हिंदुस्तान टाइम्स दावा करता है कि 1924 में इसके उद्घाटन समारोह की अध्यक्षता मोहनदास गांधी ने की थी और उनके बेटे देवदास इस समाचार पत्र को सबसे लंबे समय तक सेवा देने वाले संपादक थे. आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के शासन की आलोचना करने की हिम्मत दिखाने वाले इस समाचार पत्र के संपादक को मालिक केके बिड़ला ने बर्खास्त कर दिया था. बिड़ला इंदिरा गांधी के प्रति इतने समर्पित थे कि उन्हें आपातकाल के बाद देश छोड़ कर भागना पड़ा था. इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद से हटना पड़ा और इंदिरा को सहयोग करने के आरोप में गिरफ्तारी के डर से बिड़ला देश छोड़ कर चले गए. 1984 में देश लौटने के बाद वे कांग्रेस के सदस्य बने और राज्य सभा में चुन लिए गए. शोभना भरतिया भी राज्य सभा की सदस्य रही हैं और उन्हें भी कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने यहां भेजा था.
एक बार देखने पर अखबार का मोदी सरकार के प्रति झुकाव अद्भुत लग सकता है लेकिन इसके बीते कल और वर्तमान के आंतरिक कामकाज के अंदाज को नजदीक से देखने पर यह बड़ी बात नहीं लगती. 2014 में सरकार के बदलाव के बाद हिंदुस्तान टाइम्स में जो कुछ भी हुआ उसने पेपर के कामकाज के पैटर्न को दोहराया है.
केके बिड़ला ने अपने राजनीतिक करियर को लॉन्च करने के लिए पेपर का इस्तेमाल किया. हिंदुस्तान टाइम्स द्वारा इंदिरा गांधी को नाराज किए जाने के बाद एस. मुळगांवकर और बीजी वर्गीज जैसे सम्मानित संपादकों को इस्तीफा देना पड़ा. खुशवंत सिंह को इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत सिफारिश पर संपादक नियुक्त किया गया. राजीव गांधी के शासन के बाद के सालों में प्रेम शंकर झा को कांग्रेस के चिर प्रतिद्वंद्वी वीपी सिंह को नुकसान पहुंचाने के अभियान में हिस्सा लेने से इनकार करने के लिए संपादकीय पद से हटा दिया गया.
1980 के दशक के अंत में जिस समय प्रेम शंकर झा बाहर कर दिए गए, उस वक्त शोभना भरतिया हिंदुस्तान टाइम्स में कार्यकारी अधिकारी थीं. तब से ही उन्होंने सत्ता को नाराज करने वाले संपादकों की बलि लेने की परंपरा को जारी रखा है जिसका ताजा शिकार बॉबी घोष हैं. घोष की विदाई से पहले प्रधानमंत्री कार्यालय में भरतिया और नरेंद्र मोदी के बीच एक बैठक हुई थी. उस बैठक की बातें सार्वजनिक नहीं की गईं और मोदी के प्रधान सचिव ने इनकार करते हुए कहा कि इसका घोष से कोई संबंध नहीं था. लेकिन भरतिया के साथ काम करने वाले एक पूर्व कार्यकारी ने मुझे बताया, मुलाकात के बाद भरतिया को आने वाले अमित शाह और मोदी के प्रधान सचिव के कॉलों की संख्या में इजाफा हुआ जिनमें अखबार द्वारा की जा रही सरकार की कवरेज की शिकायतें होती थीं.
घोष की विदाई से पहले भरतिया की मोदी से मुलाकात की साफ वजह ये थी कि वे प्रधानमंत्री को हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप शिखर सम्मेलन में आमंत्रित करना चाहती थीं. इसकी सालाना कार्यक्रम से उन्हें ये फायदा हुआ कि उन्हें- फेसबुक, ह्युंडई और यस बैंक जैसे बड़े प्रायोजक मिले- इसमें खेल और मनोरंजन जगत के दिग्गजों के अलावा सरकार के आला अधिकारी और नेता शामिल हुए- ये वहीं लोग हैं जिनकी खबर लेना हिंदुस्तान टाइम्स का काम है. कुछ महीने पहले टाइम्स ऑफ इंडिया और इकोनॉमिक टाइम्स चलाने वाले टाइम्स ग्रुप द्वारा इसी तरह के एक इवेंट का मोदी और शाह ने बंटाधार किया था, उन्होंने अंतिम क्षण में इसके बहिष्कार की घोषणा की थी. इसे सबने टाइम्स ग्रुप के अखबारों द्वारा सरकार की कवरेज पर उनकी नाराजगी भरी प्रतिक्रिया के तौर पर लिया था. घोष की विदाई की घोषणा के कुछ महीनों बाद मोदी हिंदुस्तान टाइम्स लीडरशिप शिखर सम्मेलन में भरतिया के साथ मंच पर दिखाई दिए.
ये शिखर सम्मेलन जो डेढ़ दशक से ज्यादा समय से चल रहा है, एकमात्र ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां भरतिया के व्यापारिक हित सरकार के संरक्षण पर निर्भर करते हैं. हिंदुस्तान टाइम्स, विज्ञापनों पर सरकारी खर्च से अपने राजस्व का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त करता है. ये पैसा केंद्र सरकार के विज्ञापन निदेशालय और दृश्य प्रचार (डीएवीपी), विभिन्न राज्य सरकारों के प्रचार निदेशकों और देश भर में सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कई निगमों और संस्थानों से आता है. भरतिया के हिंदी दैनिक अखबार हिंदुस्तान के लिए भी यही बात सच है. यह उत्तर भारतीय राज्यों जमकर बिकता है.
(कारवां के दिसंबर अंक में प्रकाशित कवर स्टोरी का अंश. पूरी रिपोर्ट यहां पढ़ें.)