3 अक्टूबर को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) प्रशासन ने छात्रावासों के लिए एक नए इंटर-हॉल एडमिनिस्ट्रेशन (आईएचए) मैनुअल जारी किया. आईएचए जेएनयू के 18 छात्रावासों का प्रबंधन करने वाला निकाय है. इस मैनुअल को विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर अपलोड किया गया. छात्रावास के नियमों में प्रस्तावित बदलाव और संशोधित शुल्क बढ़ोतरी के चलते विवाद शुरू हो गया. लगभग एक महीने से विश्वविद्यालय के छात्र मसौदा मैनुअल का विरोध कर रहा है. प्रशासन ने आंशिक रूप से प्रस्ताव वापस ले लिया है.
जेएनयू छात्र संघ की अध्यक्ष और विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस में एमफिल की छात्रा आइशी घोष इन विरोध प्रदर्शनों में सबसे आगे रही हैं. नवंबर के अंत में, कारवां के संपादकीय सहायक अप्पू अजीत के साथ बातचीत में, घोष ने बताया कि इन विरोध प्रदर्शनों को अप्रत्याशित समर्थन मिला. उन्होंने प्रस्ताव के खिलाफ छात्र संघ के संघर्ष, विश्वविद्यालय के कुलपति एम. जगदीश कुमार के रवैये और भारत में सार्वजनिक शिक्षा में शुल्क वृद्धि के व्यापक निहितार्थों के बारे में बात की.
जेएनयू प्रशासन के परिपत्र ने डीन ऑफ स्टूडेंट के कार्यालय को सुझाव भेजने के लिए जेएनयू के छात्र समुदाय को आमंत्रित किया है. हमने, जेएनयूएसयू के प्रतिनिधि होने के नाते मैनुअल पढ़ा जिसमें कुछ असंगत बातें थीं, जैसे छात्रों को डायनिंग हॉल में "उचित कपड़े पहनकर" आने के लिए कहा गया था. कर्फ्यू का समय रात 11 बजे या लाइब्रेरी बंद होने के आधे घंटे के बाद, जो भी बाद का वक्त हो, तय किया गया है. हमने देखा कि शुल्क संरचना और आरक्षण आवंटन का पूरा भाग नई नियमावली में नहीं है. लिहाजा, छात्रों का गुस्सा फूट पड़ा.
आमतौर पर, जब भी जेएनयू में कोई विरोध प्रदर्शन होता है तो छात्र संघ लोगों से बात करता है और उन्हें बताता है कि विरोध क्यों हो रहा है. लेकिन इस बार हमें ज्यादा नहीं करना पड़ा. जब भी मैं कहीं जाती छात्र खुद ही पूछते, “जेएनयूएसयू की क्या योजना है? हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते.'' हमने कहा कि डीन ऑफ स्टूडेंट ने हमसे सुझाव मांगे हैं, उन्हें यह रचनात्मक तरीके से सुझाव देना चाहिए. प्रशासन को हमारी परवाह तो नहीं है लेकिन फिर भी हमने सोचा कि हम सकारात्मक तरीके से अपने सुझाव देंगे.
हमने एक मसौदा तैयार किया और छात्रों से कहा कि अगर वे हमारे बिंदुओं से सहमत हैं तो उन्हें इसे डीन ऑफ स्टूडेंट को ईमेल करना चाहिए. यह मसौदा पत्र में कहा गया है कि विश्वविद्यालय द्वारा तैयार मसौदा असंगत है और इसे पूरी तरह से वापस लिया जाए. मेरे अनुमान के मुताबिक, कैंपस में मौजूद तीन हजार छात्रों में से अधिकांश ने ईमेल किया. हमने सोचा था कि यह जानते हुए कि जेएनयू राजनीतिक है, प्रशासन आगे कार्रवाई नहीं करेगा.
18 अक्टूबर तक कैंपस आगे की कार्रवाई के लिए तैयार हो गया था. उस दिन दोपहर 3 बजे, मसौदे पर चर्चा करने के लिए एक बैठक होनी थी. छात्रावास के अध्यक्षों को इसके लिए बुलाया गया, लेकिन जेएनयूएसयू को नहीं बुलाया गया. प्रशासन का अनुमान था कि छात्र इस बात से नाराज हैं इसलिए उन्होंने 28 अक्टूबर सुबह 10 बजे तक के लिए बैठक स्थगित कर दी. वे लोग चालाकी कर रहे थे. बाहर के लोग नहीं देख सकते इसे लेकिन हमने पिछले चार सालों में देखा कि चीजें किस तरह से हो रही हैं. दिवाली के एक दिन बाद, सुबह 10 बजे मुश्किल से दस लोग विरोध के लिए आए, जो वास्तव में निराशाजनक स्थिति थी. यदि मसौदा बिना किसी विरोध के आईएचए की बैठक में पारित हो जाता तो स्थिति हमारे हाथ से निकल जाती. हमने सोचा कि अगले दस दिनों में अपने स्तर पर पूरी कोशिश करेंगे. हमने एक के बाद एक बैठकें कीं. उस समय कैंपस में कम से कम एक हजार छात्र रहे होंगे, हमें उन्हें इसमें शामिल करना था.
28 अक्टूबर की सुबह, जब मैं कंवेंशन सेंटर पहुंची, तो बैठक पहले ही बुलाई जा चुकी थी. लेकिन बैठक में शामिल होने के लिए आमंत्रित लोग नहीं पहुंचे थे. ज्यादातर लोगों को अंदर जाने से रोकने के लिए हमने सेंटर के दो दरवाजों को अवरुद्ध कर दिया. हमने व्हाट्सएप पर संदेश भेजे जिससे हलचल मच गई कि जेएनयूएसयू को अंदर जाने की अनुमति नहीं है और बैठक चल रही है. हम बैठक में शामिल होने में कामयाब रहे. हमने उपस्थित लोगों से कहा कि यह बैठक जेएनयूएसयू के बिना नहीं हो सकती है. जब तक कि जेएनयूएसयू मौजूद है, इस तरह की बंद-दरवाजे की बैठकें नहीं हो सकतीं.
तब तक लगभग छह सौ छात्र विरोध करने के लिए इकट्ठा हो चुके थे. दोपहर 2.50 बजे, हॉस्टल के अध्यक्षों को एक ईमेल मिला, जिसमें बताया गया कि सुबह की बैठक को 3 बजे तक के लिए स्थगित कर दिया गया है. इतने कम समय के नोटिस के कारण कुछ छात्रावास के अध्यक्ष इसमें शामिल नहीं हो सके.
हम उसी दिन से हड़ताल पर चले गए. उसके बाद कुछ स्कूलों में कुछ अकादमिक कामकाज हुए हैं. हॉस्टल स्तर पर हमारी आम सभाएं होती थीं. यह सब हुआ, लेकिन कुलपति हमसे नहीं मिल रहे थे. वह कभी बात नहीं करते. वह ऐसे कुलपति हैं जो राजनीति से प्रेरित हैं और सिर्फ अपने राजनीतिक आकाओं की सुनते हैं, छात्रों की नहीं.
हमने सोचा अगर कुलपति नहीं सुन रहे तो उनसे मिलने के लिए हम दीक्षांत समारोह में जाएंगे, जो दिल्ली के वसंत कुंज इलाके में 11 नवंबर को सुबह 9.30 बजे हो रहा था. हमने मार्च करने का फैसला किया. छात्र काफी उत्साहित थे - हमने रास्ते में चार बैरिकेड तोड़ दिए. हमने उस जगह पर घेराव किया- हम ऐसा करना नहीं चाहते थे, लेकिन हमने किया. हम कुलपति से तो नहीं मिल सके. लेकिन पदाधिकारियों को कार्यक्रम स्थल पर मौजूद केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल से मिलने की अनुमति दी गई.
भीड़ को तितर-बितर करने के लिए पुलिस ने छात्रों पर लाठीचार्ज किया और वाटर कैनन का इस्तेमाल किया. उस दिन प्रदर्शन खत्म होने तक कई छात्रों के हाथ-पैर टूट गए थे. उनके प्रतिनिधियों के रूप में, हम वास्तव में निराश थे और आश्चर्य में भी कि क्या छात्र फिर से विरोध प्रदर्शन में शामिल हों पाएंगे?
उसके बाद, हमने कुछ दिन की छुट्टी ली. हमें उम्मीद जगाने की जरूरत थी. फिर से, हमने छात्रों को जुटाने के लिए जमीनी स्तर से शुरुआत की. हमने 18 नवंबर को संसद में एक मार्च की योजना बनाई और पुलिस को बताया कि यह एक शांतिपूर्ण मार्च होगा. उस दिन कई प्रदर्शनकारियों को हिरासत में लिया गया था. उन्होंने मुझे भी उठाया, ताकि वे छात्रों को आगे बढ़ने से रोक सकें. लेकिन छात्रों ने साहस दिखाया, उन्होंने दूसरा रास्ता खोज निकाला और मार्च किया.
उस दिन दिल्ली के जोर बाग इलाके में पहुंचने के बाद पुलिस ने छात्रों पर बर्बरतापूर्वक लाठी चार्ज कर दिया. जूता पहने पुलिसकर्मी नेत्रहीन छात्र शशि भूषण पांडे के सीने पर चढ़े. यह दुर्भाग्यपूर्ण और निराशाजनक घटना थी. हमने कभी ऐसी घटना का सामना नहीं किया था- छात्रों को इस हद तक पीटा जा रहा था. एमएचआरडी ने घोषणा की कि गरीबी रेखा के नीचे के छात्रों की फीस वृद्धि वापस होगी. लेकिन इससे बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला.
लेकिन छात्र ऐसा क्यों कर रहे थे? क्योंकि शुल्क को कई जगह एक हजार प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया था. मैं यह कहने से नहीं डरती कि जब 1969 में जेएनयू का गठन हुआ था, तब यह सबसे कुलीन विश्वविद्यालयों में से एक था. जो छात्र यहां आते थे, वे मुख्य रूप से दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलीन महाविद्यालयों- मिरांडा हाउस, लेडी श्रीराम कॉलेज, सेंट स्टीफेंस, वगैरह से होते थे. ऐसे लोगों का प्रतिशत आज कम हो गया है.
छात्र समुदाय ने विचार किया कि कैसे जेएनयू को भारत का प्रतिनिधि विश्वविद्यालय बनाया जाए? इसने जेएनयू के डिप्राइवेशन-प्वांइट मॉडल का रास्ता खोला, जिसके तहत देश के पिछड़े क्षेत्रों के छात्रों और महिलाओं को प्रवेश परीक्षा में अतिरिक्त अंक दिए जाते हैं. अब देश के सबसे पिछड़े माने जाने वाले ओडिशा के कालाहांडी क्षेत्र के छात्र भी जेएनयू से पीएचडी कर लेते हैं. हम सार्वजनिक शिक्षा के इसी विचार की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं.
लेकिन कुलपति इसे वापस एक कुलीन वर्ग के विश्वविद्यालय में बदल देना चाहते हैं. सरकार कह रही है कि वह जेएनयू को बेहतर सुविधाएं देना चाहती है. हम समझते हैं कि बेहतर सुविधाएं प्रदान करने के लिए, आपको छात्रों से पैसे लेने की आवश्यकता नहीं है? अब तक, जेएनयू इस हद तक फीस बढ़ाए बिना, सर्वोत्तम सुविधाएं दे रहा है. अगर आप सुविधाएं प्रदान करना चाहते हैं, तो आपको मुझसे पैसे नहीं मांगने चाहिए. मेरे पिता मेरी शिक्षा के लिए पहले से ही टैक्स का भुगतान कर रहे हैं. दूसरी बात, अगर हम इस बारे में बात करना चाहते हैं कि भारत में चीजों को कैसे बेहतर किया जा सकता है तो चलिए बात करें कि शिक्षा को मुफ्त कैसे बनाया जा सकता है. हमें इस बिंदु पर चर्चा करने के लिए एक साथ मिलकर बातचीत करनी चाहिए.
जेएनयू छात्र के रूप में, इस समय प्रत्येक सेमेस्टर में हम पहले से ही 1100 रुपए का स्थापना शुल्क का भुगतान करते हैं. इसके साथ हम क्रॉकरी शुल्क, बर्तन शुल्क और समाचार पत्र शुल्क देते हैं. साथ ही, हर महीने, हम 2500-3000 रुपए मेस बिल का भुगतान करते हैं. हम सभी इनका भुगतान करते हैं.
अगर फीस वृद्धि शुरुआती प्रस्ताव के अनुसार हुई, तो हर महीने यह राशि लगभग 6000 रुपए या 7000 रुपए या इससे भी अधिक हो सकती है. हमें सेवा शुल्क के साथ मासिक आधार पर संस्थान को कई अन्य राशियों का भुगतान करना होगा. सेवा शुल्क, उन लोगों को देना होगा जो हमारे छात्रावासों में काम करते हैं या संविदाकर्मी हैं. हमारे कमरों का किराया, जो अभी प्रति व्यक्ति 10 रुपए है बढ़कर 300 रुपए हो जाएगा.
इसके साथ हमें पानी, बिजली, वाई-फाई, शैक्षणिक सामग्री आदि खरीदने के लिए उपयोगिता शुल्क देना होगा. उपयोगिता शुल्क लगाने से पता चलता है कि आप हमें छात्र नहीं, उपभोक्ता मान रहे हैं. हमसे ग्राहकों की तरह व्यवहार किया जा रहा है.
हम यहां पढ़ने के लिए आए हैं. लेखों-शोधपत्रों को पढ़ने के लिए हमें वाई-फाई मिलना चाहिए. हमारे पास सुरक्षित और स्वच्छ पेयजल होना चाहिए. विश्वविद्यालय को ये चीजें देनी चाहिए. यह ऐसा है जैसे कि एक स्कूल में, छात्रों के लिए नि:शुल्क स्वच्छ शौचालय होना ही चाहिए. कल, प्रशासन कह सकता है कि आपके पास जेट स्प्रे वाला भव्य शौचालय है - इसलिए हर बार जब आप शौचालय का उपयोग करें, तो आपको 50 रुपए का भुगतान करना होगा. यह क्या है? आप हमें ग्राहक मान रहे हैं.
करदाता के पैसे का उपयोग शिक्षा जैसी चीजों में किया जाना चाहिए. लेकिन करदाता के पैसे का उपयोग 3000 करोड़ रुपए की मूर्ति बनाने के लिए किया जाता है. नीरव मोदी देश से भाग गया और कोई भी उसे जवाबदेह नहीं बना रहा है. अगर यह पैसा भारत की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पर खर्च किया गया होता तो भारत अन्य दक्षिण एशियाई देशों की तुलना में बेहतर स्थिति में होता. जनता से जिस धन का उपयोग करने के लिए टैक्स लिया जाता है, वह नहीं हो रहा है. इसका उपयोग केवल कुछ खास धन्नासेठों और पूंजीवादी लोगों के लिए किया जा रहा है.
प्रॉक्टर की जांच में शामिल होने के लिए मुझे अब तक तीस से अधिक नोटिस मिल चुके हैं- "आपने इसका-उसका उल्लंघन किया है", "आपने यहां विरोध किया है, आपने वहां विरोध किया." उन्होंने इसे विरोध के बजाय, कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में चित्रित किया है.
इस बार, मुझे नहीं लगता कि भारतीय जनता पार्टी अपने धर्मयुद्ध में हमें देशद्रोही करार देने में सफल रही है. उन्होंने बार-बार जेएनयू परिसर को बंद करने की कोशिश की. नतीजतन, हर बार जब लोग जेएनयू के विरोध प्रदर्शनों के बारे में सुनते हैं, तो उन्हें लगता है कि हम कुछ गलत कर रहे हैं. लेकिन कहीं न कहीं इस बार, हम अपने आम समर्थकों से आगे एक समूह तक पहुंच गए हैं.
यहां तक कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी आंदोलन में शामिल हो रहा है. लेकिन विरोध करने के उनके अपने तरीके हैं. उन्होंने एमएचआरडी मंत्री का इस्तीफा भी मांगा क्योंकि वह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में असफल रहे हैं. लेकिन हर कोई इस बात पर एकमत है कि विश्वविद्यालय के मसौदे को तुरंत वापस लिया जाना चाहिए और कोई शुल्क वृद्धि नहीं होनी चाहिए.
बहुत सारे लोगों ने हमारे साथ अपनी एकजुटता दिखाई है. आखिरकार यह शिक्षा का मामला है. जेएनयू में ऐसे छात्र भी हैं जिनके परिवार के सदस्य बीजेपी में हैं. उनमें से कुछ ने कहा है कि उनका परिवार भी इस मुद्दे पर सहानुभूति रखता है. शिक्षा अमीर-गरीब सभी के लिए समान है और यह हमें मजबूत बनाती है.