मशहूर शायर फैज़ अहमद फैज़ का कश्मीर से गहरा नाता रहा. 1941 में जब उन्होंने एक अंग्रेज महिला ऐलिस जॉर्ज से शादी की तो शेख मोहम्मद अब्दुल्लाह (जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री) ने श्रीनगर में उनका निकाहनामा पढ़ा. निकाहनामे पर बतौर गवाह जी. एम. सादिक, बक्शी गुलाम मोहम्मद और डॉक्टर नूर हसन ने दस्तखत किए. श्रीनगर से सांसद रहे और “आइना” साप्ताहिक के संपादक अहमद शमीम ने 1969 में जब लाहौर में फैज़ अहमद फैज़ का इंटरव्यू किया तो इस शायर ने कहा, ‘‘मेरा निकाहनामा एक ऐतिहासिक दस्तावेज का दर्जा रखता है.’’ पहले पहल यह इंटरव्यू “आइना” में छपा था उसके बाद 18 अप्रैल 2011 को श्रीनगर से प्रकाशित ताहिर मोहिउद्दीन के साप्ताहिक अखबार “चट्टान” में इसे दुबारा छापा गया.
लेखक ए. जी. नुरानी ने अपनी किताब द कश्मीर डिसप्यूट 1947–2012 खण्ड : एक में इस इंटरव्यू को प्रकाशित किया है. कारवां के पाठकों के लिए नीचे इंटरव्यू को लेखक और प्रकाशन की अनुमति से प्रकाशित किया जा रहा है.
शमीम : आप आखिरी दफा कब कश्मीर गए थे?
फैज़ : मैं 1947 में वहां गया था. 15 अगस्त 1947 को जब इस उप–महाद्वीप का बंटवारा हो रहा था तो मैं श्रीनगर में था और 24 अगस्त को वहां से लौट गया. उसके बाद कश्मीर समस्या भड़क उठी और हालात सुधरने के बजाय दिन-ब-दिन खराब होते चले गए.
शमीम : आपके खयाल से इस समस्या का हल कैसे हो सकता है ?
फैज़ : भाई, समस्या बहुत ही ज्यादा पेचीदा हो गई है, इसलिए इसका कोई आसान हल निकालना बहुत मुश्किल है. बदकिस्मती से दोनों ही पक्षों ने बेहद चरम रुख अपनाया हुआ है, जिसके चलते बातचीत के जरिए इसका हल मुमकिन होने की उम्मीद दिन-ब-दिन कम होती जा रही है. दोनों ही मुल्कों की सरकारें अतिवाद के जरिए एक दूसरे से आगे निकलने में लगी हुई हैं. ऐसे हालात में किसी तरह का हल तलाशने की कोशिश करना बेमानी और मुश्किल हो जाता है. एक तरीका बेशक मुमकिन है. अपने–अपने रुख पर कायम रहते हुए दोनों ही मुल्क आपसी भरोसे पर बातचीत कर सकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे अमरीका और चीन अपने गहरे मतभेदों के बावजूद वर्साय में अपनी बातचीत जारी रखे हुए हैं. इसी तरह भारत और पाकिस्तान भी स्थायी संवाद कायम करने के लिए किसी तीसरे मुल्क में बातचीत कर सकते हैं.
लेकिन मौजूदा हालात यह हैं कि पाकिस्तान कश्मीर के झगड़े को हल करने के बारे में कहता है तो भारत कहता है कि कश्मीर को लेकर कोई तकरार है ही नहीं. झगड़े की मौजूदगी को ही खारिज कर देना हर हाल में गलत है और मैंने अक्सर भारत के अपने दोस्तों से कहा है कि इस तरह का रुख अपनाना गलत है. अभी हाल ही में भारत के एक छोटे से दौरे के दरम्यान कुछ दोस्तों ने कहा, ‘‘खैर, कश्मीरी राजी–खुशी हैं”. इसका मैंने जवाब दिया कि कश्मीरियों को खुद ही ऐलान करने दो कि वे राजी–खुशी हैं. उन्होंने फिर कहा : ‘‘हम उन्हें राजी–खुशी कर भी लेंगे तो पाकिस्तान राजी नहीं होगा.’’ मैंने जवाब दिया कि तुम सही कह रहे हो, पाकिस्तान फिर भी राजी नहीं होगा. लेकिन इस पल पाकिस्तान की स्थिति उस तरह मजबूत नहीं रह जाएगी जैसे पहले थी.
शमीम ने बताया है कि फैज पूरी तसल्ली से बोल रहे थे. उनकी नेकनीयती और संजीदगी ने उनकी शख्यियत को और भी ज्यादा आकर्षक बना दिया. वह कुछ भी नया नहीं कह रहे थे. लेकिन वह कुछ इस तरह से बोल रहे थे जैसे किसी गहरे राज से पर्दा उठा रहे हों. मैंने महसूस किया कि कश्मीर की हालत को लेकर उनके दिल में दर्द है. मैंने कश्मीर के बारे में उनकी राय सुनी जो किसी और पाकिस्तानी से मैंने कभी नहीं सुनी.
फैज़ : कश्मीर का सबसे बेहतरीन हल यही है कि दोनों ही मुल्क कश्मीर को एक खुदमुख्तार (स्व–शासी) राज्य की तरह अकेला छोड़ दें, कश्मीर दोनों मुल्कों से दोस्ताना रिश्ते बना लेगा. आखिरकार होगा भी यही, लेकिन बहुत ही तकलीफ और नुकसान झेलने के बाद. आपके जैसे लोगों को मिलजुलकर दोनों ही तरफ इस तरह के सुझाव पेश करने चाहिए.
(ए जी नूरानी, द कश्मीर डिसप्यूट 1947–2012 खण्ड 1, तुलिका प्रकाशन, मूल्य- 600/-)