शोभना भरतिया का हिंदुस्तान टाइम्स दोहरा रहा इतिहास

दिल्ली के बीचोबीच स्थित हिंदुस्तान टाइम्स हाउस, राजधानी का सबसे अधिक पढ़ा जाना वाला अंग्रेजी अखबार का मुख्यालय है. एल्मी फोटो
02 January, 2019

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शोभना भरतिया स्वयं को कैथरीन ग्राहम की तरह दिखाना पसंद करती हैं. उन्होंने कई इंटरव्यू और सार्वजनिक उपस्थितियों में खुद को ग्राहम से जोड़कर दिखाया है- 2015 में एक कार्यक्रम में उन्होंने "ग्राहम के साथ बेहद करीबी मेल-मिलाप और व्यक्तिगत संबंध" की बात कही थी- और स्टेनोग्राफी करने वाले रिपोर्टरों ने दोनों के बीच खूब समानताएं पेश की हैं. हिंदुस्तान टाइम्स (एचटी) मीडिया की अध्यक्ष और संपादकीय निदेशक के रूप में भरतिया हिंदुस्तान टाइम्स की प्रकाशक हैं- ये भारत में तीसरा सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला और देश की राजधानी का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला अंग्रेजी-भाषा का अखबार है. ग्राहम 1960 और 1970 के दशक में अमेरिका की राजधानी में वॉशिंगटन पोस्ट की प्रकाशक थीं. भरतिया और ग्राहम, दोनों ने अपने परिवारों से अखबार का नियंत्रण प्राप्त किया-ग्रहाम ने अपने पति से, भरतिया ने अपने पिता उद्योगपति केके बिड़ला से. ताकतवर महिलाओं के रूप में दोनों समाज और मीडिया उद्योगों में प्रभुत्व रखने वाले मर्दों के उद्योग में अग्रणी हैं और दोनों को खुद को स्थापित करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी. ग्राहम संपर्क बनाने के लिए मशहूर थीं. अपने दिनों के अमेरिकी राजनीतिक दिग्गजों से उनके बेहद अच्छे संबंध थे. ऐसे ही कौशल भरतिया का है. आज के भारत के वैसे ही लोगों के बीच उनकी गहरी पैठ है.

ग्राहम ने उन खबरों को छापने का फैसला किया जो अब पत्रकारिता के स्तंभ बन गई हैं, इनमें पेंटागन पेपर पर वॉशिंगटन पोस्ट का खुलासा भी शामिल है, जिसकी वजह से वियतनाम युद्ध में अमेरिकी सरकार की भागीदारी के झूठ का पर्दा फाश हुआ और इस समाचार पत्र ने वाटरगेट जांच का खुलासा भी किया जिसने राष्ट्रपति निक्सन का कार्यकाल को छोटा कर दिया. दोनों खबरें उनके देश के राजनीतिक अभिजात वर्ग के साथ ग्राहम के व्यक्तिगत संबंधों की भारी कीमत पर सामने आईं. हिंदुस्तान टाइम्स ने भरतिया के नेतृत्व में ऐसा कुछ भी दूर-दूर तक नहीं छापा है.

भरतिया के साथ नजदीक से काम करने वाले हिंदुस्तान टाइम्स के एक पूर्व कार्यकारी ने बताया कि 2017 की फिल्म द पोस्ट में ग्राहम को कैसे दिखाया गया है, पर्दे के पीछे का ये दृश्य बताता है कि वॉशिंगटन पोस्ट ने कैसे पेंटगॉन पेपर्स को छापा. पूर्व कार्यकारी ने कहा कि फिल्म के पहले भाग में ग्राहम काफी हद तक "शोभना की तरह हैं- दोनों के बीच समान बातें पार्टियां, सरकार से लोहा लेने में हिचकिचाहट, नैतिक दुविधा हैं." चुप रहकर अपने ताकतवर दोस्तों खुश करने और इसे छापकर पत्रकारिता में स्टैंड लेने के बीच चुनने को मजबूर ग्राहम ने दूसरा विकल्प चुना. उन्होंने कहा, "दुर्भाग्य से एचटी की कहानी के अंत में ऐसा नहीं होता."

टाइकून विजय माल्या यूनाइटेड किंगडम से भारत में प्रत्यर्पण की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनके खिलाफ लगे आरोपों में धोखाधड़ी भी शामिल है, वो इस सितंबर लंदन कोर्ट के सामने सुनवाई के लिए पेश हुए. रास्ते में उन्होंने रिपोर्टरों से कहा कि मार्च 2016 में भारत से भागने से पहले उन्होंने वित्त मंत्री अरुण जेटली को अपने कर्ज को सुलझाने के लिए एक सौदा करने का प्रस्ताव दिया था. अदालत ने घोषणा की कि वो 10 दिसंबर को माल्या के मामले में फैसला देगी, लेकिन ज्यादातर मीडिया के लिए 9000 करोड़ रुपए के बकाया वाले इस व्यक्ति की कहानी में यह खबर सिर्फ एक और बात बन गई- जिसे वित्त मंत्री से हुई बातचीत के तुरंत बाद भागने की इजाजत दी गई.

अगली सुबह द टेलीग्राफ ने अपने पहले पन्ने का आधा हिस्सा "द जेटलैग" के शीर्षक के साथ माल्या के खुलासे को समर्पित कर दिया और इसका उपशीर्षक था, "माल्या ने सरकारी भूलभुलैया में सुधार कर बताया कि वो जेटली से कैसे मिले." इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने की हेडलाइन थी, "माल्या का दावा कि वो भागने से पहले जेटली से मिले और समझौते की पेशकश की, वित्त मंत्री ने कहा ये झूठ है, मैंने उसे झिड़क दिया था." हिंदुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने की एक हेडलाइन में लिखा था, "माल्या प्रत्यर्पण मामले का फैसला 10 दिसंबर को आएगा." इसके नीचे की खबर में अदालत के बाहर माल्या की टिप्पणी के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया था और मुख्य पैराग्राफ के हिस्से के रूप में वित्त मंत्री के साथ उनकी मुलाकात वाले बयान को सिर्फ हल्के में समझाया गया था. अगले चार पैराग्राफ जेटली की प्रतिक्रिया को समर्पित थे: जिसमें कहा गया था कि कोई औपचारिक बैठक नहीं हुई थी, माल्या राज्यसभा में अचानक से उनके पास आ गए थे- जब माल्या राज्यसभा के सदस्य थे और जेटली अभी भी हैं- और उन्होंने माल्या से बात करने से इनकार कर दिया था. खबर में ये बताया गया था कि माल्या ने कोर्ट में अपनी बात के कुछ घंटों बाद उपजे "अनावश्यक विवाद" को खारिज कर दिया था.

वित्त मंत्री अरुण जेटली शोभना भरतिया के निजी सर्कल में बेहद अहम हैं. मार्केटिंग मैन सुहेल सेठ ने भरतिया को जेटली और उनका "कॉमन दोस्त" में से एक बताया. कमल सिंह/पीटीआई

ये साफ नहीं है कि हिंदुस्तान टाइम्स में ये खबर इस तरह से कैसे छपी. लेकिन अगर ये शीर्ष संपादकीय में शामिल लोगों से होकर गुजरा है, तो इस पर कई महत्वपूर्ण लोगों का ध्यान गया होगा. उनमें से एक शिशिर गुप्ता होंगे- हिंदुस्तान टाइम्स के कार्यकारी संपादक और समाचार पत्र के कई पत्रकारों और संपादकों के मुताबिक अख़बार के एडिटर- इन-चीफ बॉबी घोष के पिछले सितंबर में अनौपचारिक विदाई के बाद से न्यूजरूम में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति.

गुप्ता ने अपने करियर को राष्ट्रीय सुरक्षा को कवर करके बनाया जो कि कुख्यात रूप से आधिकारिक स्रोतों पर निर्भर बीट है. बीट पर एक अन्य पत्रकार के मुताबिक, गुप्ता दशकों से अजीत डोभाल के करीबी रहे हैं- डोभाल वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और जेटली के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बेहद करीबी लोगों के सर्कल में शामिल हैं. पिछले साल फ्रंटलाइन मैगजीन ने एक ईमेल छापा था जिसे गुप्ता ने 2015 में प्रधानमंत्री कार्यालय में दो वरिष्ठ लोगों को भेजा था. उनमें से एक मोदी के टॉप लेफ्टिनेंट और भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह थे. इसमें गुप्ता ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और मोदी और बीजेपी के धुर प्रतिद्वंद्वी द्वारा "उल्लंघन के नौ" उदाहरणों की लिस्ट बनाते हुए "दिल्ली सरकार में चर्चा" की जानकारी दी थी. उन्होंने चेतावनी दी कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में "केजरीवाल केंद्र की सभी शक्तियों को रद्द करने की कोशिश कर रहे" हैं. हालांकि ईमेल में एक भी सवाल नहीं था लेकिन गुप्ता ने फ्रंटलाइन को बताया कि ये एक ऐसी खबर के लिए जबाव से जुड़ा मेल था जिसे वो लिखने वाले थे. 2016 में संजय भंडारी और उनके बीच 478 फोन कॉल्स की बात सामने आई. भंडारी हथियारों का संदिग्ध सौदागर है और वर्तमान में आधिकारिक गुप्त अधिनियम के उल्लंघन के मामले में जांच के दायर में है.

माल्या की खबर की भी जांच की घोष के उत्तराधिकारी के तौर पर एडिटर-इन-चीफ बने सुकुमार रंगनाथन और तब अखबार के राजनीतिक संपादक प्रशांत झा द्वारा भी की गई होगी. पिछले साल एक दशक तक मिंट के संपादक रहने के बाद रंगनाथन हिंदुस्तान टाइम्स चले गए, मिंट एचटी मीडिया का आर्थिक अखबार है. तकनीकी रूप से संपादकीय पद क्रम में वो गुप्ता से ऊपर है, हालांकि ऐसा असल में नहीं है. एक पूर्व सहयोगी को सेक्सुअली आपत्तिजनक मैसेज भेजने का आरोप लगाने के बाद अक्टूबर में झा ने राजनीतिक संपादक के रूप में अपना पद छोड़ दिया. ब्यूरो की बैठकों में शामिल एक संपादक ने मुझे बताया, “इससे पहले न्यूजरूम में झा का मुख्य काम ये था कि वो "चुप चाप बैठे रहते और कुछ भी नहीं करते", जबकि गुप्ता "सीधे राजनीतिक ब्यूरो को आदेश देते."

झा ने ईमेल की गई एक प्रश्नावली के जवाब में मुझे बताया कि ये बात कि गुप्ता राजनीतिक ब्यूरो की कमान संभालते थे और उनके आदेशों को दरकिनार कर देते थे, गलत है. उन्होंने कहा, “ब्यूरो मुझे रिपोर्ट करता था और मैं एडिटर-इन-चीफ को.” झा ने साफ किया कि पद त्यागने के बाद उसके पास अब कोई प्रबंधकीय जिम्मेदारियां नहीं हैं, हालांकि वह अखबार से जुड़े हुए हैं.

हिंदुस्तान टाइम्स पद क्रम में गुप्ता, रंगनाथन और झा के ऊपर संपादकीय अधिकार का एक और स्तर है- यहां संपादकीय निदेशक के तौर पर कब्जा जमाए भरतिया मौजूद हैं. चलन के मुताबिक भरतिया को शाम को आठ बजे फोन पर अगले दिन के अखबार में जाने वाली खबरों की जानकारी दी जाती है- खासकर वो खबरें जो पहले और संपादकीय पन्नों पर जाने वाली हैं. उनके संपादकों ने यहां से जा चुके सहयोगियों की एक लंबी लिस्ट के उदाहरणों से सीखा है कि भारतीय हिंदुस्तान टाइम्स से उम्मीद करती है कि अखबार उनके दोस्तों में शामिल अच्छे नामों के साथ बुरा ना करे- जिनमें अरुण जेटली शामिल हैं- या अखबार सत्ता को ललकारे.

लगभग एक दशक तक भरतिया के साथ काम करने वाले एक संपादक ने मुझे बताया, “वो 8 बजे का कॉल? वो किन कहानियों के बारे में चिंतत रहती है? उन लोगों से जुड़ी खबरें जिनसे उनकी पार्टियों में मुलाकात हो जाएगी. बस इतना ही.” हिंदुस्तान टाइस्म सिर्फ इसलिए चल रहा है ताकि “भरतिया दिल्ली के दिग्गजों के साथ मेल-जोल बनाए रख सकें.”

उस समय से जब से शोभना भरतिया ने राष्ट्रीय राजधानी के दिल में स्थित हिंदुस्तान टाइम्स हाउस की दूसरा मंजिल के कार्यालय पर कब्जा जमाया है- और उससे काफी पहले से भी अखबार को कांग्रेस का दूसरा नाम माना जाता है. अखबार का दावा है कि मोहनदास गांधी ने 1924 में इसके उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता की थी और इतिहास में इसे सबसे लंबे समय तक अपनी सेवा देने वाले संपादक गांधी के बेटे देवदास थे. आपातकाल के दौरान केके बिड़ला ने पेपर के उस संपादक को बर्खास्त कर दिया जिन्होंने इंदिरा गांधी के शासन की आलोचना करने की हिम्मत की थी. बिड़ला इंदिरा गांधी के प्रति इतने समर्पित थे कि उन्हें बाद में देश से भागना पड़ा, वो तब भागे जब इंदिरा को प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा और भागने के पीछे की वजह लोकतंत्र पर हमला करने में इंदिरा की भूमिका को बढ़ावा देने के लिए गिरफ्तारी का डर था. 1984 में देश लौटने के बाद वो कांग्रेस के सदस्य बने और राज्यसभा के लिए चुने गए. भरतिया भी राज्यसभा के सदस्य रही हैं और उन्हें भी कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार द्वारा वहां भेजा गया था.

पहले देखने पर अखबार का मोदी सरकार के लिए हुए झुकाव के बादलाव की प्रक्रिया अद्भुत लग सकती है लेकिन इसके आंतरिक काम के अंदाज के बीते कल और वर्तमान को नजदीक से देखने पर इसके बार ठीक ऐसा ही नहीं लगता. 2014 में सरकार के बदलाव के बाद हिंदुस्तान टाइम्स में जो कुछ भी हुआ है उसने पेपर के इतिहास में मौजूद पैटर्न को दोहराया है.

केके बिड़ला ने राजनीतिक करियर लॉन्च करने के लिए एक असफल प्रयास में पेपर का इस्तेमाल किया. हिंदुस्तान टाइम्स द्वारा इंदिरा गांधी को नाराज किए जाने के बाद एस मुळगांवकर और बीजी वर्गीज जैसे सम्मानित संपादकों को जाना पड़ा. खुशवंत सिंह को इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत सिफारिश पर संपादक नियुक्त किया गया. राजीव गांधी के शासन के बाद के सालों में प्रेम शंकर झा को कांग्रेस के चिर प्रतिद्वंद्वी वीपी सिंह को नुकसान पहुंचाने के अभियान में हिस्सा लेने से इनकार करने के लिए संपादकीय पद से हटा दिया गया.

1980 के दशक के अंत में प्रेम शंकर झा के जाने के समय भरतिया हिंदुस्तान टाइम्स में एक युवा कार्यकारी अधिकारी थीं. तब से ही उन्होंने सत्ता को नाराज करने वाले संपादकों की बलि लेने की परंपरा को जारी रखा है जिसका ताजा शिकार घोष हैं. घोष की विदाई से पहले प्रधानमंत्री कार्यालय में भरतिया और नरेंद्र मोदी के बीच एक बैठक हुई थी. उस बैठक की बातें सार्वजनिक नहीं की गईं और प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव ने इनकार करते हुए कहा कि इसका घोष से कोई संबंध नहीं था. लेकिन भरतिया के साथ काम करने वाले एक पूर्व कार्यकारी ने मुझे बताया, मुलाकात के बाद भरतिया को आने वाले अमित शाह के कॉल्स की संख्या में इजाफा हुआ और मोदी के प्रधान सचिव का भी जो अखबार द्वारा की जा रही सरकार की कवरेज की शिकायत करते.

घोष की विदाई से पहले भरतिया की मोदी से मुलाकात की साफ वजह ये थी कि वो प्रधानमंत्री को हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप शिखर सम्मेलन में आमंत्रित करना चाहती थीं. इसकी सालाना कार्यक्रम से उन्हें ये फायदा हुआ कि उन्हें-फेसबुक, ह्युंडई और यस बैंक जैसे बड़े प्रायोजक मिले-इसमें खेल और मनोरंजन जगत के दिग्गजों के अलावा सरकार के आला अधिकारी और नेता शामिल हुए- ये वहीं लोग है जिनकी खबर लेना हिंदुस्तान टाइम्स का काम है. कुछ महीने पहले टाइम्स ऑफ इंडिया और इकोनॉमिक टाइम्स चलाने वाले टाइम्स ग्रुप द्वारा इसी तरह के एक इवेंट का मोदी और शाह ने बंटाधार किया था, उन्होंने अंतिम क्षण में इसके बहिष्कार की घोषणा की थी. इसे सबने टाइम्स ग्रुप के अखबारों द्वारा सरकार की कवरेज पर उनकी नाराजगी भरी प्रतिक्रिया के तौर पर लिया था. घोष की विदाई के घोषणा के कुछ महीनों बाद मोदी हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप शिखर सम्मेलन में भरतिया के साथ मंच पर दिखाई दिए.

ये शिखर सम्मेलन जो कि डेढ़ दशक से ज्यादा समय से चल रहा है, वो एकमात्र ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां भरतिया के व्यापारिक हित सत्ता में सरकार के संरक्षण पर निर्भर करते हैं. हिंदुस्तान टाइम्स विज्ञापनों पर सरकारी खर्च से अपने राजस्व का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करता है. ये पैसा केंद्र सरकार के विज्ञापन निदेशालय और दृश्य प्रचार, विभिन्न राज्य सरकारों के प्रचार निदेशकों और देश भर में सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कई निगमों और संस्थानों से आता है. भरतिया के हिंदी दैनिक अख़बार हिंदुस्तान के लिए भी यही बात सच है, जो उत्तर भारतीय राज्यों में जमकर बिकता है.

जब भरतिया ने व्यक्तिगत रूप से नरेंद्र मोदी को 2017 हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप शिखर सम्मेलन में आमंत्रित किया और प्रधानमंत्री इस कार्यक्रम में उपस्थित हुए, हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक अचानक चले गए. गुरिंदर ओएसएएन/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

भरतिया ने हिंदुस्तान टाइम्स के व्यापारिक हितों को काफी अच्छे से संभाला है. उनके नेतृत्व में पेपर को टाइम्स ऑफ इंडिया से दिल्ली में अपने पारंपरिक गढ़ में अपनी स्थिति बरकरार रखने की चुनौती मिली. यह दिल्ली के बाहर भी फैला है जिससे इसे एक राष्ट्रीय अखबार का दर्जा मिलता है. और लगातार भारी मुनाफा लाया है, भले ही टाइम्स ऑफ इंडिया ने राष्ट्रीय स्तर पर बड़े पैमाने पर फायदा हासिल किया हो. भारती के मीडिया होल्डिंग्स से परे, उनके परिवार के पास अन्य हितों का एक लंबा पोर्टफोलियो भी है. उनके पति श्याम सुंदर भरतिया और उनके भाई हरि जुबिलेंट भारती ग्रुप के संस्थापक हैं. समूह के कारोबार में फार्मसूटिकल कारखाने, फास्ट फूड रेस्तरां, लक्जरी कार डीलरशिप जैसे अन्य व्यापार शामिल हैं, जो कुल मिलाकर अरबों डॉलर के हैं. जुबिलेंट भरतिया ग्रुप दिवालिया हो चुके एक ऑफशोर ड्रिलिंग उद्यम को भी चलाता था जिसे सरकारी बैंकों से 1340 करोड़ रुपए के ऋण की माफ़ी मिली.

भारतीय व्यापार और नौकरशाही की एक वास्तविकता ये है कि इसे हर क्षेत्र में राजनीति और सरकार में दोस्तों के एक तय समूह को बनाए रखने की ज़रूरत होती है. और सरकार को ज़रूरत पड़ने पर कभी भी इसे चोट पहुंचाने के रास्ते खोले रखती है. संपादकीय नेतृत्व में कई साल बिताने वाले संपादक ने मुझे बताया, “अन्य व्यावसायिक हितों वाले मीडिया मालिकों ने अपने कारोबार का विस्तार किया है, वहीं राजनीतिक ताकत हासिल करने के लिए मीडिया का इस्तेमाल हथियार के रूप में किया है.” उन्होंने कहा कि जहां पिछली सरकारों ने मीडिया को रोकने के लिए प्रलोभन का इस्तेमाल किया था, इस सरकार ने डर का इस्तेमाल करना पसंद किया और अपमानित करने वालों के पीछे जांच एजेंसियों और टैक्स अधिकारियों को लगा दिया. उन्होंने कहा, “इसके पहले मालिकों को लगातार इसका डर नहीं रहता था कि उनपर रेड पड़ जाएगी लेकिन अब ऐसा है.”

पैसे कमाने के लिए सम्मेलन, सरकारी प्रचार पर निर्भरता, मालिकों का गैर- पत्रकारिता संबंधी और अक्सर राजनीतिक हितों को बढ़ावा देना- ये सब भारत के मुख्यधारा के अखबरों में आम बातें हैं. हिंदुस्तान टाइम्स ऐसा नाटक करता है कि वो इन समझौते के बावजूद पत्रकारिता की चमकती रोशनी हो सकता है. एक तरफ जहां टाइम्स ग्रुप के प्रबंध निदेशक विनीत जैन ने 2012 में एक पत्रकार को बेझिझक बताया कि "हम अखबार के बिजनेस में नहीं हैं, हम विज्ञापन बिजनेस में हैं," भरतिया के अखबार ने कई सालों से टाइम्स ऑफ इंडिया की व्यावसायिक सफलता का पीछा करने की कोशिश की है लेकिन उनके कैथरीन ग्राहम बनने का शौक अब भी बरकरार है.

हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक इस बात के बीच फंस जाते हैं कि उनके मालिक अखबार को कैसे देखना चाहते हैं और यह असल में क्या है. पत्रकारिता के सम्मान को बढ़ावा देने के लिए थोड़ी अंतराल में एक बड़े नाम के संपादक को लाया जाता है, जबकि बाकी सब जस का तस बना रहता है. लंबे समय से नए व्यक्ति-जो कि हमेशा से एक मर्द रहा है-के लिए अख़बार को चलाने की सोच इसके मालिक और सरकार के साथ मेल नहीं खाती. तनाव थोड़ी देर के लिए बना रहता है, फिर संपादक को हटा दिया जाता है और मालिकों अपने लिए थोड़ा लचीला संपादक ढूंढ लेती हैं. इसके बाद इतिहास खुद को दोहराता रहता है.

सामाजिक, राजनीतिक और वित्तीय पूंजी से अलग कम से कम एक फायदा है जिसकी उम्मीद भरतिया अपने अखबार से करती हैं-ये है यात्राओं का समाधान.

जब वो दिल्ली की ट्रैफिक में फंस जाती हैं तो अखबार के मेट्रो संपादक को कॉल करती हैं. इस तरह के कॉल्स की जानकारी वाले एक पूर्व पर्यवेक्षण संपादक ने मुझे बताया, “उम्मीद रहती है कि मेट्रो संपादक सिटी रिपोर्टर को फोन करेगा जो ट्रैफिक पुलिस में किसी को जानता होगा, जो वहां संदेश पहुंचा देता जहां मैडम बी की ऑडी फंसी है और मैं क्या ही कहूं. मुझे नहीं पता कि वो उस फोन कॉल के बाद किस नतीजे की उम्मीद करती हैं.”

पूर्व पर्यवेक्षण संपादक ने आगे कहा जिन चीजों की मेट्रो संपादक द्वारा किसी भी तरह से किए जाने की उम्मीद है, “उनमें आश्रम पर लगे ट्रैफिक को ठीक करना है” क्योंकि भरतिया “घर लौटने के दौरान अक्सर उस जाम में फंस जाती हैं.”

पूर्व कार्यकारी जो "श्रीमती बी" के साथ मिलकर काम करते थे, उनके कई कर्मचारी उन्हें इसी नाम से जानते हैं, ने मुझे बताया कि एविएशन रिपोर्टरों को इसलिए कॉल किए गए हैं ताकि बी के प्राइवेट जेट को बिना इंतजार के लाइन तोड़कर उड़वाया जा सके. उन्हें भरतिया के आने के तय समय पर हवाई अड्डे पर दृश्यता की जानकारी रखने की उम्मीद की जाती है, ताकि संभावित देरी की स्थिति में उनके प्लान को बदला जा सके. एक पूर्व एविएशन रिपोर्टर ने कहा, “सर्दियों में दिक्कत होती है, क्योंकि धुंध की भविष्यवाणी सही से नहीं मिल पाती है.”

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भरतिया ने 11 सितंबर 2017 को हिंदुस्तान टाइम्स में कर्मचारियों को लिखा, “मैं इस बात को बताते हुए बेहद निराश हूं कि बॉबी घोष व्यक्तिगत कारणों से न्यूयॉर्क लौट रहे हैं.” उसी दिन घोष ने अपने फेसबुक पेज पर भरतिया के नोट को पोस्ट किया. उन्होंने जुलाई 2016 में संपादक नियुक्त किए जाने के सिर्फ 14 महीने बाद की विदाई के कारणों के बारे में कुछ भी नहीं लिखा.

घोष न्यूयॉर्क से आए थे, जहां वह समाचार वेबसाइट क्वार्ट्ज के प्रबंध संपादक थे. उन्होंने टाइम पत्रिका के लिए एक संवाददाता और संपादक के रूप में खुद की पहचान बनाई थी और अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता सर्किल के लोगों से अच्छी तरह से जुड़े हुए थे.

उनके आने से हिंदुस्तान टाइम्स के पास मोदी सरकार की कवरेज से जुड़े कुछ ही हाइलाइट्स थे. पूर्व कार्यकारी ने कहा कि जब मोहम्मद अख्लाक नाम के एक मुस्लिम व्यक्ति की इस झूठी अफ़वाह के बाद उत्तर प्रदेश के दादरी में हत्या कर दी गई कि वो अपने घर में गोमांस छुपा रहा था, “ये पूरी जानकारी के साथ अखबार के पहले पन्ने पर था. हमने दादरी की अपनी कवरेज से कोई छेड़छाड़ नहीं की.” कुछ महीने बाद अखबार में हैदराबाद विश्वविद्यालय में एक दलित स्कॉलर रोहित वेमुला की आत्महत्या की भी पूरी कवरेज थी और सरकारी प्रशासकों और बीजेपी नेताओं द्वारा उसके प्रति रवैये को लेकर क्रोध भी था. लेकिन सितंबर 2016 तक चीजें बदल गईं, जब सरकार पाकिस्तान अधिकृत कश्मरी में विवादास्पद “सर्जिकल स्ट्राइक” का नगाड़ा पीटने लगी. पूर्व कार्यकारी अधिकारी ने कहा कि तभी भरतिया को प्रधानमंत्री कार्यालय और अमित शाह के फोन आने लगे.

इन अटकलों के बीच कि घोष को क्यों जाना पड़ा, सबका ध्यान हेट ट्रैकर की तरफ गया, ये हिंदुस्तान टाइम्स की वेबसाइट पर लोगों द्वारा दी जाने वाली जानकारी आधारित डेटा बेस था जिससे "धर्म, जाति, प्रजाति, जातीयता, उत्पति के क्षेत्र, लिंग की पहचान और यौन अभिविन्यास आधारित हिंसा के कृत्यों, हिंसा के खतरे और हिंसा के लिए उत्तेजित किए जाने की जानकारी मिलती थी.” 2017 के मध्य में लॉन्च हुए हेट ट्रैकर में दादरी लिंचिंग के समय तक की घटनाओं की जानकारी दी जा सकती थी. गोरक्षकों द्वारा और सांप्रदायिक हिंसा में हत्या तब तक राष्ट्रीय समाचार का नियमित हिस्सा बन गए था, क्योंकि मोदी सरकार ने सत्ता संभालने के बाद से कट्टरपंथी फैलाव को रोकने से इंकार कर दिया था.

संपादकीय नेतृत्व में कई साल बिताने वाले संपादक ने कहा, “एक तरफ जहां बाकी की सरकारें उचित संयम की मांग करती थीं, ये सरकार पूरे संयम की मांग करती है.”

मोदी सरकार में हिंसक अपराधों को ट्रेक करने वाला द हेट ट्रेकर बिना किसी कारण गायब हो गया.

मोदी सरकार के तहत हो रहे घृणित अपराधों का लोगों की जानकारी पर आधारित डेटाबेस हेट ट्रैकर हिंदुस्तान टाइम्स की वेबसाइट से बिना स्पष्टीकरण के गायब हो गए.

हिंदुस्तान टाइम्स में घोष के लगभग पूरे कार्यकाल के दौरान उनके तहत काम करने वाले एक संवाददाता ने मुझे बताया, “वो ऐसे संपादक थे जो आपकी ख़बर के लिए भिड़ जाते थे. लेकिन वो भारतीय राजनीति को नहीं समझ पाए. उनके पास इसकी सतही समझ थी कि चीजें कैसी हैं और उन्होंने गहरे जाने की ज़हमत नहीं उठाई.”

घोष की विदाई के बाद न्यूजरूम को फिर से तैयार करने के प्रयोग का अंत हो गया. जिसे तितली परियोजना कहा जाता था वो उन्हें संपादक के रूप में विरासत में मिली और उन्होंने इसे जारी रखा- ये हिंदुस्तान टाइम्स को प्रिंट के इसके पारंपरिक मुख्य आधार से दूर मुख्य रूप से डिजिटल कॉन्टेंट की ओर ले जाने से जुड़ा एक कदम था. हिंदुस्तान टाइम्स हाउस की पहली मंजिल को नए वर्कस्टेशन और एक नए कॉन्टेंट मैनेजमेंट सिस्टम के साथ फिर से तैयार किया गया. सितंबर 2016 तक पेपर के मुख्य संपादकीय अधिकारी निकोलस डॉवेस ने मुझे बताया, “यह जगह की पूरी संस्कृति को बदलने के लिए था. कोई ऑफ़िस नहीं होगा और वरिष्ठ संपादक चर्चा करेंगे और खुले बैठकों में संपादकीय फैसले लेंगे जिसमें कोई भी शामिल हो सकता है.” घोष ने मल्टीमीडिया पत्रकारों और एक नई राष्ट्रीय मामलों की टीम सहित प्रयास के हिस्से के रूप में नए लोगों को काम पर रखा.

इन कदमों ने दिल्ली में उत्साह पैदा किया लेकिन देश के पेपर के बाकी ऑफ़िसों में हाल बिल्कुल उल्टा था. एचटी मीडिया ने खर्चों को कम करने के तरीकों के लिए एक परामर्श फर्म बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप को रखा था-बावजूद इसके की कंपनी की कमाई में कोई कमी नहीं आई थी. 2017 की शुरुआत में छंटनी के तहत कई व्यूरो और सिटी एडिशन को बंद कर दिया गया. प्रबंधन हवाला देते हुए इसे "त्वरित डिजिटलकरण की ओर बढ़ने" और "दिल्ली में एक अत्याधुनिक और हाई-टेक न्यूज़रूम के निर्माण" का प्रयास बताया.

उस समय भारती के साथ मिलकर काम कर रहे एक संपादक ने कहा, “देखिए, शोभना की मंज़ूरी के बिना इस तरह का कोई फैसला नहीं लिया जाएगा. लेकिन मुझे लगा कि ये राजीव और प्रियव्रत के दिमाग की उपज थी.” राजीव वर्मा इस साल की शुरुआत तक एचटी मीडिया के सीईओ थे. भरतिया के दो बेटों के बड़े प्रियव्रत कंपनी के निदेशक हैं.

संपादक ने आगे कहा, “संपादकीय पक्ष से कोई भी उन लोगों से लगने में रुचि नहीं रखता था. फिर क्या हुआ कि बिज़नेस वाले लोग जो न्यूजरूम के काम के बारे में बहुत कम जानते थे, बीसीजी के लोगों के साथ एक टेबल पर बैठे और पूरे ब्यूरो को समाप्त करने का फैसला किया.”

संपादकीय कर्मचारियों के प्रमुख घोष तब इस फैसले के रास्ते में खड़े नहीं हुए जब कम से कम 50 पत्रकारों को निकाल दिया गया, जिसका खासा असर कवरेज पर पड़ा. मुख्य कॉन्टेंट अधिकारी राजेश महापात्रा ने भी यही किया. कितनी नौकरियां गईं इसका पता नहीं. हाल ही में अख़बार छोड़ने वाले दो संपादकों ने कहा कि 100 से अधिक कर्मचारियों ने या तो छोड़ दिया है या इस वर्ष की शुरुआत के बाद उन्हें जाने के लिए कहा गया.

घोष की विदाई के बाद सबसे पहले डिजिटल की रणनीति-जिसपर करीब 100 करोड़ रुपए का खर्च आया था-पूरी तरह से त्याग दी गई.

घोष अपने भाग्य से पूरी तरह आश्चर्यचकित नहीं हुए होंगे. जब उन्हें संपादक के काम की पेशकश की गई तो वो दिल्ली में घूमे और दोस्तों और हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व पत्रकारों से मुलाकात करके पूछा कि क्या उन्हें ये करना चाहिए. जिन लोगों से उनकी मुलाकात हुए उनमें से एक ने याद करते हुए कहा कि घोष ने कहा था, “मैंने कुछ बेहद बुरी बातें सुनी हैं.” उन्हें बताया गया कि अगर भरतिया उनके साथ हैं तो चिंता की कोई बात नहीं है.

भरतिया के साथ काम के दौरान आधा दशक बिताने वाले एक संपादक ने मुझे बताया, “एक खबर के बारे में बात करने और उसकी ख़ासियत के बारे में मनाने के लिए शोभना से मिलना हमेशा संभव रहा है. लेकिन ये तय नहीं है. वो सुन सकती है, या नख़रे कर सकती हैं. यह उसके मूड और उस व्यक्ति की सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता है जिससे वो बात कर रही हैं.” अपने वैश्विक साख के साथ दास की सामाजिक स्थिति बहुत मज़बूत थी. लेकिन ये उन्हें सिर्फ यहीं तक लेकर आया.

एक डेस्क संपादक, जिसने दोनों लोगों के साथ काम किया था, ने मुझे बताया, “बॉबी की विदाई के बाद पहले संपादकीय निर्णय में सुकुमार हेट ट्रैकर को बंद कर दिया. आपको पता है, वो सिर्फ इसे अपडेट करना बंद करने तक भी रहने दे सकते थे.” एडिटर ने कहा, “लेकिन उन्हें तो इसे वेबसाइट से हटाना था.”

घोष की विदाई के दो दिन बाद राजेश महापात्रा की तरफ से कर्मचारियों को एक ईमेल में कहा गया कि "अगली सूचान तक हेट ट्रैकर से जुड़े किसी ट्वीट् को रीट्वीट न करें." घोष के नंबर दो के रूप में महापात्रा न्यूजरूम में हर दिन के काम के प्रभारी थे और कई लोगों के मुताबिक निकोलस डॉवेस के साथ-साथ डिजिटलिकरण के मुख्य आर्किटेक्ट्स में से एक थे.

घोष के बाद महापात्रा भी लंबे समय तक नहीं टिक पाए. न्यूजरूम के एक संपादक के मुताबिक नए संपादक के रूप में नौकरी में कुछ दिन सुकुमार रंगनाथन ने अपने डेस्क संपादकों को महापत्रा को फोन करने का निर्देश दिया और कहा कि "हमें अब उनके कॉलम की जरूरत नहीं है." उनके कार्यालय को जल्द ही दिल्ली संपादक से कार्यकारी संपादक बनाए गए कुणाल प्रधान को दे दिया गया और महापात्रा को "एडिटर-इन-लार्ज" बना दिया गया. बाद में उन्होंने हिंदुस्तान टाइस्म को पूरी तरह से अलविदा कह दिया.

इस दौरान न्यूजरूम में काम करने वाले एक रिपोर्टर ने मुझे बताया, “घोष और महापात्रा ने सबसे बड़ा काम ये किया कि उन्होंने शिशिर गुप्ता को दरकिनार कर दिया.” फिर भी गुप्ता दूसरी मंजिल पर बैठने लगे जहां भरतिया के पास उनका ऑफ़िस था. यही वो समय था जब सबको पता चला कि गुप्ता प्रधानमंत्री कार्यालय और अमित शाह की खुफिया निगाह के तौर पर काम कर रहे हैं. बावजूद इसके वो हिंदुस्तान टाइम्स में बने रहे.

घोष और महापात्रा के जाने के बाद गुप्ता के पास अपना टैलेंट दिखाने की भरपूर स्वतंत्रता थी. उनके तहत काम करने वाले दो रिपोर्टरों ने बताया कि गुप्ता ने एक मुस्लिम रिपोर्टर से कहा था कि अगर रिपोर्टर सच में अपने दिल की बात बोलता है, “तो वो यूएन सिक्योरिटी काउंसिल चला जाए.”

पिछले साल गुप्ता पत्रकारिता छोड़ बीजेपी में शामिल हुए एक नेता की मदद को तब आगे आए जब नेता के बेटे को कार दुर्घटना में शामिल होने की वजह से गुरुग्राम पुलिस ने पकड़ लिया था. गुप्ता ने अपने एक रिपोर्ट को पुलिस के लोकल कमिशनर को फोन करके बताने को कहा कि जिसे गिरफ्तार किया गया है उसका बाप कौन है. रिपोर्टर ने याद किया कि गुप्ता ने फोन पर चिल्लाते हुए कहा, “कमिश्नर को जा के बताओ कि बहनचोद इसका बाप कौन है.” जैसे ही रिपोर्टर ने गुप्ता का नाम लिया सब कुछ संभाल लिया गया. पुलिस ने घायल पार्टी को शिकायत दर्ज नहीं कराने के लिए राजी कर लिया और एक कॉन्स्टेबल ने पुलिस जीप में नेता के बेटे को घर छोड़ दिया.

शिशिर गुप्ता अब न्यूजरूम में सबसे शक्तिशाली व्यक्ति हैं. एक लीक ईमेल से पता चला है कि 2015 में उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय को "दिल्ली सरकार में चर्चा" की जानकारी दी. हालांकि ईमेल में एक प्रश्न नहीं था लेकिन गुप्ता ने कहा कि उन्होंने इसे जवाब मांगने के लिए भेजा था. कारवां/ध्रुबा दत्ता

गुप्ता के ऊपर उनकी प्रभावी स्थिति के बावजूद रंगनाथन हिंदुस्तान टाइम्स में बेझिझक आत्मविश्वास के साथ आए. बैठक में मौजूद एक संपादक ने मुझे बताया, “कर्मचारियों के साथ अपनी पहली संपादकीय बैठक में उन्होंने कहा कि फिल्हाल तो अखबार काफी बकवास है.” लेकिन रंगनाथन ने कहा कि वह इसे बदलने जा रहे थे, संपादक ने याद किया, क्योंकि, अपने अनुमान से, वह "देश में सबसे अच्छा संपादक" है. सपांदक ने कहा कि रंगनाथन ने एक और बैठक में कहा कि उन्हें संपादित करते देखना "बीथोवेन को संगीत कम्पोज करते देखने जैसा है," और जल्द ही "पेपर में न्यूयॉर्क टाइम्स की गुणवत्ता होगी."

रंगनाथन के पदभार संभालने के बाद न्यूजरूम में जमकर आंतरिक संघर्ष बढ़ा है. घोष के कई कर्मचारियों ने पेपर छोड़ दिया है. रंगनाथन ने पेपर के कर्मचारियों के साथ एक बैठक में घोषणा की कि संपादकीय पृष्ठ के संपादक "न्यूजरूम के ब्राह्मण" हैं, लेकिन उनकी पत्रकारिता जाति व्यवस्था ने उन्हें अधिक स्वतंत्रता की अनुमति नहीं दी है. अखबार में उन्होंने खुद की एक टीम के लिए रोजमर्रा के उत्पादन के दौरान संपादकीय फैसलों को सुरक्षित रखा. इस टीम में उनके अलावा प्रधान, प्रबंध संपादक सौम्या भट्टाचार्या और इस्तीफे के पहले राजनीतिक संपादक प्रशांत झा शामिल थे.

इससे असहज स्थिति पैदा हो गई क्योंकि एक तथ्य ये भी था कि पूरी टीम मर्दों से भरी थी. एकमात्र महिला हिंदुस्तान टाइम्स में एक वरिष्ठ संपादकीय पद पर संपादकीय पृष्ठ की प्रभारी ललिता पनीकर थीं. घोष के समय में भी महिला नेतृत्व में नहीं थीं, पर घोष और रंगनाथन दोनों के तहत काम करने वाले एक संपादक ने कहा, "लेकिन घोष के दौर में ललिता को अपना काम करने की पूरी आजादी थी."

जब पिछले साल का लीडरशिफ समिट करीब आया तो उसी संपादक ने कहा कि “काफी व्यापक तौर पर छोड़ दे तो अखबार नीतियों तक की आलोचना” नहीं कर पाया. संपादक ने कहा कि "नोटबंदी का नाम लेना मना था"- ये 2016 में देश के नकद के एक हिस्से के अलावा बाकी सब को अमान्य करने का मोदी का विनाशकारी निर्णय था-“कीवर्ड के तौर पर भी.” मंत्रियों की व्यक्तिगत नीतियों के बारे में बात करना, "बहुत बड़ा गुनाह था."

न्यूजरूम में प्रमुख भूमिका वाले एक पूर्व संपादक ने मुझे बताया, “एचटी में राजनीतिक संपादक का मुख्य काम राजनेताओं को लीडरशिप समिट में लाना है.” एक पूर्व राजनीतिक संपादक ने कहा, “मिस बी ने मुझे फटकार लगा दी क्योंकि समिट से जुड़ी एक रात को उन्होंने एक भोज का आयोजन किया था और एक बड़ा आदमी खाना खाए बगैर चला गया.”

इस साल 2 अगस्त को हिंदुस्तान टाइम्स ने अपने पहले पेज पर रिपोर्ट किया कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में दो नए न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की योजना बना रही है, लेकिन तीसरे जज केएम जोसेफ की नियुक्ति में बाधा डाल रही है, भले ही तीनों की नियुक्ति की अनुशंसा एक साथ की गई थी. उत्तराखंड हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के रूप में, जोसेफ ने राज्य में राष्ट्रपति शासन को लागू करने के प्रयास को रद्द कर मोदी सरकार को नाराज किया था. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीशों के कॉलेजियम, जो सभी उच्च न्यायिक नियुक्तियों की सिफारिश करता है, ने जनवरी में सरकार को पहले जोसेफ की नियुक्ति का प्रस्ताव दिया था. सरकार ने प्रस्ताव को पुनर्विचार के लिए वापस कर दिया, क्योंकि नियुक्तियों की व्यवस्था इसे ऐसा करने की अनुमति देती है. कॉलेजिअम ने अपनी सिफारिशें दोहराई जिसे सरकार अब स्वीकार करने के लिए बाध्य थी. सरकार के लिए दूसरी बार एक अनुशंसित न्यायाधीश को अपमानित करना अभूतपूर्व होता और इससे संवैधानिक संकट खड़ा हो जाता. रिपोर्टर जतिन गांधी की खबर में "शीर्ष सरकारी अधिकारी" का हवाला दिया गया और कहा कि जानकारी की दूसरे अधिकारी ने पुष्टि की है. (गांधी ने मुझे बताया कि खबर आने के पहले ही उन्होंने पेपर छोड़ने के लिए कहा था और अपने नोटिस पीरियड की अवधि समाप्त होने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी.) 

अगले दिन बाकी अखबारों ने बताया कि सरकार ने सभी तीन न्यायाधीशों की नियुक्ति को मंजूरी दे दी है. गांधी याद किया कि न्यूजरूम में उनको "बताया गया था कि इसे हमें यह पूरी तरह गलत तरीके से समझे." "मैंने उनसे कहा कि असल में ये हुआ है कि जोसेफ पर आखिरी मिनट में फैसाल लिया गया."

गांधी ने कहा कि दो समाचार संगठन, प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया और द प्रिंट ने, "बाद में बताया कि सरकार ने तीन नामों को मंजूर करने की दो अलग-अलग फाइलें भेजी हैं. पीटीआई की रिपोर्ट में कहा गया है कि फाइलों को बुधवार और गुरुवार को दो बैचों में मंजूरी दी गई थी. गांधी की खबर गुरुवार सुबह आई थी और बुधवार शाम तक के घटनाक्रम पर आधारित थी. उस दिन बाद में सरकार ने फ़ैसाल क्यों बदला इसके कारण कभी स्पष्ट नहीं किय गए.

गांधी ने मुझसे कहा, “मैंने कहा कि हमें एक और खबर करनी चाहिए, घटनाओं की इस पूरी श्रृंखला के बारे में फिर बताते हुए सरकार के दावे का मुकाबला करना चाहिए.” लेकिन राजनीतिक संपादक प्रशांत झा की इसमें, "रुचि नहीं थी. उन्होंने कहा कि हम सरकार के साथ टकराव नहीं चाहते हैं." गांधी ने याद किया कि झा ने बाद में उनसे पूछा, "क्या होगा अगर रविशंकर प्रसाद"-कानून मंत्री- "लीडरशिप समिट के लिए ना आएं?"

झा ने मुझे ईमेल पर बताया कि ये "बिल्कुल गलत" है कि पेपर में राजनीतिक संपादक का मुख्य काम राजनेताओं को लीडरशिप समिट में लाना है. उन्होंने बताया कि इस भूमिका में उनके और उनके पहले के लोगों की "कई जिम्मेदारियां थीं" और इनमें से केवल एक, जिसकी "टीम के बाकी सदस्यों" से अपेक्षा की जाती है, "राजनीतिक नेताओं तक पहुंचना है"-पक्ष और विपक्ष दोनों के नेताओं तक-और उन्हें समिट के लिए आमंत्रण देना भी है.”

केएम जोसेफ की नियुक्ति पर अगली खबर क्यों नहीं ली गई इस पर गांधी के आरोपों का जवाब देते हुए झा ने इसे गलत करार दिया और कहा कि "कोई बाहरी कारण नहीं था जिसने इस निर्णय को प्रभावित किया."

हाल के महीनों में हिंदुस्तान टाइम्स फ्रंट पेज पर ऐसी खबरों की उल्लेखनीय संख्या देखने को मिली है जिनकी बाईलाइन में एचटी संवाददाता लिखा होता है. घोष के कार्यकाल के दौरान रखे गए एक रिपोर्ट ने बताया, “देखिए, उनमें से कुछ सिर्फ प्लांट होते है-आपको पता है इन्हें मंत्री जैसों के आदेश पर छापा जाता है. बाकी खबरें ऐसी हैं जो आपकी हैं लेकिन शिशिर ने अपने सूत्रों के हवाले से उनमें एक बयान डाला है और आप जानते हैं कि यह एक प्लांट है इसलिए आप इसमें अपना नाम नहीं चाहते हैं.” संवाददाता ने कहा कि रंगनाथन "सब फिर से लिखते हैं" "और इस पर 'एचटी संवाददाता' का लेबल लगा देते हैं. कर्मचारियों के बीच रंगनाथन को "सब-एडिटर-इन-चीफ" पुकारु नाम दिया गया है.

इस लेख के प्रेस में जाने तक भारती, रंगनाथन और गुप्ता ने साक्षात्कार के अनुरोधों या बाद में ईमेल की गई प्रश्नावली का जवाब नहीं दिया.

हाल ही में पेपर छोड़ने वाले एक रिपोर्टर ने कहा, “बहुत सी खबरें छपती ही नहीं हैं. रिपोर्टर्स जानते हैं कि आप सरकार से पंगा नहीं ले सकते.” घोष और रंगनाथन के तहत काम करने वाले डेस्क संपादक ने कहा कि सभी पत्रकारों और संपादकों को पता है कि उन्हें "बहुत, बहुत, बहुत सावधान" होना होता है, खासकर तब जब अरुण जेटली के वित्त मंत्रालय की बात हो.

2000 के दशक में हिंदुस्तान टाइम्स में काम करने वाले एक संपादक ने मुझे बताया, “मेरे पास अखबार अभी भी आता है सो मैं इसे पढ़ता हूं. प्लेसमेंट, हेडलाइन, कोट के साथ मैं यह अनुमान लगाने की कोशिश करता हूं कि खबर में क्या छिपाने की कोशिश हो रही है.”        

(3)

अकाली आंदोलन के हिस्से के रूप में मोहनदास गांधी की उपस्थित में सितंबर 1924 में हिंदुस्तान टाइस्म की शुरुआत हुई थी. सिख धर्म को सुधारने के अपने संघर्ष के तहत अकालियों ने सरकार द्वारा नियुक्त संरक्षकों द्वारा गुरुद्वारों के नियंत्रण को चुनौती दी. इसने उन्हें ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ और कांग्रेस के साथ ला खड़ा किया- औपनिवेशिक अत्याचारों और अन्याय के खिलाफ साझा कड़वाहट का भी मामला था. अकालियों ने फैसला किया कि उन्हें अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने लिए एक अंग्रेजी अखबार की जरूरत है. 1999 में छपे हिंदुस्तान टाइम्स के आधिकारिक इतिहास में प्रेम शंकर झा लिखते हैं कि इसे शुरू करने के लिए ज्यादातर पैसे कनाडा स्थित सहानुभूति रखने वाले सिखों के पास ये आया था.

अखबार जल्द ही आर्थिक परेशानी में था और अकाली खरीदारों की तलाश में थे. इसमें राष्ट्रवादी आंदोलन के भविष्य के दो प्रतीक की रूचि थी: जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू; और एक कांग्रेसी के अलावा हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी हिंदू महासभा के संस्थापकों में से एक मदन मोहन मालवीय. अकालियों ने इसे मालवीय को बेचा.

महासाभा के सह-संस्थापक लाला लाजपत राय की मदद से मालवीय ने पेपर को वित्त पोषण के लिए 40000 रुपए का बैंक लोन लिया. गांधी ने केएम पानिककर को नया संपादक चुना. हालांकि 1928 तक पैसा एक बार फिर से खत्म हो रहा था. उद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला- जिन्हें व्यापक रूप से "जीडी" के रूप में जाना जाता है- खर्च उठाने के लिए राजी हुए और अंत में इसके मालिक बने.

जीडी के पिता चार गद्दीदारों में से एक थे, जिन्हें सब बड़े चौरासिया कहते थे, उन्होंने 19वीं शताब्दी के अफीम के व्यापार से खूब पैसे कमाए थे. अफीम निर्यात पर उनकी ऐसी पकड़ थी कि अंग्रेजों ने उन्हें बाहर रखने के लिए पूरे व्यापार पर एकाधिकार कर लिया. बिड़ला अलसी के बीज (कपास) और चांदी का व्यापार करने लगे. बॉम्बे में ग्रेट प्लेग के बाद 19वीं शताब्दी के अंत में बिड़ला परिवार उस शहर से कलकत्ता चला गया.

जीडी बिड़ला ने उस समय पेपर की पैसों से मदद की जब हिंदू महासभा के सह-संस्थापक मदन मोहन मालवीय और लाला लाजपत राय इसे चलाने में संघर्ष कर रहे थे. मार्ग्रेट बुर्क व्हाइट/लाइफ-पिक्टर कलेक्शन/गैटी इमेजिस

1920 के दशक की कांग्रेस आंतरिक संघर्षों से जूझ रही थी-रूढ़िवादी और क्रांतिकारियों, परंपरावादियों और प्रगतिशीलों के बीच. हिंदुस्तान टाइम्स में भी विवाद सामने आए. जेएन साहनी ने पानिकर की जगह संपादक की जगह ली थी और प्रबंधक केडी कोहली दोनों अपने जीवन के तीसरे दशक में थे और देश के युवाओं की तरह जवाहरलाल नेहरू के समाजवादी विचारों और सुभाष चंद्र बोस के क्रांतिकारी तरीकों की ओर आकर्षित थे.

पेपर के अध्यक्ष मालवीय कांग्रेस के गांधीवादी गुट के साथ थे. जीडी भी गांधी के वफादार थे- उन्होंने गांधी के पीरियोडिकल्स, उनके आश्रम और अन्य कई चीजों कार्यों के लिए पैसे दिए- वहीं उन्हें नेहरू की समाजवादी दृष्टिकोण से बहुत कम प्यार था. साहनी और कोहली को जाना पड़ा.

1937 में इस्तीफा देने से पहले अगले संपादक पोथन जोसेफ छह साल तक पद पर रहे. उन्होंने छोड़ने को लेकर झा लिखते हैं, "प्रशासनिक मामले पर प्रबंधन के साथ मतभेदों इसकी वजह थी." गांधी के सबसे छोटे बेटे देवदास को ये जगह मिली.

झा लिखते हैं कि इसके साथ, "पेपर में कांग्रेस की आंतरिक बहस समाप्त हो गई" और "दृढ़ता से गांधीवादी लाइन को मजबूती मिली"- इनमें अहिंसा, अंग्रेजों के साथ बातचीत के लिए तैयारी और वर्ग संघर्ष के विचारों को अस्वीकार करना शामिल था. झा ने 1934 में हिंदुस्तान टाइम्स में शामिल होने वाले शाम लाल को कोट करते हुए लिखा कि "कांग्रेस का समर्थन, भारतीय उद्योग के लिए सुरक्षा की मांग और रेलवे थर्ड क्लास यात्रा की अपमानजनक स्थिति के खिलाफ बोलकर कोई भी ये काम आसानी से कर सकता था."

देवदास ने आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री होने तहत हुए बदलावों तक संपादक के रूप में काम किया. 1957 में अपनी मृत्यु तक वो 20 सालों तक इस पद पर बने रहे. उनका जगह अखबार के स्टार संवाददाता, दुर्गा दास ने ली- जिन्होंने आख़िरी ब्रिटिश वायसराय की पत्नी एडविना माउंटबेटन के साथ जवाहरलाल नेहरू के रिश्ते और लंबे समय से नेहरू के नंबर दो वीके कृष्ण मेनन की जगह उनकी राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में उनकी बेटी इंदिरा को लेकर उनकी प्राथमिकता जैसी खबरें छापीं.

मोहनदास गांधी के सबसे छोटे बेटे देवदास गांधी (दाएं) हिंदुस्तान टाइम्स के इतिहास में सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले संपादक थे. मार्ग्रेट बुर्क व्हाइट/ द लाइफ-पिक्चर कलेक्शन/गैटी इमेजिस

इसके बाद एस मुलगांवकर आए, जिन्हें टाइम्स ऑफ इंडिया से लाया गया था. उन्होंने अखबार की कवरेज को अपने धुन पर सेट किया- उनके नेतृत्व में हिंदुस्तान टाइम्स ने भारतीय समाचार पत्रों के इतिहास में पहला फोटो निबंध छापा. उन्होंने अखबार को कांग्रेस से भी काफी दूर रखा. 1962 के भारती-चीन युद्ध के अपमान के बाद नेहरू के रक्षा मंत्री वीके कृष्णा मेनन पर उनके हमलावर संपादकीयों में यह विशेष रूप से साफ था. जब मेनन ने इस्तीफा दे दिया, तो मुलगांवकर ने लिखा, "आज भारत के सार्वजनिक जीवन से एक व्यक्ति अलविदा हुआ जिसने अपमान के सिवा कुछ नहीं दिया."

1964 में नेहरू का निधन हो गया. कुछ साल बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं, जबकि कांग्रेस गुटवाद की मार से टूट रही थी. हिंदुस्तान टाइम्स में जीडी रिटायर हो गए थे और उनके बेटे केके बिड़ला- सबके लिए "केके"- के हाथों में नियंत्रण था.

एक नए सप्लीमेंट द वीकेंड रिव्यू के सरकार के साथ हुए विवादों के बाद मुलगांवकर चले गए. दो नए संपादक आए और तेजी से चले गए. इसने बीजी वर्गीस के लिए रास्ता खोल दिया, जो तीन सालों तक गांधी के मीडिया सलाहकार थे और उनके भाषण लिखते थे.

इस समय 1970 के दशक की शुरुआत में केके ने राजस्थान से लोकसभा उम्मीदवार के रूप में अपना पहला चुनाव लड़ा. कांग्रेस द्वारा टिकट दिए जाने से इनकार के बाद वो स्वातंत्र पार्टी के सदस्य के रूप में लड़े और हार गए. उन्होंने अपने संस्मरणों में हार को लेकर तर्क दिए हैं.

कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ने की वजह से इंदिरा गांधी केके से खुश नहीं थीं. जब उन्होंने दिल्ली में इंदिरा से मिलने की कोशिश की तो सफदरजंग रोड स्थित अपने निवास पर इंदिरा ने उन्हें समय देने से इनकार कर दिया. इसके बजाए बिड़ला को "इंदिरा जी के दीवान-ए-आम" एक अकबर रोड यानी प्रधानमंत्री कार्यालय में आने को कहा गया और आम लोगों के साथ मिलने के लिए कतार में लगने को भी. बिड़ला ने निष्कर्ष निकाला की, "ये साफ था कि ये मुझे झिड़कने के लिए था, लेकिन" भिखारी के पास चुनने का विकल्प नहीं होता."

केके ने उम्मीद जताई कि कांग्रेस उन्हें 1974 में राज्यसभा भेजेगी लेकिन पार्टी ने ऐसा नहीं किया. वो लिखते हैं कि उस हार के बाद प्रधानमंत्री के छोटे बेटे संजय, "मुझे पहले संभव मौके पर राज्यसभा भेजने के लिए उत्सुक थे" लेकिन 1976 में भी "मेरे लिए कोई सुरक्षित सीट नहीं थी."

1970 का दशक बीत रहा था और वर्गीस गांधी के साथ अपने अतीत के बावजूद, उनके राजशाही रवैये की वजह से प्रधानमंत्री को लेकर आलोचनात्मक हो गए. हिंदुस्तान टाइम्स को सिक्किम को जोड़ने का इंदिरा का कदम और संजय द्वारा सस्ती कार मारुति बनाने की कोशिश जिसके लिए उनकी उभरती कंपनी को गलत तरीके से सरकारी समर्थन प्राप्त था जैसे बातें सही नहीं लगीं. वर्गीस ने अपने संस्मरणों में उल्लेख किया कि 1974 में उन्होंने अच्छे विश्वास में केके को लिखा, "मैं एचटी में किसी और को अपनी जगह लेने देता हूं, जबकि मैं अपना समय हिंदुस्तान टाइम्स के लिए लिखने और रिपोर्टिंग में लगाउंगा." और फिर 'सांसदों, मंत्रियों, नेताओं और अन्य लोगों द्वारा व्यक्त राय का हवाला देते हुए कहा कि किसी को भी पांच साल से ज़्यादा संपादक नहीं रहना चाहिए, उसके बाद एक प्रस्ताव 8 अगस्त को छह महीने की बर्खास्तगी नोटिस में परिवर्तित हो गया."

इसके बाद, "मैंने बिड़ला को फिर लिखा कि जब से व्यवधान पैदा किए बिना आंतरिक परिवर्तन के मेरे प्रस्ताव मृत साबित हुए हैं, तो इसे अब समाप्त माना जाना चाहिए क्योंकि मैंने कभी अखबार छोड़ने की बात नहीं की थी." इस विवाद की सुनवाई प्रिंट मीडिया के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले निकाय प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया में हुई और हिंदुस्तान टाइम्स प्रबंधन द्वारा अदालतों में ऐस सुनवाई को रोकने की अपील की गई.

वर्गीस याद करते हैं कि इस दौरान केके को प्रेस काउंसिल के समक्ष बुलाया गया और वो ये साबित करने में असफल रहे कि “उनके स्टैंड के आधार या गुण जो साक्ष्य के खिलाफ दिखाने के लिए आगे लाया गया था कि उनकी कंपनियों ने मारुति शेयरों में भारी निवेश किया था." केके "ने कुछ मंत्रियों, सांसदों और अन्य लोगों के नाम दिए जिन्होंने उन्हें एचटी के संपादक को हटाने की सलाह दी थी-उनमें से कई गुजर चुके थे- लेकिन इस मामले में केके उनके फायदे की बात नहीं समझा सके." इन सबके बीच, "श्रीमती गांधी ने व्यक्तिगत रूप से उन प्रेस रिपोर्टों को ख़ारिज कर दिया कि उन्होंने मुझे हटाने को कहा था."

25 जून 1975 की रात को आपातकाल की घोषण की गई. वो याद करता है वर्गीस को काफ़ी सुबग जगा कर इसकी जानकारी दी गई और जो भी समाचार इकट्ठा किया जा सकता है उसके साथ सुबह एक सप्लिमेंट तैयार करने के लिए वो न्यूजरूम पहुंचे. दिल्ली में बाकी अखबारों की बिजली काट दी गई थी लेकिन "कोई भी एचटी और कनॉट सर्कस में स्टेट्समैन के लिए ऐसे ब्लैकआउट का आदेश देना भूल गया था. हम अभी भी काम कर रहे थे."

सुबह के सप्लिमेंट को प्रेस में भेजा गया और प्रिंटिंग शुरू हुई. लेकिन तब तक "प्रबंधन उत्तेजित हो गया और हमें प्रेस में घुसने से रोकने पहरा लगाकर इसे बंद कर दिया."

28 जून को हिंदुस्तान टाइम्स के पहले पन्ने पर पिछले दिन का एक लेख इस हेडलाइन से छपा, "श्रीमती गांधी प्रेस स्वतंत्रता में विश्वास करती हैं."

सितंबर में अदालतों ने पीसीआई की कार्यवाही पर रोक के मांग वाली प्रबंधन की अपील को खारिज कर दिया. वर्गीज लिखते हैं, “कुछ ही घंटों में” और प्रेस काउंसिल किसी हस्तक्षेप से पहले एचटी प्रबंधन ने मुझे सेवा समाप्ति की सूचना दी ... तब मैं ऑफिस की सीढ़ियों से उतर रहा था. मैं वहां से ये कहकर चला गया कि मेरे निजी कागज़ात मेरे घर भेज दिए जाएं.”

सालों बाद इन घटनाओं के दौरान प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव रहे बिशन टंडन ने अपनी डायरी प्रकाशित की. जनवरी 1975 से एक प्रविष्टि ने नोट किया कि कुछ महीने पहले गांधी के निजी सचिव एनके सेशन ने पीएम को एक छोटा सा नोट भेजा था जिसे मैंने देखा था. उन्होंने नोट में लिखा था, 'मैंने केके बिड़ला से बात की है. उन्होंने वर्गीस को नोटिस दिया है. 'ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री ने इस मामले में कुछ दिलचस्पी ली थी."

आपातकाल के समय हिरण्मय करलेकर के संपादक रहते हुए-जिनके बारे में कलकत्ता के स्टेट्समैन से उन्हें केके बिड़ला द्वारा लाए जाने के पहले किसी ने नहीं सुना था-हिदुस्तान टाइम्स ने जमकर सरकारी प्रोपगैंडा छापा.

अपनी आत्मकथा में केके लिखते हैं कि गांधी "खुश नहीं थीं" लेकिन सत्ता पर कब्जा करने के अलावा उनके पास "कोई विकल्प नहीं बचा था." वो लिखते हैं कि, "कोई संदेह नहीं कि संजय दुखी थे" जब उन्होंने एक परिवार के बारे में सुना जो इमरजेंसी के दौर की नसबंदी के कारण अलग हो गया था.

केके कहते हैं कि आपातकाल के बाद अटल बिहारी वाजपेयी-भविष्य के प्रधानमंत्री, तब नव निर्वाचित कांग्रेस विरोधी गठबंधन के सदस्य ने-उन्हें उनकी गिरफ्तारी के बारे में बताया और उन्हें देश छोड़ने की सलाह दी. केके लिखते हैं कि उन्होंने महाभारत में अर्जुन के बारे में सोचा जो कभी युद्ध के मैदान से नहीं भागे. लेकिन "काफी विचार के बाद," उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राजनीतिक उत्पीड़न से भागने वाले "को डरपोक नहीं माना जा सकता है; यह एक रणनीति है. "केके पहले यूरोप और फिर अमेरिका चले गए.

केके लिखते हैं कि राज्यसभा नामांकन के बारे में बात करने के लिए 1980 में उन्हें संजय से मिलने का समय मिला था, लेकिन इसके कुछ घंटों पहले ही विमान दुर्घटना में संजय की मृत्यु हो गई. 1982 में भी केके के भाग्य ने साथ नहीं दिया. उनकी इच्छा पूरी होने में पहले दो साल और लग गए. उनकी मृत्यु के छह साल पहले यानी 2002 तक वो राज्यसभा में रहे.

संजय ने अपनी मृत्यु से पहले केके से हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक के रूप में अपनी पत्नी मेनका गांधी की नियुक्ति करने के लिए कहा था. (मोदी के कैबिनेट में मेनका गांधी आज महिला एवं बाल विकास मंत्री हैं.) यह केके के लिए भी बहुत बड़ी मांग थी. वो लिखते हैं, "मैं अचंभित था." संजय को इसके लिए इनकार करते हुए उन्होंने कहा कि मेनका "आवेगपूर्ण थीं और संपादक होने के लिए पर्याप्त रूप परिपक्व नहीं थीं."

केके बिड़ला ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि इंदिरा गांधी "खुश नहीं थीं" लेकिन सत्ता पर कब्जा करने के अलावा उनके पास "कोई और विकल्प नहीं था". बीसीसीएल

इसके बजाए केके ने लेखक और पत्रकार खुशवंत सिंह को रखने की इंदिरा गांधी की सिफारिश का पालन किया. वो 1980 से 1983 तक संपादक थे. हिंदुस्तान टाइम्स के एक पूर्व संपादक के मुताबिक सिंह ने अखबार की सीमाओं को अच्छी तरह से समझा और अपने कार्यकाल के दौरान घर पर अपने लेखन के लिए पर्याप्त समय पाया.

सिंह की जगह आए एक साधारण व्यक्ति का छोटा सा कार्यकाल रहा, इसके पहले केके ने एक बार फिर से फैसला लिया कि अखबार को एक संपादक चाहिए जो न्यूजरूम में प्रतिष्ठा बहाल कर सके. उन्होंने प्रेम शंकर झा को चुना जिन्हें वो टाइम्स ऑफ इंडिया से लेकर आए. झा ने मुझे बताया कि वो हिंदुस्तान टाइम्स की पेशकश से ज्यादा इससे बदवाल के फैसले को लेकर उत्सुक थे क्योंकि उसका पिछला पेपर समीर जैन के हाथों में चला गया था. टाइम्स ऑफ इंडिया को समाचार पत्र व्यवसाय से विज्ञापन व्यवसाय में बदलने के पीछे अहम व्यक्ति.

(4)

हिंदुस्तान टाइम्स के एक पूर्व कर्मचारी ने मुझे बताया, “शोभना  अपने पिता की इस हद तक प्रशंसा करती थीं कि वो उसके जैसे बनना चाहती थीं. तो आपको उन्हें उनके पिता के जीवन के प्रिज्म के माध्यम से समझना होगा. मुझे नहीं लगता कि केके को प्रेस की स्वतंत्रता से कोई लेना-देना था-उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था.” (मैंने पेपर के छह पूर्व कर्मचारियों से बात की जिन्होंने अलग-अलग समय और क्षमताओं में भरतिया के साथ काम किया, साथ ही हिंदुस्तान टाइम्स में काम का अनुभव रखने वाले दर्जनों पत्रकारों और संपादकों से भी.) उसने कहा, “ऐसे में” फिर कंधे उठाए और कहा “क्या कहें.”

केके ने 1983 में अपने पिता की मृत्यु के बाद हिंदुस्तान टाइम्स पर पकड़ बनाई. उन्होंने कुछ साल बाद अपनी बेटी को अखबार के बोर्ड में शामिल किया और हिंदुस्तान टाइम्स हाउस के एक ऑफिस में रखा.

जैसा कि भरतिया ने 2015 में एक साक्षात्कार में कहा कि उन्होंने पहले तो अखबार की रविवार पत्रिका के साथ अनौपचारिक रूप से काम करने में कुछ सालों बिताए, ताकि वे अपना रास्ता आसान बना सकें. अखबार में आने और मेरे पैरों को जमाने के बाद मैंने सोचा कि मैं अख़ाबर का बेंचमार्क स्थापित करना चाहती हूं या सबसे अच्छे से सीखना चाहती हूं." अपने जीवन के तीसरे दशक के अंत में उन्होंने वॉशिंगटन डीसी के लिए उड़ान भरी और कैथरीन ग्राहम के साथ मुलाकात की.

भरतिया याद करती है, “एक इंसान के रूप में वो बहुत प्यारी थीं.” उन्होंने मार्केटिंग समझने के लिए मुझे कई विभागों में रखा क्योंकि यह एक कॉन्सेप्ट भारत के लिए बहुत नया था. हमारी सिर्फ एक साफ विभाजन रेखा थी-इसलिए सिर्फ सर्कुलेशन और विज्ञापन था, मार्केटिंग जैसा कुछ भी नहीं था." भारती ने "संपादकीय के साथ समय बिताया क्योंकि यही वो जगह है जहां मेरा जुनून था." उस समय वॉशिंगटन पोस्ट के संपादक बेन ब्रैडली थे, जो पेंटागन पेपर और वाटरगेट पर पेपर के काम का नेतृत्व करने के लिए प्रसिद्ध थे. "श्रीमती ग्राहम ने मुझसे कहा, 'ठीक है, आप हर शाम की बैठक में भाग लेंगी, लेकिन याद रहे, आप बाहर जाकर इसे बारे में कोई बात नहीं करेंगी" क्योंकि ब्रैडली की अध्यक्षता वाली उन बैठकों की बातें, "अगले दिन पहले पन्ने पर छपेंगी."

भारती "ने काम के सबसे अच्छे तरीकों को समझने के लिए अलग-अलग विभागों में एक सप्ताह से 10 दिन तक बिताए." भरतिया ने कहा, "यह एक बहुत लंबे और बहुत ही अच्छे रिश्ता" की शुरुआत थी क्योंकि वो और ग्राहम लगातार संपर्क में रहते थे. भरतिया ने अनुभव से एक बात सीखी कि "एचटी में काम करने को संस्थागत बनाने की ज़रूरत थी क्योंकि ये अनौपचारिक था इसलिए इसे औपचारिक बनाए जाने की जरूरत थी.

जैसा कि भरतिया याद करती हैं कि उन्होंने "वॉशिंगटन पोस्ट के कई विभागों में एक सप्ताह से 10 दिन बिताए और काम के सबसे अच्छे तरीकों को सीखा." उन्होंने पेपर के संपादक बेन ब्रैडली के नेतृत्व में बैठकों में भाग लिया और इसकी प्रकाशक कैथरीन ग्राहम के "बहुत लंबा और अच्छा रिश्ता स्थापित" किया. एपी

यहां दिल्ली में वॉशिंगटन पोस्ट को अनुकरण करने के किसी भी सपने को इंतजार करना पड़ा. चीजें कैसे चलेंगे इसे लेकर भरतिया की बहुत ज्यादा नहीं चलती थी और प्रबंधन पुरानी आदतों पर बना रहा. लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे अखबार पर अपना अधिकार जमा लिया.

हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व कर्मचारी ने मुझे बताया, “बिड़लाओं ने हमेशा अपने व्यवसायों को डेप्युटी, जिन लोगों पर वे भरोसा कर सकते हैं, उनके वाइसरोय के माध्यम से चलाया है. अखबार में केके के वायसराय नरेश मोहन नाम के एक व्यक्ति थे.”

पंजाब में अलगाववादी आतंकवाद के दौर में प्रेम शंकर झा ने 1986 की शुरुआत में संपादक का पद संभाला. उन्होंने मुझे बताया, “मेरी मानना ये था कि आकालियों की मदद के बिना इससे नहीं पार पाया जा सकता है- और अगर इससे सही तरीके से नहीं निपटाया जाता तो पाकिस्तान के हस्तक्षेप के लिए जमीन तैयार होगी.” सरकार के दृष्टिकोण के उल्ट ये विचार एक संपादकीय में छापा गया था.

झां ने कहा, “अगली सुबह माखनलाल फोतेदार नाम के एक व्यक्ति केके बिड़ला पर टेलीफोन पर चिल्लाए.” फोतेदार तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी के राजनीतिक सचिव थे. सो अगले दिन जनरल मैनेजर"-नरेश मोहन-"ये कहते हुए आए, 'झा साब आपने क्या लिखा है?'" झा ने मोहन से कहा कि वो खुशी-खुशी इस्तीफा देने को तैयार हैं लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता तब तक वो जैसे चाहें पेपर को चलाएंगे.

झा ने सरकार की वर्तमान स्थिति के विपरीत संपादकीय छापना जारी रखा. फोतेदार ने केके को फोन करना जारी रखा, जिन्होंने मोहन से बात करने के लिए झा को भेजना जारी रखा और झा ने मोहन को भगाना. झा ने पाकिस्तान सीमा के पास एक विशाल, उत्तेजक सैन्य अभ्यास ऑपरेशन ब्रैसस्टैक की आलोचना की ठंडे दिमाग से फैसले लिए जाने की उम्मीद की. उन्होंने कश्मीर में बढ़ती अशांति के लिए राजीव गांधी के तौर तरीकों को जिम्मेदार माना. झा को उद्योग मंत्री द्वारा कुछ यात्राओं के लिए तैयार किया गया था, जिसके लिए उन्होंने इनकार कर दिया. यह महीनों तक इसी तरह से चला.

उस समय राजीव के विद्रोही रक्षा मंत्री वीपी सिंह के बारे में प्लांट आए, वीपी सिंह इस संभावना से घबराहट पैदा कर रहे थे कि वो सैन्य खरीद में हुई घुसखोरी की जांच कर रहे हैं. झा ने मुझे बताया कि लगातार चार दिनों तक मोहन उनके पास आए और कहा कि उनके पास सिंह के बारे में स्टेट इंटेलिजेंस की खुफिया जानकारी थी.

झा ने कहा कि वो पहले तीन प्लांट्स को मार गिराने में सफल रहे. लेकिन चौथे नकारना मुश्किल था. सिंह को स्थानीय शाही परिवार के साथ पारिवारिक कनेक्शन के जरिए देहरादून में बहुत सारी ज़मीन विरासत में मिली और उन पर इस संपत्ति को छिपाने का आरोप लगाया गया था. झा ने इसे कंफर्म करने के लिए एक रिपोर्टर को लगाया.

केके बिड़ला देश में नहीं थे और झा को भरतिया के ऑफिस में बुलाया गया. झा ने कहा कि उन्होंने उनसे कहा, “प्रेम, आप अखबार के साथ जो कर रहे हैं वो मुझे बेहद पसंद है. लेकिन इस मुद्दे पर, इसे जैसे का तैसा छाप दें.” उन्होंने कहा कि वो ऐसा नही कर सकते हैं.

अगले दिन रिपोर्ट ने बताया कि उसे सिंह के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं मिला और झा ने उसे इस पर एक खबर करने का निर्देश दिया. झा ने इसे अगले दिन के पेपर के लिए संपादित किया और एक दोस्त के घर में एक पार्टी के लिए गए. ये खबर कभी नहीं दिखाई दी.

कुछ दिनों बाद केके दिल्ली वापस आए और एक बैठक के लिए संपादक को बुलाया. झा ने यदा किया कि केके ने उनसे कहा, “मुझे खेद है लेकिन हमें अपने रास्ते अलग करने होंगे.” झा अपने पद पर एक साल तक भी नहीं रहे.

वहां मौजूद नरेश मोहन ने उनसे कहा, "झा-जी, आप बहुत अच्छा लिखते हैं पर आप राजनीति नहीं समझते हैं." झा ने कहा, "हम अपने हर फैसले के साथ सही साबित हुए हैं"-उदाहरण के लिए राजीव गांधी ने अंततः अकालियों से मुलाकात की-"इसलिए मैंने उससे कहा, 'आप यह कैसे कह सकते हैं?'" मोहन ने जवाब दिया, “आप बात ही नहीं समझते.”

झा ने मुझसे कगा, “वो हिंदुस्तान टाइम्स और कांग्रेस के बीच की राजनीति के बारे में बात कर रहे थे. ये मुझे समझ नहीं आया. मैं कितना नादान था.”

झा के तहत एक वरिष्ठ संपादक एचके दुआ को उनकी जगह लेने के लिए प्रमोट किया गया था. दुआ के साथ काम करने वाले एक संपादक ने मुझे बताया कि अखबार ने उनके कार्यकाल के दौरान अपेक्षित सीमाओं को कभी नहीं लांघा. 1988 में राजीव गांधी का प्रशासन बोफोर्स बंदूकों की खरीद में भ्रष्टाचार पर एक घोटाले से खुद को बचाने के लिए जूझ रहा था. सरकार ने "एंटी डिफेमेशन" बिल का प्रस्ताव दिया था जो अगर कानून में बदल जाता तो मामले की कवरेज पर रोक सी लग जाती. कई अख़बारों ने बिल की निंदा में संपादकीय लिखे और पत्रकारों ने विरोध प्रदर्शन किया. हिंदुस्तान टाइम्स चुप रहा. कुछ दिनों बाद सरकार ने ये विचार त्याग दिया और अचानक से हिंदुस्तान टाइम्स की आवाज लौट आई. दुआ ने पहले पन्ने पर एक हस्ताक्षरित संपादकीय किया, पेपर के एक पूर्व संपादक ने याद किया, "बिल की जमकर आलोचना की गई थी."

भरतिया ने 2015 के साक्षात्कार में याद किया, “80 के दशक में जब मैं वास्तव में अखबार में शामिल हुई तो हम सभी कहते थे कि सर्कुलेशन जितना ज़्यादा होता है उतना ही नुकसान होता है.” अभी की तरह तब भी अखबार के आय का मुख्य स्रोत विज्ञापन था और उदारीकरण के पहले बाजार में उतने पैसे नहीं थे. अखबार की ब्रिकी से बहुत ज्यादा पैसे नहीं आते थे. भारतीय ने समझाया, “आप एक रेखा खींचना चाहते हैं और कहते हैं कि ठीक है, हम सर्कुलेशन को आधे मिलियन से ऊपर नहीं ले जा रहे हैं. और हम सबसे लंबे समय तक आधे मिलियन पर फंसे रहे क्योंकि हमने सोचा कि हम ज्यादा पैसा नहीं खोना चाहते.”

बाजार का एक और तथ्य ये था कि "ब्रांड के प्रति वफादारी की कोई अवधारणा नहीं थी, क्योंकि आपको ब्रांड के प्रति वफादारी की आवश्यकता नहीं थी. कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी और इसलिए हर ब्रांड की अपनी पोजिशन थी." ये देशव्यापी सर्कुलेशन के नियमित होने से कुछ दिन पहले की बात है और तब हर अखबार अपने आप में एक क्षेत्रीय अखबार था. हिंदुस्तान टाइम्स मुख्य रूप से दिल्ली तक ही सीमित था, लेकिन इस गढ़ में इसके लिए कोई चुनौती नहीं थी.

समीर जैन ने इसे बदल दिया. जैन और भरतिया दोनों के करीब रहे एक व्यक्ति ने याद किया, “उन्होंने सनकी चगेज खान की तरह क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया.” जैन के भीतर संपादकों और पत्रकारों को व्यय के रूप में देखने को लेकर कोई मलाल नहीं था कॉन्टेंट को उनके स्वादानुसार बनाने को लेकर भी यही हाल था-दोनों ही उनकी निचली रेखा के बड़े वरदान थे. टाइम्स ऑफ इंडिया ने 1980 के दशक के मध्य तक अपना दिल्ली संस्करण लॉन्च किया था- ये बॉम्बे में अपने गढ़ से बाहर नए संस्करणों की लहर के हिस्से के रूप में था. जब उदारीकरण ने सर्कुलेशन नंबर और विज्ञापन के खर्च को बढ़ा दिया, तब हिंदुस्तान टाइम्स को अपनी ज़मीन बचाने के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी.

एक युवा महिला के तौर पर भरतिया के पास हिंदुस्तान टाइम्स में चीजें कैसी चलेंगी इसे लेकर ज्यादा हक नहीं था. लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे अखबार पर अपना अधिकार जमा लिया. पुष्पकरण प्रमोद/ द इडिंया टूडे ग्रुप/ गैटी इमेजिस

बढ़त हासिल करने के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया शहरी सप्लिमेंट लाया- उस समय ये बड़ी बात थी. इसने अपने कवर की कीमत 2 रुपए से घटाकर 1.50 रुपए कर दी और हिंदुस्तान टाइम्स को भी ऐसा करने के लिए मजबूर किया. 1994 तक टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स के हर दो कॉपी की तुलना में दिल्ली में एक कॉपी बेच रहा था.

हिंदुस्तान टाइम्स के अंदर भी एक लड़ाई जारी थी. भरतिया ने राजधानी में दोस्तों का एक करीबी सर्कल बना लिया था. पूर्व कर्मचारी मे मुझे बताया, “इन लोगों में- उनके जिक्र की दरकार नहीं जिनसे वो पार्टियों में मिलेंगी- वो हिंदुस्तान टाइम्स की सर्वेसर्वा के रूप में पहचानी जाना चाहती थीं. और नरेश मोहन ऐसा होने के अपने रास्ते में खड़े थे.”

भरतिया के सर्कल में कांग्रेस के नेता माधवराव सिंधिया थे, जिन्हें वह लंदन में अपने कॉलेज के दिनों से जानती थीं, और अरुण जेटली, जिनसे सिंधिया ने उनको मिलवाया था. इनमें वकील राय्यन करंजवाला भी शामिल थे, जिनके पास अभी भी हिंदुस्तान टाइम्स हाउस में एक ऑफिस है और इसके अलावा अमर सिंह, सुरेश कलमाड़ी और मार्केटिंग मैन सुहेल सेठ जैसे दरबारी लोग भी शामिल थे. सेठ ने मुझे ईमेल पर बताया कि वह भरतिया से "राय्यन करंजवाला और अरुण जेटली जैसे आम दोस्तों के माध्यम से" मिले थे.

पूर्व कर्मचारी ने कहा, “दुआ नरेश मोहन के आदमी थे. 1994 में उनके संपादक का कार्यकाल समाप्त हो गया.”

पूर्व कर्मचारी ने याद किया कि जैसा कि टाइम्स ऑफ इंडिया ने हिंदुस्तान टाइम्स का मुनाफे में खा लिया, मोहन के साथ केके अधीर हो गए और एक बार न्यूजरूम में सबके सामने उन पर चिल्ला बैठे. मोहन को केके और भरतिया के साथ एक बैठक के लिए बुलाया गया था और हटा दिया गया. उस समय 1990 के अंत में राजधानी में टाइम्स ऑफ इंडिया का सर्कुलेशन अपने प्रतिद्वंद्वी के बराबर हो गया.

सदी के अंत में वीएन नारायणन, जो दुआ की जगह द ट्रिब्यून से आए थे, के बारे में पता चला कि उन्होंने यूके के एक पेपर में में छपे कॉलम को पूरी तरह चोरी करके अपना बना लिया था. उन्हें भी जाना पड़ा.

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मोहन की आजादी समाप्त हो गई. अपने अंतिम वर्षों में केके धीरे-धीरे पीछे हट रहे थे. भरतिया के हाथों में उनका अखबार था. लेकिन जब ये उनके हाथों में आया समीर जैन ने अखबार के उद्योग पर कब्जा कर लिया था.

हिंदुस्तान टाइम्स के साथ एक दशक तक बिताने वाले एक संपादक ने मुझे बताया, “90 के दशक में हर अखबार और हर प्रकाशक खो रहा था. जीतने वाले एकमात्र व्यक्ति समीर जैन थे. उनके पास योजना थी और बाकी इस पर सिर्फ प्रतिक्रिया दे रहे थे.”   

भरतिया ने जैन से लोहा लेने की ठानी. 1999 में 75वीं सालगिरह के अवसर पर उन्होंने अपने अखबार की कवर कीमत एक रुपए कर दी. बिना परेशान हुए टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी ठीक ऐसा ही किया. टाइम्स ग्रुप के एक कार्यकारी ने उस समय एक रिपोर्टर से कहा, “हमने रामनवमी के पावन अवसर पर ये किया.”

लेकिन जैन एक बड़ा खेल खेल रहे थे. पूरे देश में टाइम्स ऑफ इंडिया के संस्करणों और एक बेजोड़ राष्ट्रीय पाठकों को नियंत्रित करने के साथ उन्होंने नई विज्ञापन स्कीमों को बेचना शुरू कर दिया था. दिल्ली संस्करण में एक विज्ञापन खरीदें और उसी विज्ञापन को आप अखबार के मुंबई संस्करण में छूट के साथ छपवा सकते हैं. उनके प्रतिद्वंद्वियों ने या तो उन्हें कॉपी करने की कोशिश की या बाजार से होने का जोखिम उठाया.

हिंदुस्तान टाइम्स को दिल्ली से बाहर ले जाना भरतिया के लिए एक जरूरत बन गई. उन्होंने 2000 में रांची, भोपाल, जयपुर और चंडीगढ़ में नए संस्करणों के साथ ऐसा किया. बाकी की शहरों को भी जद में लिया गया और बाद में देश भर में सिटी एडिशन की संख्या एक दर्जन हो गई. लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया का अपने घर बॉम्बे में सामना करने के लिए भारतीय को दशकों के मध्य तक इंतजार करना पड़ा-तब तब बॉम्बे मुंबई हो गया था और यहां जैन के पेपर के सामने कोई भी नहीं था.

उसके पहले वो दिल्ली में अपना घर ठीक करने में लग गए. हिंदुस्तान टाइम्स की होल्डिंग कंपनी हिंदुस्तान टाइम्स लिमिटेड का जन्म 1927 में हुआ था और इसका स्वामित्व बिड़ला परिवार के सदस्यों के पास था. जीडी के निधन के बाद यह समझा गया कि केके के पास अखबार का नियंत्रण है लेकिन होल्डिंग कंपनी बिड़ला साम्राज्य का हिस्सा बनी रही. भरतिया ने अब एचटी मीडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाया और हिंदुस्तान टाइम्स लिमिटेड के सभी प्रिटिंग और पब्लिकेशन उपक्रमों का अधिग्रहण कर लिया. इसके बाद उन्होंने नई कंपनी को सार्वजनिक किया जिसमें बाहरी निवेश में लाया गया लेकिन बहुमत नियंत्रण बनाए रखा.

दिल्ली में समाचार पत्र के प्रिंटिंग ऑपरेशन को 2004 में एक नई जगह स्थानांतरित कर दिया गया. टाइपसेटिंग और प्रिंटिंग स्टाफ के लगभग 360 श्रमिकों को बड़े पैमाने पर हटा दिया गया. उन्होंने अदालतों से अपील की और 2012 में एक औद्योगिक ट्रिब्यूनल ने बर्खास्तगी को "अवैध और अन्यायपूर्ण" बताया. लेकिन ट्रिब्यूनल ने मजदूरी का भुगतान करने के लिए प्रबंधन को निर्देश नहीं दिया और नई अपील अब दिल्ली हाई कोर्ट के पास लंबित हैं. हिंदुस्तान टाइम्स में श्रमिक संघ के पूर्व महासचिव जावेद फरीदी ने मुझे बताया कि अरुण जेटली ने कुछ कार्यवाही में अदालत में एचटी मीडिया का प्रतिनिधित्व किया था.

इस दौरान कई श्रमिकों की मौत हो गई है. अक्टूबर 2017 में उनमें से एक रविंदर सिंह का शरीर हिंदुस्तान टाइम्स हाउस के बाहर एक छोटे से तम्बू में पाया गया, जहां वो हटाए जाने के बाद से विरोध कर रहा था.

भरतिया ने 2005 में अपने पेपर के मुंबई संस्करण की शुरुआत की. लॉन्च में शामिल एक संपादक ने मुझे बताया कि शहर में टाइम्स ऑफ इंडिया से आगे निकलने की कोशिश करने के बजाय हिंदुस्तान टाइम्स ने खुद को दूसरे स्थान पर रखने का फैसला किया. लेकिन मध्य और दक्षिण में पाठकों को टारगेट करने का फैसला भी किया जो मुंबई का सबसे पैसे वाला इलाका है. लेकिन दो अन्य मीडिया समूह ज़ी और दैनिक भास्कर समूह मुंबई में डीएनए नाम का एक दैनिक अंग्रेजी अखबार शुरू करने के लिए साथ आ गए. अगर हिंदुस्तान टाइम्स सिर्फ़ ख़ास लोगों पर ध्यान केंद्रित करता तो उसके तीसरी नंबर पर गिरने का खतरा था, जो प्रतिष्ठा और बैलेंस शीट को समान रूप से नुकसान पहुंचाता. इसलिए प्रबंधन ने बड़े पैमाने पर अपील की कोशिश करने का फैसला किया.

जैन ने अपने खुद का एक नया सिटी पेपर मुंबई मिरर लॉन्च किया और इसे टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ मुफ्त में देना शुरू कर दिया. मुंबई संस्करण पर काम करने वाले एक संपादक के मुताबिक इसका मतलब था कि ऐसे घर जो डीएनए और हिंदुस्तान टाइम्स को एक साथ विकल्प मानते थे उन्हें एस साथ तीन अलग-अलग अखबार चाहिए था, "और ऐसे बहुत नहीं थे." जैन ने अपने फ्लैगशिप प्रकाशन की कवर कीमत भी डीएनए के लिए 2 रुपए और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए 2.50 रुपए की तुलना में 4 रुपए कर दी.

यहां से डीएनए और हिंदुस्तान टाइम्स दोनों ने मुंबई में ख़ुद के नंबर-दो अंग्रेजी-भाषा का अखबार होने का दावा किया था-इसके लिए अपने पसंद के सर्कुलेशन नंबर का इस्तेमाल किया. लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया से अलग करके मुंबई मिरर को अलग प्रोडक्ट बना दिया गया और इससे होने वाला फ़ायदा इसके दोनो प्रतिद्वंदियों से ज्यादा था, मतलब इल जंग में जैन दो सबसे बड़े अख़बारों की जीत के साथ बाहर आए जहां पहले उनके पास बस एक ही अखबार था. 2009 में टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए मुंबई में विज्ञापन दरें हिंदुस्तान टाइम्स से दोगुनी थीं.

मुंबई संस्करण को संपादकीय रूप से भी संघर्ष करना पड़ा. लगभग एक दशक तक हिंदुस्तान टाइम्स में काम करने वाले संपादक ने मुझे बताया, “बॉम्बे का मतलब है बीबीसी-बॉलीवुड, बिजनेस और क्रिकेट. और बीबीसी में हमारे पास कोई चेहरा या कोई अंदर का नहीं था”

मुंबई संस्करण पर काम करने वाले दो संपादकों ने कहा कि नए संस्करण को बराबरी हासिल करने में एक दशक का समय लगा. हिंदुस्तान टाइम्स में 10 सालों से ज्यादा अनुभव वाले एक संपादक ने कहा कि मुंबई के लिए इसके सर्कुलेशन के आंकड़े बढ़ गए थे और शहर में जिन कॉपियों के सर्कुलेशन के दावे होते थे उनमें से एक बड़ा हिस्सा स्क्रैप कलेक्शन में जाता था.

मुंबई की लड़ाई के दौरान 2006 में भरतिया को राज्यसभा में नॉमिनेट किया गया जो कि पूरे छह साल की अवधि के लिए था. इसके पिछले साल कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने उन्हें देश के चौथे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किया था.

मुंबई की तरह देश में भी भरतिया जैन का मुकाबला नहीं कर पाईं. प्रकाशन और विज्ञापन उद्योगों में एक महत्वपूर्ण संदर्भ वाले ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशंस के ताज़ा आंकड़े हिंदुस्तान टाइम्स के सिर्फ 10 लाख की तुलना में टाइम्स ऑफ इंडिया के 20 लाख 80 हजार से अधिक कॉपियों के रोज का सर्कुलेशन दिखाते हैं. लेकिन अंग्रेजी भाषा के अखबरों के बीच भरतिया के पेपर का टॉप 3 की स्थान सुरक्षित है-10 लाख 40 हजार के साथ इसका सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी द हिंदू है- और यह राष्ट्रीय राजधानी के आकर्षक बाजार में टाइम्स ऑफ इंडिया से आगे रहने में कामयाब रहा है.

इसने कॉर्पोरेट फाइलिंग में प्रतिबिंबित एचटी मीडिया को लगातार और प्रभावशाली मुनाफा दिया है. एक बिजनेस- इंटेलिजेंस सर्विस पेपर द्वारा इकट्ठा की गई नियामक फाइलिंग के अनुसार कंपनी इस दशक की शुरुआत में हर साल 150 करोड़ रुपए से अधिक कमा रही थी. 2014 के आम चुनाव में चुनावी विज्ञापन पर राजनीतिक दलों के खर्च से ये आंकड़ा 200 करोड़ रुपए से अधिक हो गया- 2016-2017 के वित्तीय वर्ष में लाभ अभी भी उस चिह्न से ऊपर थे, जिसमें ब्यूरो और संस्करणों छंटनी की लहर में बंद हो गए थे.

इस साल 7 नवंबर को- दिवाली से एक दिन पहले, जब निजी विज्ञापन अपने चरम पर होते हैं- निजी विज्ञापनों ने दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स के मूल्यवान पेपर के 24 पन्नों में से दो पूरे पन्नों से कम जगह ली. सरकारी विज्ञापन पांच से अधिक पन्नों में फैले हुए थे. मुंबई में लोक निर्माण विभाग, मेरठ में बिजली बोर्ड, पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड, शिलांग में एक सरकारी चिकित्सा संस्थान और छत्तीसगढ़ राज्य कृषि विपणन बोर्ड के नोटिस इसमें शामिल थे. केंद्र सरकार का राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस से जुड़ा हुआ आधा पन्ने का विज्ञापन भी था और भी बहुत कुछ.

 विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय प्रत्येक वर्ष की शुरुआत में अलग-अलग प्रकाशनों के लिए विज्ञापन दरों को सेट करता है, जहां अलग-अलग संस्करणों के लिए अलग-अलग दरें लागू होती हैं. इन दरों के लिए सर्कुलेशन को देखा जाता है, ज्यादा सर्कुलेशन का मतलब ज्यादा पैसे. कीमतें पब्लिकेशन के सबसे दिखने वाले पन्नों पर विज्ञापन की जगह के लिए अतिरिक्त प्रीमियम भी देती हैं. राज्य प्रचार निदेशालय इसी तरह अपनी कीमतों को तय करते हैं. 2018 में हिंदुस्तान टाइम्स के दिल्ली संस्करण के लिए डीएवीपी की बेस दर 345 रुपए प्रति वर्ग सेंटीमीटर है. 

2004 में लगभग 360 श्रमिकों को बर्खास्त कर दिया गया.2012 में, एक औद्योगिक ट्रिब्यूनल ने मजदूरों की बर्खास्तगी को "अवैध और अनुचित" बताया, लेकिन प्रबंधन को उन्हें मजदूरी देने का निर्देश नहीं दिया. रॉबर्ट निकेलबर्ग / गैटी इमेजिस

पेपर के एक विज्ञापन कार्यकारी ने मुझे बताया कि नवंबर 2018 तक दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स के मुख्य पेपर में निजी विज्ञापन के लिए बेस रेट लगभग 5000 रुपए प्रति वर्ग सेंटीमीटर थी. यह कार्यकारी ने कहा कि इस पर नियमित रूप से 50 प्रतिशत या उससे अधिक छूट दी जाती है. 

एक साधारण अनुमान के मुताबिक- सरलता के लिए मानते हुए कि सरकारी विज्ञापनों के पांच पृष्ठ सभी डीएवीपी दर पर बेचे गए हैं और निजी दरों पर 50 प्रतिशत छूट पर बेचे जाने वाले निजी लोगों के दो पन्ने बेचे गए हैं. 7 नंबवर तक लाए गए विज्ञापन रेवेन्यू में सरकारी विज्ञापन का एक चौथाई हिस्सा होगा. 

इस साधारण गणित में हिंदुस्तान टाइम्स का कोई भी सप्लिमेंट शामिल नहीं है. फिर भी यह साफ है कि अखबार के लिए सरकारी विज्ञापन राजस्व का एक बड़ा स्रोत है. किसी भी दिन हिंदुस्तान टाइम्स के मुख्य अखबार से निजी विज्ञापन की तुलना में सरकारी विज्ञापन लेने अधिक उम्मीद है. 

सूचना के अधिकार के एक सवाल के जवाब में डीएवीपी ने मुझे बताया किया कि उसने 2010 से हिंदुस्तान टाइम्स के सभी संस्करणों में 260 करोड़ रुपए के विज्ञापन खरीदे हैं. इस दशक में टाइम्स ऑफ इंडिया के सभी संस्करणों के लिए कुल 335 करोड़ रुपए है. हिंदुस्तान टाइम्स के दिल्ली संस्करण को 2013 से प्रत्येक वर्ष डीएवीपी से कम से कम 30 करोड़ रुपए मिले हैं. असंख्य संभावित आधिकारिक स्रोतों से पेपर के पास कितना आया है- केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, नगर पालिका, सार्वजनिक बैंकों और विश्वविद्यालयों, सरकारी संचालित निगमों और अन्य-एचटी मीडिया के बाहर किसी को नहीं पता.

सुप्रीम कोर्ट ने एनजीओ कॉमन कॉज़ द्वारा डाली गई एक याचिका पर 2015 में फ़ैसाल दिया कि सरकारी सरकारी अधिकारियों या राजनीतिक दलों को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक विज्ञापन निधि का उपयोग नहीं होना चाहिए. अदालत ने कार्रवाई का फ़ैसला कार्यकारी के विवेक पर छोड़ दिया, लेकिन इसके निर्णय में- भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई द्वारा लिखित आदेश में इसने कहा,

इस मामले का एक कनेक्टेड पहलू जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है वो सरकार द्वारा चुनिंदा मीडिया घरानों को विज्ञापन देने है/ये प्रेस की स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी का मुद्दा है. विज्ञापनों स्वाभाविक रूप से विशेष मीडिया हाउस/समाचार पत्र समूह के लिए वित्तीय लाभ लाता है. किसी विशेष मीडिया हाउस को संरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए और सभी समाचार पत्रों का विज्ञापन बराबर होना चाहिए. हालांकि, उनको सर्कुलेशन के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है.

डीएवीपी के दिशानिर्देश इस मामले के उल्लिखित पहलू से नहीं निपटते हैं और और इसलिए स्वतंत्रता, निष्पक्षता और चौथी संपत्ति की तटस्थता सुनिश्चित करने के लिए वर्तमान निर्देशों में इसे शामिल करने की आवश्यकता जो लोकतंत्र के विकास और जीवित रहने के लिए महत्वपूर्ण है, उसके बारे में सोचना और विचार करना होगा.

इसके पहले अदालत ने इस मुद्दे का अध्ययन करने के लिए एक समिति गठित की थी. भारतीय भाषा अखबार संघ या आईएलएनए ने अंग्रेजी भाषा के बाहर काम कर रहे 800 से अधिक प्रकाशकों के व्यापार समूह ने समिति को एक ज्ञापन सौंपा. (स्पष्टिकरण: एसोसिएशन के अध्यक्ष परेश नाथ, कारवां के प्रकाशक दिल्ली प्रेस के अध्यक्ष भी हैं.) ज्ञापन में कहा गया कि आईएलएनए को "दृढ़ विश्वास है कि सरकारी विभाग बहुत पक्षपातपूर्ण हैं और विज्ञापनों को राजनीतिक मालिकों के [निर्देश] या केवल कुछ समाचार पत्रों का चयन करने के लिए कुछ अस्पष्ट कारणों के साथ जारी किया जाता है." समूह ने शिकायत की कि कई राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की निविदा नोटिस प्रकाशित करने की नीतियां रही हैं-सरकारी विज्ञापन में एक बड़ा घटक, और अक्सर बहुत ही स्थानीय हित- केवल अंग्रेजी भाषा के अखबारों और उनके अन्य संस्करणों में.

ज्ञापन में कहा गया कि ग़लत तरह से दी जा रही प्राथमिकता बाजार में तरीके से झुकवा पैदा कर रहा है. यह कहा गया कि "मोटे-मोटे अखबार 3 या 4 रुपए में इसलिए उपलब्ध हैं" क्योंकि सरकार उन्हें प्रभावी रूप से सब्सिडी दे रही है जिससे उन्हें कवर की कीमतों को उस स्तरों लाने की सहूलिय मिलती है जहां बाकी प्रकाशन नहीं पहुंच सकते. सस्ती कीमत से सर्कुलेशन बढ़ता है जिसका मतलब बड़ी डीएवीपी दरें और बड़ी सब्सिडी. जीतने वाला सब ले जाता है.

हिंदुस्तान टाइम्स की कीमत 5 रुपए है. भरतिया ने 2015 के एक इंटरव्यू में कहा कि पाठकों के बजाय अखबार का व्यावसायिक मॉडल "विज्ञापनों के पक्ष में झुका हुआ है" क्योंकि ये भारी सब्सिडी वाला उत्पाद है.

भरतिया के हिंदी अखबार हिंदुस्तान की कीमत 4.50 रुपए है. इसने हिंदुस्तान टाइम्स को सर्कुलेशन में पीछे छोड़ दिया है और भारतीय के बढ़ते मीडिया मुनाफे के हिस्से के लिए जिम्मेदार है. पिछले वित्त वर्ष में इसने 171 करोड़ रुपए का लाभ दिखाया. भारती ने 2015 में कहा था कि "हम स्थानीय भाषा में बहुत अधिक विकास देख रहे हैं" और विशेष रूप से हिंदी प्रकाशन में.

एक दशक तक उनके साथ काम करने वाले संपादक ने मुझे बताया कि "हिंदी पेपर में जो कुछ भी जाता है भरतिया उसकी परवाह नहीं करतीं. क्योंकि दिल्ली में उसके दोस्त इसे नहीं पढ़ते हैं." 2009 से हिंदुस्तान का संपादन शशि शेखर कर रहे हैं जिन्होंने 1980 के दशक में आज नाम के एक दैनिक को संपादित किया था, जिसके बारे में उन्होंने अपनी लिंक्डइन प्रोफाइल पर बताया है कि इसमे "उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में अपना विस्तार" किया. 1991 में प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया ने इस अखबार को "गैर जिम्मेदारियों का दोषी पाया...जिसमें अफवाह और अटकलों के आधार पर बड़े पैमाने पर हिस्टिरिया को बढ़ावा देने के लिए बैनर हेडलाइंस का इस्तेमाल करने जैसी बातें शामिल थी." इस तरह की सुर्खियों का एक उदाहरण 9 नवंबर 1990 में तब आया जब लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने के आंदोलन के साथ सांप्रदायिक तनाव फैला रही थी. इसमें लिखा था, “हथियारों से लैस होकर अयोध्या आएं, वीपी, मुलायम को कुत्तों से नुचवाएं, आडवाणी मुगलते में ना रहें कि मुसलमान कमज़ोर हैं”-

समीर जैन के टाइम्स ऑफ इंडिया ने हिंदुस्तान टाइम्स को देश में सबसे ज्यादा प्रसारित अंग्रेजी-भाषी समाचार पत्र के रूप में पछाड़ दिया. भरतिया के पेपर को दिल्ली के अपने गढ़ में अपनी स्थिति बनाए रखने लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी. नरेंद्र बिष्ट / इंडिया टुडे ग्रुप / गैटी इमेजिस

भरतिया सहायक कंपनियों की तीन परतों के माध्यम से एचटी मीडिया को नियंत्रित करती हैं, जिनमें से प्रत्येक कई शेयरधारक हैं. सार्वजनिक रूप से कारोबार की होल्डिंग कंपनी में नियंत्रण हिस्सेदारी हिंदुस्तान टाइम्स लिमिटेड के पास है, जिसकी मेजोरटी पृथ्वीस्टोन होल्डिंग (दो) प्राइवेट लिमिटेड के स्वामित्व में है, जो एसबी ट्रस्टीशिप प्राइवेट लिमिटेड की पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी है. भरतिया एसबी ट्रस्टीशिप के सभी शेयरों का मालिक है सिवाय एक के जो उनके बेटे प्रियव्रत के पास है.

यह तीन-स्तरीय संरचना कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय के नियमों का उल्लंघन करती है, 20 सितंबर 2017 को जारी अधिसूचना में, कहा गया कि किसी भी कंपनी के सहायक कंपनियों की दो से अधिक परतें नहीं हो सकती हैं. एक चार्टर्ड एकाउंटेंट जिन्होंने इन कंपनियों के कॉर्पोरेट फाइलिंग की समीक्षा की, उन्होंने मुझे बताया कि "कई कंपनियों में सहायक कंपनियों और क्रॉसहोल्डिंग की परत आम तौर पर टैक्स से बचने के संकेत हैं." उन्होंने एक उदाहरण दिया कि यह कैसे काम कर सकता है. हिंदुस्तान टाइम्स लिमिटेड, जो हिंदुस्तान टाइम्स हाउस का मालिक है, “दिखाएगा कि उसने एचटी मीडिया की इमारत किराए पर ली है. फिर एचटी मीडिया के वार्षिक रिटर्न में इसे नुकसान के रूप में दिखाया जाएगा, लेकिन असल में ये एक ही मालिक की दूसरी कंपनी को जा रहा है.” पिछले साल, हिंदुस्तान टाइम्स लिमिटेड ने 91 करोड़ रुपए का कारोबार दिखाया, इसमें से दो तिहाई से अधिक "रियल स्टेट और लीज़ड प्रॉपर्टी से" और बाकी "हाउसकीपिंग और रखरखाव" से.

श्याम सुंदर भरतिया अपने भाई हरि के साथ जुबिलेंट भारती ग्रुप के प्रमुख हैं. भरतिया भाइयों का कुल नेट वर्थ लगभग 2 अरब डॉलर है, जो उन्हें देश के सौ सबसे अमीर लोगों में शामिल करता है. अजय अग्रवाल/हिंदुस्तान टाइम्स/गैटी इमेजिस

2009 में भरतिया ने एचटी मीडिया से हिंदुस्तान के स्वामित्व को एक नई सहायक कंपनी हिंदुस्तान मीडिया वेंचर्स में स्थानांतरित कर दिया. एचएमवी बहुमत वाले एचटी मीडिया के स्वामित्व में है-इसका मतलब है कि भरतिया के हिंदी अखबार के नियंत्रण की श्रृंखला भी सहायक उपक्रम की अधिकतम सीम का नियम तोड़ती है, इस बार एक और अतिरिक्त परत के साथ.

लगभग एक दशक तक भरतिया के साथ काम करने वाले एक संपादक ने मुझे बताया कि फिलहाल हिंदुस्तान टाइम्स के कई कर्मचारी एचटी मीडिया के पे रोल पर नहीं है बल्कि एचटी डिजिटल स्ट्रीम के पे रोल पर हैं, जिस कंपनी को 2015 में पटना में एक पते पर पंजीकृत किया गया था. उन्होंने कहा कि उनमें डेस्क संपादक, वेबसाइट प्रबंधक और कुछ पत्रकार शामिल हैं और अनुमान लगाया है कि वो लगभग दो-तिहाई कर्मचारियों के बराबर हैं. एडिटर ने कहा, “इन कर्मचारियों को तकनीकी रूप से पत्रकारों के रूप में नहीं रखा जाता. प्रबंधन मजीठिया मजदूरी बोर्ड की सिफारिशों को बाधित कर सकता है.” जो पत्रकारों के लिए रोजगार के नियम निर्धारित करता है. एचटी डिजिटल स्ट्रीम का स्वामित्व एचटी मीडिया के पास है-फिर से सहायक परतों की सीमा का उल्लंघन- और आंशिक रूप से हिंदुस्तान मीडिया वेंचर्स के पास है.

2017 में इंडियन एक्सप्रेस ने बताया कि बरमूडा स्थित कानून फर्म द्वारा लीक किए गए दस्तावेज हिंदुस्तान टाइम्स लिमिटेड को Go4i.com (बरमूडा) लिमिटेड नामक एक विदेश कंपनी से जोड़ते हैं. भरतिया और प्रियव्रत को इस इकाई का निदेशक बताया गया है और हिंदुस्तान टाइम्स लिमिटेड ने 2003-04 वित्तीय वर्ष की अपनी फाइलिंग में इसे एक सहायक के रूप में लिस्ट किया था, बाद के सालों में ऐसा नहीं किया गया.

हिंदुस्तान टाइम्स लिमिटेड ने इंडियन एक्सप्रेस को किसी भी गलती से इनकार करते हुए एक बयान भेजा. कंपनी ने कहा कि वो "Go4i.com (बरमूडा) लिमिटेड में प्रत्यक्ष शेयरधारक नहीं है" और अपनी वार्षिक रिपोर्ट में "सभी आवश्यक विवरण" का खुलासा किया था और Go4i.com (बरमूडा) एक अस्पष्ट तारीख को "बंद हो गया" था, हिंदुस्तान टाइम्स लिमिटेड के ऐसे किसी दायित्व को समाप्त करते हुए जिसके तहत नियामक को फाइलिंग में विदेशी इकाई के बारे रिपोर्ट करना था. इसने कहा कि "बरमूडा समेत विदेश में एक कंपनी को शामिल करना पूरी तरह से वैध है और भरतिया कानून में और नियामक शासन के अनुसार स्वीकार्य है."

वित्त मंत्री के रूप में अपनी क्षमता में अरुण जेटली ने बार-बार वादा किया है कि सरकार उन सभी भारतीय फर्मों और नागरिकों की जांच करेगी जिन्हें ज्ञात टैक्स हेवन में ऑफशोर इकाइयों के लिंक मिलते हैं.

भरतिया की कंपनियों ने समाचार पत्र प्रकाशन से परे कई परियोजनाओं में अपने कुछ मुनाफे को लगाया. एचटी मीडिया के मौजूदा होल्डिंग्स में नौकरी साइट Shine.com, फीवर एफएम रेडियो चैनल और मोबाइल मार्केटिंग सेवा शामिल हैं. पिछले उद्यमों में 1990 के मध्य में एक सामान्य मनोरंजन चैनल होम टीवी शुरू करने के लिए एक असफल प्रयास और कुछ साल बाद डिजिटल मीडिया में एक दुर्भाग्यपूर्ण प्रयास शामिल हैं. एचटी मीडिया के अन्य ऑनलाइन उद्यमों में शिक्षा पोर्टल एचटीकैम्पस और देसीमार्टिनी जो पहले सोशल नेटवर्क था और एचटी मीडिया द्वारा खरीदे जाने के बाद मूवी-रिव्यू साइट में बदल गया.

उनके पति के हित काफी दूर तक हैं और भारत समेत कई उद्योगों विदेशों में फैले हुए हैं. जुबिलेंट भरतिया ग्रुप की वेबसाइट में एक सौ से अधिक देशों में ग्राहकों के साथ एक वैश्विक दवा व्यापार, विमानन बिक्री और रखरखाव में साझेदारी और ऑडी, मासेराटी और पोर्श के लिए भारतीय डीलरशिप अधिकार का दावा है. समूह देश में सभी डोमिनोज़ पिज्जा और डंकिन डोनट्स आउटलेट संचालित करता है, एक खाद्य सेवा प्रभाग है, और उर्वरक के अलावा गोंद जैसी चीजें भी बनाती है. यह ऑफशोर ड्रिलिंग कंपनियों को सपोर्ट सेवाएं भी देती है.

फोर्ब्स के हिसाब से ग्रुप के मुनाफे ने श्याम और हरि भरतिया के कुल संपत्ति को 2 अरब डॉलर तक बढ़ा दिया है, जो उन्हें भारत के 100 सबसे अमीर लोगों में शामिल करता है. भरतिया अन्य व्यापारिक समूहों से शादियों द्वारा जुड़े हुए हैं. 2013 में श्याम और शोभना  भरतिया के छोटे बेटे शामित की शादी नयनतारा कोठारी से हुई थी. नयनतारा चेन्नई के उद्योगपति श्याम कोठारी की बेटी हैं और उनकी पत्नी नीना, मुकेश और अनिल अंबानी की बहन हैं.

2004 में भरतिया ने जुबिलेंट भारतीय ग्रुप की एक विदेशी सहायक कंपनी के माध्यम से जुबिलेंट ऑफशोर ड्रिलिंग नामक एक लिमिटेड लायबिलिटी कंपनी शुरू की. 2013 में जुबिलांट ऑफशोर ड्रिलिंग ने नौ सरकारी बैंकों से कुल 1340 करोड़ रुपए का ऋण लिया- इनमें स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, इंडियन बैंक, एक्सपोर्ट-इंपोर्ट बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ इंडिया, कॉर्पोरेशन बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक और बैंक ऑफ बड़ौदा थे. तीन साल बाद कंपनी ने इन सभी ऋणों को माफ करने की मांग की और दिवालियापन दाखिल करने के बाद मार्च 2017 में दिवालिया घोषित कर दिया गया. हालांकि जुबिलेंट भारती ग्रुप की बाकी कंपनियों के पास ऋण चुकाने का औपचारिक उत्तरदायित्व नहीं है, लेकिन भारतीय के अन्य होल्डिंग्स के हेल्थ को देखते हुए डिफ़ॉल्ट पर विचार करना सही है. ज्यूबिलेंट फूडवर्क्स लिमिटेड का बाजार मूल्य, जो देश में सभी डोमिनोज़ पिज्जा और डंकिन डोनट्स आउटलेट के लिए फ्रैंचाइजी को नियंत्रित करता है, 16000 करोड़ रुपए से अधिक है.

2005 के दस्तावेज भरतिया भाइयों के साथ शोभना और प्रियव्रत भरतियाल दोनों को जुबिलेंट ऑफशोर ड्रिलिंग के शेयरधारकों के रूप में दिखाते हैं. 2013 में जब कंपनी ने ऋण लिया और 2016 जब दिवालियापन दायर किया तो उनमें से किसी का नाम वार्षिक रिपोर्ट में नहीं दिखाई देता. कंपनी को डिफॉल्ट करने से पहले, इसका नाम बदलकर जेओडीपीएल प्राइवेट लिमिटेड कर दिया गया था. इसने भरतिया की सिग्नेचर "जुबिलेंट" टैग को सार्वजनिक बैंकों के कर्ज पर भारी कॉर्पोरेट चूक के बढ़ते संकट से जुड़े रहने से बचा लिया. जबकि जेओडीपीएल ने दिवालिया कार्यवाही के दौरान 1340 करोड़ रुपए के सार्वजनिक ऋण को नहीं चुकानी की बात स्वीकारी, कंपनी ने 2016-2017 के वित्तीय वर्ष में कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय को अंतिम फाइलिंग में सरकारी बैंकों का 2,290 करोड़ रुपए का भुगतान नहीं किए गए ऋणों का एक बड़ी संख्या दिखाई.

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नरेश मोहन से जंग जीतने के बाद शोभना भरतिया ने 1999 में वीर सांघवी को हिंदुस्तान टाइस्म का संपादक नियुक्त किया. सदी के अंत में पेपर में काम करने वालों की याद में सांघवी अपने सिर के चारों ओर एक अभामंडल के साथ दिखाई देते. सांघवी संग काम करने वाले एक बेहद उम्रदराज संपादक ने कहा, “वो प्रतिभा के धनी थे. बहुत कम लोग इतने विलक्ष्ण होते हैं.” सांघवी के साथ काम करने वाले तीन और संपादकों ने मुझे बताया कि कैसे वो अपने सेकेरेट्री को एक ही समय में निर्देशित करने से पहले अपने दिमाग में एक पूरा कॉलम लिख लेते थे.

एक संपादक के मुताबिक सांघवी ने अपनी पद संभालने के तुरंत बाद एक स्टाफ मीटिंग में कहा, “आप लोग 80 के दशक में अटके हैं. आपके पाठक पंजाबी बाग के 50 साल के लोग हैं जिनके बेटे शायद टाइम्स ऑफ इंडिया पढ़ते हैं.” चीजों को ताजा करने के अपने प्रयासों के तहत उन्होंने दिल्ली में एक नया सिटी एडिशन और एक नई संडे मैगजीन शुरू की. दिल्ली के बाहर नए संस्करणों की लहर भी उनके कार्यकाल में शुरू हुई. एक संपादक के मुताबिक जो उन्हें अच्छी तरह से जानते हैं सांघवी ने कहा कि वो शुरुआत से ही मुंबई संस्करण के लॉन्च पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं.

1980 के दशक के मध्य से सांघवी केके बिड़ला के साथ लंच करते थे, तब वो कलकत्ता से प्रकाशित एक प्रभावशाली पत्रिका संडे को संपादित करते थे. 1990 के दशक के अंत तक वो टीवी पर एक जाना-मान चेहरा थे और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनके आंतरिक सर्कल तक उनकी पहुंच थी. हिंदुस्तान टाइम्स के एक पूर्व स्तंभकार ने कहा, "उनके लिए वाजपेयी के मुख्य सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्रा को फोन करना और क्या चल रहा है ये पता करना संभव था. तो एक तरह से वो केके और शोभना दोनों बाईपास कर अपना कॉल लिख सकते थे. "

इसे पचा पाना मुश्किल था. दोनों को दशकों से जानने वाले एक व्यक्ति ने मुझे बताया, “वीर ने सोचा कि उसका और शोभना  का रिश्ता बराबर का था. इस शहर में कई लोग ऐसी गलती कर जाते हैं.”

सांघवी के कुछ ही समय बाद हिंदुस्तान टाइम्स में शामिल हुए एक संपादक ने मुझे बताया कि एक बार टेलीविजन के लिए किए गए सांघवी के एक साक्षात्कार को अखबार पूरे पन्ने पर जैसे का तैसा छापने वाला था. आखिरी मिनट में इसे भरतिया के आदेश पर रोक लिया गया. संपादक ने कहा कि भरतिया कहा था, "वीर द्वारा टीवी पर किए गए चीजों को कवर करने की जरूरत नहीं है."

सांघवी ने 2003 में संपादक का पद छोड़ दिया लेकिन यह कदम ज्यादातर उपस्थितियों के बारे में था. उन्हें तुरंत संपादकीय निदेशक बना दिया गया था और उनके नीचे काम करने वाले कई लोगों के मुताबिक बड़े पैमाने पर वो ही अखबार चलाते रहे. अगले संपादक शेखर भाटिया थे.

वाजपेयी की बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार द्वारा कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन को रास्ता दिए जाने के बाद हिंदुस्तान टाइम्स को कभी-कभार की फिसलने के अलावा जस का तस चलता रहा. 2006 में मुंबई में लोकल ट्रेनो में कई बम धमाकों में 200 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई, रविवार के संपादक आदित्य सिन्हा ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन पर सुरक्षा में चूक का दोष मढ़ते हुए एक खबर दायर की. जब इस घटना पर पेपर की कवरेज छपने के लिए तैयार थी तो इसमें शामिल एक संपादक ने कहा, "त्रासदी और पीड़ितों के बारे में एक पूरा पन्ना था-और एक पन्ने में नारायणन के एक स्केच के साथ आदित्य की कहानी थी और 'असफलता' को मुख्य रूप से शीर्षक में दिखाया गया था."

सांघवी के जाने के तुरंत बाद आए संपादक ने याद किया कि शेखर भाटिया "ने स्प्रेड देखा और कहा, 'ठीक है,' फिर घर चले गए." क्योंकि संभवत: ये पहले पन्ने पर नहीं थी और कहानी साफ तौर से भरतिया के 8 बजे कॉल के दौरान भी नोटिस में नहीं आई और प्रिंट के लिए गई.

पूर्व स्तंभकार ने मुझे बताया, “उस समय बैनर हेडलाइन में नाम नहीं लिए जाते थे और हिंदुस्तान टाइम्स में तो बिल्कुल नहीं.” स्टोरी के प्रोडक्शन में शामिल संपादक ने कहा कि संडे के संपादक सिन्हा को कुछ महीने “दिमाग ठंडा करने” का निर्देश दिया गया इसके पहले भरतिया ने उन्हें बताया कि वो “देश के तीसरे सबसे ताकतवर व्यक्ति के खिलाफ ऐसी स्टोरी नहीं लिख सकते.”

स्टोरी छपने के बाद भरतिया से बात करने वाले एक संपादक ने याद किया कि शोभना ने बताया था कि उन्होंने खुद नारायण से माफी मांगी थी. जब शोभना पर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को ये बताने का दबाव डाला गया कि खबर छपी कैसे तो “उन्होंने नारायणन से कहा कि ये सिस्टम के फेल होने की वजह से हुआ.”

भाटिया का कॉन्ट्रैक्ट रिन्यू नहीं हुआ. एचटी मीडिया ने उनकी जगह किसी को खोजने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय हेडहंटिंग फर्म को नियुक्त किया. उस समय न्यूजरूम में काम करने वाले एक संपादक ने मुझे बताया, “मुझसे मत पूछिए क्यों, लेकिन अचानक एक नया वाक्यांश आया- 'सबसे अच्छी प्रैक्टिस.' वे चाहते थे कि पत्रकारिता के सबसे अच्छी प्रैक्टिस में प्रशिक्षित कोई आए और स्टैंडर्ड को बढ़ाएं.”

रॉयटर्स में डेढ़ दशक बिताने वाले चैतन्य कालबाग को 2006 में संपादक नियुक्त किया गया. शहर रिपोर्टरों के सफर से अपना रास्ता तय करने वाले अखबार के पुराने लोग ने इस पर असंतोष जताया. एक पुराने व्यक्ति ने मुझे बताया, “उन्होंने ऐसा संपादक लाया जिन्हें अकबर रोड और अशोक रोड के बीच का अंतर नहीं पता था.”

हिंदुस्तान टाइम्स के स्टैंडर्ड से भी कलबाग का कार्यकाल बहुत छोटा था. कलबाग के समय रखे गए एक कर्मचारी ने याद किया कि संपादक ने एक बार संपादन पृष्ठ से एक कॉलम ये कह कर हटा लिया कि ये प्रिंट लायक नहीं. कर्मचारी ने कहा, “लेखक ने मिस बी को फोन किया. उन्होंने चैतन्य को फोन किया. कालबाग ने कहा, ‘मैं संपादक हूं.’ शोभना ने उनसे कहा कि वो संपादकीय निदेशक हैं कुछ दिन बाद कालबाग ने नौकरी छोड़ दी.”.

पंकज पॉल जिन्होंने मुख्य रूप से अमेरिका के कई क्षेत्रीय समाचार पत्रों में ग्राफिक और आर्ट निर्देशक का काम किया था, कलबाग के समय में प्रबंध संपादक के रूप में बोर्ड में शामिल हुए. उन्हें संपादक बनाया गया था, लेकिन वो भी लंबे समय तक नहीं टिके.

2008 में, अंतरराष्ट्रीय संपादकों के साथ दो विफलताओं के बाद, भरतिया ने समर हलारकर की ओर रुख, मुंबई के नए संस्करण के संपादक और उन्हें हिंदुस्तान टाइम्स के प्रबंध संपादक नियुक्त किया. संपादक का पद खाली होने की वजह से उन्होंने न्यूजरूम का नेतृत्व किया.

खुल कर काम करने का आश्वासन मिलने के बाद हलारकर इसके लिए राजी हो गए. राजू नारीशेट्टी, जिन्हें वो जानता थे, को पहले एचटी मीडिया के लिए एक नया बिजनेस पेपर मिंट शुरू करने के लिए लाया गया था. हलारकर ने कहा, “तो मुझे बताया गया कि आपके दोस्त इस नए पेपर के लिए बहुत अच्छी चीजें कर रहे हैं. आप आकर एचटी के मानकों को बढ़ा सकते हैं. हम इसे न्यूयॉर्क टाइम्स के मानकों पर ले जाना चाहते हैं.”

हलारकर सिर्फ अगले साल तक टिके. उन्होंने मुझे बताया कि इसके अलावा कि वो अपने परिवार और अपने पत्रकारिता के लिए अधिक समय चाहते हैं, उनके जाने का मुख्य कारण, “एक संपादक के रूप में मेरे फैसलों में व्यापार पक्ष का हस्तक्षेप था.” उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स के साथ लेखक और एडिटर-इन-लार्ज के रूप में कुछ सालों तक काम जारी रखा.

हलारकर ने कहा, “देखें, निश्चित रूप से ऐसे लोग हैं जो समझौता करते हैं. लेकिन देश भर में कुछ शानदार संवाददाता थे. वरिष्ठों के अच्छे संपादन और पर्यवेक्षण में वो शानदार रिपोर्टिंग कर सकते थे.”

हलारकर के साथ काम करने वाले एक संपादक ने कहा, "लेकिन एचटी के साथ समस्या," ये है कि असल में बड़ी कहानियां जो सरकार को हिला सकती हैं, वो कभी नहीं छपेंगी."

राडिया टेप में वीर सांघवी (केंद्र) शामिल थे, जिसमें मुकेश अंबानी की तरफ से लॉबीस्ट ने उन्हें अपना कॉलम दिया था. उन्होंने-हिंदुस्तान टाइम्स में दावा किया कि टेप डॉक्टर्ड थे. बीसीसीएल

अखबार की पत्रकारिता भी भरतिया के रिश्तेदारों के व्यापारिक हितों तक ही सीमित थी. संपादक ने कहा, “हरि भरतिया का कारोबार गुजरात में है, जिसका मतलब है कि आप वहां नरेंद्र मोदी की सरकार की आलोचना नहीं कर सकते.” 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी के शासन के कुछ महीने बाद गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगों से जुड़े नौ मामलों को फिर से खोल दिया. अखबारों के संपादकों ने रिपोर्टरों को उन इलाकों में वापस भेज जहां हिंसा हुई थी. संपादक ने कहा, “हमने नौ स्टोरी की योजना बनाई थी, लेकिन अखबार में सिर्फ तीन कहानियां छपीं, जिसके बाद मोदी ने परिवार से शिकायत की और बाकी की स्टोरी अखबार में कभी नहीं पहुंचीं. बाद में कुछ नौकरशाहों ने रिपोर्टरों में से एक को बताया कि मुख्यमंत्री ने परिवार को उनके व्यापारिक हितों की याद दिलाई थी.”

संपादक ने मुझे बताया कि इसके अलावा “उत्तर प्रदेश का चीनी उद्योग ऐसा विषय है जिस पर आप नहीं लिख सकते क्योंकि व्यापक बिड़ला परिवार का उस व्यापार में हित है.”

मिंट के राजू नारिशेट्टी जिन्होंने 2007 में पेपर लॉन्च करने में मदद की थी बीचे में ही चले गए. अनुमान ने इसे 2008 में एक अज्ञात सरकारी नौकरशाह द्वारा पेपर में लिखे गए एक ओप-एड से जोड़ा हुआ था, जिसने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर आरोप लगाया था कि "नेता के रूप में वो सभी मायनों में विफल रहे." विपक्ष ने संसद में सरकार पर हमला करने के लिए इसका इस्तेमाल किया था. नारिशेट्टी ने मुझे एक ईमेल में बताया कि अटकलें सिर्फ अटकलें थीं- और उन्होंने कभी प्रबंधन से हस्तक्षेप का सामना नहीं किया. नारिशेट्टी ने लिखा कि न तो एचटी मीडिया के सीईओ राजीव वर्मा और न ही भरतिया "को मेरे फैसले के बारे में समय से पहले बताया गया था. इसके छपने के बाद भी मिसेज बी से मेरी कोई बात नहीं हुई."

इसके बजाय ओप-एड की प्रामाणिकता पर सवाल उठाने वाले सिंह के कैबिनेट मंत्री पी चिदंबरम पर मिंट ने हमला किया. नारिशेट्टी ने आगे कहा कि अगर प्रबंधन असहज होता तो, "आपको लगता है कि वो उस ओप-एड के बाद चिदंबरम पर हमला करने देता, नहीं न?"

नारिशेट्टी ने ये भी कहा कि उनके कार्यकाल में मिंट ने "पाइनएप्पल पिज्जा का एक आलोचनात्मक फूड रिव्यू छापा, इसका प्रमुखता से लॉन्च हुआ था जिस पर कंपनी के फूड फ्रेंचाइजी बिजनेस ने बहुत सारे मार्केटिंग का पैसा खर्च किया था और मेहनत की थी." उन्होंने "बाद में यह सुना कि उस बिजनेस के कुछ वरिष्ठ अधिकारी नाराज थे" और उनमें से एक ने उन्हें गुस्से से भरा नोट भेजा" लेकिन "ना ही श्रीमती भरतिया या उनके बेटे श्याम-जिनके साथ हर हफ्ते एचटी लीडरशिप की बैठकों में मैं काफी समय बिताया-इसे मुद्दा बनाया."

नारिशेट्टी ने भरतिया और हिंदुस्तान टाइम्स के संपादकों के साथ-साथ अपनी पेशेवर स्थिति के बीच अंतर बताया. उन्होंने लिखा, “एचटी की संपादकीय निदेशक के रूप में वो हिंदुस्तान टाइम्स मास्टहेड पर बड़ा नाम है और जो भी उस न्यूजरूम में काम करना चाहता है उसे स्वीकार करने के लिए तैयार होना चाहिए. मुझे समझ में नहीं आता कि प्ले और प्लेसमेंट जैसे फैसलों में या दिन की प्रमुख कहानियों में उनका सक्रिय होने का फैसला, उस अखबार में उन लोगों के लिए आश्चर्यजनक क्यों है, मिंट या हिंदुस्तान की मालिक होने के उलट वो हिंदुस्तान टाइम्स में मालिक होने के अलावा वो शीर्ष संपादकीय व्यक्ति भी हैं.”

हलारकर के बाद अगले संपादक संजॉय नारायण थे जिन्हें बिजनेस टुडे से लाया गया था. उनके एक करीबी दोस्त ने मुझे बताया, “पत्रकारों से राजनेताओं तक संजॉय के पास हर किसी के लिए के लिए बहुत तिरस्कार था. उन्हें म्युजक और बाइक बहुत पसंद थीं. वो अपने ट्रायंफ मोटरसाइकिल पर सबसे ज्यादा खुश होते थे.” अखबार में नारायण के कॉलम का नाम “डाउनलोड सेंट्रल” था जो समकालीन संगीत के बारे में था. वो आठ सालों तक संपादक रहे- देवदास गांधी के बाद से सबसे लंबे समय तक- फिर उन्होंने बॉबी घोष को रास्ता दिया.

2009 में हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप शिखर सम्मेलन की शाम ओपन मैगजीन ने लॉबीस्ट नीरा राडिया और कई नेताओं, बिजनेस टाईकूनों और पत्रकारों के बीच लीक टेलीफोन बातचीत छापी. वीर सांघवी तब हिंदुस्तान टाइम्स में एक सलाहकार की भूमिका में थे और तब भी अखबार के संपादकीय पन्नों पर सबसे मशहूर नाम थे. अपने सचिव को तैयार कॉलम के बारे में निर्देशित करने के लिए प्रसिद्ध वीर को इस बार मुकेश अंबानी की ओर से राडिया द्वारा उनके कॉलम के बारे में बताया गया था.

मुकेश हाल ही में अपने भाई अनिल के खिलाफ बॉम्बे हाईकोर्ट में एक केस हार हए थे और अपने भाई को छूट वाली प्राकृतिक गैस की आपूर्ति करने की अप्रिय संभावना का सामना कर रहे थे. मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया. राडिया को वीर से इस बारे में बात करते सुना गया कि वो हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ तर्कों को मजबूत करें. सांघवी ने पूछा, “आप कैसी स्टोरी चाहती हैं.” जब राडिया ने मुकेश खुद से बात करने की संभावना जताई तो सांघवी सहमत हुए कि "ये पूरी तरह लिखित होना चाहिए. मुझे आना है और उसके साथ एक रन-थ्रू करना है."

सांघवी ने इस बातचीत के एक दिन बाद छपे एक कॉलम में उन्हें बताई गई बातों को लिखा था.

एक और रिकॉर्डिंग में राडिया और बरखा दत्त शामिल थे, बरखा उस समय एनडीटीवी के प्राइम टाइम एंकर और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए एक स्तंभकार थीं. इसमें दत्त ने संचार मंत्री की नियुक्ति की कोशिश को प्रभावित करने के लिए कांग्रेस के सदस्यों से क्या कहना है, इस पर निर्देश लिए-ये राडिया के कुछ क्लाइंट्स के लिए बेहद अहम था जो टेलिकम्युनिकेशन के बिजनेस में थे.

हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व कर्मचारी ने मुझे बताया, “शुरुआती प्रतिक्रिया में इसे अनदेखा किया गया. लेकिन अगले दिन ये आउटलुक के भी कवर पर था.” राडिया टेप के ब्लैकआउट करने में लगभग सभी अन्य प्रमुख प्रकाशनों और समाचार चैनलों में हिंदुस्तान टाइम्स भी शामिल हो गया. भरतिया ने टेपों को छापने वाली कम से कम एक मैगजीन को व्यक्तिगत रूप से फोन किया और कहा कि वो सांघवी या दत्त के बारे में जो भी कहना चाहते हैं कहें, लेकिन हिंदुस्तान टाइम्स को बख्श दें.

बाद में दत्त ने सफाई दी कि राडिया ने उनसे जो कुछ कहा वो उन्होंने कांग्रेस को कभी नहीं बताया और वो सिर्फ जानकारी निकालने की कोशिश कर रही थीं. अगर ये सच है, तो वह कैबिनेट नियुक्ति को प्रभावित करने की कोशिश कर रही एक कॉर्पोरेट लॉबीस्ट की खबर ब्रेक कर सकती थीं, जो उन्होंने कभी नहीं किया. हालाकिं, उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स में अपना कॉलम जारी रखा.

बाद में सांघवी ने हिंदुस्तान टाइम्स में दावा किया कि टेप डॉक्टर्ड थे. वो आउटलुक के खिलाफ मानहानि का केस लड़ रहे हैं. फिर भी, उन्होंने अपना साप्ताहिक कॉलम लिखना बंद कर दिया, हालांकि वो अखबार के आधिकारिक सलाहकार बने रहे. एचटी मीडिया की आखिरी वार्षिक रिपोर्ट अभी भी दिखाया गया है कि कंपनी उन्हें पैसे देती है.

हिंदुस्तान टाइम्स ने अपने पाठकों को कभी इस स्कैंडल पर सफाई देने की जरूरत महसूस नहीं की.

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एक दशक के लिए हिंदुस्तान टाइम्स में काम करने वाले संपादक ने मुझे बताया कि शोभना भरतिया, "कभी-कभी अखबार के संपादकीय पक्ष में सुधार के बारे में बहुत गंभीरता से बात करती हैं." कई लोगों ने कहा कि वो समय-समय पर किसी ऐसे मुद्दे के कवरेज के बारे में शिकायत करती है जिसने उसका ध्यान खींचा हो और कभी-कभी अपने संपादकों को अधिक इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टरों को काम पर रखने के लिए कहती हैं.

लेकिन, भरतिया के साथ काम करने वाले पूर्व कार्यकारी ने कहा, "जब आप उन्हें बताते हैं कि संपादकीय गुणवत्ता तकनीक को ठीक करने की बात नहीं है बल्कि मिशन जैसा मामला है और संपादकिय पक्ष में उनका दख्ल कैसे इसके आड़े आ सकता है, तो वो कहती हैं कि लोग सिर्फ बहाना बना रही हैं.”

भरतिया के करीबी रहे एक संपादक ने मुझे बताया, “वो बड़ा प्रकाशक होने के विचार को पसंद करती हैं और इसका आनंद लेती हैं. लेकिन क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि बेन ब्रैडली के जैसे एक एडिटर हिंदुस्तान टाइम्स में कितने दिन टिक पाएंगे?” ब्रैडली वॉशिंगटन पोस्ट के दिग्गज पत्रकार रहे हैं.

कैथरीन ग्राहम 79 की हैं और पोस्ट उनके बेटे डॉनल्ड के हाथों में है जो 51 साल के हैं. उनका स्वभाव, उनकी रुचियां, और उनकी शैली उनकी मां से काफी अलग हैं... एक प्रकाशक के रूप में डॉन ग्राहम को कभी भी पेंटागन पेपर और वॉटरगेट जैसे दो महत्वपूर्ण संकटों का एक साथ सामना नहीं करना पड़ सकता है. लेकिन, अगर ऐसा होता है तो उनके लिए फैसला उतना कठिन नहीं होना चाहिए जितना कि कैथरीन ग्राहम के लिए था. उन्हें खुद को तलाशने की जरूरत नहीं है, न ही उन्हें सिद्धांतों को तलाशने की दरकार है. उनके पास पहले से उदाहरण मौजूद है जिसका वो पालन कर सकते हैं.

शोभना भरतिया अभी 61 साल की हैं. उनके बेटे प्रियव्रत 42 के हैं. प्रियव्रत के साथ काम करने वाले हिंदुस्तान टाइम्स के चार पूर्व कर्मचारियों ने मुझे बताया कि वो पेपर के व्यावसायिक निर्णयों में बारीकी से शामिल रहते हैं. पूर्व कर्मचारियों में से दो ने कहा कि प्रियव्रत जिसे "कॉन्टेंट साइड" कहते हैं उसमें उन्हें ज्यादा दिलचस्पी नहीं है. एक पूर्व कर्मचारी ने कहा, “उनके राजनीतिक विचार हैं. लेकिन वो मोटे तौर पर उनके व्यापारिक हितों से जुड़ी जानकारी है.”

प्रियव्रत डेढ़ दशक से एचटी मीडिया के निदेशक हैं- जब ये कंपनी बनी थी उसी समय उन्हें ये पद दिया गया था- और उनकी मां द्वारा अखबार की दिशा तय किए जाने में वो उनके साथ खड़े रहे हैं. अगर हिंदुस्तान टाइम्स कभी प्रियव्रत के हाथों आता है और वो भी किसी संपादकीय कठिनाइयों में फंसते हैं तो उनके पास भी एक उदाहरण है.

अनुवाद: तरुण कृष्ण
(द कैरवैन के दिसंबर 2018 अंक में प्रकाशित)