21 जून को कारवां ने स्वतंत्र पत्रकार प्रभजीत सिंह की रिपोर्ट "दिल्ली हिंसा : कपिल मिश्रा और अन्य बीजेपी नेताओं के खिलाफ दर्ज शिकायतों को नजरअंदाज कर रही दिल्ली पुलिस" प्रकाशित की. इस रिपोर्ट में इस साल फरवरी में उत्तर-पूर्व दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों की शिकायतों के बारे में बताया गया था. रिपोर्ट में बताया गया था की कई शिकायतकर्ताओं ने भारतीय जनता पार्टी के नेता कपिल मिश्रा, सत्यपाल सिंह, जगदीश प्रधान, नंदकिशोर गुर्जर और मोहन सिंह बिष्ट पर हिंसा भड़काने और उसमें शामिल होने के आरोप लगाए हैं और कहा है कि दिल्ली पुलिस ने उनकी शिकायतों पर कोई कार्रवाई नहीं की. इस रिपोर्ट के प्रकाशित होने से पहले कारवां ने दिल्ली पुलिस को सवाल भेजे थे लेकिन उसने जवाब नहीं दिया जबकि बीजेपी नेताओं ने कहा कि पुलिस ने उन शिकायतों की जांच के संबंध में उनसे कभी संपर्क नहीं किया.
26 जून को दिल्ली पुलिस ने कारवां की 21 जून की रिपोर्ट की प्रतिक्रिया में एक जवाब (रिजोइंडर ) ट्वीट किया. पुलिस ने जवाब में दावा किया कि उसने हिंसा को “प्रभावी रूप से नियंत्रित कर लिया था”. उस हिंसा में 53 लोग मारे गए थे. पुलिस ने अपने ट्वीट में पहले बताया कि हिंसा फरवरी के पहले सप्ताह में हुई थी लेकिन बाद में इस गलती को सुधार का दुबारा ट्वीट किया. लेकिन पुलिस के दोनों ही जवाबों में यह गलत बताया गया है कि रिपोर्ट 24 जून को प्रकाशित हुई थी. 24 जून को कारवां ने दिल्ली हिंसा पर जारी इस श्रृंखला की दूसरी रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ दर्ज शिकायतों के बारे में बताया गया था. दिल्ली पुलिस ने पहले की तरह, हमारे बाद के सवालों के भी जवाब नहीं दिए.
नीचे प्रस्तुत है दिल्ली पुलिस का वह जवाब और प्रभजीत सिंह का उसको जवाब.
सबसे पहले सबसे जरूरी बात कि दिल्ली पुलिस ने इस रिपोर्ट के संबंध में जो बहुत सारे दावे किए हैं उनमें से एक में उसने कहा है कि “काल्पनिक और मनगढ़ंत और दुर्भावना से प्रेरित, गलत सूचना देने वाली और असत्यापित तथ्यों पर आधारित किसी कहानी की स्क्रिप्ट जैसी है.” लेकिन उसने इस रिपोर्ट में उल्लेखित किसी भी शिकायत से इनकार नहीं किया है और इस बात से भी इनकार नहीं किया है कि पुलिस ने उन शिकायतों पर कोई एक्शन नहीं लिया है. पुलिस ने हिंसा में बीजेपी नेताओं की भूमिका पर लगे आरोपों का भी जवाब नहीं दिया है. दिल्ली पुलिस ने इस बात से भी इनकार नहीं किया है कि शिकायत में नामजद बीजेपी के नेताओं की जांच नहीं की गई है जबकि उनके खिलाफ गंभीर आरोप लगे हैं. इस संबंध में पुलिस ने दावा किया है कि उसने शिकायतों में उल्लेखित “संज्ञेय अपराधों की एफआईआर दर्ज की है” लेकिन उसका यह दावा झूठा है क्योंकि रिपोर्ट में उल्लेखित शिकायतों के संबंध में पुलिस ने एफआईआर दर्ज नहीं की है. इन शिकायतों में पुलिस और दंगाइयों द्वारा प्रदर्शनकारियों पर हमले और उनकी हत्या करने और मस्जिद से पैसे लूटने के आरोप शामिल हैं. पुलिस ने अपने जवाब में इन आरोपों या शिकायतों के आधार पर दर्ज एफआईआर के बारे में कुछ नहीं बताया है. कानून का यह स्थापित सिद्धांत है कि संज्ञेय अपराधों की शिकायतों पर एफआईआर दर्ज करना पुलिस का कर्तव्य है. यह सिद्धांत सुप्रीम कोर्ट ने स्थापित किया है. भारतीय दंड संहिता के अनुसार दिल्ली पुलिस शिकायत करने में हुई देरी का हवाला देकर एफआईआर दर्ज करने से इनकार नहीं कर सकती. यह तय करना न्यायपालिका का काम है. दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने कई मामलों में यह फैसला सुनाया है कि शिकायत दर्ज करने में हुई देरी किसी केस के लिए घातक नहीं हो सकती.
अपने जवाब में दिल्ली पुलिस ने एक बड़ा दिलचस्प दावा यह भी किया है कि उस रिपोर्ट में तफसील की कमी, शिकायतकर्ताओं की स्पष्ट पहचान न होना और घटना इत्यादि का सटीक समय और तिथि जैसी जानकारी नहीं है. दिल्ली पुलिस के दावे के विपरीत रिपोर्ट में शिकायतों को उद्धृत करने के अलावा पूरी-पूरी शिकायतें प्रकाशित की गई हैं. केवल शिकायतकर्ता की निजी जानकारियों को सुरक्षा के मद्देनजर नहीं रखा गया है. आरोपों की सटीक जानकारी दिल्ली पुलिस के समक्ष दर्ज मूल कॉपी में पढ़ी जा सकती है और इसलिए यह समझ में नहीं आता कि जवाब में किन शिकायतों का संदर्भ दिया जा रहा है. और तो और रिपोर्ट में उल्लेखित 9 शिकायतों में से केवल दो शिकायतकर्ता ने ही नाम न छापने का अनुरोध किया था जबकि बाकी के सात शिकायतकर्ताओं की पहचान नाम के साथ रिपोर्ट में दी गई है. चूंकि दिल्ली पुलिस ने इस बात से इनकार नहीं किया है कि उन्हें शिकायतें प्राप्त हुई हैं तो ऐसे में वह अपने रिकॉर्ड से भी इन जानकारियों को हासिल कर सकती है.
अपने जवाब में दिल्ली पुलिस ने दावा किया है कि उसने एफआईआर दर्ज कराने से किसी को नहीं रोका और उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के संबंध में अलग-अलग थानों में 750 से अधिक एफआईआर दर्ज हैं. इस दावे के बावजूद, दिल्ली पुलिस ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि जिन बीजेपी नेताओं के खिलाफ शिकायतें की गई हैं, उनके खिलाफ उसने कितनी एफआईआर दर्ज की हैं. कारवां की रिपोर्ट में बताया गया है कि लगभग सभी शिकायतकर्ताओं का कहना था कि दिल्ली पुलिस के अधिकारियों ने उनकी शिकायतों को स्वीकार करने या उनके द्वारा लगाए गए आरोपों पर एफआईआर दर्ज करने से मना कर दिया था.
रिपोर्ट में एक शिकायतकर्ता ने बताया है कि पुलिस ने उनसे कहा था कि वह एफआईआर इस शर्त में दर्ज करेगी कि शिकायत में उल्लेखित नाम हटा दिए जाएं. दिल्ली पुलिस ने बड़ी आसानी से एफआईआर की संख्या गिना दी लेकिन उन आरोपों का जवाब नहीं दिया जिनके बारे में रिपोर्ट में कहा गया है कि पुलिस ने बीजेपी नेताओं के खिलाफ शिकायतों को दबाया है. पुलिस ने अपने जवाब में इससे इनकार भी नहीं किया और यह भी नहीं बताया कि उसने शिकायत में नामजद बीजेपी नेताओं के खिलाफ क्या एक्शन लिया है.
इस बात का जवाब दिए बगैर कि दिल्ली पुलिस ने उन शिकायतों पर एफआईआर करने से इनकार क्यों किया, उसने शिकायतकर्ता रुबीना बानो पर यह तोहमत लगाई है कि उन्होंने हिंसा की शिकायत 22 दिन बाद की. दिल्ली पुलिस अपने इस दावे में बानो की उस शिकायत को नजरअंदाज कर रही है जिसमें बानो ने बताया है कि भजनपुरा थाने के एसएचओ ने उनसे कहा था वह अपनी शिकायत में किसी को नामजद न करे क्योंकि ऐसा करने से शिकायत मंजूर नहीं की जाएगी और उन्हें लिखित में कुछ नहीं दिया जाएगा. बानो ने बताया है कि इसके बाद एसएचओ ने उन्हें नाम लेने पर परिणाम भुगतने की धमकी भी दी थी. इसके बावजूद दिल्ली पुलिस ने शिकायतों के इन पक्षों को नजरअंदाज किया.
दिल्ली पुलिस ने अपने जवाब में यह भी कहा है कि बानो ने कारवां को जो वीडियो बयान दिया है उसमें उन्होंने ऐसे आरोप लगाए हैं जो शिकायत में नहीं हैं. पुलिस ने कहा है कि बानो ने अपनी शिकायत में यह नहीं कहा है कि पुलिस ने स्थानीय लोगों को “जय श्रीराम” का नारा लगाने के लिए मजबूर किया और कपिल मिश्रा 23 तारीख की रात करवाल नगर में हुई पत्थरबाजी में शामिल था. लेकिन दिल्ली पुलिस ने बानो की शिकायत या वीडियो बयान में लगाए गए आरोपों को खारिज नहीं किया है. इसी तरह पुलिस ने अपने जवाब में वीडियो में दोहराए गए बानो के आरोपों का जवाब नहीं दिया. दिल्ली पुलिस ने एक दावा यह किया है कि बानो ने अपने आरोपों के समर्थन में इलाके के सीसीटीवी फुटेज नहीं दिखाएं. क्या पुलिस को यह नहीं पता होता कि एक प्राइवेट नागरिक ऐसे फुटेज हासिल नहीं कर सकता.
दिल्ली पुलिस ने अपने जवाब का काफी बड़ा हिस्सा उन अधिकारियों पर ही केंद्रित रखा है जो विरोध प्रदर्शनों के दौरान घायल हुए थे. रिपोर्ट में जिस बात पर जोर दिया गया था उसे पुलिस ने पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया है, जबकि यह तो तथ्य ही है कि दिल्ली पुलिस ने हिंसा में शामिल होने या हिंसा भड़काने के लिए बीजेपी के नामजद निर्वाचित अधिकारियों के खिलाफ शिकायतों को दर्ज करने में अनदेखी की. इन आरोपों के बारे में पुलिस का जवाब कुछ नहीं कहता और इसके बजाय पुलिस अधिकारियों की चोटों पर ही सारी बात को केंद्रित कर देता है. हिंसा के दौरान पुलिस अधिकारियों के घायल होने को लेकर रिपोर्ट में कहीं कोई विवाद नहीं है और पुलिस ने जिन बयानों का अपने जवाब में उल्लेख किया है ना ही यह उनका जिक्र ही करती है. रिपोर्ट के मूल सार का जवाब देने में विफल रहने पर, पुलिस ने शिकायतकर्ताओं के आरोपों को ही प्रभावी ढंग से प्रदर्शित किया है - कि पुलिस ने दिल्ली हिंसा में आरोपी बीजेपी नेताओं के खिलाफ शिकायतों को दफ्न कर दिया है और अभी यह जारी है.
रिपोर्ट में मोहम्मद इलियास की शिकायत को उद्धृत करने के संदर्भ में पुलिस का कहना है कि उसने शिकायत में जिस एक घटना का जिक्र किया है जिसमें पुलिस ने फारुकिया मस्जिद को आग लगा दी थी, उस पर पुलिस ने पहले से ही दो एफआईआर दर्ज कर ली हैं. स्पष्ट रूप से, पुलिस ने यह नहीं बताया कि उसने इलियास की शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज की थी या किसी और की शिकायत पर. यह दिल्ली पुलिस के फायदे वाली चूक है, जबकि इलियास ने अपनी शिकायत में दिल्ली पुलिस पर मस्जिद से पैसे लूटने और उसे बीजेपी सांसद सत्यपाल सिंह को भेजने का आरोप लगाया है. इलियास ने शिकायत में पुलिस अधिकारियों पर दयालपुर एसएचओ की कार से पेट्रोल लेने और फारुकिया मस्जिद के बगल में मदरसे को आग लगाने के लिए इस्तेमाल करने का आरोप लगाया था.
फिर भी, इन गंभीर आरोपों को खारिज करने का कोई कारण दिए बिना, दिल्ली पुलिस ने दावा किया है कि यह "उनकी मनगढंत कल्पना है." शिकायत के खिलाफ एफआईआर दर्ज किए बिना या सांसद सत्यपाल से पूछताछ किए बिना पुलिस इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंची, यह अस्पष्ट है. इसके बजाय दिल्ली पुलिस ने दावा किया है कि शिकायत बाद में सोचविचार कर की गई क्योंकि यह 16 मार्च को दायर की गई थी. यह इस तथ्य पर ध्यान नहीं देता है कि इलियास ने अपनी शिकायत में लिखा है, "सर, मैंने कई बार पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की है लेकिन पुलिसवाले मेरी शिकायत दर्ज करने से इनकार करते हैं और मुझे दंगों के मामलों में फंसाने और अगर मैं शिकायत करता हूं तो मुझे जेल में डाल देने की धमकी देते हैं.”
रिपोर्ट में उद्धृत मोहम्मद जामी रिजवी की एक अन्य शिकायत के संदर्भ में, दिल्ली पुलिस ने अपने जवाब में उल्लेख किया कि पुलिस रिजवी को उनके बताए पते पर नहीं खोज सकी और न ही फोन पर उनके बात कर सकी. दिल्ली पुलिस का जवाब आने के बाद मैंने रिजवी से बात की और उन्होंने मुझे बताया कि शिकायत में उनका जो पता दर्ज किया गया था उसमें थोड़ा सी गलती थी, जिसे उन्होंने 24 फरवरी को शिकायत दर्ज कराने के दिन ही ठीक करवा दिया था. उन्होंने कहा कि वह अभी भी उसी पते पर रहते हैं और पुलिस उनकी शिकायत के बारे में जांच करने के लिए कभी नहीं आई. उन्होंने यह भी दावा किया कि उनके पास पुलिस का कोई फोन नहीं आया था.
यह स्वीकार करने के बावजूद कि वे रिजवी से बात नहीं कर सके, दिल्ली पुलिस ने कहा कि शिकायत "मोहम्मद इलियास के समान ही थी और पूछताछ में इसमें सच्चाई का जरा भी अंश नहीं मिला." लेकिन यह देखते हुए कि पुलिस ने इलियास की शिकायत पर क्या जांच की, इसके लिए कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया और वह रिजवी से संपर्क भी नहीं कर सकी, यह स्पष्ट नहीं है कि पुलिस इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंची.
दिल्ली पुलिस के जवाब में सबसे हास्यास्पद विवरण अंत में प्रस्तुत किया गया है. यह कहने के बाद कि कई शिकायतकर्ता या उनके परिवार के सदस्य “दंगों में अपनी संलिप्तता के लिए संदेह के घेरे में” हैं, पुलिस का दावा है कि शिकायतें दर्ज करने से शिकायतकर्ता “कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए पुलिस पर दबाव बढ़ा रहे” हैं. सबसे पहले यह विचित्र तर्क है कि दिल्ली पुलिस ने इन शिकायतकर्ताओं के खिलाफ एक भी शिकायत या प्राथमिकी की पहचान नहीं की है और अभी तक हिंसा में उनकी संभावित भूमिका की जांच कर रही है लेकिन बीजेपी नेताओं के खिलाफ शिकायतों की अनदेखी कर रही है और तीन महीने से भी अधिक समय से पुलिस को प्रश्रय देती रही है. यह भी स्पष्ट नहीं है कि शिकायतों को दर्ज करने से "कानूनी कार्रवाई से बचा" जा सकेगा, विशेष रूप से इस तथ्य को देखते हुए कि बीजेपी नेता बिना किसी शिकायत को दर्ज किए, कानूनी कार्रवाई से बच गए हैं.
पुलिस ने एक और विचित्र कारण से रिपोर्ट में दी गई शिकायतों को "संदिग्ध" पाया हैं, क्योंकि "ऐसी शिकायतों का सार एक समान है, जो मुख्य रूप से व्यक्तियों और पुलिस अधिकारियों के एक खास समूह को लक्षित करता है." दिल्ली पुलिस ने यह नहीं बताया कि उसे कब और कैसे, पूरे तौर पर इस संभावना को खारिज कर दिया कि ये शिकायतें इसलिए समान हैं और कुछ खास लोगों पर आरोप लगाती हैं क्योंकि शिकायकर्ताओं ने उन्हीं आरोपियों को हिंसा में संलिप्त पाया है.
पुलिस ने जवाब में यह भी कहा, “दिल्ली पुलिस इसको लेकर पूरी तरह से सतर्क है कि जिन लोगों के निहित स्वार्थ हैं वे जांच को भटकाने के लिए उन्हें निशाना बनाएंगे. ऐसे लोगों का समूह अविश्वास का माहौल बनाता है, जो एक गलत राह पर चल कर सांप्रदायिक और सामाजिक कलह पैदा करता है.” विडंबना यह है कि शिकायतकर्ता प्रभावी रूप से अपनी शिकायतों में दिल्ली पुलिस पर इसी बात का आरोप लगाते हैं.
अंत में, दिल्ली पुलिस ने मुझ पर "पत्रकारिता के कुछ बुनियादी सिद्धांतों" से भटकने का आरोप लगाया है. हालांकि, इस रिपोर्ट में पत्रकारिता के लिए आवश्यक उच्चतम स्तर की जांच और इसके साथ जुड़ी सामाजिक जिम्मेदारी का पालन किया गया है. दिल्ली पुलिस ने अपने जवाब में दावा किया है कि शिकायतें "निहित स्वार्थों से प्रेरित" हैं और यह कि मैंने "यह मानकर कि यह पक्षपाती है, दिल्ली पुलिस द्वारा की गई जांच को नजरअंदाज किया है." लेकिन जैसा कि रिपोर्ट को पढ़ने से ही पाठकों को पता चलता है, उत्तर-पूर्वी दिल्ली के निवासियों ने पुलिस पर हिंसा के दौरान और पुलिस के साथ अपने अनुभव के आधार पर पक्षपातपूर्ण होने का आरोप लगाया है जिसे उन्होंने बाद में पुलिस के समक्ष दायर लिखित शिकायतों में व्यक्त किया है.
मैंने एक रिपोर्टर के तौर पर पूरी मेहनत और सावधानी से शिकायतकर्ताओं से बात की जिन्होंने इस रिपोर्ट के लिए अपने बयानों को वीडियो में दर्ज कराया है. मैंने आरोपों पर अपनी प्रतिक्रिया के लिए दिल्ली पुलिस और बीजेपी नेताओं से भी बात की और जब नेताओं ने कहा कि पुलिस ने उनके खिलाफ कोई जांच नहीं की है, तो पुलिस ने इसका कोई जवाब नहीं दिया. वास्तव में, 22 जून को, जब मैंने पहली बार दिल्ली पुलिस के जनसंपर्क अधिकारी, एमएस रंधावा से उनके जवाब के लिए संपर्क किया, तो उन्होंने मुझे उस रात बात की और दावा किया कि प्रश्न "विशिष्ट नहीं थे." रंधावा ने कहा, "कई शिकायतें हैं लेकिन आपने कोई विशेष शिकायत नहीं बताई है." यह देखते हुए कि उनसे पूछे गए सवाल फरवरी हिंसा में बीजेपी नेताओं और दिल्ली पुलिस के अधिकारियों के खिलाफ लगे आरोपों की प्रतिक्रिया के लिए मांगे गए थे, रंधावा की प्रतिक्रिया अनजाने ही यह बतलाती है कि ऐसी कई शिकायतें हैं. फोन पर बात करने के बाद मैंने रंधावा को प्रश्नों की एक और सूची भेजी. लेकिन उन्होंने उन सवालों का भी कोई जवाब नहीं दिया.
और आखिर में, दिल्ली पुलिस का जवाब, रिपोर्ट में उठाए गए मुख्य सवाल कि दिल्ली पुलिस ने बीजेपी नेताओं के खिलाफ शिकायतों को प्रभावी ढंग से नजरअंदाज किया, का कोई जवाब नहीं देता. इस बात से इनकार नहीं किया गया है कि पुलिस को वे शिकायतें मिली हैं. इस बात से इनकार नहीं किया है कि पुलिस ने इन शिकायतों के खिलाफ कोई एफआईआर दर्ज नहीं की. इस बात से इनकार नहीं किया है कि इसने नामजद बीजेपी नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. अपने जवाब में यह तर्क देने की कोशिश की है कि बाद में और देर से मनगढंत तौर पर शिकायतें की गईं, जबकि वे इस आरोप का कोई जवाब नहीं देते कि दिल्ली पुलिस ने शिकायतकर्ताओं को धमकाया और नामजद लोगों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने से ही मना कर दिया.
दिल्ली पुलिस संज्ञेय अपराध का खुलासा करने वाली शिकायत मिलने पर एफआईआर दर्ज करने के अपने कानूनी दायित्व का निर्वहन करने में फेल हुई है. सुप्रीम कोर्ट ने इस काम को न्याय का बुनियादी सिद्धांत कहा है. इन मामलों को दर्ज नहीं करने से पुलिस ने इस देश की सर्वोच्च अदालत द्वारा निर्धारित कानून की अवमानना की है. दिल्ली पुलिस के पास महीनों तक शिकायतों पर कुछ न करने और बाद में ट्विटर पर उन शिकायतों की मूल बातों को ही खारिज कर देने की कोई शक्ति या विवेकाधिकार नहीं है. वास्तव में अपने अधिकारियों के खिलाफ धमकाने और हिंसा में शामिल होने और बीजेपी नेताओं को इस तरह की हिंसा के लिए उकसाने के मामले दर्ज करने में उसकी विफलता, अवैध और शक्ति का दुरुपयोग है.
किसी पत्रकार के लिए उसकी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों में से एक है कि राज्य द्वारा की गई ज्यादती और कानून के उल्लंघन को उजागर करे. बीजेपी नेताओं और दिल्ली पुलिस के खिलाफ दिल्ली हिंसा को लेकर जो शिकायतें सामने आ रही हैं, वे साफ तौर पर ज्यादती और कानून के उल्लंघन के आरोप लगाती हैं. यह रिपोर्ट करते और इसे प्रकाशित करते हुए कारवां और मैंने मीडिया के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभाई है. यदि दिल्ली पुलिस ने ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाई होती तो इस रिपोर्ट की और फिर इस पर दिल्ली पुलिस को जवाब देने की जरूरी ही न पड़ती.