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विद्या बिना मति गई, मति बिना गति गई,
गति बिना नीति गई, नीति बिना वित्त गई
वित्त बिना शूद्र चरमराये,
इतना सारा अनर्थ एक अविद्या से हुआ
-गुलामगिरी, ज्योतिबा फुले
जिन मानदण्डों के आधार पर हम सामाजिक मुक्ति के बारे में इन तीनों शख्सियतों की तुलना कर रहे हैं, उन्हीं पैमानों पर अगर महात्मा फुले को देखें तो क्या नज़र आता है. लेकिन कुछ कहने के पहले फुले के जीवन के अहम पड़ावों का विहंगावलोकन करना समीचीन होगा. 1848 - अपनी पत्नी सावित्रीबाई तथा उनकी सहपाठी/मित्रा फातिमा शेख के सहयोग से भारत में शूद्र अतिशूद्र लड़कियों के लिए पहले स्कूल की स्थापना, 1851 - सभी जाति की कन्याओं के लिए एक अन्य स्कूल, 1855 - कामगार लोगों के लिए रात्रि पाठशाला, 1856 - उनकी ‘विभाजक’ गतिविधियों के चलते उन पर जानलेवा हमला, 1860 - विधवा पुनर्विवाह की मुहिम, 1863 - विधवाओं के लिए एक आश्रयस्थल की शुरूआत, विधवाओं के केशवपन अर्थात बाल काटे जाने के खिलाफ नाभिकों की हड़ताल का आयोजन, 1868 - अपने घर का कुंआ अस्पृश्यों के लिए खोल देना, 1 जून 1873 - ‘गुलामगिरी’ उनकी बहुचर्चित किताब का प्रकाशन, 24 सितम्बर 1873 - ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना, 1876-82 - पुणे म्युनिसिपल कौन्सिल के नामांकित सदस्य, 1882 - ‘स्त्री पुरूष तुलना’ की लेखिका एवं सत्यशोधक समाज की कार्यकर्ता ताराबाई शिन्दे की जोरदार हिमायत, जब उनकी उपरोक्त किताब ने रूढिवादी तबके में जबरदस्त हंगामा खड़ा कर दिया था, 11 मई 1888 - एक विशाल आमसभा में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि प्रदान की गयी, 1889 - उनकी आखरी किताब ‘सार्वजनिक सत्यधर्म’ का प्रकाशन, 28 मई 1890 - पुणे में इंतकाल.
भारत में अंग्रेजों का शासन शुरू होने से पहले प्रजा को शिक्षा देना सरकार का दायित्व नहीं माना जाता था. महात्मा फुले के जनम से पहले राजसत्ता तथा धार्मिक सत्ता ब्राह्मणों के हाथ में होने के कारण सिर्फ उन्हें ही धार्मिक ग्रंथ पढ़ने का अधिकार था. निम्न जाति के जिन व्यक्तियों ने पवित्रा ग्रंथ पढ़ने का प्रयास किया तो उन व्यक्तियों को मनु के विधान के तहत कठोर सजाएं मिली थी. दलितों की स्थिति जानने के लिए पेशवाओं के राज पर नज़र डालें तो दिखेगा कि वहां दलितों को सड़कों पर घुमते वक्त अपने गले में घडा बांधना पड़ता था ताकि उनकी थूक भी बाहर न निकले. वे सड़कों पर निश्चित समय में ही निकल सकते थे क्योंकि उनकी छायाओं से भी सवर्णों के प्रदूषित होने का खतरा था. जाहिर सी बात है कि दलितों के लिए शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था. वर्ष 1813 में ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा जारी आदेश के तहत शिक्षा के दरवाजे सभी के लिए खुल गए. वैसे सरकार ने भले ही आदेश जारी किया हो लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति बेहद प्रतिकूल थी. ब्राह्मणों के लिए ही एक तरह से आरक्षित पाठशालाओं में जब अन्य जाति के छात्रों को प्रवेश दिया जाने लगा तब उसका जबरदस्त प्रतिरोध हुआ था.
यह कहना अनुचित नहीं होगा कि 1848 में महिलाओं के लिए खोले अपने पहले स्कूल के जरिये फुले दंपति ने उस सामाजिक विद्रोह का बिगुल फूंका जिसकी प्रतिक्रियायें 21वीं सदी में भी जोरशोर से सुनायी दे रही हैं. 1851 तक आते आते महिलाओं, शूद्रों अतिशूद्रों के लिए उनके द्वारा खोले गए स्कूलों की संख्या पांच तक पहुंची थी जिसमें एक स्कूल तो सिर्फ दलित महिलाओं के लिए था. जैसे कि उस समय हालात थे और ब्राह्मणों के अलावा अन्य जातियों में पढ़ने लिखने वालों की तादाद बेहद सीमित थी, उस समय इस किस्म के ‘धर्मभ्रष्ट’ करने वाले काम के लिए कोई महिला शिक्षिका कहां से मिल पाती. ज्योतिबा ने बेहतर यही समझा कि अपनी खुद की पत्नी को पढ़ लिख कर तैयार किया जाए और इस तरह 17 साल की सावित्रीबाई पहली महिला शिक्षिका बनीं. फातिमा शेख नामक दूसरी शिक्षित महिला ने भी इस काम में हाथ बंटाया. इस बात के विस्तृत विवरण छप चुके हैं कि शूद्रों अतिशूद्रों तथा स्त्रियों के लिए स्कूल चलाने के लिए इस दंपति को कितनी प्रताडनायें झेलनी पड़ीं यहां तक कि सनातनियों के प्रभाव में आकर ज्योतिबा के पिता गोविंदराव ने उनको घर से भी निकाला.
सावित्रीबाई एवं जोतिबा की शिक्षा की मुहिम ने किस तरह एक नयी अलख जगायी इसकी झलक 1855 में लिखे इस पत्र से मिलती है, जो उस वक्त 14 साल की मुक्ताबाई ने - जो खुद मांग नामक दलित जाति में जनमी थी - लिखा था और पहली दफा अहमदनगर से प्रकाशित ‘ज्ञानोदय’ नामक पत्रिका में ‘मांग महारों के दुख के बारे में’ शीर्षक से छपा था. 16चैदह साल की वह लड़की कहती है कि,
ऐ पढ़े लिखे पंडितों, अपने खोखले ज्ञान की स्वार्थी रटंत बन्द करो और सुनो जो मैं कहना चाहती हूं.’ अगर हम वेदों के आधार पर इन ब्राह्मणों के, महान पेटू लोगों के, तर्कों को खारिज करने की कोशिश करें, जो अपने आप को हमसे श्रेष्ठ मानते हैं और हमसे नफरत करते हैं, तब वह कहते हैं कि वेद उनकी अपनी सम्पत्ति है. जाहिर है कि अगर वेद सिर्फ ब्राह्मणों के लिए ही हैं, तो हमारे लिए नहीं हैं. हे भगवान, हमें अपना सच्चा धर्म बता दो ताकि हम अपनी जिन्दगी उसके हिसाब से जी सकें. वह धर्म, जहां एक व्यक्ति को ही विशेषाधिकार है और बाकी सभी वंचित है, इस पृथ्वी से समाप्त हो और हमारे दिमाग में यह कभी न आए कि हम इस धर्म पर गर्व करें....
लेकिन महात्मा फुले ने अपने काम को महज शिक्षा तक सीमित नहीं रखा. उन्होंने कई सारी किताबों के जरिये ब्राह्मणवाद से उत्पीड़ित जनता को शिक्षित जागरूक करने की कोशिश की. ‘गुलामगिरी’, ‘किसान का कोड़ा’, ‘ब्राह्मण की चालबाजी’ आदि उनकी चर्चित किताबें हैं. अपने रचनात्मक कामों के अन्तर्गत उन्होंने वर्ष 1863 में अपने घर में ही ‘बालहत्या प्रतिबंधक गृह खोला. जानने योग्य है कि विधवा विवाह पर रोक की प्रथा के कारण विशेषकर ब्राह्मण जाति की तमाम महिलाओं को काफी प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी. अगर किसी के भुलावे में आकर वे गर्भवती हुईं तो बदनामी से बचने के लिए उन्हें उसको मारने के अलावा कोई चारा नहीं बचता था. ज्योतिबा-सावित्री ने महिलाओं को इस दुर्दशा से बचाने के लिए अपने घर में ही ऐसे गृह की स्थापना की. इसको लेकर समूचे पुणे में हैण्डबिल भी बांटे गए थे. बाल विधवाओं के बाल काटने से रोकने के लिए उन्होंने पुणे के नाईयों की एक हड़ताल भी संगठित की थी.
अपने कार्यों को सुचारू रूप से आगे बढ़ाने के लिए ज्योतिबा ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की. फुले की दृष्टि की व्यापकता का अन्दाज इस बात से भी लग सकता है कि उसकी पहली कार्यकारिणी में हमें हिन्दू धर्म की विभिन्न जातियों के अलावा एक यहुदी और एक मुसलमान भी शामिल दिखता है. उन्हीं दिनों अपने दो मित्रों के साथ मिल कर 1873 में ‘दीनबंधु’ नामक अख़बार का प्रकाशन भी उन्होंने शुरू किया. ‘स्त्री पुरूष तुलना’ की रचयिता ताराबाई शिन्दे हों या पुणे के सनातनियों से प्रताड़ित पंडिता रमाबाई हों दोनों की मजबूत हिफाजत ज्योतिबा ने की.
जानने योग्य है कि सत्यशोधक समाज के कार्यकर्ता तथा फुले के सहयोगी श्री नारायण मेघाजी लोखंडे ने बम्बई की पहली ट्रेड यूनियन ‘बॉम्बे मिलहैण्डस एसोसिएशन’ की स्थापना की थी तथा उन्हीं के आन्दोलन की अन्य कार्यकर्ती ताराबाई शिन्दे अपनी किताब ‘स्त्री पुरूष तुलना’ के चलते एक तरह से पहली नारीवादी सिद्धांतकार मानी गयी हैं. उनके अन्य सहयोगी भालेकर ने ज्योतिबा की ही प्रेरणा से किसानों के संगठन का बीड़ा उठाया.
इस तरह हम देख सकते हैं कि स्त्री, शूद्र-अतिशूद्र के उत्पीड़न का प्रश्न रहा हो या उनकी शिक्षा का, जनता को सचेत करने के लिए अख़बारों पत्रापत्रिकाओं के प्रकाशन मामला रहा हो या सेठों और ब्राह्मणों द्वारा साधारण जन के लिए रचे गए छलकपट का सभी की मुखालिफत में वे हमेशा आगे रहे. लेकिन उनका सबसे बड़ा योगदान यही कहा जाएगा कि उन्होंने वर्णाश्रम पर टिकी ब्राह्मणवाद की चौखट को जबरदस्त चुनौती दी और यह साबित किया कि ऊंच नीच अनुक्रम पर टिकी यह प्रणाली इन्सान को जोड़ने वाली नहीं है तोड़ने वाली है. यह स्वाभाविक ही था कि नवोदित उपनिवेशवादी संघर्ष द्वारा गढ़ी जा रही राष्ट्र की अवधारणा उन्होंने प्रश्नों के घेरे में खड़ी की. उनका साफ साफ सवाल था कि जातियों में बंटा यह समाज कैसे एक राष्ट्र हो सकता है.
अगर स्त्री, शूद्रों-अतिशूद्रों को शिक्षित करने के उनके प्रयासों पर फिर लौटे तो हम पाएंगे कि उन्होंने शोषितों को शिक्षित करने के साथ साथ शिक्षा का एक वैकल्पिक मॉडल भी प्रस्तुत करने की कोशिश की. मेकॉले के शिक्षा की फिल्टर पद्धति के मॉडल के बरअक्स अर्थात शिक्षा उंचे तबकों को प्रदान की जाए तो वह छन छन कर नीचले तबकों तक आएगी, महात्मा फुले ने नीचले तबकों को सबसे पहले शिक्षित करने पर जोर दिया. आज कल चर्चित ‘पड़ोस में स्कूल’ (neighbourhood schools) की नीति की भी उन्होंने हिमायत की. यहां तक कि शिक्षा में सरकारी हस्तक्षेप का आग्रह किया. भारतीय जनमानस पर प्रगट रूप में कायम मनु के विधान को चुनौती देते हुए उन्होंने दलितों शोषितों के लिए विशेष अवसर प्रदान करने की भी कोशिश की. उनकी मौत के चन्द साल बाद ही उनकी यह इच्छा कोल्हापुर के महाराजा शाहू महाराज ने पूरी की जो उन्हीं के आंदोलन से जुड़े थे. (1902)
1882 में अंग्रेज सरकार द्वारा शिक्षा संबंधी समस्याओं को जानने के लिए नियुक्त हंटर आयोग के सामने प्रस्तुत अपने निवेदन में फुले के इन शिक्षासम्बन्धी विचार और ठोस रूप में मिले दिखते हैं. वे साफ कहते हैं कि ‘‘मेरी राय है कि लोगों को, प्राथमिक शिक्षा कमसे कम 12 साल तक अनिवार्य कर देनी चाहिए’’ उनका यह भी प्रस्ताव था कि ब्राह्मणों द्वारा दलित जातियों की पढ़ाई के रास्ते में खड़ी की जा रही बाधाओं को देखते हुए उनकी बस्ती में अलग स्कूल बनाने चाहिए. शिक्षा तथा अन्य स्थानों पर शोषित तबकों को वरीयता देने की बात करते हुए वे इसमें यह भी लिखते हैं कि अध्यापकों को ठीक तनखाह मिलनी चाहिए तभी वे ठीक से पढ़ा पाएंगे. लेकिन उनका सबसे रैडिकल सुझाव शिक्षा के पाठयक्रम को लेकर है जो उनके मुताबिक ‘‘महज क्लर्क और शिक्षक तैयार करने की उपयोगिता तक सीमित है’’. प्रचलित माध्यमिक शिक्षा को सामान्य लोगों की दृष्टि से अव्यावहारिक और अनुचित घोषित करते हुए उसका विकल्प तलाशने की मांग करते हैं.
उनका साफ मानना था कि शूद्रों अतिशूद्रों को जिन आपदाओं का सामना करना पड़ता है उसकी जड़ में ईश्वर के नाम से रचित या उसके द्वारा प्रेरित धार्मिक किताबों पर अंधविश्वास ही कारण होता है. इसलिए वह अंधश्रद्धा का खातमा करना चाहते थे. स्पष्ट है कि सभी स्थापित धार्मिक और पुरोहित तबकों को यह अंधविश्वास अपने उद्देश्य के लिए उपयोगी दिखता है, जो उसकी हिफाजत की पूरी कोशिश करते हैं. उनका प्रश्न था,
फुले का निष्कर्ष है कि यह बात भरोसे लायक नहीं लगती कि सभी धार्मिक किताबें ईश्वर द्वारा रचित हैं. यह बात मान लेना एक तरह से अज्ञान एवं पूर्वाग्रह का परिणाम है. सभी धर्म और धार्मिक किताबें मनुष्य द्वारा निर्मित हैं और वह उन्हीं तबकों के हित साधन की बात करती हैं, जो इनके माध्यम से अपने हित की पूर्ति चाहते हैं. अपने वक्त़ में फुले ऐसे एकमात्रा समाजशास्त्री और मानवतावादी थे जो ऐसे साहसी विचारों को रख सकते थे. उनकी नज़र में, हर धार्मिक किताब अपने वक्त का उत्पाद होती है और उसमें जो सत्य पेश किए रहते हैं उनमें कोई स्थायी और वैश्विक वैधता नहीं होती. ऐसी किताबें उसके रचयिताओं के पूर्वाग्रहों और स्वार्थों से कभी मुक्त नहीं हो सकती.
आखिर हम ज्योतिबा फुले के योगदान के बारे में क्या कह सकते हैं जिन्होंने सामाजिक मुक्ति के क्षेत्रा में एक रैडिकल प्रवाह के विकास में अहम भूमिका अदा की.
‘सिलेक्टेड रायटिंग्ज आफ जोतिराव फुले’ के सम्पादकीय में प्रोफेसर गो पु देशपाण्डे हमें बताते हैं, ‘फुले का फ़लक व्यापक था, उनका प्रसार विशाल था. उन्होंने अपने वक्त़ के अधिकतर महत्वपूर्ण प्रश्नों - धर्म, वर्णव्यवस्था, कर्मकाण्ड, भाषा, साहित्य, ब्रिटिश हुकूमत, मिथक, जेण्डर प्रश्न, कृषि में उत्पादन की परिस्थितियां, किसानों की हालत आदि - को चिन्हित किया और उनको सैद्धान्तिक शक्ल देने की कोशिश की... क्या फुले को फिर समाज सुधारक कहा जा सकता है ? इस जवाब होगा ‘नहीं’. एक समाज सुधारक उदार मानवतावादी होता है और फुले क्रान्तिकारी अधिक थे. उनके पास विचारों की समग्र प्रणाली थी, और वह उन प्रारम्भिक विचारकों में से थे, जिन्होंने भारतीय समाज मे वर्गो की पहचान की थी. उन्होंने भारतीय समाज के द्वैवर्णिक संरचना का विश्लेषण किया था, और सामाजिक क्रान्ति के लिए शूद्रों-अतिशूद्रों को अग्रणी कारकशक्ति/एजेंसी के तौर पर चिन्हित किया था.
(प्रस्तुत अंश सुभाष गाताडे की हाल में ऑथर्स प्राईड पब्लिशर प्रा. लि. द्वारा प्रकाशित किताब 'चार्वाक के वारिस: समाज, संस्कृति और सियासत पर एक प्रश्नवाचक' से लिया गया है. )