“मोदी सरकार ने संविधान को बदल दिया है”, मराठा और दस प्रतिशत ईडब्लूएस आरक्षण पर पूर्व न्यायाधीश के. चंद्रू से बातचीत

एसआर रघुनाथन/ द हिंदू

इस साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने “आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों” (ईडब्लूएस) के लिए दस प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की. इसके तहत पात्र उम्मीदवारों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं सामाजिक और अर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के सदस्यों को शामिल नहीं किया गया है. संविधानिक सभा और सर्वोच्च न्यायालय के कई सारे मामलों में माना गया है कि केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता. लेकिन एक ही झटके में नरेन्द्र मोदी ने भारतीय आरक्षण नीति में लागू संवैधानिक सिद्धांतों को उलट दिया.

सामाजिक पिछड़ेपन का कारण गरीबी नहीं है. इस साल जनवरी तक संविधान में मात्र अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और ओबीसी को ही आरक्षण प्राप्त था जो ऐतिहासिक रूप से बहिष्कृत और अधिकारहीन समूह माने जाते हैं. इन श्रेणियों में पूर्व में “अछूत” माने जाने वाले, दुर्गम और बेहद पिछड़े इलाकों में रहने वाले और पारंपरिक रूप से खेती और बुनाई जैसे व्यवसाय करने वाले समूह आते हैं. इन कारणों से ये समुदाय शैक्षिक और सामाजिक दृष्टि से पिछड़ गए हैं.

लेकिन जनवरी में संविधान में 103वां संशोधन कर उपरोक्त सिद्धांतों को दरकिनार कर दिया गया. संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन कर भारतीय राज्य को ईडब्लूएस श्रेणी के अंतर्गत ऊपरी जातियों सहित सामाजिक रूप से अगड़े समूहों को आरक्षण दे सकने की शक्ति दे दी गई. साथ ही मोदी सरकार के दस प्रतिशत आरक्षण ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण के तय सीमा को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 60 कर दिया.

महाराष्ट्र की आरक्षण नीति पर गत वर्ष नवंबर से ही चर्चा हो रही है जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने मराठा समुदाय को 16 प्रतिशत आरक्षण दे दिया था. इस साल जून में बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस कानून को सही करार दिया है. हालांकि अदालत ने आरक्षण को घटा कर शैक्षिक संस्थाओं में 12 प्रतिशत और सरकारी नौकरियों में 13 प्रतिशत कर दिया है. महाराष्ट्र में आरक्षण का प्रतिशत 60 से अधिक हो गया है लेकिन अदालत ने इसके विरोध में दायर याचिका को खारिज कर दिया.

इन दोनों आरक्षणों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने मामले में स्टे नहीं लगाया. इसके विपरीत जब 1990 में वीपी सिंह सरकार ने ओबीसी के लिए 27 आरक्षण लागू किया था तब सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर दो सालों तक रोक लगाए रखी थी. इसी प्रकार जब 2007 में सरकार ने केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण लागू करने की घोषणा की थी तब भी अदालत ने इसे एक साल तक रोके रखा.

इस विषय को समझने के लिए स्वतंत्र पत्रकार एजाज अशरफ ने मद्रास उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के. चंद्रू से बातचीत की. चंद्रू का कहना है, “आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए मोदी सरकार ने अनुच्छेद 16 में संशोधन कर संविधान को बदल दिया है.”

एजाज अशरफ (एए): सरकार की नीतियों या उच्च न्यायालयों के फैसले पर रोक लगाते वक्त सर्वोच्च न्यायालय किन सिद्धांतों का पालन करती है? जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने 10 प्रतिशत आरक्षण (ईडब्लूएस) और मराठा आरक्षण पर रोक नहीं लगाई.

के. चंद्रू (केसी): अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले कभी एकसमान नहीं रहे. कई बार तो ये फैसले संविधान के “बराबरी” के सिद्धांत से मेल तक नहीं खाते. 1951 के मद्रास राज्य बनाम चम्पागम दुरईराजन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि जाति आधारित आरक्षण असंवैधानिक है. उस वक्त मद्रास प्रांत (प्रेसीडेंसी) में तूफान आ गया और संसद ने प्रथम संविधान संशोधन विधेयक पारित किया जिसमें सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग को मिलने वाले आरक्षण को मूलभूत अधिकार माना गया.

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से संबंधित ढेरों मामले ऐसे हैं जिसने सामाजिक न्याय की गाड़ी को पटरी पर बनाए रखा. अदालत ने पहले फैसला दिया था कि एक पद के लिए आरक्षण नहीं हो सकता. इसी प्रकार, रिक्त पदों को एक ही बार में भरने की अनुमति नहीं दी गई. इसका कारण मामले की समझदारी में कमी मात्र न होकर जजों की सामाजिक पृष्ठभूमि भी थी. हर फैसले को अपवाद की तरह देखा गया.

इसका प्राथमिक कारण जजों में सामाजिक न्याय और भारतीय न्यायाधीशों के समक्ष सामाजिक न्याय की मजबूत वकालत करने वालों का न होना है. एक बार सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज वीआर कृष्णन अय्यर को यह कहते हुए सुना गया था कि “हालांकि तिलक मार्ग में सर्वोच्च न्यायालय की एक ही बील्डिंग है लेकिन उसमें 26 सुप्रीम कोर्टें हैं”. जब अय्यर यह कह रहे थे तब सर्वोच्च न्यायालय में 26 जज होते थे.

एए: लेकिन रोक लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने किन सिद्धांतों का पालन किया? 1990 में 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण पर रोक लगाने वाली सर्वोच्च न्यायालय ने ईडब्लूएस और मराठा आरक्षण पर रोक नहीं लगाई?

केसी: अंतरिम आदेश देने के लिए सामान्यतः तीन किस्मों की आवश्यकताएं होती हैं. मामला प्रथम दृष्टया रोक लगाने लायक होना चाहिए, यदि मामले में रोक लगाना उपयुक्त है और तब जब रोक न लगाने से अपूर्णीय क्षति हो सकती है जिसकी क्षतिपूर्ति भविष्य में न हो सके. मिसाल के तौर पर, किसी भवन के गिराए जाने के मामले में यदि उसे रोका नहीं जाता तो वह इमारत गिरा दी जाएगी. इसके बाद यदि रोक की मांग करने वाला पक्ष केस जीत भी जाए तो उस भवन को राज्य के खर्च पर बना कर नहीं दिया जा सकता.

इंदिरा साहनी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम स्टे दिया था. वीपी सिंह सरकार के मंडल आयोग की सिफारिश के अनुरूप 27 प्रतिशत आरक्षण लागू करने के खिलाफ देश में, खासकर उत्तर भारत में, जारी आंदोलन के चलते अदालत ने यह रोक लगाई थी. इस अंतरिम स्टे के कारण आरक्षण को लागू करने में दो साल की देर हो गई. अंततः कुछ शर्तों के साथ सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हो गया. अदालत ने आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमारेखा लगा दी और उच्च शिक्षा संस्थानों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखा. अदालत ने ओबीसी के भीतर “क्रीमी लेयर” की अवधारणा भी सामने रखी. (इसका अर्थ है कि विशेष प्रकार की सरकारी नौकरियां करने वाले माता-पिता की संतान और एक स्तर की आय वाले परिवार के बच्चे इस आरक्षण का लाभ नहीं ले सकते.) आज तक भी बहुत से राज्यों ने क्रीमी लेयर की पहचान करने का काम नहीं किया है. इंदिरा साहनी मामले में दो साल का स्टे लगाकर अदालत ने कूलिंग ऑफ समय दिया था लेकिन दस प्रतिशत आरक्षण या मराठा आरक्षण के मामले में उसने ऐसा नहीं किया. ऐसा न करने से दो प्रकार के संकेत मिलते हैं- या तो वे इसे लागू कराना चाहते हैं या वे मानते हैं कि याचिका के दायर होने और अंतिम फैसला आने के बीच के समय में इस मामले पर जो चर्चा होगी उससे सहमति का निर्माण हो सकेगा.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्टे लगाने से अस्वीकार करने पर इन चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लाभ मिला. संभवतः ऐसा ही लाभ महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को मिले. यह भी हो सकता है कि स्टे इसलिए नहीं लगाया क्योंकि सभी मुख्य पार्टियां इस आरक्षण के प्रति सहमत दिख रहीं थीं. जो भी विरोध दिखाई दिया वह अकादमिक जगत अथवा सामाजिक न्याय की बात करने वाले समूहों ने किया.

लेकिन जो बात नहीं समझी गई वह यह कि इन आरक्षणों को लागू करने के बड़े गंभीर परिणाम हो सकते हैं. हमारे देश में एक बार किसी प्रकार की छूट या सुविधा दिए जाने के बाद उसे वापस लेना मुश्किल हो जाता है. मान लीजिए कि सर्वोच्च न्यायालय इन आरक्षणों के खिलाफ निर्णय सुनाती है तो फिर जिन छात्रों का दाखिला मराठा आरक्षण के चलते हो गया है या जिनको नौकरियां मिल गई हैं उन लोगों का क्या होगा?

एएः 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण को मान लिया था लेकिन 2007 में केंद्रीय विश्वविद्यालय में इसे लागू करने के सरकारी फैसले को अदालत ने रोक दिया था. ओबीसी आरक्षण और मराठा एवं ईडब्लूएस आरक्षण पर दो अलग-अलग विचारों को कैसे देखते हैं?

केसीः अंतिरिम आदेशों को देने के इन फैसलों में कोई निश्चित तरीका नहीं दिखाई देता है. फैसला इस बात पर निर्भर करता है कि कौन सी बैंच इन मामलों पर विचार कर रही है. कई बार पूर्व के आदेशों को ध्यान में नहीं रखा जाता. अमेरिका के न्यायाधीश पॉटर स्टीवर्ड ने एक बार कहा था, “हाल के हमारे फैसले रेल यात्रा के टिकट की तरह हैं, किस दिन सफर अच्छा होगा यह किस्मत की बात है.”

एएः 1968 के नाबालिग पी. राजेन्द्रन बनाम मद्रास राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार के जाति आधारित पिछड़े वर्ग को चिन्हित कर आरक्षण दिए जाने के निर्णय को मान लिया था. जबकि 1990 में यह स्थापित कानूनी सिद्धांत था तो क्या सर्वोच्च न्यायालय का 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण पर रोक लगाना न्यायसंगत था?

केसीः सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में हमेशा ही जाति और वर्ग के सवाल पर खींचातानी होती रही है. इन फैसलों को समझना आसान नहीं है. अपवाद के रूप में बस यही कहा जा सकता है कि अदालतों ने हाल तक यह माना है कि जाति को वर्ग का एक मात्र पैमाना नहीं माना जा सकता. हालांकि यदि अन्य सूचकांकों को देखें तो यह कहा जा सकता है कि जाति में सामान्यतः वर्ग के लक्षण होते हैं. इस उथली समझदारी के कारण कई राज्यों को वोट बैंक के लिए समुदायों और जातियों को आरक्षण की सूची में रखने का अवसर मिला है. मसलन, जब चंद्रबाबू नायडू आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने कापू समुदाय के लिए दस प्रतिशत आर्थिक पिछड़ा आरक्षण लागू किया था. हालांकि उनके बाद मुख्यमंत्री बने जगनमोहन रेड्डी ने जिरह की कि एक विशेष समुदाय को दस प्रतिशत आरक्षण देने का अधिकार नायडू के पास नहीं था.

एएः क्या आरक्षण को सामाजिक आधार पर लागू न कर आर्थिक आधार पर लागू करने वाले दस प्रतिशत आरक्षण ने नए सिद्धांत को जन्म दिया है. इंदिरा साहनी मामले में 9 न्यायाधीशों की खंडपीठ ने फैसला सुनाया था कि आरक्षण का लाभ सामाजिक पिछड़ेपन के अनुसार दिया जाना चाहिए. क्या इस कारण से आर्थिक आरक्षण और मराठा आरक्षण पर रोक नहीं लगाई जानी चाहिए?

केसीः संविधान में 103वां संशोधन चम्पाकम दोराइराजन मामले से पहले की स्थिति की बहाली है. अनुच्छेद 16 में संशोधन कर आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग की नई श्रेणी को घुसा कर मोदी ने संविधान को बदल दिया है. पूर्व में सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण की पात्रता के लिए आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन को मापदण्ड माना था. आर्थिक पिछड़ेपन को लागू कर सरकार ने एक ही झटके में पूर्व के सिद्धांतों को नष्ट कर दिया. प्रतिवर्ष 8 लाख रुपए की आय और 1000 वर्ग फीट जगह के मालिकाने वाली हदबंदी मोटामोटी रूप से देश की 80 प्रतिशत जनसंख्या को आरक्षण का हकदार बना देती है.

साथ ही जिन लोगों को फिलहाल आरक्षण प्राप्त है उन समुदायों को इस आरक्षण के लाभ से वंचित करने से यह साफ है कि आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग वाला आरक्षण केवल अगड़ी जातियों के लिए है. यह समुदाय जनसंख्या के आधार पर 10 प्रतिशत आरक्षण का अधिकारी नहीं है. यह 2019 का चुनाव जीतने का अस्त्र था और मोदी इसमें सफल हुए. इस नए आरक्षण से सरकार ने इंदिरा साहनी मामले में निर्धारित आरक्षण की सीमा को पार कर लिया है. अब आरक्षण का प्रतिशत 60 पहुंच गया है. प्रथम दृष्टया सर्वोच्च न्यायालय को आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से बढ़ाए जाने के इस नए खेल को समझना चाहिए था. सर्वोच्च न्यायालय को आर्थिक पिछड़ा आरक्षण और मराठा आरक्षण पर अंतरिम आदेश देना चाहिए था. सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले में तीव्र सुनवाई करनी थी ताकि संवैधानिक अनिश्चितता का अंत हो सके.

एएः तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण लागू है जिसे 50 प्रतिशत की सीमा लांघने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी. फिर क्यों इस मामले में कोई फैसला नहीं सुनाया गया? फैसला सुनाने में इस देरी को कैसे देखते हैं?

केसीः तमिलनाडु जैसे कई और राज्यों ने नौकरियों और शैक्षिक संस्थानों में दाखिले जैसे मामलों में 50 प्रतिशत की सीमा को पार किया है. तमिलनाडु ने राज्य के विधेयक को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल करा लिया. इस सूची को मजाक में “धुलाई का झोला” कहा जाता है. इस सूची में शामिल किसी भी कानून को संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 के उल्लंघन करने के लिए चुनौती नहीं दी जा सकती. लेकिन, 2007 के आईआर कोइलो बनाम तमिलनाडु राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 11 जजों की खंडपीठ ने फैसला दिया था कि 9वीं अनुसूची में शामिल किए जाने वाले किसी भी कानून की समीक्षा करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है.

इसलिए तमिलनाडु के 69 प्रतिशत आरक्षण की जांच करने में कोई बाधा नहीं थी. एक गैर सरकारी संस्था द्वारा इस संबंध में दायर मामले में अदालत ने कोई अंतरिम आदेश नहीं दिया. लेकिन हैरान करने वाली बात है कि उसने मेडिकल कॉलेज दाखिले में आरक्षण के मामलों पर अंतरिम आदेश देने शुरू कर दिए. 19 सालों तक हर साल अदालत ने अंतरिम आदेश दिया और राज्य को 50 प्रतिशत आरक्षण की गणना करने और पुनःगणना के बाद बाकी रह गए लोगों को आरक्षण देने का आदेश दिया. अंततः 2018 में अंतरिम आदेश देने की यह परंपरा रुक गई. इसके बाद याचिकाकर्ता को राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग में शिकायत करने को कहा गया. यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में 22 सालों से लंबित है. इस तरह तमिलनाडु में तीन दशक तक 69 प्रतिशत आरक्षण जारी रह सका है.

एएः महाराष्ट्र सरकार ने केवल मराठा वाली आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की श्रेणी का गठन किया है बावजूद इसके कि राज्य में पहले से ही सामाजिक और आर्थिक पिछड़े वर्ग की श्रेणी है. क्या यह विरोधाभासी नहीं है? क्या इस आधार पर ही मराठा आरक्षण पर स्टे नहीं लगाना था?

केसीः तमिलनाडु में आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की श्रेणी के भीतर अति पिछड़े वर्ग के लिए अलग से आरक्षण है. अति पिछड़े वर्ग को 20 प्रतिशत आरक्षण मिलता है और ओबीसी को 31 प्रतिशत. अति पिछड़े वर्ग की श्रेणी में 108 समुदाय आते हैं. इसका असली फायदा उत्तर तमिलनाडु के वन्नियार और दक्षिण तमिलनाडु के थेवर लोगों को हुआ है. इसे लागू करने के लिए राज्य सरकार तमिलनाडु पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्टों पर निर्भर रही. मराठा कोटे के सवाल पर भी बॉम्बे उच्च न्यायालय ने इसी तरह के तर्क को माना है. इसके बावजूद भी विशेष समुदाय के नाम पर सरकारी नौकरियों में मराठों के लिए 13 प्रतिशत आरक्षण और शैक्षिक संस्थानों में 12 प्रतिशत आरक्षण न्यायसंगत नहीं है. इंदिरा साहनी मामले में जो क्रीमी लेयर की व्यवस्था की गई थी वह भी मराठा को दिए गए शैक्षिक और नौकरियों के आरक्षण में लागू नहीं है.

ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक बैंच ने फैसला दिया था कि किसी वर्ग को प्राप्त कोटे के भीतर कोटे की अनुमति नहीं है. फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, “रद्द कानून द्वारा राज्य सरकार ने आरक्षण और नियुक्तियों के लिए राष्ट्रपति की अनुसूची में उल्लेखित सजातीय समूह को पुनः परिभाषित करने की चेष्टा की है. यह आरक्षण में भेदभाव करने जैसा है जो संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है. पुराने समय से जारी कानून की मान्यता के अनुसार न्याय निष्पक्ष होना चाहिए और एक समुदाय की हानि कर दूसरे समुदाय को लाभ देना अन्याय का दूसरा रूप है.”

कोटे के भीतर कोटे की जगह महाराष्ट्र सरकार ने एसईबीसा नाम की अलग श्रेणी बना दी. बावजूद इसके कि राज्य में पहले से ही ओबीसी श्रेणी का अस्तित्व है. ओबीसी और एसईबीसी वर्ग एक ही हैं. दोनों सहजातीय वर्ग हैं.

एएः जब तक सर्वोच्च न्यायालय इन दो मामलों पर फैसला नहीं सुनाती सवर्ण जाति समुदाय और मराठा समुदाय को आरक्षण प्राप्त होता रहेगा. क्या यह व्यवस्था अन्य नीतियों के मामले में जारी रहेगी?

केसीः मराठा और दस प्रतिशत आरक्षण मामले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अंतरिम आदेश न देने से कई सारी जटिल समस्या आरंभ हो जाएंगी. दस प्रतिशत कोटे में असल ओबीसी उम्मीदवारों को जगह नहीं मिलेगी. मराठा कोटे के तहत असल गैर-मराठा उम्मीदवारों को स्थान नहीं मिलेगा और सर्वोच्च न्यायालय इसकी उपयुक्त क्षतिपूर्ति भी नहीं कर पाएगी.

जैसा कि मैंने ऊपर भी उल्लेख किया है कि अंतरिम आदेश का सिद्धांत है कि ऐसे मामले में जिनमें हो सकने वाले नुकसान की क्षतिपूर्ति करना मुमकिन नहीं होता, वहां अंतरिम आदेश दिया जाना चाहिए. 10 प्रतिशत आरक्षण और मराठा आरक्षण पर स्टे न लगाकर सर्वोच्च अदालत ने गलती की है.

बाद में यदि सर्वोच्च न्यायालय इन दोनों आरक्षणों के खिलाफ फैसला सुनाती है तो कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ेगा. या यह हो सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय जांचा परखा “भावी प्रभाव” वाला फैसला दे जो भाविष्य के ममालों में लागू हो. न्यायाधीशों ने इस अस्त्र का अविष्कार कानूनी पेंचों से पार पाने के लिए किया है.