6 सितंबर 1915 को 22 वर्षीय कला बगई अपने पति और तीन बेटों के साथ एसएस कोरिया जहाज से एंजेल द्वीप पर पहुंची. कला का सामान उनकी जिंदगी का आर्काइव था. इसमें सोने के गहने, खुद की एक तस्वीर और खास मौकों के लिए एक आसमानी-नीली रेशमी साड़ी थे. कला ने यह सामान जानकर चुना था क्योंकि उसे पता था कि उसके पति वैष्णो दास बगई संयुक्त राज्य अमेरिका में एक घर बनाने का इरादा रखते हैं.
एंजेल द्वीप पर पूछताछ और जांच के बाद बगई परिवार सैन फ्रांसिस्को के लिए रवाना हुआ. सोलह दिन बाद वैष्णो ने नागरिकता का आवेदन दिया. यह देखते हुए कि एक विवाहित महिला और बच्चे की राष्ट्रीयता पति की राष्ट्रीयता से जुड़ी होती है वैष्णो का आवेदन पूरे परिवार के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण था.
वैष्णो ने अपनी नागरिकता का मामला इस उम्मीद के साथ तैयार किया कि वह एक श्वेत व्यक्ति के रूप में अपनी योग्यता साबित कर लेंगे. उस समय संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रत्येक आप्रवासी को देश में पांच साल के वैध आवास को साबित करना होता था और साथ ही यह भी कि वह ''एक अच्छे चरित्रवाला... मुक्त श्वेत व्यक्ति" है. मुक्त श्वेत होने की आवश्यकता 1790 में अमेरिकी कांग्रेस के पहले समान नागरिकता कानून द्वारा बताई गई थी जिसका मकसद अमेरिका को श्वेत राष्ट्र के रूप में ढालने और व्यवस्थित करना था. 1868 में जबकि जन्मजात नागरिकता को वैध कर दिया गया और 1870 के नागरिकता अधिनियम ने "जन्म से विदेशी अफ्रीकी और अफ्रीकी मूल के व्यक्तियों" के लिए नागरिकता का विस्तार कर दिया था, वास्तव में सभी अन्य अमेरिकी नागरिकता के इच्छुकों को "मुक्त श्वेत व्यक्तियों" के रूप में कानूनी रूप से अर्हता प्राप्त करने की आवश्यकता थी. 1878 और 1952 के बीच अमेरिकी संघीय अदालतों ने, यह निर्धारित करने के लिए कि कौन श्वेत है, एशिया, प्रशांत, मध्य और दक्षिण अमेरिका के अप्रवासियों के पचास से अधिक मामलों पर विचार किया था.
भारतीय अप्रवासी, यह साबित करने के लिए गए कि वे गोरे हैं, काउंटी क्लर्कों के कार्यालयों और फिर अदालतों में गए. मानवविज्ञानी, भाषाविद और शाही नौकरशाहों द्वारा विकसित नस्ल विज्ञान सिद्धांतों और वर्गीकरणों का हवाला देते हुए उन्होंने तर्क दिया कि वे कौकेशियन और आर्यन हैं. लेकिन भारतीयों और अन्य एशियाई प्रवासियों क्या श्वेत व्यक्ति माने जा सकते हैं, यह एक ऐसा सवाल था जिसने काउंटी क्लर्कों, अमेरिकी न्यायाधीशों और स्थानीय आबादी को उलझन में डाल दिया. भारतीय प्रवासियों ने अपनी पैतृक विरासत और सजातीय विवाह की प्रथाओं का हवाला देते हुए दावा किया कि नस्लीय वंशावली और परिवारों में "अंतर-मिश्रण" की गैरमौजूदगी ने न केवल उनकी जाति बल्कि कई पीढ़ियों से रक्त की शुद्धता को भी बरकरार रखा है.
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