“सर हम दिव्यांग हैं और हमको राज्य सरकार की तरफ से दिव्यांग पेंशन की राशि मिलने से काफी राहत मिली है. ”
“आगे क्या विचार है?”
“यहीं रोजगार दिलाएं सर, यहां से नहीं जाएंगे.”
“चिंता मत कीजिए, आपका पूरा खयाल रखा जाएगा.”
यह बातचीत कोलकाता से लौटे विकलांग कामगार कैलाश रविदास और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बीच 24 मई को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हुई थी. 1 मई से केंद्र सरकार ने प्रवासी मजदूरों-कामगारों को उनके गृह राज्य पहुंचाने के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाने का निर्णय लिया था. इस निर्णय के बाद दर्जनों श्रमिक स्पेशल ट्रेनें बिहार आईं और इन ट्रेनों के जरिए हजारों की संख्या में लोग बिहार लौटे.
कोविड-19 महामारी का डर और फिर फैक्टरियां बंद हो जाने से खाने-पीने के संकट के चलते मजबूर होकर लौटे कामगारों को उम्मीद थी कि बिहार सरकार उनके लिए कुछ करेगी. बिहार सरकार ने भी मीडिया में सार्वजनिक बयान देकर आश्वस्त किया कि बिहार लौटे लोगों के लिए रोजगार के उपाय किए जाएंगे. इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद कई क्वारंटीन सेंटरों में ठहरे लोगों से बातचीत कर रोजगार का सब्जबाग दिखाया था. मजदूरों-कामगारों को भी लगा कि जब नीतीश कुमार खुद बातचीत कर नौकरी देने की बात कह रहे हैं, तो जरूर कुछ ठोस काम होगा इस बार. लेकिन अब वे ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं.
कैलाश रविदास 23 मई को बस से कोलकाता से बिहार लौटे थे. वह जमुई जिले के सिकंदरा ब्लॉक के नवकाडीह के रहने वाले हैं. 23 मई को घर लौटने के बाद वह सिकंदरा के आईटी केंद्र में बने क्वारंटीन सेंटर में रहने चले गए थे.
उसी दिन उनके पास जिले के डीएम पहुंचे और उनसे काम के बारे में पूछताछ की और यह भी कहा कि क्या वह सीएम नीतीश कुमार से बात करना चाहेंगे.
कैलाश ने मुझे बताया, “मैं क्वारंटीन सेंटर में गया, तो डीएम समेत अन्य अधिकारी मेरे पास आए और मुझे पूछा कि मैं कोलकाता में क्या काम करता हूं, कितने सालों से करता हूं और यहां क्या मेरे लिए क्या किया जा सकता है. वे लोग मुझे लोन दिलाने की भी बात कह रहे थे कि अगर लोन मिल जाए, तो क्या मैं खुद छोटी-मोटी फैक्टरी खोल सकता हूं कि नहीं.”
40 वर्षीय कैलाश कोलकाता के राजाबाजार में पिछले दो दशक से रह रहे हैं. उनके पिता और उससे पहले उनके दादा भी राजाबाजार में ही रहते थे. कैलाश 20 साल के थे तभी कोलकाता चले गए और चप्पल बनाने का काम करने लगे. उन्होंने मुझे बताया, “दादा-परदादा के जमाने से ही राजाबाजार में हमारा एक छोटा-सा कमरा है, जहां मैं रहता था. मुझे वहां कच्चा माल मुहैया कराया जाता था. दिनभर में मैं 24 जोड़ी चप्पलें तैयार कर देता था. इसके एवज में 500-600 रुपए मिलते थे.”
24 मार्च से लॉकडाउन लगा तो अन्य दुकानों के साथ ही फुटवियर की दुकानों के शटर भी गिर गए, तो जूते-चप्पल बनाने का काम मिलना बंद हो गया. जो लोग कैलाश व उनके जैसे लोगों से जूते-चप्पल बनवाते थे, उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि दुकानें बंद हो गई हैं इसलिए अब काम देना संभव नहीं है. अगर कहीं और काम मिलता है तो वे लोग काम खोज लें या घर चले जाएं.
“लॉकडाउन लगने के 8 दिन के भीतर ही वे लोग (जो मुझे काम देते थे) भी घर चले गए. मेरा राजाबाजार में अपना कमरा था तो किराया बच जाता था इसलिए मैं वहां कुछ दिन और रुक गया. मोहल्ले के कुछ समाजसेवी हमलोगों को चावल, आटा, दाल, आलू वगैरह दे देते थे, जिसे खाकर वक्त गुजारने लगा. इसी तरह करीब दो महीने तक मैं वहां रहा. लेकिन 22 मई को आजीज आकर मैंने लौटने का फैसला कर लिया. मेरे पास पैसा था नहीं तो घर से 3 हजार रुपए मंगवाए. कोलकाता से जमुई का बस किराया 250 रुपए है लेकिन हमलोगों को 1800 रुपए किराया देना पड़ा. 22 मई को ही बस पकड़ा और 23 मई को क्वारंटीन सेंटर पहुंच गया”, कैलाश रविदास ने मुझे बताया.
उन्होंने मुझसे कहा, “जिस तरह डीएम व अन्य अधिकारी मुझे घेरे रहते थे और लोन दिलाने, फैक्टरी लगवाने, रोजगार का इंतजाम करने की बात कहते थे, मुझे लगता था कि 14 दिनों की क्वारंटीन अवधि खत्म होने के बाद मुझे काम मिल जाएगा. क्वारंटीन सेंटर के दूसरे लोग भी कहते थे कि कम से कम मुझे तो रोजगार मिल ही जाएगा. फिर अगले दिन यानी 24 मई को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी मुझसे बात की तो मुझे पक्के तौर पर यकीन हो गया कि यहां काम मिल जाएगा. उस बातचीत के डेढ़ महीने से ज्यादा वक्त गुजर चुका है, लेकिन कोई मुझसे पूछने नहीं आया कि किस हाल में हूं. क्वारंटीन सेंटर में सभी आसपास के लोग थे. वे अब मिलते हैं, तो हंसते हुए पूछते हैं कि कोई काम मिला कि नहीं. बहुत खराब लगता है, इसलिए मैं उन्हें झूठ कह देता हूं कि काम मिला है, घर से ही कर रहा हूं.”
“वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में नीतीश जी ने यह भी कहा था कि क्वारंटीन अवधि खत्म होने के बाद हमारे एकाउंट में 1000 रुपए भी भेजे जाएंगे. क्वारंटीन सेंटर में मुझसे अकाउंट नंबर लिया गया, लेकिन अभी तक खाते में कोई पैसा नहीं आया है”, कैलाश रविदास ने मुझसे कहा.
क्वारंटीन सेंटर से लौटने के बाद कैलाश घर में ही बैठे हुए हैं और वह हालात के सामान्य होने का इंतजार कर रहे हैं ताकि वापस कोलकाता लौटकर दोबारा जूते-चप्पल बनाने का काम शुरू कर सकें. वह कहते हैं, “घर पर बैठकर खा रहा हूं. उधारी पर आटा-चावल दुकान से खरीदा है. यहां काम तो मिल नहीं रहा है. बस ट्रेन चलना शुरू हो जाए, कोलकाता में काम शुरू हो तो दोबारा वहां जाकर काम करूंगा. बीच में सुना कि कोलकाता के लिए बिहार से दो ट्रेनें चल रही हैं. मैं लौटने की सोच ही रहा था कि अब सुन रहा हूं, बंगाल में दोबारा लॉकडाउन लग गया है और वहां जानेवाली दोनों ट्रेनें भी रद्द होने वाली हैं.”
कैलाश को एक बेटा व एक बेटी हैं. बेटा कोलकाता में ही कैटरिंग का काम करता था. लॉकडाउन में उसका काम भी रुक गया. कैलाश बताते है, “बेटा भी मेरे साथ ही लौटा है. वह भी यहां बेरोजगार बैठा हुआ है. बेटी विकलांग है. पत्नी खेतों में मजदूरी कर लेती थी लेकिन अभी खेत में भी काम नहीं मिल रहा. सरकार कोई इंतजाम कर देती तो कोई भी काम कर लेता.”
मैंने इस संबंध सिकंदरा की बीडीओ वीणा सिंह से बात की, तो उन्होंने कहा, “सीएम नीतीश कुमार ने जिन लोगों से बात की थी, उनको काम दिलाने को लेकर अग्रेतर कार्रवाई हो रही है. इसके अलावा हर ब्लॉक में शिविर लगाकर प्रवासी कामगारों से आवेदन लिया जाएगा और इच्छुक होने पर उन्हें सरकारी प्रोजेक्ट में काम दिया जाएगा.”
24 मार्च के देशव्यापी लॉकडाउन के बाद से अब तक 30 लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर/कामगार बिहार लौटे हैं. इनमें से 22 लाख लोग श्रमिक स्पेशल ट्रेनों से और बाकी लोग बस, पैदल व अन्य माध्यमों से आए हैं. इनमें कुछ लोगों को मनरेगा व अन्य स्कीम के तहत काम मिला है लेकिन एक बड़ा तबका ऐसा है, जिन्हें नौकरी नहीं मिली. कैलाश रविदास की तरह ये लोग भी दोबारा उन्हीं शहरों की ओर रवाना होना चाह रहे हैं, जहां दशकों से काम कर रहे थे. बहुत सारे लोग तो इस बीच दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों में लौट भी चुके हैं.
बिहार मोटर ट्रांसपोर्ट फेडरेशन के अध्यक्ष जगन्नाथ सिंह ने मुझे बताया, “मेरे पास दूसरे राज्यों के दर्जनों लेबर कॉन्ट्रैक्टरों का फोन आ चुका है. वे लोग हमारी बस मांग रहे थे बिहार से लेबरों को ले जाने को, लेकिन हमने मना कर दिया, तो अब रास्थान, बंगलुरू, चैन्नई, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, यूपी से लेबर कॉन्ट्रैक्टर बसें लेकर आ रहे हैं और वर्करों को ले जा रहे हैं. अनलॉक होने के बाद सैकड़ों बसें आ चुकी हैं.”
टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के मुताबिक, 26 जून से 30 जून तक मुंबई जाने वाली 11 ट्रेनों में से 8 ट्रेनों में उत्तर प्रदेश और बिहार के कामगार थे.
गया के शेरघाटी ब्लॉक के बेला गांव के रहने वाले 20 वर्षीय संदीप कुमार मंडल भी लॉकडाउन के चलते मई में पुणे से घर लौट आए थे. अनलॉक-1 शुरू होने के बावजूद कोई काम नहीं मिला, तो वह हार कर 7 जुलाई को ट्रेन से वापस पुणे चले गए. आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण वह छठवीं तक ही पढ़ाई कर पाए थे. फिलहाल वह पुणे में दोपहिया वाहन के पुर्जे बनाने वाली फैक्टरी में 15 हजार रुपए माहवार पर काम कर रहे थे.
“लॉकडाउन में मैं घर पहुंचा था और 5 जुलाई को दानापुर जंक्शन से ट्रेन पकड़ कर पुणे आया. इतने दिनों तक गांव में रहने के बावजूद कभी कोई सरकारी अधिकारी या मुखिया-सरपंच काम-धंधे के बारे में पूछने नहीं आया. अगर मुझे वहां काम मिल जाता तो मैं वापस यहां कभी नहीं आता. पुणे की फैक्टरी दोबारा खुली, तो कॉन्ट्रैक्टर ने वापस आने को कहा. ट्रेन का टिकट भी उन्होंने ही बनवा दिया और 4 हजार रुपए भी अकाउंट में डाल दिया, तो मैं वापस आ गया”, संदीप ने मुझे बताया.
बिहार सरकार ने लॉकडाउन के दौरान लौटने वाले कामगारों को 1000 रुपए किराया देने का वादा किया था. कैलाश रविदास की तरह ही संदीप ने भी ने मुझे कहा कि बैंक अकाउंट का डिटेल व अन्य जानकारियां लेने के बावजूद अब तक उनके अकाउंट में पैसा नहीं पहुंचा है.
बिहार लौटे कामगारों में से कितने को सरकार ने नौकरी दी और अन्य जानकारियों के लिए मैंने 9 जुलाई की बिहार के श्रम मंत्री विजय कुमार सिन्हा को कॉल किया तो उनके पीए (पर्सनल असिस्टेंट) ने फोन उठाया और कहा कि वह अभी बैठक में हैं. उन्होंने मुझे कहा, “हम उनसे बात कर लेते और आपको फिर बात करवाते हैं.” लेकिन उनकी तरफ से कोई कॉल नहीं आया, तो मैंने उन्हें दोबारा फोन किया, लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया.
10 जुलाई की दोपहर मैंने उन्हें फिर कॉल किया, तो इस बार भी उनके पीए ने कहा कि वह मंत्रीजी से बात कर मुझे बताएंगे, लेकिन उन्होंने बात नहीं कराई.
मैंने इस संबंध में श्रम विभाग के डिप्टी सेक्रेटरी सूर्यकांत मणि को फोन किया, तो उन्होंने कहा कि श्रमिकों का आंकड़ा उनके पास नहीं रहता है. फिर मैंने रोजगार निदेशालय (मुख्यालय) में फोन किया, तो एक अधिकारी ने नाम जाहिर नहीं करने की शर्त पर मुझे बताया, “सभी विभागों को निर्देश है कि वे रोजगार का सृजन कर उनमें प्रवासी मजदूरों को लगाएं. कुछ अधिकारियों को यह जिम्मेवारी भी दी गई है कि वे रोजगार से संबंधित आंकड़ा एकत्र कर हमसे साझा करें, लेकिन वे हमें आंकड़ा दे नहीं रहे हैं, इसलिए मैं नहीं कह सकता कि बिहार लौटे कामगारों में से सरकार कितने लोगों को रोजगार दे रही है.” उन्होंने यह भी कहा कि आंकड़ा नहीं देने पर संबंधित अधिकारी पर जुर्माने का प्रावधान है, लेकिन इसकी प्रक्रिया जटिल है.
अप्रैल में जब कोविड-19 और रोजगार के संकट से बदहवास मजदूर-कामगारों का हुजूम अपने घरों की तरफ लौट रहा था, तब मैंने बिहार लौटे कुछ कामगारों से बातचीत की थी. इस बातचीत में उन्होंने मुझे बताया था कि अगर सरकार उन्हें रोजगार मुहैया नहीं कराती है, तो वे दोबारा दूसरे राज्यों में जाने को विवश हो जाएंगे.
बिहार लौटे लोगों की दोबारा दूसरे सूबों की तरफ रवानगी की मुख्य वजह यह है कि बिहार में रोजगार का अवसर सिमटा हुआ है. बिहार चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष पीके अग्रवाल ने मुझे बताया, “बिहार में मझोले किस्म की इंडस्ट्री हैं लेकिन लॉकडाउन के कारण इन पर भी मार पड़ी है. लिहाजा इंडस्ट्री सेक्टर में फिलहाल रोजगार नहीं है और नई इकाइयां एक दिन में शुरू नहीं होती हैं. इसमें वक्त लगता है. बिहार में दो सेक्टर हैं, जहां तुरंत रोजगार मिल सकता है. एक है कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री और दूसरा मनरेगा. बिहार में कंस्ट्रक्शन का काफी काम हो रहा है. बाहर से लौटे लोगों को इसमें खपाया जा सकता है. इसके अलावा मनरेगा के तहत भी लोगों को काम दिया जा सकता है.”
मॉनसून के दस्तक के चलते कंस्ट्रक्शन का काम लगभग ठप हो चुका है और ऐसे में मनरेगा ही इकलौता सेक्टर बचता है, जहां रोजगार मिल सकता है. अभी हाल ही में सरकार ने कुछ नए सेक्टरों को मनरेगा में शामिल किया है. लेकिन मनरेगा की अपनी सीमाएं हैं. अव्वल तो मनरेगा के तहत मिलने वाली दिहाड़ी बेहद कम 194 रुपए है और दूसरी बात यह है कि वे लोग इससे वंचित रह जाएंगे, जिनके पास मनरेगा जॉब कार्ड नहीं है. दूसरी तरफ, कई मामलों में यह भी देखने को मिलता है कि लोगों को काम का पैसा समय पर नहीं मिलता है.
वैशाली जिले के कुंवर वाजितपुर निवासी सत्येंद्र राम लॉकडाउन से ठीक पहले यहां आ गए थे. उनका पूरा लॉकडाउन बेरोजगारी में बीता. मई के आखिर में मनरेगा का काम मिला, तो लगातार 26 जून तक काम किया. सत्येंद्र ने लगातार 29 दिन तक काम किया, लेकिन उन्हें अब तक पैसा नहीं मिला है.
उन्होंने मुझे बताया, “आकर घर की स्थिति देखिएगा, तो समझ पाइएगा कि हमलोग कैसे रह रहे हैं. एक वक्त खाते हैं, तो दूसरे वक्त खाने के लिए सोचना पड़ता है. सोचा था कि मनरेगा का पैसा मिलेगा, तो कुछ दिन घर चल जाएगा, लेकिन इसका पैसा भी अटक गया है. काम करके भी पैसा नहीं मिल रहा है. 5-5 किलोग्राम राशन फ्री मिल रहा है, लेकिन मेरे घर में 6 सदस्य हैं और राशऩ कार्ड चार लोगों का ही बना हुआ है. 20 किलो अनाज 6 आदमी कितने दिन तक खाएगा? हालात तो ऐसे हैं कि मैं खाऊंगा, तो बच्चों को भूखा रखना होगा और बच्चों को खिलाऊंगा, तो मुझे भूखा रहना होगा.”
सत्येंद्र महाराष्ट्र के पुणे में फल की लोडिंग व अनलोडिंग करते थे. वहां उन्हें 500 रुपए दिहाड़ी मिलता था.“मनरेगा की दिहाड़ी पुणे के मुकाबले आधे से भी कम है. इतना कमाकर भी मैं बिहार में रहने को तैयार हूं बशर्ते कि नियमित काम और समय पर पैसा मिल जाए.”
10 अप्रैल को मैंने जब रिपोर्ट की थी, तो उस वक्त तक मनरेगा जॉब कार्डधारियों व सक्रिय वर्करों का जो आंकड़ा था और 9 जुलाई तक जो आंकड़ा केंद्र सरकार की वेबसाइट पर उपलब्ध है, उससे पता चलता है कि बिहार लौटी एक बड़ी आबादी को मनरेगा का काम नहीं मिल रहा है. 10 अप्रैल, 2020 तक बिहार में 180.64 लाख मनरेगा जॉब कार्ड जारी हुए थे, जो 9 जुलाई, 2020 को बढ़कर 191.98 लाख हो गए. यानी कि तीन महीनों में 11.34 लाख नए कार्ड बने. वहीं, अगर मनरेगा के तहत पंजीकृत वर्करों की बात करें, तो 10 अप्रैल 2020 तक बिहार में 257.57 लाख वर्कर पंजीकृत थे, जो 9 जुलाई को बढ़कर 268.36 लाख हुए यानी कि तीन महीनों में मनरेगा वर्करों की संख्या में 10.79 लाख का इजाफा हुआ. यह आंकड़ा बिहार लौटे 32 लाख कामगारों का करीब 31.7 प्रतिशत है.
बिहार में मनरेगा में अवसर व मजदूरों को लेकर पूछे गए सवालों पर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने मुझे ईमेल पर बताया, “बिहार में मनरेगा में समस्या इसके खराब कार्यान्वयन से शुरू होती है. बिहार में मनरेगा के अंतर्गत रोजगार का सृजन हमेशा राष्ट्रीय औसत से कम रहा है जबकि बिहार अन्य राज्यों की तुलना में गरीब है.”
“मसलन पिछले साल भारत में मनरेगा के तहत जितने रोजगार का सृजन किया गया था, उसमें बिहार की हिस्सेदारी महज 5 प्रतिशत थी, जबकि भारत की कुल ग्रामीण आबादी का 10 प्रतिशत हिस्सा बिहार में है. इस साल भी कमोबेश यही पैटर्न देखने को मिल रहा है. मनरेगा में रोजगार का सृजन मांग के आधार पर किया जाता है, लेकिन बिहार में यह अभी दूर की कौड़ी है. अगर मांग के आधार पर बिहार में रोजगार उपलब्ध कराया जाता, तो ग्रामीण श्रमिकों पर पलायन करने का बहुत कम दबाव होता”, ज्या द्रेज ने कहा.
मनरेगा में कम मजदूरी व पैसा देने में देरी के सवाल पर द्रेज कहते हैं, “कम वेतन और देर से भुगतान ने पूर्व में अक्सर ग्रामीण श्रमिकों को मनरेगा के प्रति उदासीन किया है. हालांकि इस साल मनरेगा के तहत काम की मांग ज्यादा है, क्योंकि रोजगार के अन्य अवसर बेहद कम हैं. ऐसे में कम मजदूरी और देर से भुगतान, काम नहीं मिलने से बेहतर है. मनरेगा की दिहाड़ी ज्यादा हो और समय पर पैसा मिल जाए, तो इससे लोगों को मदद मिलेगी और सरकार अगर मनरेगा वर्करों पर ध्यान दे, तो बहुत आसानी से इन दोनों समस्याओं का हल निकाल सकती है”, अर्थशास्त्री ने कहा.
गया के शेरघाटी ब्लॉक के ही 32 वर्षीय राजदेव मांझी अपने घर में अकेले कमाने वाले हैं. उनके पास जमीन नहीं है कि खेती-बारी हो जाए. वह 16 साल की उम्र से ही बाहर रहते हैं. अलग-अलग राज्यों में काम करने के बाद फिलहाल जयपुर में काम करते हैं. वह मार्च में घर लौटे थे और करीब तीन महीने तक बैठकर खाने के बाद 20 जून को आखिरकार जयपुर के लिए रवाना हो गए. उन्होंने मुझे बताया, “इन तीन महीनों में सिर्फ एक बार सरकार की तरफ से एक अधिकारी आया था, लेकिन वह कोरोना के बारे में पूछकर चला गया.”
जयपुर में राजदेव 15000 रुपए माहवार पर स्टोन क्रशिंग फैक्टरी में काम करते हैं, जिसकी सप्लाई लोहे की फैक्टरी में की जाती है. राजदेव की पत्नी ने कुछ पैसा बचाकर रखा था, जो लॉकडाउन काम आ गया. राशन दुकान से अनाज मिलता था. “अनाज के अलावा जरूरत की दूसरी चीजें बचत तोड़कर खरीदनी पड़ी. तीन महीने में 15000 रुपए खर्च हो गए”, उन्होने मुझे जानकारी दी.
राजदेव के पास बचत राशि थी, तो उसका इस्तेमाल वे लॉकडाउन में कर पाए लेकिन बहुत लोग ऐसे भी हैं, जो रोज कमाते हैं और रोज खाते हैं. ऐसे लोगों को लॉकडाउन और बेरोजगारी ने कर्ज में डुबा दिया है.
बालश्रम व अन्य मुद्दों पर काम करने वाले एनजीओ ‘सेंटर डायरेक्ट’ ने गया के 10 गांवों के 200 से अधिक परिवारों का सर्वे किया. इन परिवारों के सदस्य प्रवासी मजदूर हैं और लॉकडाउन लगने के बाद काम बंद होने से वे वापस लौटे हैं. सर्वे में पता चला है कि इनमें से 50 से 60 प्रतिशत परिवारों को घर चलाने के लिए कर्ज लेना पड़ा है. संगठन के प्रोजेक्ट को-ऑर्डिनेटर दीनानाथ मौर्या ने मुझे बताया कि कर्ज की राशि 5 से 10 हजार रुपए तक है.
“राशन तो इन परिवारों को सरकार की तरफ से मिल जा रहा है, लेकिन दवाइयां व दूसरी जरूरतों के लिए इन्हें कर्ज लेना पड़ रहा है. ये परिवार पिछड़ी जातियों से ताल्लुक रखते है और इनके पास बचत नहीं होती है, इसलिए ये कर्ज में फंस जाते हैं. इन्हें सरकार की तरफ से अब तक रोजगार मुहैया नहीं कराया जा सका है”, दीनानाथ मौर्या ने मुझे कहा.
इसी एनजीओ ने सीतामढ़ी जिले के एक गांव मूसाचक के 100 परिवारों का सर्वे किया, जिनमें से 75 परिवारों ने लॉकडाउन के दौरान घर चलाने के लिए 8 से 15 हजार रुपए तक कर्ज लेने की बात कही है. संगठन के जिला को-ऑर्डिनेटर संदीप कुमार ने मुझे बताया, “इन परिवारों ने 100 रुपए पर 5 रुपए माहवार ब्याज पर यह कर्ज लिया है.”
लॉकडाउन और बेरोजगारी के चलते कमजोर हुई आर्थिक स्थिति ने कई परिवारों के बच्चों को होटलों में काम करने के लिए भेजने को मजबूर कर दिया है. गया की शेरघाटी नगर पंचायत के 10 से 12 साल के 6 बच्चों को 9 जुलाई को औरंगाबाद के बारूण में एक होटल में काम करने के लिए भेजा गया है. दीनानाथ मौर्या ने मुझे बताया, “दलाल ने हर परिवार को 3-3 हजार रुपए एडवांस दिया है. हमलोगों ने परिवारों से संपर्क करने की बहुत कोशिश की लेकिन वे लोग सामने आकर कुछ भी बताने से डर रहे हैं.”
गया चाइल्ड वेलफेयर कमेटी के चेयरमैन राकेश मिश्रा ने 6 बच्चों को बालश्रम के लिए भेजने की खबर से अनभिज्ञता जाहिर की, लेकिन उन्होंने आशंका जताई कि लॉकडाउन खत्म होने पर बच्चों की तस्करी में तेजी आ सकती है.
उन्होंने मुझसे कहा, “शेरघाटी से बालश्रम के लिए बच्चों की तस्करी की जानकारी मुझे नहीं मिली है. चूंकि अभी यातायात सेवाएं काफी हद तक बंद हैं, इसलिए यहां से बच्चों को बाहर जाना बंद है, लेकिन एक बार जनजीवन सामान्य पटरी पर लौटता है और ट्रेनों का परिचालन शुरू होता है, तो संभावना है कि बड़े स्तर पर बच्चों की तस्करी हो. इसे रोकने के लिए हमलोग लगातार जिले के प्रशासनिक व पुलिस अफसरों के साथ बैठक कर रहे हैं. रेलवे स्टेशन तस्करी का एक सबसे अहम प्वाइंट होता है क्योंकि ट्रेनों से ही उन्हें दूसरे राज्यों में ले जाया जाता है, इसलिए रेलवे स्टेशन के अफसरों व आरपीएफ के साथ भी हमलोग नियमित बैठक कर रहे हैं. लॉकडाउन की अवधि में राजस्थान से 120 बच्चे आए थे, जिनमें 25 से 30 बच्चे गया के थे. हमलोग उनसे लगातार संपर्क में हैं और सरकारी स्कीमों का लाभ देने की प्रक्रिया चल रही है, ताकि लॉकडाउन खत्म होने पर वे दोबारा बाहर न चले जाएं.”
सीतामढ़ी के बरगिनिया निवासी 26 साल के सुनील मांझी 22 मई को मुंबई से अपने घर लौटे, लेकिन अभी तक सरकार की तरफ से उन्हें कोई काम नहीं मिला है. फिलहाल वह पटना के मुफस्सिल इलाके में खेतों में धान रोप रहे हैं. उन्होंने मुझे बताया, मुंबई में कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करता था. वहां 350 रुपए दिहाड़ी और एक वक्त खाना दिया जाता था. यहां 200-250 रुपए दिहाड़ी पर धान रोप रहा हूं. 10 दिन तक काम चलेगा. उसके बाद दूसरा काम ढूंढना होगा.”
सुनील का मनरेगा कार्ड नहीं बना है. उनके मुताबिक, जब वह मनरेगा जॉब कार्ड बनवाने गए, तो उनसे 1000 रुपए मांगा गया. वह पूछते हैं, “हजार रुपए देकर जॉब कार्ड बनवाएं कि उससे परिवार को खिलाएं?”
लॉकडाउन के दो महीने उन्होंने मुंबई में बिताए. इस दौरान सुनील ने तीन बार में 6 हजार रुपए घर से मंगवाए और यहां लौटे, तो घर चलाने के लिए कर्ज लेना पड़ा. सुनील मुझे बताते हैं, “घर में 5 सदस्य हैं और कमाने वाला मैं अकेला हूं. पटना में मैंने पहले भी खेत में काम किया था, तो खेत के मालिक ने गाड़ी भेजकर दोबारा बुला लिया. 10 दिन बाद अगर दूसरा काम नहीं मिलेगा तो फिर बाहर ही जाना होगा. वहां (मुंबई में) थे, तो एडवांस में पैसा लेकर भी घर भेज दिया करते थे. यहां तो कमाएंगे, तभी खाएंगे और लॉकडाउन में कर्ज लेकर खाया, उसे भी तो चुकता करना होगा!”