क्या करें

भारतीय मीडिया के लिए आगे का रास्ता

2020 के शुरुआत में दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा को कवर करता पत्रकार. हिंसा के दौरान बहुत से पत्रकारों को निशाना बनाया गया था. अल्ताफ कादरी/ एपी फोटो

2019 की शुरुआत में दिल्ली के एक मेंस्ट्रीम मीडिया के चीफ एडिटर ने मुझे दोपहर के भोजन का आमंत्रण दिया. चलिए उन्हें टीके टीके जी कहते हैं. जो लोग मीडिया से जुड़ें हैं उन्हें पता ही होगा कि टीके का इस्तेमाल संपादन के समय होता है और इसका मतलब होता हैटू कम (आने वाला है). अंग्रेजी मीडिया में टीके का अभी भी प्रयोग किया जाता है. यह उस स्थान पर लगाया जाता है जो तब तक खाली होता है जब तक अतिरिक्त सामग्री या सटीक जानकारी उस जगह पर भर नहीं दी जाती. अंग्रेजी भाषा में यह पुराना दो अक्षरों का शब्द सामान्य है और प्रूफ लगाते समय आसानी से पकड़ में आ जाता है. और “जी” हिंदी और पंजाबी में इस्तेमाल होने वाला आदरसूचक शब्द है जिसे महिला और पुरुष दोनों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. तो भोजन के दौरान टीके टीके जी ने मुझे बताया कि नरेन्द्र मोदी राज में उन्हें हमेशा दबाव में रहना पड़ रहा है.

उन्होंने एक फोन कॉल के बारे में मुझे बताया जो उन्हें कारवां की एक स्टोरी के प्रकाशन के बाद आया था. “अध्यक्ष जी आपसे बात करेंगे”, फोन के दूसरे छोर से उन्हें सुनाई पड़ा था. अब संपादक हैरान हो गए कि यह अध्यक्ष जी कौन हैं. क्या यह कोई मजाक है? लेकिन तभी दूसरी आवाज उनके कानों में पड़ी, “मैं अमित शाह बोल रहा हूं.”

उस वक्त शाह भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और इसमें कोई शक नहीं कि वह भारत के दूसरे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति थे. 2014 में उनकी पार्टी की सरकार बन चुकी थी. उन्होंने संपादक महोदय को बताया कि कारवां द्वारा प्रकाशित एक बड़ी पड़ताल के संबंध में जो प्रेस कॉन्फ्रेंस विपक्ष के नेता करने वाले हैं उसे कवर न करें. मैंने टीके टीके जी से पूछा कि क्या उन्होंने कारवां में खबर छपने के बाद अपने अखबार में वह स्टोरी चलाई थी. उन्होंने कहा, “अरे भूल जाइए. वह असंभव था.”

आमतौर पर होता यह है कि विपक्षी पार्टियां अगर किसी बड़ी खबर पर कोई राजनीतिक प्रतिक्रिया देती हैं तो उसके साथ उस बड़ी खबर को छापना आसान हो जाता है लेकिन यहां संपादक जी को कॉल आया था कि वह विपक्ष की प्रेस कॉन्फ्रेंस भी कवर न करें. टीके टीके जी ने मुझे बताया कि उन्होंने बड़े सम्मान के साथ ऐसा करने से इनकार कर दिया और साहब से कह दिया कि उनके लिए विपक्ष की प्रेस कॉन्फ्रेंस की खबर न छापना असंभव होगा. उस वक्त आम चुनाव होने में थोड़ा ही वक्त बचा था.

“प्रेस कॉन्फ्रेंस में कुछ भी नया नहीं है” अध्यक्ष ने दूसरे छोर से कहा, “इन सारे मामलों पर चर्चा हो चुकी है और इन्हें खारिज किया जा चुका है. इसे कवर करने की आपको कोई जरूरत नहीं है.”

अगले रोज टीके टीके जी ने खबर छापी मगर एक संक्षिप्त तथ्यपरक (मैटर ऑफ फैक्ट) रूप में. लेकिन वह फोन कॉल तो धमकी वाले अंदाज में था. यहां यह समझना जरूरी है कि एक राजनीतिज्ञ के पास इतना हौसला है कि वह भारत के एक ऐसे संपादक को, जिसके नीचे एक हजार से ज्यादा पत्रकार काम करते हैं, बताए कि खबर करने लायक नहीं है. यहां अध्यक्ष जी संपादक के भी संपादक की तरह व्यवहार कर रहे थे.

मुझे भारत के दूसरे सबसे शक्तिशाली आदमी के साथ हुए टीके टीके जी की एनकाउंटर की कहानी सुनने में मजा आ रहा था क्योंकि इससे हमारे दौर की कुछ एक बड़ी खबरों पर परंपरागत या लीगेसी मीडिया की खामोशी को समझा जा सकता है. यकीनन, भारतीय मीडिया ने ऐतिहासिक रूप से उन सदाबहार मामलों में एक क्लासिक खामोशी बरती है जिनसे नेताओं को परेशानी होती हैं. कुछेक मामलों की बात करूं तो उनमें भारतीयों में बढ़ रही गैर बराबरी, नीची जाति के समूह और जनजातियों पर हो रहे अत्याचार, धार्मिक और नस्लीय अल्पसंख्यकों पर लक्षित हिंसा, कृषि संकट, बड़े खनन कारपोरेशनों द्वारा भारत के समृद्ध जलवायु की बर्बादी, नॉन परफॉर्मिंग कर्ज, जो हमारी व्यवस्था ने खुशी के साथ बड़े घरानों को सौंप दिया है और न्याय व्यवस्था की सड़ान जैसे मुद्दे शामिल हैं.

यहां-वहां छपी कुछेक बायलाइनों को रहने दें तो इन मामलों पर भारतीय मेंस्ट्रीम मीडिया में शायद ही कभी एकरूपता रही है. और ऐसे में जनता के लिए नैरेटिव सेट करने की उससे उम्मीद करना बेमानी है. यह क्लासकीय चुप्पी जाति, मालिकाना, लैंगिक विभेद, अज्ञानता और आसक्ति जैसे कारकों के चलते है जो नरेन्द्र मोदी के 2014 में दिल्ली आगमन के बाद और मजबूत हो गए हैं.

टीके टीके जी की अध्यक्ष जी के साथ मुठभेड़ ने मुझे यह भी समझाया कि क्यों लीगेसी मीडिया हाल के सालों में कारवां द्वारा की गई बड़ी पड़तालों को आगे नहीं ले गया. इसमें जज बीएच लोया की मौत का मामला भी है, जो सोहराबुद्दीन शेख फर्जी एनकाउंटर मामले की सुनवाई कर रहे थे, उस मामले में अध्यक्ष जी मुख्य आरोपी थे, इसके अलावा राफेल रक्षा समझौता, शाह के बेटे की कंपनी का बढ़ता कारोबार, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के बेटे की कंपनी, जो टैक्स हेवन केमैन आइलैंड से संचालित है और अन्य रिपोर्टें भी. अगर अध्यक्ष जी ने टीके टीके जी को एक बार फोन किया था तो संभवतः उन्होंने उन्हें कई बार फोन किया होगा. टीके टीके जी को फोन आया था तो संभवतः अन्य संपादकों और मालिकों को भी ऐसे कॉल आए होंगे.

कारवां की बड़ी पड़तालें-खबरें भारतीय मीडिया ने अतीत में जैसा काम किया था उसकी छाया है. 1980 में जब हिंदू अखबार ने बोफोर्स मामले का खुलासा किया था तो इस खबर के नवीन पक्षों को सामने लाने के लिए इंडियन एक्सप्रेस और अन्य मीडिया घरानों के पत्रकारों में प्रतिस्पर्धा सी शुरू हो गई थी. साल 2000 में जब तहलका ने सत्तारूढ़ अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के नेताओं का स्टिंग किया था, तो राष्ट्रीय मीडिया ने इस घटना के सभी पक्षों को कवर किया. प्रत्येक न्यूज मीडिया ने अपने सबसे कुशल खोजी पत्रकारों को मनमोहन सिंह सरकार के भ्रष्टाचारों का खुलासा करने में लगाया था. ये तमाम पत्रकारिता की सुखद स्मृतियां हैं लेकिन ये वैसे लैंडमार्क नहीं माने जा सकते जिनमें प्रेस ने ताकतवर राजनेताओं को घुटने पर ला दिया हो.

भारतीय मीडिया ने अब तक वॉटरगेट जैसा खुलासा नहीं किया है जिसने अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया था या इसके इतिहास में वैसे क्षण भी नहीं हैं जिनमें उसने पेंटागन पेपर्स जैसा कोई खुलासा किया हो जिसमें राजनेताओं और प्रेस के बीच तकरार हुई हो और अंततः न्यायपालिका ने पत्रकारों के उस अधिकार को संरक्षित किया हो, जिसमें वे सत्ताधारियों के ऐसे खेलों को उजागर करते हों, जिन्हें नेता गुप्त रखना चाहते हों.

भारतीय पत्रकारिता में ऐसे मील के पत्थर कम ही रहे हैं, जिसमें वह दमनकारी नेता, भ्रष्ट और जर्जर व्यवस्था से टकराई हो और प्रेस की स्वतंत्रता की लड़ाई निर्णायक रूप से जीत ली हो, जिसके चलते आज के बहुसंख्यकवादी नेताओं को यह आत्मविश्वास मिला है कि वे लीगेसी समाचार संगठनों को काबू में कर लेंगे.

इसलिए जो आज हम देख रहे हैं वह पत्रकारिता का मुलम्मा चढ़ा दौर है जहां भारतीय लीगेसी समाचार संस्थान सत्ता से जवाबदेही मांगने से बचते हैं, जबकि ऐसा करना लोकतंत्र में प्रेस के लिए तय ऐतिहासिक भूमिका है. कुछ लीगेसी न्यूज संस्थान पंचिंग बिलो देरर वेट (अपनी हुनरमंदी की तुलना में बेहूदगी परोसने) की कला में माहिर हो गए हैं और अन्य राज्य के नैरेटिव को आगे बढ़ाने में उसके सहायक बन गए हैं. तो फिर युवा पत्रकार पत्रकारिता की सीख किससे ले?

एक पत्रकार अपने काम को तीन तरह से बयां कर सकता है. वह कह सकता है कि यह उसकी नौकरी है, उसका पेशा है या उसकी प्रेरणा है. और यही वह पहलू है जो सत्ता के साथ पत्रकार के संबंध को तय करता है. पत्रकार, प्रेस और निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता का इकोसिस्टम व्यवस्था की मनमानी के खिलाफ तब ज्यादा मजबूती से खड़ा रह सकता है जब वह पत्रकारिता को प्रेरणा की तरह प्रेरणा के तौर पर लेता है. इसे एक ग्राफ बना कर देख पाना भी लगभग संभव है. जितना अधिक एक पत्रकार अपने काम को प्रेरणा मानेगा उतना ही वह सत्ताधारियों के नैरेटिव को चुनौती देगा. नौकरी के रूप में जब पत्रकारिता होती है तो पत्रकार को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या करता है. तब वह नैरेटिव फॉलो करता है और उस नैरेटिव में सहयोगी की भूमिका भी निभा सकता है. और जहां पत्रकारिता को पेशे के रूप में समझा जाता है वहां पत्रकार दोनों ही दिशा में जा सकता है. पत्रकारिता तब अपने उत्कृष्ट रूप में होती है जब वह प्रेरणा होती है. वह जब एक नौकरी होती है तो वह उसका सबसे खराब रूप होता है.

यदि हम जन संवेदना पर गौर करें और साथ ही आजादी के बाद से भारतीय पत्रकारिता के काम की समीक्षा करें तो हम पाते हैं कि भारतीय मीडिया मोटे रूप में पहले और दूसरे जोन में आती है. भारत में पत्रकारिता अधिकांश वक्त नौकरी और पेशे के दायरे में घूमती रही है. ऐतिहासिक तथ्यों से इस परिघटना को कुछ हद तक समझा जा सकता है. भारत के लोकप्रिय स्वतंत्रता सेनानियों में से लगभग 70 फिसदी पत्रकार थे. आजादी के लिए उनकी आकांक्षा ने उन्हें लिखने और प्रकाशन की ओर मोड़ा. लेकिन जो समाचार पत्र उन्होंने शुरू किए थे, आजादी के बाद वे बड़े कारोबारियों के कब्जे में आ गए जिनके लिए मीडिया निवेश था और पत्रकारों को फैसला लेने के काम से दूर कर दिया गया. आज भारत का अधिकांश मीडिया तेल, टेलीकॉम, खनन, सीमेंट, सूदखोरों, रक्षा बिचौलियों और नेताओं के मालिकाने में है और इनमें से अधिकांश मर्द हैं. इस बीच आजादी के बाद अंग्रेजों द्वारा चलाए जा रहे समाचार पत्र भारत के खाते-पीते कारोबारियों ने खरीद लिए जो बड़े अहंकार से कहते हैं कि वे लोग न्यूजपेपर का व्यवसाय नहीं बल्कि विज्ञापन का व्यवसाय करते हैं.

ज्यादातर महत्वाकांक्षी नौजवान पत्रकारों को समझ नहीं आ रहा कि भारतीय न्यूज रूम में घुसने का फिर क्या लाभ है. इन सारी आलोचनाओं के बावजूद मैं नौजवानों से अपील करूंगा कि मौका मिलने पर वे भारतीय न्यूज संस्था में जरूर काम करें. पिछले साल पत्रकारिता स्कूल के दीक्षांत समारोह में मैंने जो लेक्चर दिया था उसमें मैंने इस बात पर चर्चा की थी कि न्यूज रूम में दाखिल होने को क्यों एक अवसर के रूप में देखा जाना चाहिए. यहां आकर आप पत्रकारिता के काम की पांच आधारशिलाओं को समझ सकते हैं- खबर सूंघने की शक्ति, दुरुस्त मूल्यांकन, नैतिक साहस, विषय पर पकड़ और लिखने का कौशल. 

यह जरूरी है कि एक पत्रकार इन क्षेत्रों में मास्टरी हासिल करे और यदि वह पत्रकार ऐसा खनन, तेल और टेलीकॉम व्यापारियों की तनख्वा पर कर सकता है तो उसे गुरेज नहीं होना चाहिए. देखिए संपादकीय समझौता व्यवस्थागत विकार है : कोई न्यूज रूम 40 प्रतिशत बीमार है, तो कोई 50 प्रतिशत और बाकी भी इसी तरह हैं लेकिन एक पत्रकार किसी बीमार जगह में काम कर सकता है, उसे बदलने की कोशिश कर सकता है और जब तक वहां मौजूद है उसके भीतर रह कर एक अच्छी लड़ाई लड़ सकता है.

लेकिन आज मैं एक अन्य बात पर ध्यान दिलाना चाहूंगा. तब क्या होगा जब किसी पत्रकार ने पांचों आधारशिलाओं पर मास्टरी तो हासिल कर ली हो और एक अच्छी लड़ाई भी लड़ी हो लेकिन अब वह इसे और नहीं झेल सकता? तो क्या उसे मीडिया कंपनियों के मालिक कारोबारियों के हितों के लिए काम करते रहना चाहिए? और तब क्या जब वह पत्रकार न्यूज रूम में दाखिल होने के बावजूद इस काम के विभिन्न आयामों पर मास्टरी हासिल करने तक वहां टिक नहीं पाता? और तब क्या होगा जब उसे किसी फैंसी न्यूज संस्थान में प्रवेश ही नहीं मिलता?

ऐसे पत्रकार सोचते होंगे कि उन्हें क्या करना चाहिए? मेरे पास उनके लिए कुछ सुझाव हैं. कई स्तरों पर चीजें अंधेरी सी लगती हैं लेकिन एक सकारात्मक पक्ष यह है कि जब एक राष्ट्र के जीवन-मरण का संघर्ष तीव्र हो रहा होता है तो उस वक्त पत्रकारिता जैसी संस्था की भूमिका पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है. तो यह अच्छा होगा कि आज के हालात को तूफान से पहले की शांति की तरह समझा जाए. जब एक तरफ फासीवादी ताकतें तेजी के साथ एक न्यायपूर्ण समाज की आकांक्षा का गला घोट रही होती हैं तो दूसरी तरफ सामाजिक उथल-पुथल भी पैदा होती है. वह तुरंत नहीं दिखाई देती लेकिन वह एक सामाजिक ताकत के रूप में निश्चित रूप से पैदा होगी और फासीवादी शक्तियों से लोहा लेगी. इसीलिए महत्वाकांक्षी नौजवान पत्रकारों को इन दिनों को पत्रकारिता की वर्कशॉप की तरह देखना चाहिए जिसमें वे अपने लिए बीज बोएंगे और बाद में फसल काटने का वक्त भी आएगा.

पत्रकारिता को मॉडलों की तलाश है. कारोबारियों के मालिकाना से बाहर की पत्रकारिता संसाधनों के संकट का सामना कर रही है. विज्ञापन या नियमित बिक्री जैसे पुराने मॉडलों ने बहुत पहले ही काम करना बंद कर दिया है और जिस वक्त मैं आपसे मुखातिब हूं ठीक उसी वक्त वेंचर कैपिटल या पूंजी से संचालित मीडिया मॉडल बिखर रहा है. जो काम पहले कारोबारियों या प्रबंधकों का माना जाता था वह अब पत्रकारों के हिस्से में आ गया है और यह भी सही है कि जब घर जलता है तो उसे बचाने का काम सभी का होता है. भारत में कारपोरेट द्वारा संचालित मीडिया मॉडल विफल हो गया है क्योंकि सरकार उसे आसानी से हांक सकती है. परिवारों द्वारा चलाई जा रही अधिकांश मीडिया कंपनियों, जिनका पत्रकारिता से शायद ही कोई लेना-देना और वे सिर्फ राजनीतिक बदला लेने या विज्ञापन से कमाई के लिए चल रही थीं, का भी यही हश्र हो रहा है. दुनिया भर में वेंचर कैपिटल से संचालित मीडिया मॉडल फेल हो गया है. इस प्रकार की बड़ी पूंजी से चलने वाले बजफीड, हफपोस्ट और वाइफ से यह साबित हो गया है कि सट्टे की पूंजी के निवेश से स्तरीय पत्रकारिता नहीं हो सकती.

फिलहाल मुझे नहीं पता कि मीडिया के लिए कौन सा मॉडल काम करेगा लेकिन मैं यकीन के साथ कह सकता हूं कि पत्रकारिता, जो प्रोजेक्ट डेमोक्रेसी का हिस्सा है, का मॉडल लोगों को केंद्र में रखकर बनना चाहिए. स्तरीय पत्रकारिता को बचाए रखने के लिए जनता से धन प्राप्त करने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है. एक प्रकार से जो नए मॉडल हैं, वे पुराने मॉडल ही हैं. उदाहरण के लिए द गार्जिअन को लीजिए, जो श्रमिकों के समाचार पत्र के रूप में 200 साल पहले ठीक वैसे ही शुरू हुआ था जैसे भारत की आजादी की लड़ाई के वक्त ढेर सारी छोटी पत्रिकाएं और समाचार पत्र शुरू हुए थे.

आज सब्सक्रिप्शन या चंदे से चलने वाला पुराना मॉडल मजबूती से वापस स्थापित हो रहा है. न्यूयॉर्क टाइम्स का ही उदाहरण लीजिए. पिछले साल इसने 140 मिलियन डॉलर का लाभ अर्जित किया, जो उसके जबरदस्त सफल सब्सक्रिप्शन अभियान का नतीजा था. उसने कोरोना के दौरान, दूसरी तिमाही में इस साल सबसे ज्यादा सब्सक्रिप्शन प्राप्त किया है और तीन महीनों में छह लाख  नए डिजिटल सब्सक्राइबर जोड़े हैं. वह साप्ताहिक 14 रुपए तक लोगों से ले रहा रहा है. यह न्यूयॉर्क टाइम्स के लिए काम कर रहा है. 2011 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने सब्सक्रिप्शन आधारित मीडिया मॉडल की तरफ अपना रुख किया था. इन सालों में उसने इतना आत्मविश्वास हासिल कर लिया है कि उसने सब्सक्रिप्शन फर्स्ट बिजनेस मॉडल अपना लिया है.

आज 2020 में जब मैं न्यूयॉर्क टाइम्स के सफल सब्सक्रिप्शन अभियान पर नजर दौड़ाता हूं तो मैं उस बातचीत को याद किए बिना नहीं रह पाता जो 18 साल पहले दिल्ली में टाइम्स के एक रिपोर्टर के साथ हुई थी. तब मैं अमेरिकन पब्लिक रेडियो स्टेशन का भारत में फील्ड प्रड्यूसर और रिपोर्टर था. अमेरिका में पब्लिक रेडियो बहुत लंबे समय से श्रोताओं के समर्थन से चलते रहे हैं.

मेरे एक अमेरिकी सहयोगी अफगानिस्तान से लौटे थे जहां अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने युद्ध छेड़ रखा था. मेरे साथी ट्रांसिट की अवधि में एक दिन के लिए दिल्ली में रुके थे. हम लोग शाम को दिल्ली के फॉरेन करेस्पोंडेंट क्लब में मिले. बातचीत में मेरे साथी ने एक प्रसिद्ध भारतीय लेखक द्वारा रेडियो को सहयोग देने की संभावना की बात बड़ी उत्सुकता से साझा की. टाइम्स का रिपोर्टर, जो बहुत बड़ी-बड़ी ढींगे हांकने वाला आदमी था, हमारे साथ बैठा हुआ था, उसने मेरे सहयोगी का मजाक उड़ाया. वह हम पर ऐसे हंस रहा था मानो हमें वह रेडियो के ऐसे छोकरे समझता हो जो किसी जुनूनी वामपंथी आइडिए पर बात कर रहे हों और ऐसा कर पत्रकारिता के स्टैंडर्ड को नीचे गिरा रहे हों. उस वक्त टाइम्स विज्ञापन से प्राप्त पैसों के घमंड में सराबोर था और उस रिपोर्टर को लगता था कि पत्रकारिता के लिए संसाधन जुटाने का काम मैनेजर और अन्य कर्मचारियों का है, न कि पत्रकारों का.

इसके बाद जल्द ही वह समाचार पत्र कई संकटों में फंस गया. सबसे पहले तो उसके सामने विश्वसनीयता का संकट पैदा हुआ क्योंकि इराक में जनसंहार के हथियारों की मौजूदगी की गलत रिपोर्ट उसने की थी. इसके बाद उस पर आर्थिक संकट का वज्रपात हुआ जब विज्ञापन राजस्व टैक कंपनियों की ओर लुढ़कने लगा. आज वह पत्र छोटे सब्सक्रिप्शन की बदौलत फलफूल रहा है. वह लोगों से सर उठा कर कहता है : “अगला बड़ा खुलासा करने में टाइम्स पत्रकारों की मदद करें.”

सब्सक्रिप्शन मॉडल की सफलता लंबे समय बाद पत्रकारिता में आई सबसे अच्छी खबर है. यह दिखाती है कि आपको पत्रकारिता बेचने के लिए पत्रकारिता करनी होगी. क्योंकि न्यू यॉर्क टाइम्स पत्रकारिता करता है इसीलिए वह पत्रकारिता बेच सकता है. यदि कारवां पत्रकारिता करता है, तो वह पत्रकारिता बेच सकता है. लेकिन जो लोग पत्रकारिता नहीं करते उनके पास बेचने के लिए कुछ नहीं होगा. इसीलिए तेल, खनन, दूरसंचार के मॉडलों पर टिकी पत्रकारिता बहुत कमजोर जमीन पर खड़ी है और पत्रकारिता करने की इच्छा रखने वालों को इससे उम्मीद जागनी चाहिए. यहां हम यह भी देख रहे हैं कि सब्सक्रिप्शन मॉडल को सैकड़ों पत्रकारों वाला न्यूजरूम नहीं चाहिए. ढंग से तैयार न्यूज लेटर तक सफल हो रहे हैं.

सब्सक्रिप्शन मॉडल हाइपरलोकल (एकदम स्थानिक) पत्रकारिता या एक खास बीट पत्रकारिता से बन सकता है या वह कोऑपरेटिव (सहकारिता) के रूप में भी उभर सकता है. दो नए कोऑपरेटिव मॉडल, जो सब्सक्रिप्शन पर आधारित हैं और जिन पर लोगों की नजरें हैं, हैं : डिफेक्टर मीडिया और द ब्रिक हाउस. पहला एक खेल ब्लॉग है. इसे चलाने वाली कंपनी में 18 पत्रकार हैं जो बराबर के साझेदार हैं. ब्रिक हाउस 9 प्रकाशकों का समूह है जो अपना सारा कंटेंट एक ही सब्सक्रिप्शन पर बेचते हैं. इसकी कोई गारंटी तो नहीं है कि ये मॉडल सफल ही होंगे लेकिन ये साफ तौर पर बताते हैं कि ये अब तक अस्तित्व में आए मॉडलों से सीख लेकर उबरे हैं. ये सच्ची पत्रकारिता क्या है इसका पाठ भी देते हैं यानी जिसमें ग्लैमर नहीं है और ठोस काम है और इसके साथ ही जनता से सहयोग भी लिया जा रहा है.

यदि सेल्फ हेल्प समूह किराने की दुकान, कॉफी मिल या रेस्तरां चला सकते हैं और यदि दूध विक्रेताओं का एक कोऑपरेटिव अमूल जैसा विश्व का सबसे बड़ा ब्रांड बन सकता है, तो कोई कारण नहीं है कि भारतीय मीडिया में भी पत्रकारिता का कोऑपरेटिव मॉडल न उबर आए बशर्ते पत्रकारिता लोगों की प्रेरणा हो न कि नौकरी या पेशा.

हमें अतीत और वर्तमान से सबक लेने की आवश्यकता है जब एक वक्त ऐसा था जिसमें भारतीय जमीन छोटी पत्रिकाओं और छोटे समाचार पत्रों के लिए उर्वर थी जो स्थानीय स्तर पर लोगों के विचारों को प्रभावित करते थे. पत्रकारिता के आधिकारिक इतिहास में हम यह भी देख सकते हैं कि बड़े मीडिया ब्रांड ब्रिटिश कंपनियों या बनियों के मालिकानों वाले मीडिया हाउस थे. इस सच्चाई के अलावा यह बात भी है कि इनका कवरेज एक दूसरे से अलग नहीं होता था. उदाहरण के लिए 1943 में बंगाला अकाल के वक्त, जिसमें 30 लाख से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी, ऐसे भूरे भारतीय पत्रकार थे जो इन लाशों पर खड़े होने के बावजूद अकाल की रिपोर्ट नहीं कर रहे थे.

समाचार पत्रों को इस अकाल की कवरेज शुरू करने में वक्त लगा और ऐसा तथाकथित राष्ट्रवादी काले लोगों के अखबारों में नहीं हुआ बल्कि एक श्वेत आदमी के अखबार द स्टेट्समैन में हुआ. दूसरी ओर छोटे प्रकाशकों ने ब्रिटिश प्रशासन के आगे लगातार साहस और ईमानदारी का परिचय दिया और इसके लिए उन्हें प्रतिबंधों और आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ा.

यहां सबक यह है कि पत्रकारिता के लिए किसी को बड़े पारंपरिक समाचार संस्थानों पर भरोसा करने की जरूरत नहीं है और न ही किसी को यह समझना चाहिए कि गरीब, पिछड़े और सताये लोगों की पक्षधर संवेदनशील खबरें खास पहचान रखने वाले पत्रकारों के जरिए बाहर आएंगी. ऐसी खबरें कोई भी कर सकता है और वे कहीं भी प्रकाशित हो सकती हैं.

चैनलों को भी सबक सीखने की जरूरत है. आज कल चैनल बिलबोर्ड लगाकर चीखते-चिल्लाते हैं कि वे भारत के सबसे शीर्ष टीवी चैनल हैं जबकि कई बार ऐसा होता है कि इन्हें पांच हजार लोग नहीं देख रहे होते हैं. यह मीडिया का प्रोपगेंडा इस्तेमाल है जो आज कल उनके लिए ऑक्सीजन की तरह हो गया है. आज के पत्रकारों को फोन और इंटरनेट के जरिए अपने श्रोताओं तक पहुंचने से कौन रोकता है? यह एक सदी पहले की छोटी पत्रिकाओं और समाचार पत्रों की संस्कृति जैसा है जो इस उपमहाद्वीप में मौजूद थी. हमें चमक और आकार से नहीं डरना चाहिए. हमारे पास इसे दुबारा से परिभाषित करने का अवसर है. हमें यह याद रखना चाहिए कि मीडिया प्राथमिक रूप से लोकतंत्र का एक औजार है और अच्छी खबरें ढूंढने और बताने के साथ संसाधन जुटाने के लिए पत्रकारों को जनता के पास जाना चाहिए. यदि सब्सक्रिप्शन-चंदे के जरिए मीडिया में लोगों की भागीदारी नहीं होगी तो ऐसे मीडिया पर राजनीतिक या कारपोरेट कब्जा आसान हो जाएगा. स्वयं प्रशासित मॉडल स्पष्ट रूप से आ रहे हैं लेकिन इनकी सफलता का राज इन की विस्तृत जानकारी में छुपा है और इसीलिए ऐसे मॉडल के आविष्कार के लिए बहुत ज्यादा सोचने की जरूरत है.

ऐसा करने के लिए उतनी ही स्पष्टता, शांति, धैर्य और तैयारी की जरूरत है जितनी कि किसी अविष्कार के लिए होती है. तो उन पत्रकारों को जिन्हें पत्रकारिता को मिशन की तरह लगती है, मैं कारोबारी मॉडल तैयार करने का सुझाव दूंगा. यह आप लोगों के बीच में से निकल कर आ सकता है.

प्रत्येक पत्रकार के लिए दूसरा महत्वपूर्ण काम खुद को तैयार करना है. उन्हें तीन तरह की तैयारियों की जरूरत है : पत्रकारिता का हुनर, विषय की जानकारी और पत्रकारिता के जरूरी चरित्र. जब पत्रकारिता के कलात्मक पक्ष की बात आती है तो एक पत्रकार की रिपोर्टिंग, लेखन और उसके उत्पादन का कौशल सबसे अच्छा होना चाहिए. ऐसा इसलिए जरूरी है ताकि वह आम नागरिक से खुद को अलग खड़ा कर सके.

पत्रकारों को जिन बातों का पता चलता है, लोगों के लिए उनका विश्लेषण करने में संकोच नहीं करना चाहिए. यह दूसरी तैयारी का हिस्सा है यानी विषय पर पकड़. पिछले दशकों में भारतीय पत्रकारों ने राजनीतिक, समाजशास्त्रीय और समकालीन इतिहास के विषयों को शिक्षाविदों के हाथों सौंप दिया है. ये विषय अब केवल सिद्धांतों या सुगढ़ अकादमिक पेपरों में सीमित रह गए हैं.

सही फील्ड वर्क और मौलिक डेटा का गहरा अभाव है. कुछ कारणों से उन पत्रकारों ने जिनके पास बदलाव को समझने का बेहतर कौशल था, कुर्सी तोड़ बुद्धिजीवियों के लिए मैदान खाली छोड़ दिया है. ऐसे पत्रकारों ने जिनके पास जनता का बुद्धिजीवी होने की क्षमता है, जो अपनी सामग्री से और बौद्धिकता से चीजें समझा सकते थे, उन लोगों ने चीखने वाले परंतु खोखले, डरपोक और कमजोर लोगों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है.

इससे तीन प्रकार की समस्याएं पैदा हुई हैं. पहली तो यह कि हमारे बड़े सिद्धांतकारों ने चीजों की गलत व्याख्याएं कीं. इस बाद इन्होंने ऐसे बहुत से लोगों के औचित्य की पुष्टी कर दी जिनको मान्यता नहीं मिलनी चाहिए थी और तीसरी बात कि जब वे लोग चीजों की सही समीक्षा करने लगे तब तक खतरा आ चुका था और उनकी कोशिशों में देरी हो चुकी थी जिसने उनके काम को बेअसर बना दिया था.

पत्रकारों को अपने विचारों-तर्कों को आगे बढ़ाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहिए. इतिहास में अपने लिए स्थान सुनिश्चित करने के लिए आने वाले पत्रकारों को न सिर्फ रिपोर्ट करनी होंगी और कहानियां बतानी होंगी बल्कि उन्हें आंखों देखी की समीक्षा जनता के लिए करनी होगी. बौद्धिक स्पेस पत्रकारिता का स्पेस भी है और पत्रकार को इस पर अपना दावा करना होगा.

अब तीसरी विशेषता की बात यानी चरित्र की. स्वाभाविक सी बात है कि मीडिया में जो चल रहा है वह समाज में जो हो रहा है उसका विस्तार ही है. यदि जज, कारोबारी ईमानदार नहीं होंगे, तो एडिटर या मीडिया मालिकों को ईमानदार क्यों होना चाहिए? यदि राजनीतिज्ञ और नौकरशाह भ्रष्ट हैं, तो पत्रकार भला क्यों अगल हों? यदि बुद्धिजीवी ईमानदार या साहसी नहीं हैं, तो पत्रकार बोलने का खतरा क्यों उठाए? लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का अन्य स्तंभों की तरह ही ध्वंस होगा.

इस बात की पड़ताल करना कि भारतीय मीडिया आज जहां और जिस तरह का है वह वैसा क्यों है, एक प्रकार से भारतीय समाज जहां है वहां क्यों है इसकी पड़ताल करना भी है. लेकिन सच्चे पत्रकार हमेशा ही सच्चाई और न्याय का साथ देंगे, चाहे उन्हें इसकी कोई भी कीमत चुकानी पड़े. न न्यायपालिका, न नौकरशाही और न ही शिक्षाविद ऐसे खरे-खरे सवाल कर सकते हैं और सुनहरे लिबास में ढकी बजबजाती सड़ांध को बेपर्द कर सकते हैं जैसा पत्रकार कर सकते हैं. जब पत्रकार अपने काम को प्रेरणा मानते हैं, तो सत्ता में बैठे लोगों का नैरेटिव धीरे-धीरे फुस्स होने लगता है. पत्रकार रिपोर्टिंग और खबर बताने से आगे जाकर काउंटर नैरेटिव तैयार करने के लिए बौद्धिक स्पेस पर दावा ठोक सकते हैं. जब ऐसा होता है तो और अच्छी पत्रकारिता जन्म लेती है. जब शक्तिशाली लोगों का नैरेटिव कमजोर पड़ता है, तो यह लोकतंत्र के अन्य स्तंभों को मुंह खोलने का साहस देता है. नैतिक पतन की तरह नैतिक साहस संक्रामक होता है.

पत्रकार जब पत्रकारिता को सच्ची प्रेरणा मानकर चलेंगे तब पत्रकारों को खुद को विरोधी वाली भूमिका में रखना पड़ेगा, एक स्थाई विपक्ष की भूमिका में. पत्रकार को लोकतांत्रिक मूल्यों, वैश्विक मानव अधिकार मूल्यों के लिए लड़ना होगा. यह कभी न खत्म होने वाली लड़ाई है. यह तथ्यों की पड़ताल करते रहने की कभी न खत्म होने वाली लड़ाई है लेकिन साथ ही यह लड़ाई अपने स्व के खिलाफ भी हो सकती है. अगर मैं इस बार पर गौर नहीं करता कि मैं कितना मर्दवादी हूं, कितना जातिवादी हूं, कितना वर्गवादी हूं, और खुद को एक बेहतर इंसान बनाने में काम नहीं करता तो मैं शायद ही वैसा पत्रकार बन सकूं जैसा मैं चाहता हूं. इसका यह मतलब नहीं है कि मुझे यह परीक्षा पास करने का पहले इंतजार करना चाहिए और हर मामले में राजनीतिक रूप से सही होना चाहिए और तभी जाकर मैं पत्रकारिता शुरू कर सकता हूं. विकास एक प्रक्रिया है. खुद के प्रति जागरूकता और गलतियों को स्वीकार करना और उन गलतियों को ठीक करने के लिए काम करना आधी जीत के समान है.

यदि पत्रकार व्यक्तिगत रूप से अपने आप को एक चरित्रवान, ईमानदार और नैतिक साहस वाला व्यक्ति बना सकता है और यदि यह चारित्रिक विशेषताएं उसके काम के केंद्र में होती हैं, तो ऐसा पत्रकार ऐसे संगठनों को आगे बढ़ा सकता है जो ऐसे ही पत्रकार तैयार करते हैं. ऐसे पत्रकारों का समूह वक्त आने पर ऐसे मूल्य वाले संस्थान का निर्माण करेगा जो आने वाले समय के तूफान को झेल सकते हैं.

इस साल अगस्त की एक दोपहर को मेरे तीन साथी कैमरा, वॉइस रिकॉर्डर और नोटपैड लेकर उत्तर पूर्वी दिल्ली के एक जाने पहचाने इलाके में थे. दो पत्रकार वहां दो दिन पहले, अंधेरे में गए थे जब उन्हें एक एसओएस कॉल आया था. मध्य रात्रि में जब वहां पहुंचे तो उन्हें यह नहीं पता था कि वह क्या कवर करने गए हैं. वहां उन्हें मुस्लिम महिलाओं ने बताया की उनके साथ पुलिस परिसर के भीतर पुलिस अधिकारियों द्वारा यौन दुर्व्यवहार और शारीरिक हिंसा की गई है. इनमें एक 13 साल की लड़की भी थी. पत्रकार प्रभजीत सिंह और शाहिद तांत्रे ने उन लोगों का बयान लिया और पुलिस का बयान लेकर रिपोर्ट पब्लिश की.

दूसरी बार जाना इसलिए जरूरी हो गया क्योंकि वह टीम मल्टीमीडिया स्टोरी भी करना चाहती थी और माना गया कि यह बेहतर होगा कि जिन महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार हुआ है उनका इंटरव्यू एक महिला पत्रकार ले. तो एक महिला पत्रकार के साथ प्रभजीत सिंह और तांत्रे अगले दिन वहां पहुंचे. उन्हें शायद ही यह पता था कि सुभाष मोहल्ले में स्टोरी करने जब वे पहुंचेंगे तो वे खुद ही स्टोरी बन जाएंगे. यह उत्तर पूर्वी दिल्ली जिले का इलाका दिल्ली के अन्य इलाकों की तरह फरवरी 2020 में लक्षित हिंसा का मंच था जिसमें 50 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी और मरने वालों में अधिकतर मुसलमान थे. हजारों मुसलमान बेघर हो गए थे और उन्हें राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी थी. तब तक कोविड-19 भी आ गया था और उनमें से कई लोग वापस अपने तनावग्रस्त मोहल्लों में लौट आए थे, कई अपने घरों में, जो घर बर्बाद हो गए थे और रहने लायक नहीं थे, कभी नहीं लौट पाए.

सुभाष मोहल्ले में ऐसे ही एक मोहल्ले में जहां मुस्लिम और हिंदू लोगों का इलाका एक सड़क से बटा हुआ था वहां उस दिन भी तनाव था. 5 अगस्त की रात को हिंदुओं की तरफ वाले इलाके में भीड़ इकट्ठा हो गई. उस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और अन्य नेताओं ने अयोध्या में उस जगह राम मंदिर का शिलान्यास किया जहां पहले एक मस्जिद हुआ करती थी. सड़कों, मकानों और टेलीविजन स्टूडियो और यहां तक कि समाचार पत्रों के पहले पन्नों में उल्लास था. आलोचकों का कहना था कि यह उल्लास एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र भारत के अंत की घोषणा है. कई विद्वानों ने दावा किया कि शिलान्यास ने न सिर्फ मंदिर की आधारशिला रखी है बल्कि एक बहुसंख्यकवादी हिंदू राष्ट्र की आधारशिला भी रख दी है.

सुभाष मोहल्ले में भी उल्लास मनाया जा रहा था. हिंदू मर्दों की एक भीड़ घूम-घूम कर मुसलमानों को मोहल्ला छोड़कर जाने की धमकी दे रही थी और और जहां से मुसलमानों के घर शुरू होते हैं उस गेट पर भगवा झंडा लगा रही थी. मुसलमानों ने देरी न करते हुए पुलिस से इसकी शिकायत की. दो दिन बीत गए लेकिन पुलिस ने एफआईआर नहीं लिखी. फिर एक रात सुभाष मोहल्ले की 10 औरतें एक समूह बना कर पुलिस स्टेशन गईं और एफआईआर दर्ज करने की मांग की. उनमें से तीन को भीतर बुला लिया, जिनमें एक नाबालिग भी थी, बाकियों को बाहर इंतजार करने को कहा. उन औरतों ने हमारे पत्रकारों को बताया कि स्टेशन के अंदर पुलिस वालों ने उन्हें थप्पड़ मारा और धमकी दी. उनमें से सबसे बड़ी उम्र की औरत ने बताया कि पुलिस वालों ने युवती, जो उनकी बेटी थी, के साथ छेड़छाड़ की. पुलिस वालों ने मां के कपड़े भी फाड़ दिए. जैसे ही ये महिलाएं घर लौटीं, उन्होंने हमारे पत्रकारों से संपर्क किया और यही पहली खबर थी हमारी. जब यह खबर प्रकाशित हुई तो तीनों पत्रकार मल्टीमीडिया स्टोरी करने के लिए वापस वहां गए.

इस मुलाकात में महिला पत्रकार ने उन महिलाओं के साथ दो घंटे बातचीत की. जब वे इंटरव्यू करके लौट रहे थे तो उन्होंने देखा कि भगवा झंडे अभी भी लगे हुए हैं. जब पत्रकार उन झंडों की फोटो लेने लगे तो मिनटों में भीड़ इकट्ठा हो गई और उन्हें गालियां देने लगी. जैसे ही भीड़ को पता चला कि दो पत्रकारों में से एक मुस्लिम है तो भीड़ ने उस मुस्लिम पत्रकार के साथ मारपीट की और ली तस्वीरें डिलीट करने के लिए मजबूर किया. वे लोग लगातार सांप्रदायिक गालियां देते रहे और मार डालने की धमकी देते रहे. वह महिला पत्रकार भीड़ से जान बचाकर निकलने को हुई लेकिन उसे कपड़ों से पकड़ कर वापस भीड़ में खींच लिया गया और उसके साथ यौन हिंसा की गई. उस भीड़ में मर्द और औरत दोनों थे जिन्होंने उस महिला पत्रकारिता के सर पर, छाती पर पीछे हाथ मारा. नौजवान लड़कों ने उस महिला पत्रकार के फोटो और वीडियो लिए. अधेड़ उम्र के आदमी ने अपनी धोती उतार दी और अपना लिंग महिला पत्रकार को दिखाने लगा. फिर वह अधेड़ उम्र का आदमी अपने हाथ से अपना लिंग हिलाने लगा. महिला पत्रकार ने बाद में पुलिस में अपनी शिकायत दर्ज कराई. इस हिंसा के दौरान महिला पत्रकार ने देखा कि एक पुलिस वाला भाग कर उसकी मदद के लिए आया लेकिन उसने उस खतरे को हल्का बनाते हुए भीड़ के साथ समझौता कर लेने को कहा. उसने उस महिला पत्रकार की मदद नहीं की. सौभाग्य से जल्दी एक दूसरा पुलिस वाला आ गया जो उस महिला पत्रकार को अपनी बाइक में बिठाकर पुलिस स्टेशन ले गया. ये तीनों पत्रकार मैगजीन की उस टीम का हिस्सा थे जिसने इस साल दिल्ली में हुई मुस्लिम विरोधी हिंसा की ज्यादा स्टोरियां की थी.

इन स्टोरियों में खुलासा किया गया था कि बीजेपी के नेताओं ने कैसे हिंसा कराई. उन रिपोर्टों में ऐसे प्रत्यक्षदर्शियों के बयान थे जिन्होंने दंगाइयों से पुलिस की मिलीभगत के बारे में बताया था. हमारी फोटो और मल्टीमीडिया टीम ऐसे विजुअल और साक्षात्कार ला रही थी कि कई बार तो मेरा मन यह मानने को तैयार नहीं होता कि ये सच्ची हैं. और ऐसा इसलिए होता था क्योंकि भारत के शीर्ष समाचार पत्रों से ये खबरें गायब थीं. इनमें से अधिकतर समाचार पत्रों के कार्यालय राष्ट्रीय राजधानी में ही हैं. इन समाचार पत्रों ने उस तरह के विजुअल दर्ज नहीं किए, न वैसी रिपोर्टिंग की जैसी उन्होंने 1984 में सिख विरोधी हिंसा और 2002 में गुजरात में हुए सांप्रदायिक हिंसा में की थी.

जब अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप भारत में मौजूद थे तो भारत की राजधानी जल रही थी और उसके कुछ ही दिनों बाद कोविड आ गया और मीडिया जो उस कत्लेआम को थोड़ा-बहुत कवर कर रहा था, उसने उस कवरेज को भी रोक दिया. लेकिन प्रभजीत और शाहिद जैसे पत्रकार उत्तर पूर्वी दिल्ली में मास्क पहन कर जाते रहे, लोगों से मिलते रहे, पुलिसवालों से मिलते रहे, प्रत्यक्षदर्शियों और वकीलों से मिलते रहे. ये लगातार खबरें बाहर ला रहे थे और शायद इसीलिए उन पर इस तरह का हमला हुआ. स्टोरी के लिए पत्रकार का दोबार उसी स्थान पर जाना हमेशा एक समस्या होता है.

मैं आपको यह कहानी इसलिए बता रहा हूं क्योंकि इससे दो महत्वपूर्ण सवाल खड़े होते हैं. आप किस तरह के पत्रकार बनना चाहेंगे और आपकी उस दुनिया में जिसे कई विद्वान सत्योत्तर (पोस्ट ट्रुथ) दुनिया कहते हैं, कैसी जगह होगी. मीडिया की थोड़ी सी ही समझदारी हासिल करने से आपको पता चल जाएगा कि पारंपरिक मीडिया घरानों ने सत्ता में विराजमान लोगों के साथ छोटे से लेकर बड़े कारपोरेट, राजनीतिक या वैचारिक प्रवृत्ति के समझौते किए हैं. ऐसा करते हुए सच की पराजय हुई है और झूठ की जीत. यह उस बहुधर्म, बहुसंस्कृति, बहुभाषी भारतीय समाज की मान्यता की हार है, जो बराबरी वाला और सेक्युलर है. उसकी जगह एक बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद ने ले ली है.

यदि इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल एक व्यक्ति के निजी स्वार्थों का नतीजा था, तो आज जिस तरह से मीडिया को नियंत्रित किया जा रहा है, वह उससे ज्यादा अशुभ और खतरनाक है.

इसने व्यवस्थागत परिवर्तन शुरू कर दिए हैं जिसके परिणाम दूरगामी होंगे क्योंकि इसके पीछे एक फासीवादी ताकत की 95 साल की मेहनत है. आज भारतीय प्रेस उस उबलते मेंढक वाली कथा से बहुत आगे निकल चुका है जो गर्म पानी में बहुत देर तक बैठा रह गया था. आज वह मेंढक पक चुका है, खाने की मेज पर सज चुका है लेकिन उसे इस बात का पता तक नहीं है.

यदि इमरजेंसी के दौरान राजनीतिक विपक्ष भूमिगत रूप में सक्रिय था, तो आज स्थिति यह है कि वह विपक्ष सिर्फ सोशल मीडिया पर सक्रिय है. इसलिए किसी को इस बात का भ्रम नहीं होना चाहिए कि मीडिया को ठीक करने से भारत की तमाम समस्याएं ठीक हो जाएंगी. अनुबंध वाले राष्ट्रवाद के प्रति प्रतिबद्ध एक संवैधानिक लोकतंत्र ने बहुसंख्यकवादी राज्य के लिए रास्ता बना दिया है.

19वीं शताब्दी के जर्मनी के विद्वान जोहान केसपर ब्लंटश्चिली के विचारों का इस्तेमाल नाजियों ने बहुसंख्यकवाद को परिभाषित करने के लिए किया था. संभवतः आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर एकमात्र ऐसे भारतीय हैं जिन्होंने ब्लंटश्चिली के बहुसंख्यकवादी विचारों को ससम्मान भारतीयों के लिए पेश किया है और आज गोलवलकर की संताने भारत को हांक रही हैं.

इसे वापस पटरी पर लाने के लिए कई मोर्चों पर काम करना होगा, मुख्य रूप से राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों पर. लेकिन एक बेहतर मीडिया बनाना और खुद को पत्रकार के रूप में सुधारना महत्वपूर्ण काम है. मुझे उम्मीद है कि नौजवान भारतीय पत्रकार आने वाले दिनों की चुनौतियों का सामना करने के लिए अपना पूरा जोर लगाएंगे और इन सालों को खुद को तैयार करने में, विश्वसनीय और असरदार बनाने में लगाएंगे. मुझे आशा है कि पत्रकार कारोबारी मॉडलों के प्रयोग करेंगे, संस्थान बनाएंगे और राष्ट्र के नैतिक धरातल को पुनर्स्थापित करने की कोशिश करेंगे, जो तेजी से फासीवादियों के हाथों में जा रही है. भले ही यह ताकत आज कितनी ही छोटी क्यों न दिखाई दे रही हो. अंततः फासीवाद का मुकाबला हमेशा ही जनता की शक्ति ने किया है. फासीवाद के नैरेटिव के काउंटर में नैरेटिव खड़ा करना आज के सबसे जरूरी कामों में से एक है.

(यह बेंगलुरु के क्राइस्ट विश्वविद्यालय में आयोजित 2020 मीडिया मीट में 27 अगस्त के व्याख्यान का संपादित रूप है.)