर अदालतों में गए. मानवविज्ञानी, भाषाविद और शाही नौकरशाहों द्वारा विकसित नस्ल विज्ञान सिद्धांतों और वर्गीकरणों का हवाला देते हुए उन्होंने तर्क दिया कि वे कौकेशियन और आर्यन हैं. लेकिन भारतीयों और अन्य एशियाई प्रवासियों क्या श्वेत व्यक्ति माने जा सकते हैं, यह एक ऐसा सवाल था जिसने काउंटी क्लर्कों, अमेरिकी न्यायाधीशों और स्थानीय आबादी को उलझन में डाल दिया. भारतीय प्रवासियों ने अपनी पैतृक विरासत और सजातीय विवाह की प्रथाओं का हवाला देते हुए दावा किया कि नस्लीय वंशावली और परिवारों में "अंतर-मिश्रण" की गैरमौजूदगी ने न केवल उनकी जाति बल्कि कई पीढ़ियों से रक्त की शुद्धता को भी बरकरार रखा है.
अंततः वैष्णो ने भारत में अधिकारियों को उन दस्तावेजों को प्राप्त करने के लिए लिखा था जो उनकी जाति को साबित करते थे. वैष्णो ने अपने गृह जिले पेशावर के मजिस्ट्रेट से कराची और बॉम्बे में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास के माध्यम से तीन जाति प्रमाण पत्र प्राप्त किए, साथ ही पेशावर शहर में नेशनल हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक से एक पत्र प्रमाणित करवाया था कि वह "उच्च जाति के हिंदू" हैं.
भारतीय प्रवासियों के लिए जाति और धर्म नस्ल और समानता को परिभाषित करने में प्रधान बन गए, साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका के सामाजिक कानूनी संस्थानों में स्थापित हो गए. यह बताता है कि कैसे वैष्णो जैसे भारतीय प्रवासियों ने अपनी नस्लीय स्थिति को प्रमाणित किया और कैसे उन्होंने खुद को निम्न अर्थ-सामाजिक संसाधनों वाले अन्य भारतीय प्रवासियों के संबंध में देखा, जिनके बारे में उनका मानना था कि वे संयुक्त राज्य में समान अधिकारों और विशेषाधिकारों को पाने के अधिकारी नहीं थे.
अब एक सदी बाद अमेरिकी अदालतें जाति के मुद्दे पर फिर से फैसला सुना रही हैं. हाल के वर्षों में सबसे हाई-प्रोफाइल मामला बहुराष्ट्रीय समूह सिस्को साइटम्स के खिलाफ मुकदमा है. कैलिफोर्निया डिपार्टमेंट ऑफ फेयर एम्प्लॉयमेंट एंड हाउसिंग ने 2015 में सिस्को द्वारा काम पर रखे गए एक प्रमुख इंजीनियर के दावों से पता चलता है, जिन्होंने बताया कि उनके दो ऊंची जाति के पर्यवेक्षकों ने उनको वृद्धि और पदोन्नति सहित विभिन्न अवसरों से वंचित किया और जब उन्होंने अपनी जाति के कारण अपने साथ प्रतिकूल व्यवहार किए जाने की शिकायत की तो उनसे प्रतिशोध लिया गया. मामला अभी भी चल रहा है और अमेरिकी अदालतों द्वारा जातिगत भेदभाव के अस्तित्व को स्वीकार करने के बारे में एक ऐतिहासिक मिसाल कायम कर सकता है.
छात्रों की सक्रियता ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों में जातिगत भेदभाव को पहचानने में अग्रणी भूमिका निभाई है. 2019 में ब्रैंडिस विश्वविद्यालय जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला विश्वविद्यालय बन गया. पिछले साल संयुक्त राज्य अमेरिका में सबसे बड़ी सार्वजनिक विश्वविद्यालय व्यवस्था, कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी, ने अपनी भेदभाव-विरोधी नीति में जाति को जोड़ा, जिसका हार्वर्ड सहित कई अन्य विश्वविद्यालयों ने जल्द ही इसका अनुसरण किया.
हालांकि जाति और असमानता पर बढ़ती सार्वजनिक बातचीत ने दक्षिण एशियाई प्रवाशियों के बीच मौजूद तीखी कमियों को सामने ला दिया है. 2022 में गूगल समाचार की एक वरिष्ठ प्रबंधक तनुजा गुप्ता को कंपनी की व्यापक विविधता, न्याय और समावेश की योजना के हिस्से के रूप में जातिगत भेदभाव के विषय पर बोलने के लिए दलित नागरिक-अधिकार संगठन इक्विटी लैब्स की संस्थापक थेनमोझी साउंडराजन को आमंत्रित करने के बाद उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा. भारतीय मूल के कर्मचारियों के विरोध के बाद निमंत्रण को रद्द कर दिया गया, जिन्होंने कंपनी के नेतृत्व को ईमेल भेज कर साउंडराजन को "हिंदू-विरोधी" और "हिंदूफोबिक" बताया था.
20वीं शताब्दी की शुरुआत में अमेरिकी अदालतों में जाति श्वेत नस्लीय वर्चस्व से घनिष्ठ रूप से बंधी हुई थी, जिसने अधिकारों, विशेषाधिकारों और वस्तुओं की सीमाओं को तैय कर "अप्रवासियों को नागरिकता से वंचित कर दिया था. संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय आप्रवास 19वीं सदी के अंत में शुरू हुआ जब ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे दूसरे देशों की सीमाएं भारतीय प्रवासियों के लिए बंद होने लगीं और जिन्होंने तब संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में अच्छी कमाई की संभावना की बातें सुनीं. उस समय के औपनिवेशिक भारत में वर्तमान भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश शामिल थे. भारतीय अप्रवासी, ज्यादातर पंजाब से थे, मुट्ठी भर लोग अमेरिका के दक्षिण और प्रशांत तट पर पहुंचे. कई शुरुआती अप्रवासियों ने संयुक्त राज्य अमेरिका की अपनी यात्रा का खर्च जुटाने के लिए पहले बंगाल की खाड़ी और प्रशांत महासागर के आस पास महीनों या वर्षों तक काम किया.
1907 तक संयुक्त राज्य अमेरिका पहुंचने वाले भारतीय पुरुषों की संख्या सैकड़ों में थी लेकिन 1920 तक संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग दस हजार भारतीय अप्रवासी रह रहे थे. मुट्ठी भर महिलाओं के अलावा उनमें ज्यादातर पुरुष शामिल थे जो मजदूर, व्यापारी, फेरीवाले, छात्र और शरणार्थी थे. अधिकांश परिवारों की संयुक्त राज्य अमेरिका में और बसने की योजना नहीं थी लेकिन उन्होने भारत लौटने से पहले अपने परिवारों के लिए वित्तीय स्थिरता और शैक्षिक पहुंच को सुरक्षित करने के लिए प्रवासन को एक अवसर के रूप में देखा था.
जब भारतीय अप्रवासी संयुक्त राज्य अमेरिका पहुंचे तो उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा. संयुक्त राज्य अमेरिका के स्वदेशी विचार के समर्थक भारतीय और अन्य एशियाई प्रवासियों पर अमेरिकी जीवन स्तर को कमतर बना देने और अमेरिका की नस्लीय संरचना को खतरे में डाल देने का आरोप लगा रहे थे. संयुक्त राज्य अमेरिका में भारतीय आप्रवासन के प्रारंभिक वर्ष अन्य एशियाई आप्रवासियों के खिलाफ प्रतिबंधों के अनुरूप थे. 1850 के दशक तक संयुक्त राज्य अमेरिका ने चीनियों के अधिकारों पर कड़े प्रतिबंध लगाए. चीनी अप्रवासियों को अदालत में गवाही देने से रोक दिया गया, उनसे भारी करों का भुगतान लिया गया, निश्चित सीमा से अधिक भूमि खरीद से वंचित कर दिया गया और 1875 तक कांग्रेस ने संयुक्त राज्य अमेरिका में चीनी महिलाओं के आगमन को विफल करने के लिए स्वदेशी की मांग करने वालों का साथ दिया. 1878 में आह यूप नामक एक चीनी अप्रवासी ने कैलिफोर्निया के नौवें सर्किट कोर्ट के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए कहा कि मानवशास्त्रीय वर्गीकरण के आधार पर चीनी लोग गोरे है. कोर्ट ने इस दलील को अस्वीकार करते हुए कहा कि "मंगोलियाई नस्ल के चीन के मूल निवासी" श्वेत नहीं हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका ने अंततः दस साल की अवधि के लिए चीन से सभी श्रमिक आप्रवासियों पर प्रतिबंध लगा दिया, जिसे बाद में बढ़ाया गया और 1882 में सभी चीनी व्यक्तियों को अमेरिकी नागरिकता से प्रतिबंधित कर दिया.
एशिया के अन्य अप्रवासियों के प्रवेश पर भी प्रतिबंध बढ़ा दिया गया. संयुक्त राज्य के राज्यों ने तेजी से न केवल नागरिकता कानूनों का विस्तार किया, साथ ही "नागरिकता के लिए अपात्र विदेशयों” को कृषि संपत्ति खरीदने या पट्टे पर लेने, व्यापार लाइसेंस रखने, अधिकांश पेशेवर व्यवसायों, घर के स्वामित्व और कई संगठनों और यूनियनों की सदस्यता लेने पर रोका लगा दी. एशियाई आप्रवासियों के लिए ठोस सामाजिक आर्थिक बाधाओं को स्थापित करने के लिए, इन कानूनों को नस्लीय संहिताओं के रूप मे बनाया गया था.
वैष्णो के मामले से बहुत पहले ही धर्म अमेरिकी अदालतों में नस्ल के निर्णय का एक महत्वपूर्ण घटक बन गया था. धर्म से संबंधित पहली समस्या उन भारतीय प्रवासियों के साथ उभरी जो पगड़ी या कुछ और से सिर ढके हुए थे.जनवरी 1907 में, वीर सिंह डाकम चंद और फुकुर चंद नागरिकता के लिए अपना पहला कागजात दाखिल करने के लिए कैलिफोर्निया के ओकलैंड में संघीय अदालत मे गए. दोनों पुरुषों ने खुद को श्वेत के रूप में चिह्नित किया और जो संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रति अपनी निष्ठा की शपथ लेने के लिए तैयार थे लेकिन इससे पहले कि वे ऐसा कर पाते, डिप्टी काउंटी क्लर्क जेआर फोर्ड ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का निर्देश दिया. वीर सिंह ने मना कर दिया. कुक ने उनके पहले कागजात को अस्वीकार कर दिया. डाकम चंद और फुकुर चंद ने बाध्य होकर अपनी पगड़ी उतार दी और कुक ने उनके पहले कागजात स्वीकार कर लिए. हालांकि जैसा कि एक स्थानीय समाचार पत्र बताता है कि कुक को जल्द ही संयुक्त राज्य के आव्रजन आयुक्त द्वारा सूचित किया गया कि "हिंदू किसी भी परिस्थिति में अमेरिकी नागरिक बनने के हकदार नहीं हैं."
अगले साल संयुक्त राज्य के दक्षिण में संघीय अदालतों में कुछ भारतीय प्रवासियों के लिए चीजें ठीक रहीं. 1908 में, बेल्लाल हुसैन और अब्दुल हामिद, पहले मुसलिम भारतीय थे जिन्हें नागरिकता मिली. दो लोगों को लुइसियाना में नागरिकता दी गई, जहां दक्षिण में एशियाई प्रवासियों का गोरा होना निकटता से अन्य लोगों से काले अमेरिकियों के अधिकारों को लगातार अलग करने के एक बड़े प्रयास का हिस्सा था. कलकत्ता में पैदा हुए अफगान वंश के माने जाने वाले अब्बा डोल को हामिद के मामले को मिसाल के रूप में उद्धृत करने और न्यायाधीश के जांचने साबित करने के बाद कि उसकी नसें उसकी त्वचा के माध्यम से दिखाई दे रही थीं तो वह गोरा है. उसको भी सवाना, जॉर्जिया में सफलतापूर्वक नागरिकता दे दी गई.
मामला 1920 में उस समय सुर्खियों में आया, जब कैलिफोर्निया के इंपीरियल काउंटी के जज फिल स्विंग ने अदालत में पगड़ी पहनने पर रोक लगा दी. स्थानीय अप्रवासियों ने फौरन ही स्विंग के आदेश का जवाब दिया. दक्षिणी कैलिफोर्निया में एक युवा सिख अप्रवासी हरि सिंह बेसरा ने अदालत को लिखा :
इस मामले को आपके ध्यान में लाने के लिए इंपीरियल वेली में खेती करने वाले प्रमुख सिखों द्वारा मुझसे अनुरोध किया गया है कि पगड़ी पहनना सिखों के धर्म का एक हिस्सा है. … मैं एक बार आपसे प्रार्थना करता हूं, ताकि मैं निर्णायक सबूत प्रस्तुत कर सकूं, कि पगड़ी पहनना सिखों के धर्म का एक हिस्सा है और उन्हें अदालत में इसे हटाने के लिए मजबूर करने वाला आदेश गलत है जिसे ठीक किया जाना चाहिए.
अप्रवासियों के विरोध और धर्म के आधार पर छूट के आह्वान के बावजूद काउंटी क्लर्कों और न्यायाधीशों ने अदालत के अंदर या बाहर उसके धार्मिक रूप से सिर ढक कर आने वाले भारतीय प्रवासियों को अनुमति देने या इनकार करने के लिए अपने अधिकार को विवेकाधीन अधिकार के तौर पर इस्तेमाल करना जारी रखा. यह पारसी प्रवासियों तक बढ़ा गया. 1917 में, उसी वर्ष जब कांग्रेस ने एक व्यापक संघीय कानून पारित किया, जिसमें एक व्यापक भौगोलिक क्षेत्र, जिसमें से अधिकांश एशिया शामिल था, से आप्रवासियों के आने पर रोक लगा दी गई थी, उस समय न्यू जर्सी में रहने वाले एक पारसी आप्रवासी दिनशाह घडियाली को नागरिकता प्रदान करने वाले समाहरों के दौरान अदालत से बाहर कर दिया गया क्योंकि उन्होने अपने सिर को ढंकने वाली धार्मिक टोपी को उतारने से इनकार कर दिया था. उनके इनकार ने न्यूयॉर्क टाइम्स मे सुर्खियां बटोरीं, जिसमें जोर देकर कहा गया था कि घडियाली ने अपनी "पगड़ी वाली टोपी" को हटाने से इनकार कर दिया था.
धार्मिक तौर पर सिर ढकने वाले भारतीय प्रवासियों के साथ कार्यस्थलों और सार्वजनिक स्थानों पर भेदभाव किया जाता था. कुछ ने अपने बाल कटवा लिए जबकि अन्य ने पगड़ी रखी जिससे वे अपने बिना कटे बालों को ढकते थे. जैसा कि इंपीरियल काउंटी में बसने वाले एक श्वेत ने बाद में स्थानीय प्रेस को बताया, उनके खेत पर काम पर रखे गए अप्रवासी, जैसे कि बाबू सिंह, गोरे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों द्वारा नियमित रूप से घूरे जाने और स्थानीय दुकानदार, बिल ब्रेली, जो अपने स्टोर पर आने वाले प्रत्येक भारतीय अप्रवासी को कोसते और उन पर चिल्लाते थे, से बचने के लिए अपने अनचाहे बालों पर टोपी पहनते थे. सुधींद्र बोस ने 1920 में प्रकाशित फिफ्टीन इयर्स इन अमेरिका में एक छात्र के रूप में अपने खिलाफ नस्लवादी पूर्वाग्रहों को याद किया. एक छात्र के रूप में, बोस ने केवल जानने के लिए अपनी पगड़ी को कॉलेज के एक क्लॉकरूम में छोड़ दिया तो "जानबूझ कर उसे खोल दिया गया और गुस्से से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए." जब गोरे लोगों की भीड़ द्वारा उन्हे पीटा जा रहा था तो इस झगड़े में कुछ लोग उनकी पगड़ी को खींच कर फाड़ रहे थे.
अदालतों ने भारतीय पारसियों को भारत के अन्य धार्मिक समुदायों से यह मानते हुए अलग कर दिया कि उनकी पैतृक विरासत ने उन्हें अन्य भारतीय प्रवासियों की तुलना में अधिक श्वेत वर्णी बना दिया. 1909 में, भीकाजी फ्रांयी बलसारा, न्यूयॉर्क में एक संभ्रांत पारसी अप्रवासी, जो टाटा समूह के लिए कपास खरीदार के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका पहुंचे थे, ने देश का ध्यान अपनी और आकर्षित किया. 1909 में, सेकंड सर्किट कोर्ट के न्यायाधीश एमिल लैकोंबे ने बलसारा को नागरिकता प्रदान की, "वह उच्च चरित्र और असाधारण बुद्धि का एक सज्जन व्यक्ति प्रतीत होता है" साथ ही "सबसे शुद्ध प्रकार का आर्य”. लैकोंबे ने कहा कि पारसियों की नागरिकता ने "अफगानों, हिंदुओं, अरबों और बर्बरों" के लिए अमेरिकी नागरिकों के रूप में स्वाभाविक रूप से कानूनी आधार तैयार किया है. लैकोंबे का यह निर्णय उद्देश्यपूर्ण था. उस समय, न्याय विभाग ने नागरिकता के कई भारतीय प्रवासियों के मामलों को जानबूझ कर कमजोर कर दिया जाता था. बहुत से जिला अटॉर्नी, एशियाई प्रवासियों के प्रति नस्लवादी राय रखते थे, ये नियमित रूप से भारतीय प्रवासियों के मामलों को देखते और उन्हें नागरिकता मिल जाने की चुनौती देते. न्याय विभाग द्वारा बलसारा को नागरिकता प्रदान करने की सफलतापूर्वक अपील की गई थी.
मई 1910 में, इस मामले ने संयुक्त राज्य भर में सुर्खियां बटोरीं क्योंकि सेकंड सर्किट ने मामले की समीक्षा करने के लिए सहमती जाता दी थी. न्यूयॉर्क ट्रिब्यून ने अपने पहले पन्ने पर इस मामले की कवरेज की और इस मुद्दे को "परसियों के अधिकारों की वैज्ञानिक लड़ाई" शीर्षक दिया. अखबार को डर था कि मामला "सांवले पुरुषों और काले पुरुषों की नागरिकता के बचाव का एक रास्ता" स्थापित करेगा. बलसारा ने सफलतापूर्वक अमेरिकी नागरिकता इस आधार पर बरकरार रखी कि अन्य भारतीयों से अलग पारसियों की यूरोप से पैतृक निकटता थी.
अदालत ने फैसला सुनाया कि "फरसी लगभग 1200 साल पहले फारस से भारत आए थे और अब लगभग 100000 की संख्या में बंबई के पड़ोस में रहते हैं. वे अपने आप में बुद्धिमान और संपन्न व्यक्तियों की एक बस्ती का गठन करते हैं, ये मुख्य रूप से वाणिज्य में लगे हुए हैं और हिंदुओं से उतने ही अलग हैं जितने कि भारत में रहने वाले अंग्रेज हैं. फैसले ने अमेरिकी नागरिकता के लिए पात्र भारतीय प्रवासियों के एक अलग समूह के रूप में पारसियों को अलग करने के लिए मिसाल कायम की.
तीन साल बाद, बंगाल में जन्मे अक्षय कुमार मजूमदार ने अपने श्वेत वर्ण को साबित करने के लिए धर्म के एक और पहलू को अदालत के सामने पेश किया. मजूमदार ने गवाही दी कि वह "शुद्ध रक्त वाले उच्च जाति के हिंदू" हैं. उन्होंने दावा किया कि वह आर्य नस्ल सदस्य हैं जो एशियाई हैं और श्वेत नहीं हैं. मजूमदार ने इस तर्क की पुष्टि करते हुए जोर देकर कहा कि आर्यों द्वारा प्राचीन काल में भारत पर आक्रमण किया गया और तब आर्यों के इस समूह ने सजातीय विवाह की प्रथाओं के माध्यम से अपनी नस्लीय शुद्धता बनाए रखी. यह अज्ञात है कि क्या भारतीय अप्रवासियों ने स्वतंत्र रूप से नस्लीय शुद्धता को साबित करने के लिए कानूनी क्षेत्र के भीतर जाति के विचार को पेश किया या न्यायाधीशों ने पहले इसके बारे में पूछताछ की. मजूमदार ने गवाही दी कि वह भारतीय थे और "शुद्ध रक्त के एक उच्च जाति का हिंदू थे, जिसे योद्धा जाति, या शासक जाति के रूप में जाना जाता था." उन्होंने तर्क दिया :
शुद्ध रक्त वाले हिंदुओं को तीन जातियों में बांटा गया है- पुरोहित, योद्धा या शासक और व्यापारी. बहिष्करण के कठोर नियमों द्वारा रक्त को शुद्ध रखा जाता है. जो कोई भी अपनी जाति के बाहर शादी करता है, उसे बहिष्कृत कर दिया जाता है और उसे देशज कानूनों द्वारा वंचित कर दिया जाता है. ऊंची जाति के हिंदुओं में से किसी का भी उससे कोई लेना-देना नहीं होता .... इस देश में रहने वाले हिंदुओं का बड़ा हिस्सा उच्च जाति के हिंदुओं का नहीं बल्कि उनका है जिन्हें सिख कहा जाता है और ये मिश्रित रक्त के हैं .... उच्च जाति के हिंदू ब्राह्मणवाद में आस्था रखते हैं और भारत में रहने वाले अन्य सभी निवासियों से स्पष्ट रूप से अलग हैं जिनमें देश के मूल निवासी या पहाड़ी जनजातियां और आक्रमणकारियों के वंशज मुसलमान भी शामिल हैं.
जाति ने मजूमदार को उच्च-जाति समुदायों की अंतर्विवाही प्रकृति को रेखांकित करके नस्लीय शुद्धता साबित करने का रास्ता दिखा दिया. आवेदकों और न्यायाधीशों ने नस्लीय शुद्धता को दिखाने के लिए एक अवसर के रूप में जाति का उपयोग किया जो संयुक्त राज्य अमेरिका में गोरेपन को बनाए रखने के लिए प्रधान था. उस समय, वन-ड्रॉप नियम ने अफ्रीकी वंश के किसी भी व्यक्ति को ब्लैक के रूप में वर्गीकृत कर दिया और कानूनों द्वारा अंतरजातीय अंतरंगता और विवाह को निषिद्ध और आपराधिक बना दिया. मामले के प्रभारी जिला अदालत के न्यायाधीश का मजूमदार से मतभेद था कि क्या उच्च-जाति का दर्जा नस्लीय शुद्धता सुनिश्चित करता है. लेकिन फिर भी उन्हें नागरिकता दे दी.
मजूमदार के 1913 के मामले के बाद जाति संघीय विचार-विमर्श का एक अभिन्न अंग बन गई और तब भारतीय प्रवासियों को श्वेत व्यक्तियों के रूप में वर्गीकृत किया जाने लगा. भगत सिंह थिंड और गोधा राम सहित ब्रिटिश साम्राज्य के नस्लवादी शासन के खिलाफ उपनिवेशवाद-विरोधी प्रवासी गदर आंदोलन के सदस्यों ने यह तर्क देने के लिए जाति का इस्तेमाल किया कि वे गोरे हैं.
बगई परिवार इन कानूनी दावपेंचों से वाकिफ था. परिवार ने अमेरिकी नागरिकता चाहने वालों सहित भारतीय प्रवासियों की स्थिति से संबंधित समाचारों को पढ़ा और एकत्र किया था. वैष्णो के दस्तावेजों में कहा गया था कि वह "आर्य मूल के उच्च जाति के हिंदू" थे. मार्च 1921 में, वैष्णो को नागरिकता मिल गई और बगई परिवार, जिसमें उनकी पत्नी कला और तीन बेटे शामिल थे, अमेरिकी नागरिक बन गए.
संघीय अदालतों द्वारा स्थापित अलग-अलग मिसालों से भारतीय और अन्य एशियाई अप्रवासी अमेरिकी नागरिकता पा सके, उन्होने अंततः अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय में अपना रास्ता बना लिया. 1923 में अदालत के सामने सवाल था कि "क्या शुद्ध भारतीय रक्त, एक उच्च जाति का हिंदू, अमृतसर, पंजाब, भारत में पैदा हुआ व्यक्ति, श्वेत है?" अदालत के समक्ष आवेदक भगत सिंह थिंड थे, जो पंजाब के एक युवा सिख अप्रवासी थे, जिन्होंने अमेरिकी सेना में सेवा की थी और भारत की स्वतंत्रता की वकालत की थी.
न्याय विभाग के लिए थिंड का मामला श्वेत रंग की सीमाओं जांचने के लिए एक प्रतिनिधि मामला था. थिंड अन्य लोगों की तरह समृद्ध नहीं थे, जिन्हें नागरिकता मिल गई थी. वह अंग्रेजी बोलते थे लेकिन बड़े विश्वविद्यालयों से स्नातक की डिग्री नहीं थी जैसी मजूमदार के पास थी. और वे अन्यों की तरह गोरे लोगों के बीच सक्रिय नहीं थे. और उन्होंने पगड़ी भी पहनी थी, जो उनकी त्वचा के रंग से अलग एक और भौतिक पहचान के रूप में काम करती थी.
ओरेगन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश विलियम आर किंग ने जनवरी 1923 में सुप्रीम कोर्ट में थिंड के मामले में बहस की. किंग ने जोहान फ्रेडरिक ब्लुमेनबैक, जेम्स ड्रमंड एंडरसन, थॉमस हेनरी हक्सले और मैक्स मुलर जैसे अमेरिकी और यूरोपीय नृवंशविज्ञानियों के काम को आधार बनाया. यह तर्क देते हुए कि मनुष्यों को पांच जातियों में विभाजित किया गया है और यह कि थिंड जैसे पंजाबी आर्य जाति का हिस्सा थे और एक तरह कोकेशियान थे. किंग ने इस धारणा पर विश्वास किया कि "कोकेशियान" और "श्वेत" कानूनन प्रयायवाची हैं. साथ ही अमेरिकी नागरिकों के रूप में नागरिकता देने के लिए भारतीय प्रवासियों की पात्रता पर संयुक्त राज्य भर के न्यायाधीशों द्वारा पूर्व में अनुमोदित अदालती मामलों की एक श्रृंखला का हवाला दिया. किंग ने तब तर्क दिया कि थिंड की नस्लीय शुद्धता जाति के माध्यम से बनाए रखी गई थी. उन्होंने कहा, "उच्च वर्ग के हिंदू वैवाहिक दृष्टिकोण से भारतीय आदिवासी मंगोलों को उसी तरह से मानते हैं जैसे अमेरिकी नीग्रो को मानते हैं. भारत में जाति व्यवस्था काफी हद तक प्रचलित है जैसे की किसी दूसरी जगह नहीं है... इस जाति व्यवस्था के प्रचलित होने के साथ, विभिन्न जातियों के बीच तुलनात्मक रूप से रक्त का मिश्रण बहुत कम होता है.
थिंड ने किंग के संक्षिप्त दावे के साथ एक परिशिष्ट संलग्न किया, जिसमें दावा किया गया था कि वह एक "स्वतंत्र श्वेत व्यक्ति" हैं, जिसमें उन्होंने नस्लीय शुद्धता और श्वेत होने के अपने दावों में जाति, रक्त और नस्ल के बीच संबंध पर जोर दिया जैसे कि उनसे पहले अमेरिकी नागरिकता कि मांग करने वाले कई भारतीय प्रवासियों ने किया था. थिंड ने जोर देकर कहा कि वह शुद्ध आर्य रक्त के हैं क्योंकि भारत के प्राचीन ग्रंथों में, विशेष रूप से मनु के कानूनों में, अंतरजातीय विवाह को प्रतिबंधित कर दिया गया था.
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मति से लगभग हर उस कानूनी आधार पर थिंड को नागरिकता देने से इनकार कर दिया, जो उनसे पहले के एशियाई अप्रवासियों ने खुद को श्वेत के रूप में वर्गीकृत कराने के लिए प्रस्तुत किए थे. न्यायमूर्ति जॉर्ज सदरलैंड ने अदालत के सर्वसम्मत फैसले में लिखा कि यह देखते हुए कि भारतीय अप्रवासी "एशियाई वंश” के हैं तब भी जाति के आधार पर नस्लीय शुद्धता स्थापित नहीं कर सकते क्योंकि "अंतर-मिश्रण" तब भी संभव है, "ब्राह्मण जाति के मामले में भी." सुप्रीम कोर्ट के फैसले में आगे कहा, "अब हम जो मानते हैं वह यह है कि 'फ्री व्हाइट पर्संस' शब्द सामान्य भाषण के शब्द हैं, जिनकी आम आदमी की समझ के अनुसार व्याख्या की जानी है, 'कोकेशियान' शब्द का पर्याय केवल यही है कि इसे लोकप्रिय शब्द के रूप से समझा जाता है. राज्य ने थिंड कि नागरिकता वापस ले ली और सभी भारतीय अप्रवासियों को अमेरिकी नागरिकों के रूप में अयोग्य बना दिया, उन्हें संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थायी प्रवासी समुदाय के रूप में चिह्नित किया.
संयुक्त राज्य बनाम भगत सिंह थिंड के मामले के बाद, नागरिकता ब्यूरो ने देश भर के जिला वकीलों को आदेश जारी किए और उन्हें सभी भारतीय प्रवासियों की नागरिकता को इस आधार पर रद्द करने के लिए प्रोत्साहित किया कि उन्होंने धोखाधड़ी से अमेरिकी नागरिकता प्राप्त की थी. संभवत: संयुक्त राज्य सरकार द्वारा एक प्रवासी समुदाय की नागरिकता वापस लेने का यह पहला बड़े पैमाने का प्रयास था. भारतीय प्रवासियों को इन प्रयासों के बारे में तब पता चला जब कैलिफोर्निया, जॉर्जिया, लुइसियाना, मिशिगन, नेब्रास्का, न्यू जर्सी, न्यूयॉर्क, ओक्लाहोमा, ओरेगन, पेंसिल्वेनिया, यूटा और वाशिंगटन के अटॉर्नी जनरल ने उनकी नागरिकता वापसी की कार्यवाही शुरू की. थिंड मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के दो महीने बाद, अप्रैल में फाइल पर लिखे पते पर उन लोगों को पहली बार नोटिस भेजे गए. नागरिकता वापसी के नोटिस में भारतीय प्रवासियों को सूचित किया गया कि उन पर अवैध रूप से अमेरिकी नागरिकता प्राप्त करने का आरोप लगाया जा रहा है क्योंकि वे स्वतंत्र श्वेत व्यक्ति नहीं हैं और उन्हें तुरंत अमेरिकी नागरिकता से प्राप्त "किसी भी अधिकार, विशेषाधिकार या लाभ का उपयोग करने या आनंद लेने से बचना चाहिए". राज्य के आदेश का जवाब देने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के पास 60 दिन थे, नहीं तो राज्य कि आज्ञा से उनकी नागरिकता खत्म कर दी जाती.
राज्य कि आज्ञा से अधिकांश भारतीय प्रवासियों कि नागरिकता को खत्म कर दिया गया था. वैष्णो जैसे कई अप्रवासियों ने अपनी नागरिकता प्रमाणपत्र वापस करने से इनकार कर दिया या अदालत में अटॉर्नी जनरल के फैसले के खिलाफ अपील करने की कोशिश की. केवल मुट्ठी भर भारतीय ही अमेरिकी नागरिकता बरकरार रखने में सक्षम रहे. आर्थिक रूप से संपन्न पारसी और मुस्लिम भारतीयों ने हिंदुओं और सिखों से खुद को अलग करने के लिए धर्म से जुड़े तर्क दिए.
कई भारतीय मुस्लिम और पारसी जो भारत से दूर और यूरोप के अधिक निकट के क्षेत्रों में अपने वंश का पता पा सके, उन्होंने जोर देकर कहा कि वे अभी भी गोरे हैं और एशियाई नहीं हैं. इसलिए नागरिकता वापस करने के बजाए उन्होंने अमेरिकी नागरिकता बनाए रखने की मांग की. एक खुदरा व्यापारी, पूर्व लेक्चरर और दो अंतरजातीय बच्चों के पिता जॉन मुहम्मद अली ने पहले 1921 में एक "उच्च-जाति हिंदू" के रूप में नागरिकता प्राप्त कि थी. अपनी नागरिकता वापसी के मामले में, अली ने असफल तर्क दिया कि उनके पूर्वजों ने भारत पर "आक्रमण" किया था लेकिन उनके परिवार के भीतर अंतरजातीय विवाह द्वारा शुद्ध अरबी खून और उसकी विरासत को पैगंबर मुहम्मद तक वापस खोजा जा सकता है. उनका तर्क भारतीय इतिहास के बारे मे ब्रिटिश साम्राज्यवादी समझ से उधार लिया गया था जिसने मुगलों को बार-बार मुस्लिम आक्रमणकारियों के रूप में दिखाया था. अन्य भारतीयों ने खुद को फारसी मूल के भारत के प्रवासियों के रूप में दिखाया. रावलपिंडी में पैदा हुए एक पारसी कमर-उद-दीन अलेक्जेंडर ने असफल तर्क दिया कि वह फारसी वंश के थे और उनके पूर्वज छह से सात शताब्दियों पहले भारत में आकर बसे थे.
जिन्हें नागरिकता के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था उनके बहुत से अधिकारों और विशेषाधिकारों के बीच, भूमि के अधिकार, मतदान के अधिकार, अमेरिकी पासपोर्ट तक पहुंच के साथ सजातीय से अलग विवाह कर पाना भी कठिन हो गया था. ब्रिटिश सरकार के भारत कार्यालय और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसके वाणिज्य दूतावासों ने भारतीय अप्रवासियों को उनकी जमीन और संपत्ति बेचने के लिए अतिरिक्त समय देने का अनुरोध करने के अलावा बहुत कम मदद की.
कला बगई के पति के लिए यह दर्द असहनीय था. कुछ वर्षों की अवधि में ही वैष्णो दास बगई ने अपने नाम पर कुल 75000 डॉलर की कई जीवन-बीमा पॉलिसी हासिल कर ली थी. 1928 के शुरुआत में वैष्णो ने एक चट्टान से कूदने के इरादे से लैंड्स एंड की यात्रा की पर उसे उसकी पत्नी ने रोक लिया. लेकिन दो महीने से भी कम समय के बाद, वैष्णो ने सैन होजे में एक कमरा किराए पर लिया और गैस स्टोव जला कर उन सभी बातों से मुक्त हो गए जिसने उन्हें परेशान किया हुआ था. उन्होंने अपने परिवार के लिए तीन पत्र छोड़े, जिनमें से एक में उनकी पत्नी को उनके संयुक्त खातों की जानकारी दी गई थी. वैष्णो ने अमेरिकी जनता को अपना चौथा और अंतिम पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने बताया, "मैं इस भूमि को अपना घर बनाने की सोच कर, सपने देखने और उम्मीद करने के लिए अमेरिका आया था.... लेकिन वे अब मेरे पास आते हैं और कहते हैं, मैं अब अमेरिकी नागरिक नहीं हूं. वे मुझे अपना घर खरीदने की अनुमति नहीं देंगे, और न ही वे मेरे भारत वापस जाने के लिए मुझे पासपोर्ट जारी करेंगे.... क्या जीवन सोने के पिंजरे में रहने लायक है? इस रास्ते में रुकावटें, उस रास्ते में रुकावटें और पीछे जाने के पुल भी जल गए हैं." उनकी पोती ने मुझे बताया कि जब कला बगई अपने पति के बारे में बाता रही थीं तो उनकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे.
आव्रजन और नागरिकता कानून में बाद के संशोधन इस विचार पर आधारित थे कि एशियाई प्रवासी द्वितीय विश्व युद्ध और शीत युद्ध के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए अपनी उपयोगिता के कारण नागरिकता के योग्य थे. संयुक्त राज्य अमेरिका में नागरिक-अधिकार आंदोलन ने भी अमेरिकी संसद में नस्ल के सवाल को उजागर करने में भूमिका निभाई, जहां आव्रजन सुधार पर व्यापक रूप से बहस हुई.
1940 में नस्लीय पूर्वापेक्षाओं को खत्म करने वाले बिल सामने आए जो इस बात की वकालत करते थे कि किसी व्यक्ति के नागरिकता के अधिकार को "जाति, रंग, पंथ या राष्ट्रीय मूल के कारण अस्वीकार या अपमानित नहीं किया जाना चाहिए." लेकिन अमेरिकी संसद में ये पास नहीं हो सके. पर्याप्त सुधार के लिए समर्थन जुटाने में विफल रहने के बाद, कई एशियाई अमेरिकी समुदायों ने इसके बजाए धीरे-धीरे विधायी सुधार की पैरवी की.
दिसंबर 1943 में मैग्नसन अधिनियम, चीनी अमेरिकियों और चीनी राजनयिकों द्वारा बहुत वकालत के बाद पारित गया था, इसने इस संभावना का संकेत दिया कि उन अप्रवासियों के लिए छोटे पैमाने पर नागरिकता और आव्रजन सुधार संभव था जो राष्ट्र के लिए अपनी उपयोगिता और योगदान को साबित कर सके. मैग्नसन अधिनियम ने संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने वाले कुछ चीनी प्रवासियों को प्रत्येक वर्ष अमेरिकी नागरिकों के रूप में स्वाभाविक रूप से रहने की अनुमति दी और प्रति वर्ष 105 नए प्रवेश वीजा तक की अनुमति दी.
उसके दो साल बाद अमेरिकी संसद ने भारतीय और फिलिपिंस के पुरुषों के लिए सुधार पर बहस की. 1946 में फिलीपींस को स्वतंत्रता मिलने से पहले, फिलिपिंस वालों ने खुद को विदेशी के रूप में पाया जब तक कि वे संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिक नहीं हो गए. हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान फिलिपिंस की भूमिका ने अमेरिकी संसद को अमेरिकी नागरिकता के लिए उनकी पात्रता पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित किया.
उसी वर्ष, द इंडिया लीग फॉर अमेरिका, इंडिया वेलफेयर लीग और इंडिया एसोसिएशन फॉर अमेरिकन सिटिजनशिप जैसे समूहों द्वारा प्रतिनिधित्व किए गए भारतीय प्रवासियों ने इस विचार के आधार पर आप्रवास सुधार और नागरिकता के लिए तर्क दिया कि भारत और भारतीयों ने संयुक्त राज्य अमेरिका कि वित्तीय समृद्धि और भू-राजनीतिक जरूरतों में योगदान दिया है.
अमेरिकी अधिकारियों द्वारा व्यापक रूप से समर्थित बिल एचआर 173 था, जो मैग्नसन अधिनियम के पैटर्न पर था. अटॉर्नी जनरल, राज्य विभाग और उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने युद्ध के दौरान भारत की "महान सेवाओं" और युद्ध में और उसके बाद "पर्याप्त मात्रा में कच्चा माल उपलब्ध करने" की इसकी क्षमता के कारण बिल को समर्थन देने का वचन दिया. उन्होंने यह भी आश्वासन दिया कि अमेरिकी रोजगार को भारतीयों को "कोई वास्तविक खतरा नहीं" है. बिल को प्राप्त ब्रिटिश सरकार के समर्थन, जबकि भारत स्वतंत्रता की ओर बढ़ रहा था, का हवाला दिया गया. यह रेखांकित करता कि अमेरिकी नागरिक बनने के लिए साम्राज्य की चिंता महत्वपूर्ण थी. जुलाई 1946 में, संसद ने मैग्नसन अधिनियम के आधार पर लूस-सेलर अधिनियम पारित किया और प्रति वर्ष संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रवास करने के लिए सौ "भारत और फिलीपींस के वासियों को अनुमति दी. इस अधिनियम ने संयुक्त राज्य में रहने वाले भारतीय प्रवासियों को भी नागरिक बनाने की अनुमति दी.
दो दशकों तक साथ में उभरे आप्रवासन और नागरिकता कानून में परिवर्तन ने इस विचार को बल दिया कि विधायी परिवर्तन धीरे-धीरे होने चाहिए और अमेरिकी नस्लीय पूंजी और उसके भू-राजनीतिक हितों में जोड़े गए मूल्य के अनुसार प्रवसियों को आंका गया. 1952 के आप्रवासन और नागरिकता अधिनियम के माध्यम से युद्ध के तुरंत बाद अमेरिकी नागरिकों के रूप में गैर-गोरों पर कानूनी प्रतिबंध समाप्त हो गए. अधिनियम ने राष्ट्रीय कोटा के आधार पर आप्रवासन की प्रणाली को बनाए रखा, जिससे राष्ट्रीय मूल के माध्यम से नस्लीय प्रावधानों कि कोडिंग जारी रही और अमेरिकी आप्रवासन और नागरिकता कानून में नस्लीय विषमता की एक और श्रेणी बनी.