भारत के मुख्य न्यायधीश का पद ग्रहण करने के तीन दिन बाद शरद अरविंद बोबडे को न्यायपालिका की विश्वसनीयता और सुप्रीम कोर्ट के मान को पुनः स्थापित करने की चुनौती मिली. यह चुनौती सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन लोकुर ने 20 नवंबर को हिंदुस्तान टाइम्स में लेख लिख कर पेश की. लोकुर ने उस लेख में लिखा था, “अगर इस चिंता का तत्काल समाधान नहीं किया गया तो यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के ताबूत में आखिरी कील के समान होगा.”
लेख में लोकुर ने किसी विशेष मामले का उल्लेख नहीं किया लेकिन बहुत स्पष्ट शब्दों में उन्होंने लिखा, “हाल के कुछ फैसलों से लगता है कि हमारे कुछ जजों को रीढ़ की हड्डी साबित करने की जरूरत है, खासकर ऐसे मामलों में जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े हैं. किसी को भी प्रभावशाली उपायों के बगैर जेल में नहीं डाला जाना चाहिए.” उनका इशारा अगस्त में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर आए सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की ओर था. इन मामलों में परंपरा के विपरीत सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी नहीं किया और बंदी को अदालत के समक्ष पेश करने को भी नहीं कहा था. साथ ही अदालत ने एक मामले में याचिका दायर करने के 18 दिनों तक सुनवाई नहीं की.
कारवां के असिस्टेंट संपादक अर्शु जॉन ने बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के कानूनी प्रावधानों पर लोकुर से बातचीत की. लोकुर का कहना है, “बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और इस मामले में किसी भी अपवाद को असाधारण माना जाना चाहिए.”
अर्शु जॉन : बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका क्या है और यह कब डाली जाती है?
मदन लोकुर : बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका गैरकानूनी निवारक नजरबंदी का आरोप लगने पर डाली जाती है. इस याचिका को कोई भी डाल सकता है और यह खासतौर पर राज्य के विरुद्ध डाली जाती है. ऐसा बहुत कम ही होता है कि ऐसी याचिका किसी व्यक्ति के खिलाफ लगाई जाए. मिसाल के लिए, अगर लड़का-लड़की कथित तौर पर गैरकानूनी रूप से भागे हैं और लड़की को निवारक नजरबंदी में रख लिया जाता है तो लड़की के माता-पिता बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका डालकर लड़की को उनके सामने पेश करने की मांग कर सकते हैं. जब यह याचिका राज्य के खिलाफ डाली जाती है तो ऐसी अवस्था में राज्य को निवारक नजरबंदी को सही ठहराना पड़ता है. निवारक नजरबंदी को प्रक्रियागत आधार पर सही ठहराना होता है क्योंकि अदालत हिरासत में लेने वाली संस्था के आत्मगत संतुष्टि की जांच नहीं करती.
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